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मार्क्स बहुत अच्छे ढंग से सिखाते थे। वे संक्षिप्ततम सम्भव रूप में किसी प्रस्थापना का निरूपण करते और फिर अधिकतम सावधानी के साथ मज़दूरों की समझ में न आनेवाली अभिव्यक्तियों से बचते हुए उसकी विस्तृत व्याख्या करते। उसके बाद अपने श्रोताओं को प्रश्न पूछने के लिए आमन्त्रित करते थे। अगर प्रश्न न पूछे जाते, तो वे जाँच करना शुरू कर देते और ऐसी शैक्षणिक निपुणता के साथ जाँच करते कि कोई ख़ामी, कोई ग़लतफ़हमी उनकी निगाह से बच नहीं रहती थी।
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं!
मज़दूर जितना अधिक उत्पादन करता है, उसके पास उपभोग करने के लिए उतना ही कम रहता है, वह जितना अधिक मूल्य पैदा करता है, वह ख़ुद उतना ही अधिक मूल्यहीन और महत्वहीन होता जाता है, उसका उत्पादन जितना ही अधिक सुन्दर-सुगठित होता है, मज़दूर उतना ही कुरूप-बेडौल बनता जाता है, उसकी बनायी वस्तुएँ जितनी अधिक सभ्य होती जाती हैं, मज़दूर उतना ही अधिक बर्बर होता जाता है। उसका श्रम जितना अधिक शक्तिशाली होता जाता है, मज़दूर उतना ही अधिक शक्तिहीन होता जाता है, उसका श्रम जितना ही कुशल होता जाता है, मज़दूर उतना ही कम कुशल होता जाता है और वह उतना ही अधिक प्रकृति का दास बन जाता है।
जैसेकि जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्होंने इस सीधी-सादी सच्चाई का पता लगाया जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी — कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म, आदि में लगने के पूर्व मनुष्य जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलत: किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की यात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, क़ानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म सम्बन्धी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सबकी व्याख्या की जा सकती है, न कि इससे उल्टा, जैसाकि अब तक होता रहा है।
आधुनिक मज़दूर की दशा बिल्कुल उल्टी है। उद्योग की उन्नति के साथ, ऊपर उठने के बजाय, वह स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर के नीचे गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और उसकी मुफ़लिसी आबादी और दौलत से भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती है। ऐसी स्थिति में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज का शासक बने रहने के और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को, अनिवार्य नियम के रूप में, लादने के अयोग्य है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने के अयोग्य है क्योंकि वह अपने ग़ुलाम को ग़ुलामी की हालत में ज़िन्दा रहने की गारण्टी देने में असमर्थ है, क्योंकि वह उसके जीवन स्तर में ऐसी गिरावट नहीं रोक सकता जिसके फलस्वरूप वह उसकी कमाई खाने के बजाय उसका पेट भरने को मजबूर हो जाता है। समाज अब बुर्जुआ वर्ग के मातहत नहीं रह सकता – दूसरे शब्दों में, बुर्जुआ वर्ग का अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता। … बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी क़ब्र खोदने वालों को पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं।
आजकल उद्योग की उन सभी शाखाओं में जो फ़ैक्टरी-क़ानूनों के मातहत हैं, काम के दिन पर कुछ सीमाएँ लगी हुई हैं। पर इन सीमाओं के बावजूद यह आवश्यक हो सकता है कि, और कुछ नहीं तो मज़दूरों के श्रम के मूल्य के पुराने स्तर को क़ायम रखने के लिए, उनकी मज़दूरी बढ़ाई जाये। श्रम की तीव्रता बढ़ा कर एक घण्टे में आदमी से उतनी ही ताक़त ख़र्च कराई जा सकती जितनी वह पहले दो घण्टे में ख़र्च करता था। इन उद्योगों में, जिन पर फ़ैक्टरी-क़ानून लागू हो गये हैं, यह चीज़़ किसी हद तक मशीनों को तेज़ करके, और उन मशीनों की संख्या बढ़ा कर जिन्हें अब अकेले एक आदमी को देखना पड़ता है, की गयी है। यदि श्रम की तीव्रता में होने वाली वृद्धि का, या एक घण्टे में लिए जाने वाले श्रम के परिमाण में बढ़ती का, काम के दिन की लम्बाई में होने वाली कमी से कुछ उचित अनुपात रहता है, तो मज़दूर की ही जीत होगी। पर यदि यह सीमा भी पार कर ली जाती है तो एक ढंग से मज़दूर का जो फ़ायदा हुआ है, वह दूसरे ढंग से उससे छीन लिया जाता है, और तब हो सकता है कि दस घण्टे का काम उसके लिए उतना ही प्राणलेवा बन जाये जितना पहले बारह घण्टे का था। श्रम की बढ़ती हुई तीव्रता के अनुसार मज़दूरी बढ़वाने के लिए लड़कर मज़दूर पूँजी की इस प्रवृत्ति को रोकने की जो कोशिश करता है, उसके द्वारा वह केवल अपने श्रम के मूल्य को कम होने से रोकता है और अपनी नस्ल को ख़राब होने से बचाता है।
बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व की लाज़िमी शर्त पूँजी का निर्माण और वृद्धि है; और पूँजी की शर्त है उजरती श्रम। उजरती श्रम पूर्णतया मज़दूरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा पर निर्भर है। उद्योग की उन्नति, बुर्जुआ वर्ग जिसका अनभिप्रेत संवर्धक है, प्रतिस्पर्द्धा से जनित मज़दूरों के अलगाव की संसर्ग से जनित उनकी क्रान्तिकारी एकजुटता से प्रतिस्थापना कर देती है। इस तरह, आधुनिक उद्योग का विकास बुर्जुआ वर्ग के पैरों के तले उस बुनियाद को ही खिसका देता है, जिस पर वह उत्पादों को उत्पादित और हस्तगत करता है। अत:, बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी कब्र खोदने वालों को ही पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा की विजय, दोनों समान रूप से अवश्यम्भावी हैं।
मार्क्स ने जिस दूसरी महत्त्वपूर्ण बात का पता लगाया है, वह पूँजी और श्रम के सम्बन्ध का निश्चित स्पष्टीकरण है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने यह दिखाया कि वर्तमान समाज में और उत्पादन की मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत किस तरह पूँजीपति मज़दूर का शोषण करता है। जब से राजनीतिक अर्थशास्त्र ने यह प्रस्थापना प्रस्तुत की कि समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम ही है, तभी से यह प्रश्न भी अनिवार्य रूप से सामने आया कि इस बात से हम इस तथ्य का मेल कैसे बैठायें कि उजरती मज़दूर अपने श्रम से जिस मूल्य को उत्पन्न करता है, वह पूरा का पूरा उसे नहीं मिलता, वरन उसका एक अंश उसे पूँजीपति को दे देना पड़ता है? पूँजीवादी और समाजवादी, दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों ने इस प्रश्न का ऐसा उत्तर देने का प्रयत्न किया, जो वैज्ञानिक दृष्टि से संगत हो, परन्तु वे विफल रहे। अन्त में मार्क्स ने ही उसका सही उत्तर दिया। वह उत्तर इस प्रकार है : उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली में समाज के दो वर्ग हैं – एक ओर पूँजीपतियों का वर्ग है, जिसके हाथ में उत्पादन और जीवन-निर्वाह के साधन हैं, दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग है, जिसके पास इन साधनों से वंचित रहने के कारण बेचने के लिए केवल एक माल – अपनी श्रम-शक्ति – ही है और इसलिए जो जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त करने के लिए अपनी इस श्रम-शक्ति को बेचने के लिए मजबूर है।
रॉबर्ट शा उन राजनीतिक चेतनासम्पन्न मज़दूरों में से एक थे जिन्होंने पहले इण्टरनेशनल के निर्माण के पहले ही ब्रिटिश सुधारवादी ट्रेड यूनियनवादी नेताओं के प्रभाव एवं वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया था। रॉबर्ट शा उन थोड़े से ब्रिटिश मज़दूर नेताओं में शामिल थे जो चार्टिस्ट या समाजवादी विचार रखते थे और महज़ अपने-अपने कारखानों में वेतन और सुधार की माँग के लिए लड़ने के बजाय मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता और व्यापक वर्गीय हितों के लिए साझा संघर्ष की वकालत करते थे। इन नेताओं ने जर्मन और फ़्रांसीसी मज़दूरों और पोलिश आप्रवासियों के साथ सम्पर्क स्थापित किये। यह पहले इण्टरनेशनल की स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम था।
जोहान फिलिप्प बेकर एक जर्मन मज़दूर थे जिन्होंने तीसरे दशक में युवावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के साथ ही मज़दूरों के बीच उभर रही आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भाग लेना शुरू कर दिया था। उनकी राजनीतिक चेतना लगातार आगे विकसित होती रही। 1848-1849 में जब पूरे यूरोप में क्रान्तियों का दावानल भड़क उठा तो बेकर ने उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जर्मनी में क्रान्तिकारी उभार के उतार के बाद वे स्विट्ज़रलैण्ड जाकर बस गये।