मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ – दूसरी किस्त – पूँजी संचय का रहस्य
अनुवाद : आनन्द सिंह
अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने 1934 में मार्क्स की ‘पूँजी’ के आधार पर एक पुस्तक ‘कार्ल मार्क्सेज़ कैपिटल इन लिथोग्राफ़्स’ लिखी थी जिसमें ‘पूँजी’ में दी गयी प्रमुख अवधारणाओं को चित्रों के ज़रिये समझाया गया था। गेलर्ट के ही शब्दों में इस पुस्तक में ‘‘…मूल पाठ के सबसे महत्वपूर्ण अंश ही दिये गये हैं। लेकिन मार्क्सवाद की बुनियादी समझ के लिए आवश्यक सामग्री चित्रांकनों की मदद से डाली गयी है।’’ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए इस शानदार कृति के अंशों को इस अंक से एक श्रृंखला के रूप में दिया जा रहा है। — सम्पादक
- आदिम संचय: ऐसा सम्पत्तिहरण जिसमें खेतिहर आबादी को ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया
इंग्लैण्ड में भूदास प्रथा चौदहवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक विलुप्तप्राय हो गयी थी। उस समय तक, और उससे भी हद तक अधिक पंद्रहवीं सदी तक, आबादी का बहुलांश स्वतंत्र मालिक किसानों से मिलकर बना था – भले ही उनके मालिकाने के अधिकार पर पर्दा डालने वाली सामन्ती पदवी कुछ भी रही हो। सामन्ती भूस्वामियों की बड़ी जागीरों में पहले के कारिन्दों, जो खुद भूदास होते थे, का स्थान स्वतंत्र किसानों ने ले लिया। मज़दूरी पर काम करने वाले खेतिहर मज़दूरों का एक हिस्सा ऐसे किसानों का था जो अपना खाली समय बड़े भूस्वामियों की जागीरों पर काम करने में लगाते थे, तथा कुछ हिस्सा वास्तविक मज़दूरी करने वालों के स्वतंत्र वर्ग का था जो संख्याबल में सापेक्ष व निरपेक्ष दोनों ही रूपों में छोटा था। उजरती मज़दूरी वाले इस वर्ग के सदस्य भी वास्तव में स्वतंत्र किसान थे क्योंकि उनकी मज़दूरी के अतिरिक्त उन्हें झोंपड़ी और चार एकड़ या उससे भी अधिक खेती करने योग्य ज़मीन दी जाती थी। ठेठ किसानों की तरह उन्हें भी सामूहिक भूमि के उपयोग का अधिकार प्राप्त था, जिस पर वे अपने ढोरों को चराते थे, एवं इसी प्रकार वे उससे ईंधन, लकड़ी, पीट आदि भी हासिल करते थे।
जिस क्रान्ति ने उत्पादन की पूँजीवादी प्रणाली की नींव डाली उसकी पूर्वपीठिका पंद्रहवीं शताब्दी की अन्तिम तिहाई में और सोलहवीं शताब्दी के पहले दशकों में तैयार की गयी थी। सामंतों पर आश्रितों के समूहों के टूटने से बड़ी संख्या में स्वामीविहीन सर्वहारा श्रम बाज़ार में झोंक दिये गये थे..। ..हालाँकि राजसी सत्ता (जो स्वयं बुर्जुआ विकास की उपज थी) ने अपनी संप्रभुता को बेरोकटोक बनाने के प्रयास में ऐसे समूहों के टूटने की प्रक्रिया को तेज़ किया, तथापि यह इस परिघटना का एकमात्र कारण हरगिज़ न था। हुआ यूँ कि बड़े सामंती स्वामियों ने राजा और संसद के प्रति अपने धृष्टातापूर्ण विरोध के चलते किसानों को ज़मीन से जबरन बेदख़ल करके (हालाँकि किसानों की सामंती पदवी वही थी जो सामंतों की थी) और सामूहिक भूमि पर क़ब्ज़ा करके कहीं ज़्यादा संख्या में सर्वहारा को पैदा किया।
फ्लेमिश ऊन उद्योग के उभार एवं तदनुरूप ऊन की कीमतों में बढ़ोत्तरी से इंग्लैण्ड में इस प्रक्रिया को तेज़ी मिली। महा सामंती युद्धों ने पुराने सामंती अभिजातों को तहस-नहस कर दिया था, एवं नये अभिजात अपने युग की संतान थे जिनके लिए पैसा ही सबसे बड़ी ताक़त था। उनका आदर्श वाक्य था खेती की ज़मीनों को भेड़ों के बाड़े में बदल डालो…
