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जीएसटी और अन्य टैक्स नीतियों का मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी पर असर

यद्यपि जीएसटी की दर कहने के लिये सब पर बराबर होगी लेकिन इसका असर अमीर और गरीब लोगों पर बराबर नही होगा। जहां ज़्यादातर गरीब लोग अपनी सारी कमाई से किसी तरह जीवन चलाते हैं तो उनकी पूरी आय पर यह 18 से 22% टैक्स लग जायेगा क्योंकि जीएसटी लगभग सभी वस्तुओं – सेवाओं पर लगेगा। वहीं क्योंकि अमीर तबका अपनी आय का एक छोटा हिस्सा ही इन पर खर्च करता है तो…

कश्मीर : आओ देखो गलियों में बहता लहू

कश्मीर में सैन्य दलों द्वारा स्थानीय लोगों पर ढाए जाने वाले ज़ुल्मो–सितम की न तो यह पहली घटना है न ही आखिरी। उनके वहशियाना हरकतों की फेहरिस्त काफ़ी लम्बी है। फरवरी 1991 में कुपवाड़ा जि़ले के ही कुनन-पोशपोरा गाँव में पहले गाँव के पुरुषों को हिरासत में लिया गया, यातनाएँ दी गयीं और बाद में राजपूताना राइफलस के सैन्यकर्मियों द्वारा गाँव की अनेक महिलाओं का उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने बलात्कार किया गया। (अनेक स्रोत इनकी संख्या 23 बताते हैं लेकिन प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ सहित कई मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह संख्या 100 तक हो सकती है।) वर्ष 2009 में सशस्त्र बल द्वारा शोपियां जि़ले में दो महिलाओं का बलात्कार करके उन्हें बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया। बढ़ते जनदबाव के बाद कहीं जाकर राज्य पुलिस ने एफ़.आई.आर. दर्ज की।

मुनाफे की खातिर मज़दूरों की हत्याएँ आखिर कब रुकेंगी ?

मज़दूरों की दर्दनाक मौत का कसूरवार स्पष्ट तौर पर मालिक ही है। कारखाने में आग लगने से बचाव के कोई साधन नहीं हैं। आग लगने पर बुझाने के कोई साधन नहीं हैं। रात के समय जब मज़दूर काम पर कारखाने के अन्दर होते हैं तो बाहर से ताला लगा दिया जाता है। उस रात भी ताला लगा था। जिस हॉल में आग लगी उससे बाहर निकलने का एक ही रास्ता था जहाँ भयानक लपटें उठ रही थीं। करोड़ों-अरबों का कारोबार करने वाले मालिक के पास क्या मज़दूरों की जिन्दगियाँ बचाने के लिए हादसों से सुरक्षा के इंतज़ाम का पैसा भी नहीं है? मालिक के पास दौलत बेहिसाब है। लेकिन पूँजीपति मज़दूरों को इंसान नहीं समझते। इनके लिए मज़दूर कीड़े-मकोड़े हैं, मशीनों के पुर्जे हैं। यह कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है कि ये महज हादसे में हुई मौतें नहीं है बल्कि मुनाफे की खातिर की गयी हत्याएँ हैं।

देशद्रोही वे हैं जो इस देश के लुटेरों के साथ सौदे करते हैं और इसकी सन्तानों को लूटते हैं, उन्हें आपस में लड़ाते हैं, दबाते और कुचलते हैं!!

आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों के उत्पात का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

झूठी देशभक्ति और राष्ट्रवाद की चाशनी में डूबा संघी आतंक और फ़ासीवाद!

भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने पिछले साल अपनी आधिकारिक वेबसाइट शुरू करने के पश्चात अपना पहला लेख सावरकर को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा। भाजपा के नकली देशभक्तों की फेहरिस्त तो बेहद लम्बी है मगर उनमे से एक जो सबसे कुख्यात है वो है नाथूराम गोडसे। नाथूराम गोडसे जिसने महात्मा गांधी की हत्या की, आर.एस.एस. और हिन्दू महासभा के लिए वह ‘भारत का असली शूरवीर है’ और 15 नवंबर जिस दिन नाथूराम गोडसे को फांसी दी गयी थी उस दिन को संघी बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं। पिछले साल 15 नवंबर को बाकायदा नाथूराम गोडसे को समर्पित एक वेबसाइट का उद्घाटन किया गया जिसके पहले पन्ने पर भगवा रंग से लिखा है ‘भारत का भुला दिया गया असली नायक’। भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की मुखबिरी करने में भी संघ ने कोई कमी नहीं छोड़ी। जिस गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री लाल किले से भाषण देते हैं उसी गणतंत्र दिवस को संघ से जुड़े लोग काले दिवस के रूप में मनाते हैं। संघ और उसके कुकृत्यों की फे़हरिस्त इतनी लम्बी है कि उसके बारे में कई ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। मगर इन सभी प्रतिनिधिक उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि देश भक्ति से इनका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है।

भयानक साज़िश

हम यहाँ एक लेख का अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो बताता है कि जब सारी जनता अंग्रेज़ों को देश से बाहर करने के संघर्ष में सड़कों पर थी, 1946-47 के उन दिनों में भी संघ अपने ही देश के लोगों के ख़िलाफ़ कैसी घिनौनी साज़िशों में लगा हुआ था। इसे पढ़ने के बाद आपको इस बात पर कोई हैरानी नहीं होगी कि गुजरात में संघियों ने किस तरह से मुसलमानों के घरों और दुकानों को चुन-चुनकर निशाना बनाया था। इसके पीछे उनकी महीनों की तैयारी थी। हिटलरी जर्मनी के नाज़ियों से सीखे इन तरीकों को इस्‍तेमाल करने में इन्हें महारत हासिल हो चुकी है। इस अंश को प्रसिद्ध पत्रकार और नौसेना विद्रोह के भागीदार सुरेन्द्र कुमार ने ‘दायित्वबोध’ पत्रिका के लिए प्रस्तुत किया था।

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (दूसरी किस्त)

सोलहवीं सदी में धर्मसुधार और उसके फलस्वरूप चर्च की संपत्ति की लूट से आम लोगों के जबरन संपत्ति‍हरण की प्रक्रिया को एक नया और जबर्दस्त संवेग मिला। धर्मसुधार के समय कैथोलिक चर्च, जो सामंती प्रणाली के मातहत था, इंग्लैण्ड की भूमि के बहुत बड़े हिस्से का स्वामी था। मठों के दमन और उससे जुड़े क़दमों ने मठवासियों को सर्वहारा में तब्दील होने पर मजबूर कर दिया। चर्च की संपत्ति अधिकांशत: राजा के लुटेरे कृपापात्रों को दे दी गयी अथवा सट्टेबाज़ काश्तकारों और नागरिकों के हाथों हास्यास्पद रूप से कम क़ीमत पर बेच दी गयी, जिन्हाेंने पुश्तैनी शिकमीदारों को ज़मीन से खदेड़ दिया तथा उनकी छोटी-छोटी जोतों को मिलाकर बड़ी जागीरों में तब्दील कर दिया। चर्च को दिये जाने वाले दशांश (कुल पैदावार का दसवाँ भाग) के एक हिस्से का जो कानूनी अधिकार गाँव के ग़रीबों को मिलता था उसे भी चुपचाप ज़ब्त कर लिया गया।

सच्चे देशभक्तों को याद करो! नकली “देशभक्तों” की असलियत को पहचानो!

