साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ गत्ते की तलवार भाँजते मौक़ापरस्त जोकरों का प्रहसन

30 अक्टूबर को दिल्ली में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन’ में चुनावी वामपंथी दलों, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जनता दल (एकीकृत), जनता दल (सेक्यूलर), बीजू जनता दल, अन्ना द्रमुक, असम गण परिषद और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों सहित सत्रह दलों का जुटान हुआ। साम्प्रदायिकता के नये आक्रामक उभार और नरेन्द्र मोदी पर चिन्ताएँ प्रकट की गयीं और धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की एकजुटता के क़समे-वादे, प्यार-वफ़ा की बातें की गयीं।

convention against communalism

मज़े की बात यह है कि चुनाव-पूर्व किसी तीसरे मोर्चे की गठन की सम्भावना से सबने इन्कार किया, क्योंकि एक ही तराजू पर चढ़े मेढ़कों की इस जमात में प्रधानमंत्री का सपना देखने वाले कई मुंगेरी लाल हैं। भारतीय बुर्जुआ संसदीय राजनीति की स्थिति ही आज ऐसी है कि किसी एक मुंगेरीलाल के सपने साकार भी हो जायें तो ताज्जुब नहीं।

मज़े की बात यह भी है कि सेक्यूलरों के इस जमावड़े में मायावती का आना सम्भव नहीं था क्योंकि वहाँ मुलायम सिंह थे, ममता बनर्जी नहीं आ सकती थीं क्योंकि वाम दल थे, द्रमुक नहीं आ सकता था क्योंकि अन्नाद्रमुक था, पासवान और लालू के लोग नहीं आ सकते थे क्योंकि नीतिश कुमार-शरद यादव थे। इसलिए इन्हें न्यौता नहीं गया। न्यौता भाकपा (मा.ले.) (लिबरेशन) को भी नहीं गया, सो दिल में दुख लिए दीपांकर भट्टाचार्य ने उसी दिन पटना की सड़क पर अपनी रैली कर डाली।

दिल्ली में जुटे साम्प्रदायिकता- विरोधियों के राजनीतिक आचरण का इतिहास ज़रा खँगाला जाये। नीतिश कुमार ने इस आयोजन से एक दिन पहले राजगीर में हुए अपनी पार्टी के चिन्तन-शिविर में नरेन्द्र मोदी को हिटलर और उनकी राजनीति को फ़ासीवादी राजनीति की संज्ञा तक दी थी। नरेन्द्र मोदी और भाजपाइयो-संघियों के ‘‘इतिहास-ज्ञान’’, फेंकूपन और ग़लतबयानियों की बखिया उधेड़ने वाले नीतिश कुमार और उनकी पार्टी से पूछा जाना चाहिए कि क्या नरेन्द्र मोदी के उभार के बाद ही भाजपा का चरित्र बदलकर फ़ासीवादी हो गया है? भाजपा जब जनसंघ के रूप में पैदा हुई थी, तभी से इसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संसदीय भोंपू मात्र थी और संघ अपने जन्म से ही एक फ़ासीवादी संगठन रहा है। फ़ासीवादी संगठनों की अपनी एक सुनिश्चित विचारधारा, संरचना और कार्यप्रणाली होती है। समय की ज़रूरत के हिसाब से, वे छवि गढ़ने और प्रचारित करने की अपनी विशेष तकनीक अपनाते हुए नये नायक के साँचे में नये नेता को आगे करते हैं। आज उन्हें आडवानी-जोशी ब्राण्ड नहीं बल्कि एक ऐसे मॉर्डन फ़ासीवाद नेता की दरकार थी जो पुरानी पीढ़ी के व्यापारियों और सवर्ण कट्टरपंथियों के साथ-साथ, उनसे भी अधिक, नये व्यापारियों और कारपोरेट कल्चर में रचे-पगे खाते-पीते मध्यवर्गीय युवाओं को अपील करे, जो प्राचीन भारत के गौरव की बात करे, पर विकास और आधुनिकता की बातों पर और मॉर्डन रंग-ढंग वाले उम्र राष्ट्रवाद और उग्र हिन्दुत्व पर बल दे। ऐसे ही घोड़े पर, पूँजीवादी व्यवस्थागत संकट के इस दौर में वित्तीय और ओद्योगिक महाप्रभु दाँव लगा सकते थे। इस मामले में मोदी की तुलना में सुषमा या जेटली भी कहीं नहीं ठहरते। इसीलिए संघ ने सबको पीछे ढकेलकर मोदी को आगे किया। मोदी पिछड़ी जाति का होने का दावा ठोंककर धनी और मझोले किसानों का वोट भी बटोर सकता है। वैसे भी कई धाराओं-उपधाराओं में बँटकर चरणसिंह की गाँधीवादी- नरोदवादी किसान राजनीति के, पूँजीवादी विकास के वर्तमान दौर में, विघटन की तार्किक परिणति के बाद, धनी और खुशहाल मालिक किसान भारतीय समाज में फ़ासीवाद का नया ग्रामीण आधार बन रहे हैं और इनके बीच भाजपा का वोट बैंक तेजी से बढ़ा है।

