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आपस की बात : ब्रिटेन के प्रवासी मज़दूरों के बुरे हालात

बिल्डिंग लाइन में काम करने वाले मज़दूरों की काम करने की मियाद कुछ 5-7 साल ही होती है। कड़कती ठण्ड में लगातार काम करते रहने से उनकी हड्डि‍याँ भी टेढ़ी हो जाती हैं। लगभग सभी को ही पीठ दर्द की शिकायत रहती है, लेकिन काम से निकाले जाने के डर से वो अपनी तकलीफ़ों का जि़क्र किसी से नहीं करते। प्रवासी मज़दूरों की मजबूरियों का फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और दलाल भी प्रवासी ही होते हैं जो ख़ुद इस प्रक्रिया से गुज़रकर बाद में मालिक बनकर उनके सर पर सवार हो जाते हैं और उन्हें लूटने का कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते। मज़दूरों का ख़ून चूस कर अपने घर भरने वालों में पंजाबी सबसे आगे हैं। वह भारतीय प्रवासियों के अलावा रोमेनीयन, स्लोवाकि‍यन और अन्य ग़रीब यूरोपीय मुल्क़ों के मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेते हैं और सारा दिन काम के बदले में उन्हें शराब और सिगरेट देकर मामला निपटा देते हैं। फिर बड़ी बेशरमी से कहते हैं कि इन्हें पैसे जोड़ने का कोई लालच नहीं होता, बस शराब सिगरेट से ही ख़ुश हो जाते हैं।

ब्रिटिश सैनिकों की अन्धकार भरी ज़िन्दगी की एक झलक

यह दर्दनाक घटनाक्रम सिर्फ एक ब्रिटिश सैनिक के हालात नहीं बताता बल्कि ब्रिटिश सेना के मौजूदा और पूर्व सैनिकों की एक बड़ी संख्या की हालत को बताता है। युवाओं को एक अच्छे, देशभक्तिपूर्ण, बहादुरी और शान वाले रोज़गार का लालच देकर ब्रिटिश सेना में भर्ती किया जाता है। सर्वोत्तम बनो, दूसरो से ऊपर उठो जैसे लुभावने नारों के जरिए युवाओं का ध्यान सेना की तरफ खींचा जाता है। दिल लुभाने वाले बैनरों, पोस्टरों, तस्वीरों के जरि‍ए ब्रिटिश सेना की एक गौरवशाली तस्वीर पेश की जाती है। लेकिन ब्रिटिश सेना की जो लुभावनी तस्वीर पेश की जाती है उसके पीछे एक बेहद भद्दी (असली) तस्वीर मौजूद है। वियतनाम युद्ध के बाद सैनिकों के हालात को लेकर ब्रिटिश सेना के सर्वेक्षण शुरू हुए थे। अक्तूबर 2013 में ब्रिटिश सेना के बारे में ‘फोर्सस वाच संस्था’ ने ‘दी लास्ट ऐम्बुश’ नाम की एक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट डेढ सौ स्रोतों से जानकारी जुटा कर तैयार की गई। इन स्रोतों में ब्रिटिश सेना की तरफ से जारी की गई 41 रिर्पोटें और पूर्व सैनिकों के साथ बातचीत भी शामिल है। फोर्सेस वाच का खुद का कहना है कि सेना के नियंत्रण में होने वाले सर्वेक्षण में पूरी सच्चाई बाहर नहीं आती। लेकिन इनके अधार पर तैयार की गई रिपोर्ट ब्रिटिश सैनिकों की अँधेरी ज़िन्दगी की तस्वीर के एक हिस्से को तो उजागर करती है।

ब्रिटेन में ग़रीबों का विद्रोह – संकटग्रस्‍त दैत्‍य के दुर्गों में ऐसे तुफ़ान उठते ही रहेंगे

इतिहास में बार-बार साबित हुआ है कि जहाँ दमन है वहीं प्रतिरोध है। इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि जब ग़ुलामों के मालिकों पर संकट आता है, ठीक उसी समय ग़ुलाम भी बग़ावत पर आमादा हो उठते हैं। ब्रिटेन का यह विद्रोह उस आबादी का विद्रोह है जिसे उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने धकेलते-धकेलते उस मुक़ाम पर पहुँचा दिया है जहाँ उसे अपने अस्तित्व के लिए भी जूझना पड़ रहा है। युवाओं की भारी आबादी को न कोई भविष्य दिखायी दे रहा है और न कोई विकल्प। ऐसे में बीच-बीच में इस तरह के अन्धे विद्रोह फूटते रहेंगे और पूँजीवादी शासकों की नींद हराम करते रहेंगे। ऐसे अराजक विद्रोह जनता को मुक्ति की ओर तो नहीं ले जा सकते लेकिन पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की भीतरी कमज़ोरी को ये सतह पर ला देते हैं और उसके सामाजिक संकट को और गहरा कर जाते हैं। साम्राज्यवादी देशों के भीतर सर्वहारा का आन्दोलन आज कमज़ोर है लेकिन बढ़ता आर्थिक संकट मज़दूरों के निचले हिस्सों को रैडिकल बना रहा है।