पूँजी के और उजरती श्रम के हित हमेशा एक दूसरे के बिल्कुल विरोधी होते हैं
मार्क्स की प्रसिद्ध रचना ‘उजरती श्रम और पूँजी’ के अंश
उत्पादक पूँजी की बढ़ती का मज़दूरी पर क्या प्रभाव पड़ता है?
यदि बुर्जुआ समाज की उत्पादक पूँजी की, आम तौर पर, बढ़ती हो रही है, तो श्रम का अधिक बहुविध संचय होगा। पूँजियों की संख्या और आकार बढ़ जाते हैं। पूँजियों की संख्या में बढ़ती होने से पूँजीपतियों के बीच होड़ बढ़ जाती है। पूँजियों के आकार में बढ़ती होते रहने से वे साधन तैयार हो जाते हैं, जिनसे मज़दूरों की पहले से अधिक शक्तिशाली सेनाओं को और भी विराट अस्त्रशस्त्रों से सुसज्जित करके औद्योगिक युद्ध-क्षेत्र में उतारा जा सकता है।
यदि एक पूँजीपति दूसरे पूँजीपति को मैदान से भगाकर उसकी पूँजी पर कब्ज़ा कर लेना चाहता है, तो इसका केवल एक यही उपाय है कि वह उससे सस्ता माल बेचे। यदि बिना अपने को बर्बाद किये वह माल सस्ता बेचना चाहता है, तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह अपना माल भी अधिक सस्ते में तैयार करे, यानी श्रम की उत्पादक शक्ति अधिक से अधिक बढ़ाये। लेकिन श्रम की उत्पादक शक्ति बढ़ाने का प्रधान उपाय यह है कि श्रम का पहले से अधिक विभाजन किया जाये, मशीनों का और सार्वत्रिक प्रयोग किया जाये और उनमें लगातार सुधार किये जायें। मज़दूरों की वह सेना जितनी ही बड़ी होगी, जिसमें श्रम का विभाजन किया जायेगा, जितने ही विशाल पैमाने पर मशीनों का प्रयोग किया जायेगा, उतना ही और उसी अनुपात में उत्पादन-व्यय कम हो जायेगा और श्रम उतना ही अधिक फ़लप्रद होगा। इसीलिए पूँजीपतियों के बीच श्रम का विभाजन करने तथा मशीनों का इस्तेमाल करने और दोनों तरीकों का बड़े से बड़े पैमाने पर उपयोग करने की आम होड़ आरम्भ हो जाती है।
अब यदि कोई पूँजीपति श्रम का अधिक विभाजन करके, नयी-नयी मशीनें इस्तेमाल करके तथा उनमें सुधार करके और प्राकृतिक शक्तियों का अधिक लाभदायक एवं व्यापक ढंग से उपयोग करके उतने ही श्रम से या उतने ही संचित श्रम से अपने प्रतिद्वन्द्वियों के मुकाबले में ज़्यादा माल तैयार करने में कामयाब होता है, उदाहरणार्थ, यदि उतने ही श्रम-काल में, जितने में उसके प्रतिद्वन्द्वी आधा गज़ कपड़ा तैयार करते हैं, वह एक गज़ तैयार करने लगता है, तो वह किस प्रकार व्यवहार करेगा?