इस क्रान्ति के नज़ारे को देखकर विधायिकाएँ भयभीत हो उठीं। वे अभी सभ्यता की उस चोटी पर नहीं पहुँची थीं जहाँ से ‘‘राष्ट्रों की सम्पदा’’, यानी पूँजी का निर्माण एवं आम जन का निर्मम शोषण तथा निर्धनता को राजनीतिज्ञों के समान विवेक की पराकाष्ठा समझा जाता था। …छोटे फार्मरों व किसानों के सम्पत्तिहरण के ख़िलाफ़ आम शिकायतें एवं विधेयक (यह विधेयक डेढ़ शताब्दियों तक चला) निष्प्रभावी साबित हुए। बेकन ने अनजाने में ही इस विफलता की पहेली सुलझा ली थी। अपने उन्तीसवें निबन्ध में वे लिखते हैं: ‘‘राजा हेनरी सातवें का उपकरण सशक्त और प्रशंसनीय था: किसानों की ज़मीन व घर को स्तरीय बनाने का प्रयास यानी उनको इतनी ज़मीन देने का प्रयास जो किसी प्रजाजन को आरामदायक जीवन बिताने के लिए आवश्यक था, और जिससे उसे दासत्व की परिस्थिति में न जीना पड़े, तथा जिससे हल मालिक किसान के हाथ में रहे न कि भाड़े के मज़दूरों के हाथ में ।’’ जबकि दूसरी ओर पूँजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत यह थी कि आमजन दासत्व की परिस्थिति में जियें, वे पूँजी के भाड़े के मज़दूर बन जायें; और उनके श्रम के साधन पूँजी में तब्दील हो जायें। यहाँ तक कि अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भी यदि किसी खेतिहर मज़दूर की झोंपड़ी से लगा एक-दो एकड़ की ज़मीन का टुकड़ा नहीं होता था तो शिकायत कर दी जाती थी। आज यदि किसी झोंपड़ी के पास बगीचा लगाने के लिए ज़मीन का कोई छोटा टुकड़ा होता है अथवा यदि झोंपड़ी का मालिक अपनी झोंपड़ी से काफ़ी दूर दो-एक रूड ज़मीन लगान पर दे सकता है तो वह खुशकिस्मत कहा जायेगा। जैसाकि डॉ. हंटर कहते हैं, ‘‘यहाँ भूस्वामी और काश्तकार में मिलीभगत है। यदि झोंपड़ी के साथ एक-दो एकड़ ज़मीन भी होगी तो मज़दूर कुछ ज़्यादा ही स्वतंत्र हो जायेगा।’’ - सोलहवीं सदी में धर्मसुधार और उसके फलस्वरूप चर्च की संपत्ति की लूट से आम लोगों के जबरन संपत्तिहरण की प्रक्रिया को एक नया और जबर्दस्त संवेग मिला। धर्मसुधार के समय कैथोलिक चर्च, जो सामंती प्रणाली के मातहत था, इंग्लैण्ड की भूमि के बहुत बड़े हिस्से का स्वामी था। मठों के दमन और उससे जुड़े क़दमों ने मठवासियों को सर्वहारा में तब्दील होने पर मजबूर कर दिया। चर्च की संपत्ति अधिकांशत: राजा के लुटेरे कृपापात्रों को दे दी गयी अथवा सट्टेबाज़ काश्तकारों और नागरिकों के हाथों हास्यास्पद रूप से कम क़ीमत पर बेच दी गयी, जिन्हाेंने पुश्तैनी शिकमीदारों को ज़मीन से खदेड़ दिया तथा उनकी छोटी-छोटी जोतों को मिलाकर बड़ी जागीरों में तब्दील कर दिया। चर्च को दिये जाने वाले दशांश (कुल पैदावार का दसवाँ भाग) के एक हिस्से का जो कानूनी अधिकार गाँव के ग़रीबों को मिलता था उसे भी चुपचाप ज़ब्त कर लिया गया।
रानी एलिज़ाबेथ ने अपने साम्राज्य के एक दौरे के बाद चिल्लाकर कहा था ‘‘हर ओर कंगाल ही कंगाल हैं!’’ उसके शासन के तिरालिसवें वर्ष में ग़रीबों की सहायता के लिए कर लगाकर कंगाली के अस्तित्व को आधिकारिक रूप से मानना ही पड़ा।..।
चर्च की संपत्ति भूस्वामित्व की पारंपरिक व्यवस्था की धार्मिक रक्षा का साधन थी। पहले के विलुप्त हो जाने के साथ ही दूसरे की रक्षा करना असंभव हो गया।
