कार्ल मार्क्स की 199वीं जन्मतिथि (5 मई) और ‘पूँजी’ के प्रकाशन की 150वीं वर्षगाँठ के अवसर पर
‘पूँजी’ के साहित्यिक मूल्य के बारे में
कविता कृष्णपल्लवी
कार्ल मार्क्स लिखित ‘पूँजी’ एक महाग्रंथ है, जो राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ ही आर्थिक विचारों के (और केवल आर्थिक विचारों का ही नहीं) इतिहास की भी एक पुस्तक है, एक महान दार्शनिक गौरव-ग्रंथ है और साथ ही, एक महाकाव्यात्मक साहित्यिक कृति भी है। यह मार्क्स के समग्र आत्मिक विकास का और उससमय तक की सम्पूर्ण दार्शनिक-सांस्कृतिक विरासत का जैविक संश्लेषण है। पूँजी की कार्य-प्रणाली के रहस्य के उदघाटन के साथ ही पहली बार इस महाकाय रचना में, अपने अनिवार्य विघटन की दिशा में पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली की प्रगति का तर्क भी प्रकट हुआ।
‘पूँजी’ ने सम्पूर्ण बुर्जुआ समाज के जीवन के सभी सम्बन्धों और पहलुओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया, और साथ ही, पहली बार अपनी मुक्ति के लिए मज़दूरवर्ग के राजनीतिक संघर्ष और विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन की रणनीति और रणकौशल के लिए एक दृढ़ और व्यापक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया ।
‘पूँजी’ में मार्क्स अपने को ललित साहित्य का श्रेष्ठ सर्जक सिद्ध करते हैं। रचना, संतुलन और प्रतिपादन के यथातथ्य तर्क की दृष्टि से यह एक “कलात्मक समष्टि” है। शैली और साहित्यिक मूल्य की दृष्टि से भी यह एक श्रेष्ठ कृति है जो गहन सौंदर्यबोधी आनंद की अनुभूति देती है। व्यंग्य और परिहास की जो विरल प्रतिभा मार्क्स के ‘पोलेमिकल’ और अखबारी लेखों में अपनी छटा बिखेरती थी, वह ‘पूँजी’ में और उभरकर सामने आई। मूल्य के रूपों, माल-अंधपूजा और पूंजीवादी संचय के सार्विक नियम को स्पृहणीय स्पष्टता और जीवन्तता के साथ विश्लेषित और प्रतिपादित करते हुए मार्क्स ने अपने अनूठे व्यंग्य और परिहास से विषय को बेहद मज़ेदार बना दिया।
दर्शन के क्षेत्र में मार्क्स ने हेगेल, काण्ट, फ़िख्ते, फायरबाख आदि का जितना गहन अध्ययन किया था, और बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र के सभी पुरोधाओं की कृतियों को जिसतरह चाट डाला था; उतनी ही रुचि और अध्यवसाय के साथ उन्होने प्राचीन ग्रीक साहित्यिक गौरव-ग्रन्थों से लेकर अपने समकालीन महान लेखकों तक का अध्ययन किया था। लेखन के क्षेत्र में शेक्सपियर, सर्वांतेस, दांते, लेसिंग, गोएठे और हाइनरिख हाइने मार्क्स के गुरु थे, लेकिन मात्र एक आज्ञाकारी शिष्य होने के बजाय कई मायनों में वे अपने इन महान गुरुओं से भी आगे गए। बोधों से सिद्धान्त बनाने, साहित्यिक बिंबों को गहन विचार से अनुप्राणित कर देने और स्वयं वाक्य की संरचना में ही द्वंद्ववाद का तनाव प्रकट कर देने की कलाओं में वे दुनिया के महानतम लेखकों से भी अधिक पारंगत प्रतीत होते हैं। वह पहले “एक ओर”, फिर “दूसरी ओर” की बात करते हुए अंत में संश्लेषण की विधि नहीं अपनाते, बल्कि, एक ही वाक्य में, और एक ही बिम्ब में विभिन्न पहलुओं का टकराव और उनका संश्लेषण– दोनों अभिव्यक्त कर देते हैं। वह कर्ता और विधेय को प्रतिध्रुवों के रूप में एक साथ लाते हैं, और फिर उन्हे एक-दूसरे के साथ टकराने और तुरंत अपने विलोम में बदल जाने के लिए विवश कर देते हैं।
अपने चढ़ाव-उतार तथा विकास और निषेध की स्वाभाविक प्रक्रिया में सामाजिक परिघटनाओं के सारतत्व को मार्क्स ने वाक्यों में यूं बाँधा कि स्वयं “जीवन के द्वंद्ववाद” ने अवधारणाओं के द्वंद्ववाद में सम्पूर्ण एवं सारगर्भित अभिव्यक्ति पा ली। ‘पूँजी’ में कई जगह वाक्य विचारों की तेजी से खुलती हुई कमानी के समान प्रतीत होते हैं और ये विशाल वाक्य बिम्ब और विचार के टकराव से जनित इतने घनीभूत सारतत्व से भरे हुए होते हैं कि सूत्रात्मक सूक्ति बन जाते हैं । ऐसी ही बिम्बात्मकता, सूत्रात्मक सारगर्भिता, गहराई और व्यंग्य के साथ मार्क्स जब मानव-चरित्रों का वर्णन करते हैं तो तूलिका के इने-गिने स्पर्शों से गहन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक छवि चित्रित करने की उनकी योग्यता पर अनेक उच्च कोटि के लेखकों को ईर्ष्या हो सकती है।
‘पूँजी’ और मार्क्स की अन्य कृतियों के साहित्यिक मूल्य पर अलग से विशद चर्चा हो सकती है, लेकिन ऐसा अभी तक बहुत कम ही हुआ है। इस दृष्टि से भी जब कुछ अध्ययन होंगे तो इस महान युगपुरुष की सर्जनात्मक प्रयोगशाला के मर्म को समझने की कुछ और नई अंतर्दृष्टियाँ प्राप्त होंगी।
मज़दूर बिगुल, मई 2017
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