वह अब भी पुराने बाज़ार-भाव पर आधा गज़ कपड़ा बेच सकता है; लेकिन इस तरह वह अपने प्रतिद्वन्द्वियों को मैदान से नहीं भगा पायेगा और न अपनी बिक्री ही बढ़ा सकेगा। किन्तु जिस हद तक उसका उत्पादन बढ़ा है, उसी हद तक उसकी अपना माल बेचने की आवश्यकता भी बढ़ गयी है। उसने उत्पादन के जिन अधिक शक्तिशाली और महँगे साधनों को गतिशील किया है, उनकी बदौलत वह निश्चय ही अपना माल पहले से अधिक सस्ते दामों में बेचने में समर्थ हो जाता है: लेकिन साथ ही ये साधन उसे पहले से कहीं ज्यादा माल बेचने पर मजबूर करते हैं। वे उसे अपने माल के लिए पहले से कहीं ज़्यादा बड़े बाज़ार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बाध्य करते हैं। फलतः हमारा यह पूँजीपति अपना आधा गज़ कपड़ा अपने प्रतिद्वन्द्वियों से अधिक सस्ते दामों में बेचने लगता है।
परन्तु, जिस दाम पर उसके प्रतिद्वन्द्वी आधा गज़ कपड़ा बेचते हैं, उस दाम पर वह पूरा एक गज़ कपड़ा नहीं बेचेगा, हालाँकि उसके पूरे गज़ के उत्पादन में उससे अधिक लागत नहीं बैठी है, जितनी दूसरों के आधे गज़ के उत्पादन में बैठी है। क्योंकि यदि वह ऐसा करेगा, तो उसे कोई अतिरिक्त मुनाफ़ा नहीं मिलेगा, बस, केवल विनिमय द्वारा उत्पादन-व्यय वापस मिल जायेगा। उसकी आमदनी, सम्भव है, बढ़ जायेगी, लेकिन वह इस कारण बढ़ेगी कि उसने औरों से अधिक पूँजी गतिशील की है, इस कारण नहीं कि उसने अपनी पूँजी से औरों के मुकाबले में ज़्यादा लाभ उठाया है। इसके अलावा, अपने माल का दाम अपने प्रतिद्वन्द्वियों के माल की अपेक्षा कुछ प्रतिशत कम कर देने से ही उसका उद्देश्य पूरा हो जाता है। अपना माल उनसे सस्ता बेचकर वह उनको मैदान से भगा देता है, या, कम से कम, उनसे उनकी बिक्री का एक भाग अवश्य छीन लेता है। और अन्त में हमें याद रखना होगा कि किसी भी माल का बाज़ार-भाव उसके उत्पादन-व्यय से हमेशा कुछ कम या ज़्यादा रहता है, जो इस पर निर्भर करता है कि क्या उस माल की बिक्री उद्योग की अनुकूल अवस्था में हो रही है या प्रतिकूल अवस्था में। उत्पादन के नये तथा अधिक लाभकर साधनों का प्रयोग करनेवाला पूँजीपति अपने माल को असली उत्पादन-व्यय से कितने प्रतिशत अधिक में बेचेगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि एक गज़ कपड़े का बाज़ार-भाव, अभी तक आम तौर पर जो उसका उत्पादन-व्यय हुआ करता था, उससे कम है या ज्यादा।
परन्तु हमारे पूँजीपति की यह विशेष सुविधापूर्ण स्थिति बहुत दिनों तक कायम नहीं रहती। दूसरे प्रतिद्वन्द्वी पूँजीपति भी उन्हीं मशीनों का, उसी तरह के श्रम-विभाजन का, उसी या उससे भी बड़े पैमाने पर प्रयोग करने लगते हैं और ये तरीके इतने सामान्य हो जाते हैं कि कपड़े का दाम उसके पुराने ही नहीं, बल्कि उसके नये उत्पादन-व्यय से भी नीचे गिर जाता है।
इसलिए पूँजीपतियों की एक दूसरे की निस्बत फि़र वही हालत हो जाती है, जो उत्पादन के नये साधनों के प्रयोग में आने के पहले थी। इन साधनों से यदि वे उतने ही दामों में पहले से दूना उत्पादन कर सकते थे, तो अब उन्हें इस दूनी पैदावार को पहले के दामों से कम कर बेचना होता है। इस नये उत्पादन-व्यय के आधार पर फिर वही पुराना खेल शुरू हो जाता है। श्रम का और अधिक विभाजन होता है और नयी मशीनें आती हैं, पहले से भी बड़े पैमाने पर मशीनों का तथा श्रम-विभाजन का इस्तेमाल किया जाता है। और होड़ इस परिणाम के विरुद्ध फिर उसी प्रकार प्रतिक्रिया उत्पन्न कर देती है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि उत्पादन की प्रणाली और उत्पादन के साधन कैसे लगातार बदलते रहते हैं, क्रान्तिकारी ढंग से रूपान्तरित होते रहते हैं, और कैसे लाज़िमी तौर पर श्रम-विभाजन के बाद और भी ज्यादा श्रम-विभाजन होता है, मशीनों के प्रयोग के बाद और भी ज्यादा मशीनों का प्रयोग होता है और बड़े पैमाने पर उत्पादन होने के बाद और भी बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है।
यही वह नियम है, जो बार-बार बुर्जुआ उत्पादन को अपनी पुरानी लीक से हटा देता है और पूँजी को इसके लिए बाध्य करता है कि चूँकि उसने श्रम की उत्पादक शक्तियों को तीव्र किया है, इसलिए वह उनको और भी तीव्र करे। यही वह नियम है, जो पूँजी को तनिक भी विश्राम नहीं लेने देता और उसके कानों में सदा गुनगुनाया करता है: “और बढ़ो! और बढ़ो!”