शरद यादव-नीतिश कुमार की पार्टी 17-18 वर्षों से भाजपा की संगी-साथी रही है। नीतिश कुमार का यह कहना सफ़ेद झूठ है कि ‘‘अटल-आडवाणी युग’’ में भाजपा पर संघ का विचारधारात्मक प्रभाव था, लेकिन उसके राजनीतिक कार्रवाइयों में कोई दखल नहीं था। पहली बात तो यह कि यदि फ़ासीवाद का विचारधारात्मक प्रभाव भी था तो भाजपा का चरित्र फ़ासीवादी ही हुआ। दूसरी बात यह कि भाजपा कभी भी संघ के निर्देशों से अलग निर्णय नहीं लेती रही हैं। यह एक मिथक है कि अटल बिहारी वाजपेयी बाबरी मस्‍ज़ि‍द गिराये जाने के विरोधी थे। उनका चेहरा भाजपा के कई चेहरों में से एक था। आडवानी को आगे करके रामजन्मभूमि ‘‘आन्दोलन’’ का उग्र हिन्दुत्ववादी माहौल बनाया गया और वाजपेयी को आगे करके पतित समाजवादियों और क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय मोर्चा बनाया गया क्योंकि केवल उग्र हिन्दुत्व के वोट बैंक से भाजपा का केन्द्र में सरकार बना पाना सम्भव नहीं था, यह बात सिद्ध हो चुकी थी। नीतिश कुमार किन लोगों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं? गुजरात नरसंहार के समय उनका ज़मीर कहाँ था? उस समय जॉर्ज फर्नाण्डीज़, शरद यादव और वे स्वयं केन्द्र की वाजपेयी सरकार में मंत्री थे। केन्द्र सरकार पर गुजरात मामले पर विरोध जताते हुए कार्रवाई के लिए उन्होंने क्या कोई दबाव बनाया था? उस समय नरेन्द्र मोदी के फ़ासीवाद के खिलाफ़ वे कुछ क्यों नहीं बोले? यदि उसूलों की बात थी तो उस समय उन्होंने एन.डी.ए. क्यों नहीं छोड़ा? बात उसूल की है ही नहीं, सिर्फ़ चुनावी गणित की है। बात यह है कि जो छल-छद्म करके, भाजपा के साथ सरकार चलाते हुए नीतिश कुमार ने लालू से टूटे मुस्लिम वोट बैंक के एक हिस्से को और पासवान से टूटे अतिदलितों के एक हिस्से को अपने साथ रखा था, वह भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाये जाने के बाद उनका साथ छोड़ सकता था। दूसरे, राष्ट्रीय राजनीति की तरल परिस्थिति में, तीसरे मोर्चेनुमा किसी खिचड़ी में किसी का भी दाँव लग सकता था (गुजराल और देवगौड़ा तक का लग गया था।) और नीतिश कुमार को धर्मनिरपेक्षता के घोड़े पर दाँव लगाने में ज़्यादा फ़ायदा दि‍खने लगा था।

