निकोलाई ओस्त्रोवस्की: एक सच्चे क्रान्तिकारी योद्धा और जननायक की पुण्यतिथि (22 दिसम्बर) के अवसर पर
‘जो जलता नहीं, वह धुएँ में अपने आपको नष्ट कर देता है’
श्वेता
हज़ारों सालों से जिनके कन्धे जानलेवा मेहनत से चूर हैं, जिन्हें अरसे से हिक़ारत की निगाहों से देखा गया हो, उस मेहनतकश आबादी ने अपने बीच से समय-समय पर ऐसे मज़दूर नायकों को जन्म दिया है जिनका जीवन हमें आज के युग में तो बहुत कुछ सिखाता ही है पर भावी समाज में भी सिखाता रहेगा। निकोलाई ओस्त्रोवस्की मज़दूर नायकों की आकाशगंगा का एक ऐसा ही चमकता ध्रुवतारा है।
ओस्त्रोवस्की का जन्म 29 सितम्बर 1904 को उक्रेन के विलिया नामक गाँव में हुआ। उनके पिता मज़दूर थे पर आमदनी इतनी कम थी कि माँ और छोटी बहनों को भी खेत मज़दूरी का काम करना पड़ता था। बड़े भाई एक लुहार के अपरेन्टिस थे जो अपने मज़दूरों के साथ बेहद अमानवीय बर्ताव करता था। गरीबी ने ओस्त्रोवस्की को भी बचपन में ही मज़दूरी के भँवर में झोंक दिया। नौ साल की उम्र में गड़रिये का काम, फिर ग्यारह साल की उम्र में उक्रेन के शेपेतोवका नगर के स्टेशन के एक रेस्तरां के बावर्चीखाने में काम करते हुए और आसपास ग़रीबी और ग़ुरबत के हालातों से रूबरू होते हुए ओस्त्रोवस्की के दिल में अपने वर्ग शत्रुओं के लिए तीखी नफ़रत की ज़मीन पहले ही तैयार हो गई थी। रेस्तरां के गन्दगीभरे और दमघोंटू माहौल से बचने के लिए ओस्त्रोवस्की अपना ज़्यादातर समय भाई के साथ गुज़ारते जो कि रेलवे डिपो में एक मिस्त्री था। यहीं पर उन्होंने बोल्शेविकों से मज़दूर अधिकारों और मज़दूर क्रान्ति की बातें सीखी, रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन और उनके विचारों के बारे में सुना।
वर्ष 1917 में हुई अक्टूबर क्रान्ति ने सोवियत रूस में मज़दूर राज कायम किया। क्रान्ति के बाद चले गृहयुद्ध ने नयी पीढ़ी के लोगों को अपनी ओर खींचा जो हर कीमत पर मज़दूर राजकाज को बचाना चाहते थे। निकोलाई ओस्त्रोवस्की भी ऐसे ही किशोरों में से थे। उक्रेन में गृहयुद्ध के दौरान ओस्त्रोवस्की और उनके अन्य मित्र उन तमाम गुप्त क्रान्तिकारी कमेटियों को मदद पहुँचाते जो प्रतिक्रान्तिकारियों और बाहरी जर्मन आक्रमणकारियों से लड़ रहे थे। अगस्त 1919 में ओस्त्रोवस्की घर से भाग गए और लाल सेना में शामिल हो गए। वे जिस भी मोर्चे पर गए एक बहादुर समर्पित योद्धा की तरह लड़ते दिखाई दिए। 1920 में उक्रेन के एक शहर लुओव में लड़ाई के दौरान वे बुरी तरह घायल हो गये और उनकी दाहिनी आँख की रोशनी चली गई। अस्पताल में दो महीने गुज़ारने के बाद उन्हें सेना से छुट्टी दे दी गई और वे वापस शेपेतोवका लौट आए। बाद में 1921 में ओस्त्रोवस्की कीव चले गए जहाँ वे एक स्थानीय कोमसोमोल (नौजवान कम्युनिस्ट संगठन) के प्रधान बने और साथ ही एक रेलवे के कारखाने में इलेक्ट्रीशियन के तौर पर काम भी करते रहे। ये वही दिन थे जब देश रोटी और ईंधन की कमी से जूझ रहा था। ईंधन