यह वही नियम है, जो व्यापार के उतार-चढ़ाव की अवस्थाओं में हर माल के दाम को अनिवार्यतः उसके उत्पादन-व्यय के स्तर पर ला पटकता है।
कोई पूँजीपति उत्पादन के कितने ही शक्तिशाली साधनों को मैदान में क्यों न लाये, होड़ इन साधनों को सार्वत्रिक बना देगी, और जिस क्षण ये साधन सार्वत्रिक हो जायेंगे उसी क्षण से उस पूँजीपति की पूँजी के अधिक फ़लदायक होने का केवल यही परिणाम होगा कि अब उसे उतने ही दामों में पहले से दस गुना, बीस गुना या सौ गुना अधिक माल प्रस्तुत करना होगा। लेकिन अधिक बिक्री द्वारा बिक्री के घटे हुए दामों को बराबर करने के लिए अब चूँकि पहले के मुकाबले में उसे शायद एक हज़ार गुना अधिक माल बेचने की आवश्यकता होगी, अब चूँकि अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए ही नहीं, बल्कि उत्पादन-व्यय को पूरा करने के लिए भी (जैसा कि आपने देखा है, उत्पादन के औज़ार अधिकाधिक महँगे होते जाते हैं) उसे बिक्री और भी बढ़ानी होगी, और चूँकि बिक्री का यह विस्तार न केवल उसके लिए, बल्कि उसके प्रतिद्वन्द्वियों के लिए भी जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है, इसलिए उत्पादन के आविष्कृत साधन जितने ही फ़लदायी सिद्ध होंगे, पूँजीपतियों का पुराना संघर्ष उतने ही भीषण रूप में फि़र छिड़ जायेगा। इस प्रकार, श्रम का विभाजन और मशीनों का उपयोग फिर पहले से अधिक बड़े पैमाने पर होने लगेगा।
उत्पादन के प्रयुक्त साधनों की शक्ति चाहे जितनी हो, होड़ मालों के दामों को फि़र उत्पादन-व्यय के स्तर पर खींचकर और इस प्रकार, जिस हद तक उत्पादन सस्ता बनाया जा सकता है, अर्थात जिस हद तक उतने ही श्रम से पहले से अधिक उत्पादन किया जा सकता है, उस हद तक उत्पादन को सस्ता करने–यानी उतने ही कुल दाम में अधिकाधिक मात्र में माल प्रस्तुत करने–को एक अनिवार्य नियम बनाकर पूँजी को इस शक्ति के सुनहरे फ़ल से वंचित कर देती है। इस प्रकार, पूँजीपति को अपनी सारी कोशिशों का केवल यह फ़ल मिलता है कि उसे उतने ही श्रम-काल में पहले से अधिक माल प्रस्तुत करना होता है, यानी संक्षेप में कहा जाये, तो अपनी पूँजी का मूल्य बढ़ाने का काम अब उसे और कठिन परिस्थितियों में करना होता है। इसलिए जहाँ, एक तरफ, होड़ अपना उत्पादन-व्यय का नियम लेकर सदा पूँजीपति के पीछे पड़ी रहती है और अपने प्रतिद्वन्द्वियों पर प्रहार के लिए जो अस्त्र भी वह गढ़ता है वह पलटकर उसी पर चोट करता है, वहीं, दूसरी ओर, बराबर और नयी मशीनें लगाकर–गोकि वे ज़्यादा महँगी होती हैं, पर उत्पादन सस्ता कर देती हैं–तथा श्रम का पुराने की जगह नया विभाजन करके, बिना इस बात का इन्तज़ार किये कि होड़ उसकी नयी मशीनों को गतप्रयोग बना दे, पूँजीपति होड़ के ऊपर काबू पाने की सतत चेष्टा करता है।