इस नफ़रत की सोच से अलग हटकर, ठहरकर एक बार सोचिये कि 2 लाख करोड़ रुपये का व्यापम घोटाला करने वाले, घोटाले के 50 गवाहों की हत्याएँ करवाने वाले, विधानसभा में बैठकर पोर्न वीडियो देखने वाले, विजय माल्या और ललित मोदी जैसों को देश से भगाने में मदद करने वाले देशभक्ति और राष्ट्रवाद का ढोंग करके आपकी जेब पर डाका और घर में सेंध तो नहीं लगा रहे? कहीं ये ‘बाँटो और राज करो’ की अंग्रेज़ों की नीति हमारे ऊपर तो नहीं लागू कर रहे ताकि हम अपने असली दुश्मनों को पहचान कर, जाति-धर्म के झगड़े छोड़कर एकजुट न हो जाएँ? सोचिये साथियो, वरना कल बहुत देर हो जायेगी! जो आग ये लगा रहे हैं, उसमें हमारे घर, हमारे लोग भी झुलसेंगे। इसलिए सोचिये!

पूँजीवादी खेती, अकाल और किसानों की आत्महत्याएँ

देश में सूखे और किसान आत्महत्या की समस्या कोई नयी नहीं है। अगर केवल पिछले 20 सालों की ही बात की जाये तो हर वर्ष 12,000 से लेकर 20,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। महाराष्ट्र में यह समस्या सबसे अधिक है और कुल आत्महत्याओं में से लगभग 45 प्रतिशत आत्महत्याएँ अकेले महाराष्ट्र में ही होती हैं। महाराष्ट्र में भी सबसे अधिक ये विदर्भ और मराठवाड़ा में होती हैं।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से उपजे कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति-उन्मूलन के लिए ज़रूरी है!

रोहित के ही शब्दों में उसकी शख़्सियत, सोच और संघर्ष को उसकी तात्कालिक अस्मिता (पहचान) तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि रोहित इसके ख़िलाफ़ था, बल्कि इसलिए कि यह अन्ततः जाति उन्मूलन की लड़ाई को भयंकर नुकसान पहुँचाता है। हम आज रोहित के लिए इंसाफ़ की जो लड़ाई लड़ रहे हैं और रोहित और उसके साथी हैदराबाद विश्वविद्यालय में फासीवादी ब्राह्मणवादी ताक़तों के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ते रहे हैं वह एक राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष है। यह अस्मिताओं का संघर्ष न तो है और न ही इसे बनाया जाना चाहिए। अस्मिता की ज़मीन पर खड़े होकर यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। इसका फ़ायदा किस प्रकार मौजूदा मोदी सरकार उठा रही है इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब भाजपा व संघ गिरोह हैदराबाद विश्वविद्यालय के संघी छात्र संगठन के उस छात्र की जातिगत पहचान को लेकर गोलबन्दी कर रहे हैं, जिसकी झूठी शिकायत पर रोहित और उसके साथियों को निशाना बनाया गया। स्मृति ईरानी ने यह बयान दिया है कि उस बेचारे (!) छात्रा को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह ओबीसी है! वास्तव में, ओबीसी तो अम्बेडकरवादी राजनीति के अनुसार दलित जातियों की मित्र जातियाँ हैं और इन दोनों को मिलाकर ही ‘बहुजन समाज’ का निर्माण होता है। मगर देश में जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं पर करीबी नज़र रखने वाला कोई व्यक्ति आपको बता सकता है कि पिछले कई दशकों से हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्र से लेकर तमिलनाडु तक ग़रीब और मेहनतकश दलित जातियों की प्रमुख उत्पीड़क जातियाँ ओबीसी में गिनी जाने वाली तमाम धनिक किसान जातियाँ हैं। शूद्र जातियों और दलित जातियों की पहचान के आधार पर एकता करने की बात आज किस रूप में लागू होती है? क्या आज देश के किसी भी हिस्से में – उत्तर प्रदेश में, हरियाणा में, बिहार में, महाराष्ट्र में, आन्ध्र में, तेलंगाना में, कर्नाटक या तमिलनाडु में – जातिगत अस्मितावादी आधार पर तथाकथित ‘बहुजन समाज’ की एकता की बात करने का कोई अर्थ बनता है? यह सोचने का सवाल है।