की पूर्ति के लिए जंगल से शहर तक लकडि़याँ पहुँचाने के लिए रेलवे लाइन बिछाई जानी थी। ओस्त्रोवस्की एक ऐसी ही टुकड़ी के नेता थे। हालात काफ़ी कठिन थे पर आखिरकार लाइन बिछाने में सफलता मिल गई। हालाँकि इन प्रतिकूल हालातों में किये गये कठिन परिश्रम ने ओस्त्रोवस्की के स्वास्थ्य को काफ़ी प्रभावित किया। वे अभी पूरी तरह स्वस्थ हो भी न पाए थे कि फिर उन्हें अपने कोमसोमोल साथियों के साथ मिलकर बाढ़ में से लकड़ी के पट्टे बचाकर निकालने के काम में लगना पड़ा और यह काम उन्हें बेहद सर्द पानी में खड़े होकर करना था।
लड़ाई के दौरान उनके ज़ख़्म, बाद में टाइफस बुखार और भयंकर गठिया ने मिलकर ओस्त्रोवस्की के स्वास्थ्य को इतनी बुरी तरह प्रभावित किया कि उन्हें कीव का काम छोड़कर जाना ही पड़ा। यह बात ओस्त्रोवस्की के लिए कतई स्वीकार्य नहीं थी कि उन्हें रोगी घोषित कर दिया जाय और देश में चल रहे समाजवाद के निमार्ण के लिए किये जाने वाले राजनीतिक एवं रचनात्मक कामों से काट दिया जाय। वे लगातार पार्टी से उन्हें काम दिये जाने का आग्रह करते रहे। अन्तत: पार्टी ने उनकी इच्छा मानते हुए उन्हें एक छोटे से उक्रेनी नगर बेरोजदोव भेज दिया। वहाँ पहुँचते ही बिना समय गँवाये ओस्त्रोवस्की ने पार्टी और कोमसोमोल का काम सम्भालना शुरू कर दिया।
वर्ष 1924 में ओस्त्रोवस्की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये हालाँकि उस समय तक आते-आते उनका स्वास्थ्य काफ़ी गिर चुका था। बेहतरीन चिकित्सा विशेषज्ञों ने उनका इलाज किया, उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिऐ सेनीटोरियम में भी रखा गया पर इन सबका भी कोई परिणाम न निकल पाया। 1926 तक आते-आते यह स्पष्ट हो गया कि ओस्त्रोवस्की को जीवनभर अब शैयाग्रस्त ही रहना होगा। तीन साल बाद उनकी आँखों की रोशनी पूरी तरह चली गयी और हाथों एवं कुहनियों को छोड़कर उनका पूरा शरीर हिलने डुलने में भी असमर्थ हो गया। कुल मिलाकर उनके अच्छे होने की अब कोई उम्मीद नहीं रह गयी थी। यह तमाम हालात ओस्त्रोवस्की के निष्क्रिय होने का भौतिक आधार बना रहे थे पर ओस्त्रोवस्की ने अपनी मानसिक दृढ़ता, आत्मनियंत्रण और समाजवादी देश और उसकी जनता के लिए मर मिटने की भावना से ताकत हासिल करके इन हालातों को चुनौती दे दी। जब पूरे देश की जनता समाजवादी लक्ष्य की ओर डग आगे भर रही थी तब उन्हें नए समाज और जीवन के निर्माण कार्य में पीछे रहना नामंज़ूर था। सारे शारीरिक कष्टों को झेलते हुए वे नए उत्साह और शक्ति के साथ लक्ष्य प्राप्ति की नयी योजनाओं में जुट गये। उन्होंने कलम और लेखनी को अपना नया हथियार बनाया। वे ऐसी किताब लिखना चाहते थे जो बीते ज़माने के बहादुर संघर्षों की कहानी बयान करे और नयी पीढ़ी को कम्युनिस्ट भावना के अनुसार ढ़ालने में मददगार साबित हो।