अब यदि हम एकसाथ विश्व-बाज़ार में होनेवाली इस ज़बर्दस्त हलचल की कल्पना करें, तो हम समझ सकेंगे कि पूँजी के विकास, संचय और केन्द्रीकरण के परिणामस्वरूप किस प्रकार श्रम का निरन्तर विभाजन होता रहता है और किस प्रकार नयी मशीनों का प्रयोग और पुरानी मशीनों का नवीकरण नित्य बढ़ते हुए पैमाने पर होता रहता है।
लेकिन इन परिस्थितियों का, जिनका उत्पादक पूँजी की बढ़ती के साथ अटूट सम्बन्ध है, मज़दूरी के निर्धारण पर क्या प्रभाव पड़ता है?
श्रम-विभाजन की वृद्धि की बदौलत एक मज़दूर पाँच, दस या बीस मज़दूरों का काम करने लगता है। इसलिए उसकी वजह से मज़दूरों के बीच चलनेवाली होड़ पहले से पाँच गुनी, दस गुनी या बीस गुनी बढ़ जाती है। मज़दूर इस तरह ही आपस में होड़ नहीं करते कि प्रत्येक अपने को दूसरे से अधिक सस्ते दामों में बेचने की कोशिश करने लगे, बल्कि वे इस तरह भी आपस में होड़ करते हैं कि सिफ़र्” एक मज़दूर पाँच, दस या बीस मज़दूरों का काम करने लगता है। पूँजी द्वारा लागू किया हुआ और निरन्तर बढ़ता हुआ श्रम-विभाजन मज़दूरों को इस प्रकार की होड़ के लिए मजबूर करता है।
इसके अलावा, जैसे-जैसे श्रम-विभाजन बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे श्रम सरल होता जाता है। मज़दूर की विशेष निपुणता बेकार हो जाती है। वह एक ऐसी सरल, नीरस और यंत्रवत उत्पादन शक्ति बन जाता है, जिसे तीव्र शारीरिक अथवा बौद्धिक क्षमताओं का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। उसका श्रम ऐसा श्रम बन जाता है, जिसे कोई भी कर सकता है। इसलिए उसे चारों ओर से प्रतिद्वन्द्वी आकर घेर लेते हैं। और इसके अलावा, हम पाठकों को यह भी याद दिला दें कि श्रम जितना सहज-साध्य है, उसे सीखना जितना सरल है, उसमें निपुणता प्राप्त करने के लिए जितना कम उत्पादन-व्यय आवश्यक है, उतनी ही मज़दूरी में भी कमी होती है, क्योंकि अन्य माल के दाम की तरह मज़दूरी भी उसके उत्पादन-व्यय द्वारा ही निर्धारित होती है।
इसलिए जैसे-जैसे श्रम अधिकाधिक असन्तोषप्रद और अरुचिकर बनता जाता है, वैसे-वैसे होड़ बढ़ती जाती है और मज़दूरी कम होती जाती है। मज़दूर पहले से ज़्यादा काम करके अपनी मज़दूरी बरकरार रखने की कोशिश करता है; इसके लिए चाहे वह ज़्यादा घण्टे काम करे या एक घण्टे में अधिक माल तैयार करे। अभाव द्वारा प्रेरित होकर वह श्रम-विभाजन के बुरे परिणामों को और भी बढ़ा देता है। नतीजा यह होता है कि वह जितना ज़्यादा काम करता है, उतनी