नीतिश कुमार शरद यादव से लेकर मुलायम सिंह तक – सभी लोहिया और जे.पी. की बहुत दुहाई देते हैं। सच तो यह है कि साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के प्रति लोहिया और जयप्रकाश का रुख वैसा ही ढुलमुल और समझौतापरस्त रहा, जैसा यूरोप में फ़ासीवाद के प्रति वहाँ के सामाजिक जनवादियों का रहा। दो संसद सदस्यों वाले जनसंघ को बुर्जुआ संसदीय राजनीति में सम्मानित और शक्तिशाली बनाने में 1960 और ’70 के दशक में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका लोहिया और जयप्रकाश नारायण की थी। यह कांग्रेसी शासन में लागू पूँजीवादी विकास की नीतियों के संकट और उनके परिणामों से पैदा हुए व्यापक मोहभंग का नतीजा था कि 1967 में कई राज्यों में संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकारें बनीं, जिनमें सोश्लिस्टों और संसदीय कम्युनिस्टों (यह कलंक भाकपा-माकपा भी कभी मिटा नहीं सकेंगे) सहित सभी ग़ैर कांग्रेसी दल शामिल थे। कांग्रेस-विरोध के अतिरिक्त दरअसल लोहिया के ग़ैर कांग्रेसवाद के इस अमली रूप के पास अपना रत्ती भर सुधारवादी क़िस्म का भी कोई कार्यक्रम नहीं था। नतीज़तन, बुर्जुआ संसदीय राजनीति का वह संक्रमणकाल जैसे ही बीता, संविद सरकार की सतमेल खिचड़ी बिखर गयी। आपातकाल के तात्कालिक फ़ासीवादी दौर का विरोध करते हुए जयप्रकाश नारायण ने संघी फ़ासीवादियों को भी साथ लिया और जनता पार्टी में जनसंघ को शामिल किया। जनसंघ तब भी उतना ही फासिस्ट था। उसकी विचारधारा और कार्यक्रम वही थे जो आज हैं।

मुलायम सिंह की साम्प्रदायिकता-विरोध की राजनीति भी शुद्ध रूप से उ.प्र. में वोटों के गणित पर आधारित है। एक समय, जब उन्हें लगने लगा था कि मुस्लिम वोट बैंक में बसपा प्रभावी सेंध लगा रही है तो लोध जाति को साथ लेने के लिए बाबरी मस्जिद ध्वंस के एक प्रमुख अपराधी कल्याणसिंह को गले लगाते उन्हें देर नहीं लगी। फिर जैसे ही लगा कि यह घाटे का सौदा है तो उन्होंने कल्याण सिंह से पीछा छुड़ा लिया। मुलायम सिंह की पार्टी मुख्यतः धनी किसानों और क्षेत्रीय, छोटे पूँजीपतियों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है (और बड़े पूँजीपतियों के एक हिस्से का दिल जीतने की भरपूर कोशिश करती रहती है) और उसका चुनावी आधार पिछड़ी जातियों के मालिक किसानों और मुस्लिम आबादी के बीच है। नव उदारवाद की नीतियों से उन्हें कोई परहेज नहीं है। अंधराष्ट्रवाद और कम्युनिज्म-विरोध उन्होंने लोहिया से विरासत में पायी है। सपा मुख्यतः जिन वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, वे घनघोर मज़दूर विरोधी हैं और उनकी निरंकुशता फ़ासीवाद के सीमान्तों को छूती है। यदि वोट बैंक के गणित की मज़बूरी न हो तो मुलायम सिंह को भाजपा से गलबहियाँ डालने में कोई परहेज नहीं होगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि बसपा का साम्प्रदायिकता विरोध भी इतना ही अवसरवादी है। यह पार्टी दलितों के बीच से उभरे नितान्त प्रतिक्रियावादी चरित्र वाले दलित खुशहाल मध्यवर्ग और दलित छोटे बुर्जुआ वर्ग की पार्टी है, जिसका दलित आबादी के बीच ठोस वोट बैंक है। हर बुर्जुआ पार्टी से छिटके नेताओं की यह पनाहगाह है और भाजपा के साथ सरकार चलाकर अपने सेक्यूलर चरित्र का यह पहले ही प्रदर्शन कर चुकी है।

दिल्ली के साम्प्रदायिकता-विरोधी जमावड़े में जितने भी क्षेत्रीय दल शामिल थे, वे सभी कभी-न-कभी भाजपा के साथ सरकारें चलाते हुए मधुयामिनी व्यतीत कर चुके हैं। ये सभी क्षेत्रीय पार्टियाँ मुख्यतः कृषि और उद्योग क्षेत्र के क्षेत्रीय/छोटे पूँजीपतियों के वर्ग-हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियाँ हैं और इनका अपना बुर्जुआ जनवाद भी अत्यंत संकुचित और विकृत विकलांग हैं। नवउदारवाद के इस ज़माने में धनी किसान और छोटे पूँजीपति भारतीय पूँजीवादी संसदीय राजनीति के दायरे में भी, बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध जुझारू तेवर के साथ कोई लड़ाई लड़ पाने की क्षमता नहीं रखते। वे ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़े गये अधिशेष में अपनी भागीदारी बढ़ाने और सर्वव्यापी पूँजीवादी संकट का ज़्यादा बोझ अपने ऊपर न डालने के लिए बड़े पूँजीपति वर्ग पर दबाव बना सकते हैं। और दबाव बना सकते हैं। क्षेत्रीय और छोटी बुर्जुआ पार्टियों का आचरण इसी वर्ग-समीकरण से तय होते हैं। सत्ता में भागीदार बनने के जुगाड़ में इनमें से कोई भी पार्टी यूपीए, एनडीए, प्रस्तावित किसी तीसरे मोर्चे या ममता बनर्जी प्रस्तावित फेडरल फ्रण्ट जैसे किसी भी मोर्चे के साथ चादर डाल जा बैठ सकती है। शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी अपने सभी पत्ते खुले रखे हैं।

जहाँ तक संसदीय सुअरबाड़े में साठ वर्षों से लोट लगाते चुनावी वामपंथी भाँड़ो की बात है, उनकी स्थिति सर्वाधिक हास्यास्पद है। ये चुनावी वामपंथी आर.एस.एस. भाजपा को शुरू से ही हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी मानते हैं, पर ग़ैर कांग्रेस-ग़ैरभाजपा विकल्प बनाने की कोशिश में जिन दलों के साथ साम्प्रदायिकता-विरोधी सम्मेलन कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश कभी न कभी सत्ता की सेज पर भाजपा के साथ रात बिता चुके हैं। रही बात मुलायमसिंह की, तो वह कई बार इन्हें दुत्कार चुके हैं। फिर भी इन चुनावी वामपंथी खोमचेवालों से पूछा जाना चाहिए कि फ़ासीवाद के विरोध की रणनीति के बारे में बीसवीं सदी के इतिहास की और मार्क्सवाद की शिक्षाएँ क्या हैं? क्या फ़ासीवाद का मुक़ाबला मात्र संसद में बुर्जुआ दलों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर किया जा सकता है? अगर ये बात बहादुर मज़दूर वर्ग की पार्टी होने का दम भरते हैं (और इनके पास सीटू और एटक जैसी बड़ी राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनें भी हैं) तो 1990 (आडवानी की रथयात्रा), 1992 (बाबरी मस्जिद ध्वंस), या 2002 (गुजरात नरसंहार) से लेकर अब तक हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के विरुद्ध व्यापक मेहनतकश जनता की लामबंदी के लिए इन्होंने क्या किया है? इन घटनाओं के बाद देश भर के शहरी ग्रामीण मज़दूरों को धार्मिक कट्टरपंथी फ़ासीवाद विरोधी एक राष्ट्रीय रैली में भी इन्होंने जुटाने की कोशिश की? संघ परिवार का फ़ासीवाद एक सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन है और मेहनतकश जनता का जुझारू आन्दोलन ही इसका मुक़ाबला कर सकता है। लेकिन इन संशोधनवादी पार्टियों ने तो साठ वर्षों से मज़दूर वर्ग को केवल दुअन्नी-चवन्नी की अर्थवादी लड़ाइयों में उलझाकर उसकी चेतना को भ्रष्ट करने का ही काम किया है। इनकी ट्रेडयूनियनों के भ्रष्ट नौकरशाह नेताओं ने मज़दूरों की जनवादी चेतना को भी कुन्द बनाने का ही काम किया है। मज़दूर वर्ग की राजनीति के नाम पर मज़दूरों के ये गद्दार केवल पोलिंग बूथ का ही रास्ता दिखाते रहे हैं। ये नकली वामपंथी, जो हमेशा से पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम करते रहे हैं, उनका ‘‘समाजवाद’’ आज गलित कुष्ठ रोग जितना घिनौना हो चुका है। आज ज़्यादा से ज़्यादा वे नवउदारवादी दैत्य से मानवीय मुखौटा पहनने का अनुरोध कर सकते हैं और ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ के अमर्त्य सेन ब्राण्ड कुछ कीन्सियाई नुस्खे सुझा सकते हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि बुर्जुआ जनवाद के खेल के सुचारू रूप से चलते रहने के लिए ये वाक़ई सबसे अधिक चिन्तित हैं, इनकी चिन्ता ‘जेनुइन’ है और इस चिन्ता में जिस-तिस बुर्जुआ पार्टी को सहयोगी बनाने के लिए भागदौड़ कर रहे हैं, क्योंकि बिचारे अधिकतम सम्भव यही कर सकते हैं कि भाजपा-विरोधी चुनावी मोर्चा बनायें। संसदीय राजनीति से और आर्थिक लड़ाइयों से इतर वर्ग संघर्ष की राजनीति को तो ज़माने पहले ये लोग तिलांजलि दे चुके हैं। अब तो उनकी चर्चा तक से इनके कलेजे काँप उठते हैं। फिर भाकपा-माकपा के नेता भाजपा के पूर्व सहयोगियों के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता-विरोधी सम्मेलन में गत्ते की तलवारें भाँज रहे हैं और इनसे जुड़े बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी मोमबत्तियाँ जलाकर फ़ासीवाद के विरोध में कबीर और सूफी संतों के क़लाम पढ़ और गा रहे हैं।