आखिरकार नवम्बर 1930 में एकदम अन्धे और अशक्त होने पर ओस्त्रोवस्की ने अपने पहले उपन्यास ‘अग्निदीक्षा’ पर काम करना शुरू कर दिया। चूंकि उनकी पत्नी सारा दिन अपने और सार्वजनिक कामों में व्यस्त रहती तो पहले सहायता करने वाला कोई न होता इसलिए ओस्त्रोवस्की स्वयं अपनी अकड़ी हुई उंगलियों से पेंसिल को जैसे-तैसे पकड़कर लिखते। ऐसे करते हुए अकसर ही नए शब्दों की रेखाएं पिछले शब्दों की रेखाओं पर चढ़ जाती जिससे शब्द विकृत हो जाते। बाद में इस कठिनाई को दूर करने के लिए एक यंत्र बनाया गया जो काफ़ी मददगार साबित हुआ। एक सादे गते का दोहरा टुकड़ा लिया गया, जिसके ऊपर वाले हिस्से में आठ मिलीमीटर चौड़ी सीधी लाइनें काट ली गयीं। इसके अंदर चलती हुई पेंसिल टेढ़ी पंक्ति में नहीं लिख सकती थी और इस तरह हर पंक्ति सीधी और स्पष्ट होती। ओस्त्रोवस्की ज़्यादातर रात के वक्त काम करते जब सब सो रहे होते। सोने से पहले उनकी पत्नी या माँ काग़ज़ और बहुत सी पेंसिलें छीलकर उनके पास रख देती। बाद के समय में उन्होंने अपनी पत्नी, बहन और आत्मीय मित्रों को बोलकर लिखवाया। इस तरह जून 1933 में यह किताब पूरी हुई मगर इसके बाद भी ओस्त्रोवस्की नहीं रुके। कुछ समय बाद ही नयी ऊर्जा से ओतप्रोत होकर उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘अग्निदीक्षा’ के नये संस्करण पर काम करना शुरू कर दिया। इसी बीच उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तक ‘तूफान के बेटे’ पर भी हाथ लगा लिया। यह वह समय था जब दूसरे विश्चयुद्ध के बादल मंडरा रहे थे। अंग्रेज़-अमेरिकी साम्राज्यवाद से प्रोत्साहन पाकर जापानी और जर्मन फासिस्ट समाजवादी रूस के खि़लाफ़ युद्ध की तैयारी कर रहे थे। ओस्त्रोवस्की अपनी नयी पुस्तक के ज़रिये समाजवादी रूस में पली-बढ़ी नयी पीढ़ी को इन दुश्मनों से आगाह करवाना चाहते थे। वे इस पुस्तक का केवल पहला भाग ही पूरा कर पाये। जिस दिन ‘तूफान के बेटे’ का पहला भाग प्रकाशित हुआ ठीक उसी दिन 22 दिसम्बर 1936 को निकोलाई ओस्त्रोवस्की की मृत्यु हो गयी।
ओस्त्रोवस्की ने एक बार कहा था ‘इससे अच्छी बात किसी आदमी के लिए और क्या हो सकती है कि वह मरने के बाद भी मानवता की सेवा करता रहे।’ ओस्त्रोवस्की जीवन पर्यन्त जनता के लिए और मज़दूर राज कायम करने के लिए जनता का नेतृत्व करने वाली बोल्शेविक पार्टी की सेवा तो करते ही रहे पर मृत्यु के बाद भी इस सच्चे जननायक और योद्धा ने अपनी रचनाओं से मानवता की सेवा के उदात्त लक्ष्य को जारी रखा।
ओस्त्रोवस्की का जीवन युवा क्रान्तिकारियों के लिए एक महान आदर्श है। जनता के लिए, कम्युनिज़्म के उदात्त लक्ष्य के लिए जीना किसे कहते हैं; और क्रान्ति के प्रति सच्चे एवं नि:स्वार्थ समपर्ण की भावना कैसी होती है; समाजवाद के लक्ष्य के लिए एक उत्साही, क्रियाशील और अडिग सैनिक का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए इसका प्रातिनिधिक उदाहरण ओस्त्रोवस्की का छोटा मगर सार्थक जीवन है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2015
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