ही कम मज़दूरी पाता है। और यह सिर्फ इसलिए कि वह जितना ज़्यादा काम करता है, उतना ही अधिक अपने साथी मज़दूरों के साथ होड़ करता है और इसलिए वह उन सब को प्रतिद्वन्द्वी बना लेता है, जो उतनी ही बुरी शर्तों पर काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं, जितनी बुरी शर्तों पर वह खुद काम करने के लिए तैयार हो गया है। और इसलिए, अन्ततोगत्वा, मज़दूर खुद अपना, मज़दूर वर्ग के एक सदस्य के रूप में खुद अपना प्रतिद्वन्द्वी बन जाता है।
मशीनें कुशल की जगह अकुशल मज़दूरों को, मर्दों की जगह औरतों को और वयस्कों की जगह बच्चों को लाकर और भी बड़े पैमाने पर इसी तरह के परिणाम उत्पन्न करती हैं। जहाँ कहीं मशीनों का प्रयोग शुरू होता है, वहाँ वे हाथ से काम करनेवाले मज़दूरों के पूरे के पूरे समुदायों को बेकार करके, और जहाँ मशीनों में विकास या सुधार होता है और पुरानी की जगह नयी, अधिक उत्पादक मशीनें लगायी जाती हैं, वहाँ वे मज़दूरों की अपेक्षाकृत छोटी टोलियों को बेकार करके इसी तरह के परिणाम उत्पन्न करती हैं। ऊपर हमने पूँजीपतियों के बीच आपस में चलनेवाले औद्योगिक युद्ध का जल्दी-जल्दी में एक चित्र उपस्थित किया है। इस युद्ध की विशेषता यह है कि इसकी लड़ाइयाँ उतनी मज़दूरों की फौज भर्ती करके नहीं, जितनी उन्हें बख़ार्स्त करके जीती जाती हैं। इन फौजों के सेनापति, अर्थात पूँजीपति, इस बात में एक दूसरे से होड़ करते हैं कि उद्योग के सबसे ज़्यादा सैनिकों को कौन बख़ार्स्त कर सकता है।
यह सच है कि अर्थशास्त्री हमें यह बताते हैं कि जो मज़दूर मशीनों की वजह से फालतू हो जाते हैं उन्हें उद्योग-धन्धों की नयी शाखाओं में काम मिल जाता है।
वे सीधे-सीधे यह कहने की हिम्मत नहीं करते कि जो मज़दूर निकाले जाते हैं उन्हीं को श्रम की नयी शाखाओं में काम मिलता है। वास्तविक इस झूठ का प्रबल रूप से खण्डन करती है। असल में, वे केवल यह कहते हैं कि मज़दूर वर्ग के दूसरे संघटक भागों के लिए नौकरी के नये रास्ते खुल जायेंगे–मसलन मज़दूरों की नौजवान पीढ़ी के एक हिस्से के लिए, जो उद्योग की उस शाखा में प्रवेश करने के लिए तैयार खड़ा था, जो अब चौपट हो गयी है। अभागे मज़दूरों के लिए निःसन्देह यह एक बहुत बड़ी दिलासा है। धर्मपरायण पूँजीपतियों को दोहन के लिए रक्त और मांस की कमी कभी न होगी और जो बीत गयी है वे उसे भूल जायेंगे। यह वह दिलासा है, जो पूँजीपति अपने को देता है, न कि मज़दूरों को। यदि मशीनों की वजह से उजरती मज़दूरों का पूरा वर्ग ही मिट जाये, तो पूँजी के लिए यह कितनी भयानक बात होगी–उजरती श्रम न हो तो पूँजी पूँजी न रहेगी!