धार्मिक कट्टरपंथी फ़ासीवाद के वर्तमान उभार का कारण नरेन्द्र मोदी नहीं है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के एक मार्डन संस्करण के उभार के कारण मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के असाध्य ढाँचागत संकट के वर्तमान दौर में देखे जाने चाहिए। इस पूँजीवादी संकट का एक क्रान्तिकारी समाधान हो सकता है ­ पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय की तथा शासन की प्रणाली को ही बदल देना। इस समाधान की दिशा में यदि समाज आगे नहीं बढ़ेगा तो पूँजीवादी संकट का फ़ासीवादी समाधान ही सामने आयेगा जिसका अर्थ होगा, जनवादी प्रतिरोध के हर सीमित स्कोप को भी समाप्त करके मेहनतकश जनता पर पूँजी की नग्न-निरंकुश तानाशाही स्थापित करना।

अतीत से सबक लेकर, भारतीय पूँजीपति वर्ग फ़ासीवाद को नियंत्रित रखते हुए उसी हद तक इस्तेमाल करना चाहता है कि वह जन-प्रतिरोध को कुचल सके, जनता की वर्ग चेतना को कुन्द कर सके और निर्बाध रूप से मेहनतकश जनता से अधिशेष निचोड़ सके। पर स्थितियाँ उसके नियंत्रण में रहे, यह ज़रूरी नहीं। ढाँचे की गति हमेशा शासक वर्ग की इच्छा से नहीं तय होती। कुत्ता जंजीर छुड़ाकर स्वतंत्र भी हो सकता है। उग्र साम्प्रदायिक नारे और दंगे उभाड़ने की साजिशें पूरे समाज को ख़ून के दलदल में डुबो सकती हैं। केवल धार्मिक अल्पसंख्यक ही नहीं, समूची ग़रीब मेहतनक़श आबादी को भीषण रक्तपात का कहर झेलना पड़ सकता है। संघ परिवार जो फ़ासीवादी लहर उभाड़ रहे है, वह मुस्लिम आबादी के बीच भी धार्मिक मूलतत्ववादी फ़ासीवादी गुटों को आधार बनाने का अवसर दे रहा है। इस तरह दोनों एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं।

प्रश्न केवल चुनावी राजनीति का है ही नहीं। पूँजीवादी संकट पूरे समाज में (क्रान्तिकारी शक्तियों की प्रभावी उपस्थिति के अभाव में) फ़ासीवादी प्रवृत्तियों और संस्कृति के लिए अनुकूल ज़मीन तैयार कर रहा है। संघ परिवार अपने तमाम अनुसंगी संगठनों के सहारे बहुत व्यवस्थित ढंग से इस ज़मीन पर अपनी फसलें बो रहा है। वह व्यापारियों और शहरी मध्यवर्ग में ही नहीं, आदिवासियों से लेकर शहरी मज़दूरों की बस्तियों तक में पैठकर काम कर रहा है। इसका जवाब एक ही हो सकता है। क्रान्तिकारी शक्तियाँ चाहे जितनी कमज़ोर हों, उन्हें बुनियादी वर्गों, विशेषकर मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार-उद्वेलन, लामबंदी और संगठन के काम को तेज़ करना होगा। जैसाकि भगतसिंह ने कहा था, जनता की वर्गीय चेतना को उन्नत और संगठित करके ही साम्प्रदायिकता का मुक़ाबला किया जा सकता है।

 

मज़दूर बिगुलनवम्‍बर  2013

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