सत्रहवीं सदी के अन्तिम दशकों तक भी स्वतंत्र किसानों का वर्ग काश्तकारों के वर्ग से अधिक संख्या में था। स्वतंत्र किसान ही क्रॉम्वेल के समर्थकों की मुख्य ताक़त थे, और यहाँ तक कि मैकॉले यह स्वीकार करता है कि वे उन देहाती जमींदारों एवं उनके नौकर देहाती पादरियों की तुलना में कहीं बेहतर थे जिन्हें अपने मालिक द्वारा छोड़ी हुई रखैलों के साथ विवाह करना पड़ता था। 1750 के आसपास तक स्वतंत्र किसानों के यह वर्ग विलुप्त हो चुका था; अठारहवीं सदी के अन्तिम दशकों तक सामूहिक स्वामित्व के आख़िरी निशान तक का भी वही हश्र हो चुका था। यहाँ पर हमारा सरोकार कृषि क्रान्ति के शुद्ध रूप से आर्थिक कारणों से नहीं है। हमारी मौजूदा दिलचस्पी उन जबरन तरीकों में है जिनका इस्तेमाल बदलाव लाने के लिए किया गया…
‘‘गौरवशाली क्रान्ति’’ ने सिर्फ़ ऑरेंज के विलियम को ही नहीं बल्कि अतिरिक्त मूल्य को हड़पने वाले पूँजीपतियों को भी सत्ता में पहुँचाया था। इन लोगों ने राज्य की भूमि की लूट की सीमा को पहले से कहीं अधिक पैमाने पर विस्तारित करके एक नये युग का सूत्रपात किया। सरकारी जागीरें दान में भेंट कर दी गयीं, बेहद कम क़ीमतों में बेच दी गयींं, या सीधे हड़पकर निजी जागीरों में मिला दी गयीं। ये सबकुछ करते समय कानूनी औचित्य की ज़रा भी परवाह नहीं की गयी।
आधुनिक अंग्रेज़ अल्पतंत्र की राजसी जागीरें इसी प्रकार धोखे से हड़पी गयी राजकीय ज़मीनों और उसके साथ लूटी गयी चर्च की जागीर से मिल कर बनी थीं (जिस हद तक वे गणतांत्रिक क्रान्ति के दौरान एक झटके में छीन नहीं ली गयी थीं)। इस प्रक्रिया को सुगम बनाने का काम बुर्जुआ पूँजीपतियों ने किया था; इसके पीछे कारण यह था कि वे चाहते थे कि ज़मीन ख़रीद-फ़रोख्त वाला माल बन जाये, बड़े पैमाने की खेती के दायरे को वे बढ़ाना चाहते थे, स्वामीविहीन सर्वहाराओं की आपूर्ति को वे बढ़ाना चाहते थे, आदि-आदि। इसके अतिरिक्त भूस्वामियों का यह नया अभिजात वर्ग नये बैंकपतियों एवं बड़े उद्योगपतियों का स्वाभाविक सहयोगी था (जो इस समय संरक्षक चुंगियों के तगड़े समर्थक थे)…
सामूहिक भूमि का जबरन हड़पा जाने और उसके साथ ही साथ खेतीयोग्य ज़मीन को चरागाहों में तब्दील करने की शुरुआत पंद्रहवीं सदी में शुरू हर्इ और सोलहवीं सदी तक जारी रही। परन्तु उस समय यह प्रक्रिया व्यक्तिगत हिंसा के कृत्यों के ज़रिये मुकम्मिल हुई जिसके ख़िलाफ़ विधायिका ने डेढ़ सौ वर्षों तक संघर्ष किया, भले ही वह संघर्ष व्यर्थ गया। अठारहवीं सदी में हुई प्रगति इसी से दिख जाती है कि कानून स्वयं लोगों की ज़मीन हड़पने का औजार बन गया, हालाँकि बड़े किसानों ने अपने इसके अतिरिक्त अपने तुच्छ तरीकों को लागू करना जारी रखा।
इस लूट का संसदीय रूप था सामूहिक ज़मीन की बाड़ेबंदी के लिए कानून पारित करना, ऐसे कानून जिसके ज़रिये बड़े भूस्वामियों ने जनता की ज़मीन खुद को तोहफ़े में दी जो इस प्रकार उनकी अपनी निजी संपत्ति बन गयीं… - जहाँ स्वतंत्र किसानों का स्थान कच्चे असामियों (एक साल के लिए पट्टे पर ज़मीन जोतने वाले काश्तकारों और ज़मींदारों की दया पर निर्भर रहने वाली दासवत भीड़) ने ले लिया, वहीं सामूहिक भूसंपत्ति का योजनाबद्ध ढंग से हड़पे जाने और उसके साथ ही साथ राजकीय जागीर की लूट ने उन बड़ी जोतों के आकार को बढ़ाने में मदद की जिन्हें अठारहवीं सदी में ‘‘पूँजी के फ़ार्म’’ या ‘‘सौदागरों के फ़ार्म’’ कहा जाता था और ‘‘देहाती लोगों को उन्मुक्त करके’’ उन्हें उद्योग में काम करने वाले सर्वहारा में परिणत कर दिया।
लेकिन अठारहवीं सदी उन्नीसवीं सदी की भाँति अभी भी पूरे दिल से इस विचार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी कि ऐसी व्यवस्था में राष्ट्रीय संपदा का आधार आम जन की दरिद्रता होगी। इसी वजह से हमें उस दौर के आर्थिक साहित्य में ‘‘सामूहिक भूमि की बाड़ेबंदी’’ के ख़िलाफ़ जीवन्त वाद-विवाद देखने को मिलता है।….
प्राइस ‘‘छोटे मालिकों और काश्तकारों की विशाल संख्या की बात करता है जो खुद की और परिवारों की परवरिश उनके क़ब्ज़े की ज़मीन की पैदावार से, सामूहिक भूमि पर चरने वाली भेड़ों से, मुर्गियों, सूअरों आदि के सहारे करती थी और इसलिए जिनको जीवन निर्वाह के साधनों को खरीदने का मौका नहीं मिलता।’’ ऐसे हैं वे ‘‘छोटे किसान’’ जिनका वह अगले उद्धरण में ज़िक्र करता है।
‘‘जब यह ज़मीन कुछ बड़े किसानों के हाथ में आ जाती है तो इसका नतीजा यह होता है कि छोटे किसान ऐसे लोगों के समूह में तब्दील हो जाते हैं जो दूसरों के लिए काम करके अपनी जीविका चलाते हैं और जिनके लिए अपनी हर ज़रूरत के लिए बाज़ार जाना मजबूरी हो जाती है। क़स्बों और मैन्युफैक्चरों में बढ़ोत्तरी होगी क्योंकि जगह और रोज़गार की तलाश में ज़्यादा से ज़्यादा लोग उनकी ओर आकर्षित होंगे।…
वास्तव में सामूहिक भूमि को हड़पा जाना और उसके साथ होने वाली कृषि में क्रान्ति का खेतिहर मज़दूरों पर इतना असर हुआ कि जैसाकि स्वयं इडेन हमें बताता है कि 1765 व 1780 के बीच उनकी मज़दूरी जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक खर्च से भी नीचे गिरने लगी जिसकी वजह से उन्हें ग़रीबी कानूनी सहायता का अतिरिक्त लाभ देना पड़ा। वह लिखता है कि ‘‘उनकी मज़दूरी जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में लगने वाले ख़र्च से ज़्यादा नहीं थी’’। …
उन्नीसवीं सदी में खेत मज़दूर और सामुदायिक संपत्ति के बीच का सम्बन्ध निश्चित रूप से भुलाया जा चुका था। हाल के दिनों की बात तो जाने दीजिये 1801 से 1831 के बीच 3,511,770 एकड़ की जो सामूहिक भूमि ग्रामवासियों से छीन ली गयी थी और बाकायदा कानूनन तौर पर भूस्वामियों द्वारा दूसरे भूस्वामियों को दी गयी थी क्या उसकी एवज में खेतिहर आबादी को एक कौड़ी का भी मुआवजा मिला है?
सम्पत्तिहरण का अन्तिम बड़ा काम, खेतिहर आबादी के ज़मीन से अलगाव की अन्तिम अवस्था ने वह रूप अख़्तियार किया है जिसे जागीर का सफ़ाया कहा जाता है, यानी उनमें से लोगों का सफ़ाया। अब तक आजमाये गये सभी अंग्रेज़ी तरीकों की परिणति इसी ‘‘सफ़ाये’’ में हुई…
‘‘जागीरों के सफ़ाये’’ का वास्तव में क्या महत्व है यह आधुनिक रूमानी साहित्य की आदर्श भूमि यानी स्कॉटलैंड के पर्वतीय क्षेत्र के अध्ययन में ही देखने को मिलता है। वहाँ यह प्रक्रिया अपने सुनियोजित चरित्र के रूप में और उस बड़े पैमाने के रूप में जानी जाती है जिस पर वह अंजाम दी जाती है। जबकि आयरलैंड में भूस्वामी कई गाँवों का एक साथ सफ़ाया कर देने की हद तक जा चुके हैं, स्कॉटलैंड में जर्मन रियासतों जितने बड़े इलाकों को एक प्रहार में ही निपटाया जाता है।
स्कॉटलैंड में ‘‘जागीरों के सफ़ाये’’ की एक अन्य विशेषता संपत्ति का वह विशेष रूप है जिसके तहत हड़पी गयी ज़मीन रखी जाती थी।
(अगले अंकों में जारी)
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016
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