परन्तु मान लीजिये कि जिन लोगों की रोज़ी मशीनों ने सीधे-सीधे छीन ली है उन्हें, और नयी पीढ़ी के मज़दूरों के उस हिस्से को, जो इन नौकरियों पर पहले से आँख लगाये था, नया धन्धा मिल जाता है, तो क्या कोई यह विश्वास कर सकता है कि इस नये काम के लिए भी मज़दूरों को उतनी ही ऊँची मज़दूरी मिलेगी, जितनी उनको पुराने काम के लिए मिलती थी, जो उनके हाथ से अब जाता रहा है? यदि ऐसा होने लगे, तो अर्थशास्त्र के सारे नियम झूठे पड़ जायें। हम देख चुके हैं कि किस प्रकार आधुनिक उद्योग सदा अधिक जटिल तथा उच्चतर कार्य को निम्नतर तथा अधिक सहज-साध्य कार्य से बदल देता है।
तब फि़र मशीनों के कारण उद्योग की एक शाखा से निकाला गया मज़दूरों का एक बड़ा दल उद्योग की दूसरी शाखा में कैसे खप सकता है, जब तक कि यह दूसरी शाखा निम्नतर न हो और उसमें मज़दूरी कम न हो?
कहा जाता है कि खुद मशीन बनाने के उद्योग में जो मज़दूर काम करते हैं, वे इस नियम के अपवाद हैं। कहा जाता है कि उद्योग में जब मशीनों की माँग और उनका इस्तेमाल बढ़ता है, तब लाज़िमी तौर पर मशीनों की संख्या में और फ़लतः मशीनों के उत्पादन में बढ़ती होती है और फ़लतः मशीन बनाने के उद्योग में अधिक मज़दूरों को नौकर रखा जाता है। और यह भी दावा किया जाता है कि उद्योग की इस शाखा में काम करनेवाले मज़दूर निपुण और यहाँ तक कि पढ़े-लिखे होते हैं।
वैसे तो पहले भी यह दावा केवल आधा सच था, लेकिन 1840 के बाद से तो इसमें सच्चाई का लेश भी नहीं रह गया है, क्योंकि तब से मशीन बनाने के उद्योग में ठीक उसी प्रकार अधिकाधिक नयी और विभिन्न प्रकार का काम करनेवाली मशीनों का प्रयोग होने लगा है, जिस प्रकार सूत तैयार करने के उद्योग में होता है। और मशीन बनाने के कारख़ानों में काम करनेवाले मज़दूर अत्यन्त पेचीदा मशीनों के सामने स्वयं गैर-पेचीदा मशीनों की ही भूमिका अदा कर सकते हैं।
लेकिन मशीन के कारण जो आदमी नौकरी से निकाल दिया गया है, उसकी जगह पर कारख़ाना सम्भवतः तीन बच्चों और एक औरत को नौकर रख लेता है! क्या उस मज़दूर की मज़दूरी का इतना होना ज़रूरी नहीं था कि उससे तीन बच्चों और एक औरत का भरण-पोषण हो सके? क्या न्यूनतम मज़दूरी का इतना होना ज़रूरी नहीं था कि उससे वंश की रक्षा और वृद्धि हो सके? तब फिर पूँजीपतियों के प्रिय फिकरों से क्या सिद्ध होता है? इससे अधिक और कुछ नहीं कि एक मज़दूर परिवार के जीवन-निर्वाह के लिए अब पहले से चौगुने मज़दूरों को अपना जीवन खपाना होगा।
पूरी बात को एक बार फि़र संक्षेप में कह दें: उत्पादक पूँजी जितनी ज़्यादा बढ़ती है, उतना ही श्रम-विभाजन और मशीनों का प्रयोग बढ़ता जाता है। श्रम-विभाजन और मशीनों का प्रयोग जितना अधिक बढ़ता है, उतनी ही मज़दूरों के बीच चलनेवाली होड़ बढ़ती और उनकी मज़दूरी घटती है।
इसके अलावा, मज़दूर वर्ग में समाज के अधिक ऊँचे स्तरों से भी बहुत-से रंगरूट भर्ती हो जाते हैं। छोटे-छोटे उद्योगपतियों और छोटे किरायाजीवियों की एक बड़ी संख्या को मज़दूरों की पाँतों में धकेल दिया जाता है और उनके सामने इसके सिवा और कोई चारा नहीं रहता है कि मज़दूरों के साथ वे भी आग्रह के साथ अपना हाथ फैलायें। इस प्रकार काम की याचना करनेवाले इन बढ़े हुए हाथों का जमघट दिन-ब-दिन घना होता जाता है, जबकि ये हाथ निरन्तर दुबले होते जाते हैं।
यह बात स्वतः सिद्ध है कि जिस होड़ में कामयाब होने की पहली शर्त यह है कि अधिकाधिक बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाये, अर्थात उद्योगपति छोटा न हो, बल्कि बड़ा हो, उस होड़ में छोटा उद्योगपति मैदान में नहीं ठहर सकता।
पूँजियों की संख्या और आकार में जितनी बढ़ती होती है उतनी ही सूद की दर कम होती जाती है; अतः अब छोटा किरायाजीवी अपने सूद पर ज़िन्दा नहीं रह सकता और उसे उद्योग के क्षेत्र में कूदना पड़ता है और इस प्रकार वह छोटे उद्योगपतियों और अन्ततोगत्वा सर्वहारा वर्ग के उम्मीदवारों की संख्या बढ़ाता है–निश्चय ही इन सब बातों को और समझाने की आवश्यकता नहीं है।
अन्तिम बात यह है कि चूँकि पूँजीपतियों को, ऊपर बतायी हुई क्रिया के कारण, पहले से विद्यमान उत्पादन के विराट साधनों का अधिकाधिक बड़े पैमाने पर प्रयोग करने के लिए और इसके लिए कर्ज़ के सभी साधनों को गतिशील करने के लिए बाध्य होना पड़ता है, इसलिए उन औद्योगिक भूचालों की संख्या भी तदनुरूप बढ़ती जाती है, जिनमें वाणिज्य-जगत के लिए अपने को कायम रखने के लिए इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं रह जाता कि सम्पदा के एक भाग की, उत्पादन के एक भाग की और यहाँ तक कि उत्पादक शक्तियों के एक भाग की भी वह पाताल लोक के देवताओं को सन्तुष्ट करने के वास्ते आहुति दे दे। साराँश यह कि संकट बढ़ते जाते हैं। वे पहले से अधिक जल्दी-जल्दी आने लगते हैं और उनकी भयंकरता और भी बढ़ जाती है, और किसी कारण नहीं तो इस कारण कि जैसे-जैसे उत्पादन का परिमाण और फलतः नये और अधिकाधिक बड़े बाज़ारों की आवश्यकता बढ़ती है, वैसे-वैसे विश्व-बाज़ार अधिकाधिक सिकुड़ता जाता है और शोषण करने के लिए उपलब्ध बाज़ारों की संख्या अधिकाधिक घटती जाती है, क्योंकि पहले जितने भी संकट आ चुके हैं उनमें से प्रत्येक एक न एक ऐसे बाज़ार को विश्व-व्यापार के अधीन बना चुका है, जो उस वक्त तक अछूता था या जिसका शोषण केवल सतही ढंग से हुआ था। परन्तु पूँजी श्रम पर केवल जीती ही नहीं है। वह मरती है तो बर्बर और अभिजातीय महाप्रभु की तरह अपने गुलामों की लाशों को, संकटों में मर-मिटनेवाले मज़दूरों की लाशों के अम्बार को अपने साथ कब्र में लेती जाती है। इस प्रकार, हम देखते हैं: यदि पूँजी तेज़ी से बढ़ती है, तो मज़दूरों के बीच चलनेवाली होड़ उससे कहीं अधिक तेज़ी से बढ़ती है, अर्थात मज़दूर वर्ग की रोज़ी के साधन, उसके जीवन-निर्वाह के साधन अपेक्षाकृत उतने ही कम हो जाते हैं; मगर फिर भी यह बात सच है कि उजरती श्रम के लिए सबसे अनुकूल अवस्था यही है कि पूँजी की तेज़ी से बढ़ती हो।
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन