ब्रिटेन में ग़रीबों का विद्रोह
संकटग्रस्त दैत्य के दुर्गों में ऐसे तुफ़ान उठते ही रहेंगे
सत्यप्रकाश
पिछले 6 अगस्त को ब्रिटेन में भड़के उग्र दंगों ने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया। चार दिनों और चार रातों तक यूरोप के सबसे बड़े शहर लन्दन सहित ब्रिटेन के कई शहरों में ग़रीबों के इस विद्रोह की लपटें भड़कती रहीं। इस वर्ष की शुरुआत से ही पूरी दुनिया में जनउभार और सामाजिक उथल-पुथल जारी है – मिस्र में, पूरे मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में, स्पेन, ग्रीस, चीले और कई अन्य देशों में। फिर ब्रिटेन में लाखों लोगों के ग़ुस्से का लावा सड़कों पर फूट पड़ा। यह एक ऐसे समाज के खि़लाफ़ बरसों से जमा गुस्से का विस्फोट था जो उन्हें अभाव, बर्बरता और गहरी हताशा के सिवा कुछ नहीं देता।
लन्दन के टॉटेनहम इलाक़े में कुछ पुलिसवालों द्वारा एक अश्वेत नौजवान मार्क डुगन की झूठी मुठभेड़ में हत्या के बाद जो दंगे भड़के वह लम्बे समय से सुलग रहा असन्तोष था जो बग़ावत के रूप में फूट पड़ा था। 4 अगस्त को पुलिस ने एक मिनी कैब में जा रहे मार्क डुगन को रोककर उतारा और बिल्कुल नज़दीक से उसे गोली मार दी। पुलिस ने झूठी कहानी बनायी कि मार्क ने पुलिस पर गोली चलायी थी जो एक पुलिसवाले के वायरलेस सेट में धँस गयी थी। बाद में यह साफ़ हो गया कि मार्क के पास बन्दूक ही नहीं थी और वायरलेस सेट में धँसी गोली पुलिस के ही हथियार से चलायी गयी थी। इस हत्या के विरोध में जब इलाक़े के लोग पुलिस स्टेशन पर प्रदर्शन कर रहे थे तो कई पुलिसवालों ने एक 16 वर्षीय लड़की की बुरी तरह पिटाई कर दी।
उस रात, टॉटेनहम में लोगों का ग़ुस्सा भड़क उठा। नाराज़ भीड़ ने कई इमारतों को आग लगा दी और पुलिस स्टेशन पर हमले किये। जगह-जगह बैरिकेड खड़े कर दिये गये और सड़कों पर मोर्चाबन्दी करके पुलिस से लड़ाई शुरू हो गयी। अगले दिन रविवार को, राजधानी लन्दन के भीतर और आसपास के कई इलाक़ों: उत्तर में हैकनी, एनफ़ील्ड और दूसरे क्षेत्र; दक्षिण में ब्रिक्सटन आदि क्षेत्र; मध्य लन्दन के मुख्य व्यापारिक इलाक़े ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट और कई उपनगरों में लपटें भड़क उठीं। सोमवार और मंगलवार तक ब्रिटेन के अन्य बड़े शहरों, बर्मिंघम, लीड्स, ग्लूस्टर, मानचेस्टर, साल्फोर्ड, लिवरपूल, नॉटिंघम और ब्रिस्टल आदि में भी अशान्ति फैल चुकी थी। ग़रीबों की आबादी वाले लन्दन के 20 इलाक़ों में चार दिनों तक सड़कों पर लोगों का ही कब्ज़ा रहा।
ब्रिटिश सत्ताधारियों ने इसके जवाब में लन्दन की सड़कों पर 16,000 पुलिसवाले उतार दिये, जोकि इस शहर के इतिहास में सबसे अधिक है। दंगे शान्त हो जाने के बाद कई दिनों तक पुलिस फोटोग्राफ़ और टीवी चैनलों की वीडियो रिकार्डिंग से पहचान कर-करके लोगों की धर-पकड़ करती रही। 2000 से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया गया। ब्रिटिश प्रधानमन्त्री डेविड कैमरॉन से लेकर गृहमन्त्री टेरेसा मे और विपक्षी लेबर पार्टी के नेता एड मिलिबैण्ड तक सबने इसे असामाजिक तत्वों की आपराधिक कार्रवाई करार दिया और कहा कि इसका इलाज कठोर पुलिस कार्रवाई है। रूपर्ट मर्डोक के मालिकाने वाले प्रतिक्रियावादी सनसनीखेज़ अख़बारों से लेकर ब्रिटिश बुर्जुआ वर्ग के उदार धड़े का प्रतिनिधित्व करने वाले बी.बी.सी. तक इस बात से इंकार करते रहे कि इस उथल-पुथल का ग़रीबी, बेरोज़गारी, नस्लवाद और पुलिस की क्रूरता से कोई सम्बन्ध है।
बेशक, यह एक अराजक विस्फोट था और इस दौरान बड़ी कम्पनियों के शोरूमों के अलावा बहुत-सी छोटी दुकानों को भी लूटने और जलाने की घटनाएँ हुईं। लूटपाट और आगज़नी में भाग लेने वाले युवाओं का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश समाज के रसातल में रहने वाले लम्पट सर्वहाराओं का भी था। लेकिन सड़कों पर उतरे नौजवानों और उनके समुदायों के लोगों में आम तौर पर यह भावना थी कि यह राज्य के उन सशस्त्र बलों से लड़ने का एक मौक़ा है जो उन्हें लगातार अपमान और क्रूरता का शिकार बनाते रहते हैं। एक टीवी रिपोर्टर ने एक नौजवान से पूछा कि क्या दंगा करना असन्तोष व्यक्त करने का सही तरीका है? उसने जवाब दिया: “हाँ, अगर हम ये सब नहीं करते तो आप मुझसे बात नहीं कर रहे होते। दो महीने पहले हम मार्च निकालकर स्कॉटलैण्ड यार्ड (लन्दन पुलिस का मुख्यालय) तक गये थे – हम 2000 काले लोग थे, पूरी तरह शान्तिपूर्ण, और क्या हुआ? प्रेस में एक शब्द भी नहीं आया। कल रात थोड़ा-सा दंगा हुआ और देखिये – सारे चैनल यहाँ मौजूद हैं।” ‘गार्डियन’ अख़बार की एक रिपोर्ट के अनुसार नौजवानों का मक़सद साफ़ था: वे पुलिस से लड़ना चाहते थे। नौजवान लड़के-लड़कियों ने जगह-जगह मलबा, ड्रम, जलती लकड़ियों और मोटरसाइकिलों से अपने रिहायशी इलाक़ों को घेरकर उनके पीछे से पुलिस से घण्टों तक मोर्चा लिया।
इन दंगों में सबसे बड़ी संख्या में काले लोगों ने हिस्सा लिया क्योंकि उनकी आबादी सबसे अधिक अभावग्रस्त और वंचित है और वे ही सबसे अधिक पुलिस उत्पीड़न का शिकार होते हैं। एशियाई प्रवासी आबादी इसमें भागीदारी से दूर रही लेकिन ग़रीब गोरी आबादी का भी एक हिस्सा पुलिस से लड़ने और लूटपाट में शामिल था। मेहनतकश गोरी आबादी में सड़क पर उतरे नौजवानों के प्रति समर्थन भी था। एक बस ड्राइवर ने एक अख़बार के रिपोर्टर से कहा, “उन्हें सिर्फ़ पुलिस से नहीं लड़ना चाहिए। उन्हें कैमरॉन की सरकार से लड़ना चाहिए।”
इन दंगों का विश्लेषण ब्रिटिश समाज में व्याप्त रंगभेद और प्रवासी आबादी की बदहाली एवं उत्पीड़न के ही सन्दर्भ में करना नाकाफ़ी होगा। इससे भी अधिक यह बढ़ते पूँजीवादी आर्थिक संकट, ब्रिटिश समाज के गहराते आन्तरिक संकट, उसके टूटते सामाजिक ताने-बाने और उग्र होते वर्गीय तथा सामाजिक अन्तरविरोधों का सूचक है।
मार्क डुगन की हत्या ने बारूद के ढेर में चिंगारी का काम किया लेकिन लावा तो लम्बे समय से सुलग रहा था। 2008 से शुरू हुई भीषण मन्दी के बाद से तमाम कल्याणकारी योजनाओं में सरकारी कटौती और बढ़ती बेरोज़गारी ने गुस्से की आग में ईंधन का काम किया। दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारों की तरह ब्रिटिश शासकों ने भी आर्थिक संकट के जवाब में एक ओर तो पूँजीपतियों को अरबों पौण्ड की वित्तीय सहायता दी है, और दूसरी ओर स्वास्थ्य, शिक्षा, ग़रीबों के लिए आवास, पेंशन जैसे कार्यक्रमों में भारी कटौतियाँ लागू की हैं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के दौर में इन सभी कार्यक्रमों में क्रमशः कटौतियों का सिलसिला वैसे तो पिछले डेढ़-दो दशक से जारी है। इन कटौतियों की मार सबसे अधिक उन तबकों पर पड़ी है जो पहले ही भयंकर ग़रीबी की चपेट में हैं। पिछले तीन वर्षों में देशभर में बेरोज़गारी दोगुनी हो गयी है और टॉटेनहम जैसी जगहों पर हालत और भी ख़राब है। हर उपलब्ध नौकरी के लिए काम की तलाश करते 54 नौजवान मौजूद हैं। काले नौजवानों के बीच बेरोज़गारी की दर 50 प्रतिशत है। ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ में 11 अगस्त को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जिन इलाक़ों में दंगे हुए उन सभी में बेरोज़गारी की दर शेष ब्रिटेन से काफ़ी अधिक है।
ब्रिटेन पूरे पश्चिमी जगत में सबसे अधिक असमान समाजों में से एक रहा है। वहाँ 21.8 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे रहती है। आवास के खर्चों को जोड़ने के बाद तो यह आँकड़ा 28 प्रतिशत तक पहुँच जाता है। इस वर्ष यूरोपीय समुदाय के एक अध्ययन से पता चला कि ब्रिटिश नौजवानों में 17 प्रतिशत ऐसे हैं जिनके पास न रोज़गार है, न शिक्षा और न कोई तकनीकी प्रशिक्षण। यानी वे हाईस्कूल से पहले ही पढ़ाई छोड़ चुके हैं और उन्हें रोज़गार मिलने की कोई सम्भावना भी नहीं है। इसी अध्ययन से पता चला कि 25 वर्ष से कम उम्र के 6 लाख से अधिक लोगों को कभी एक दिन का भी काम नहीं मिला है। वहाँ एक बहुत बड़ी आबादी समाज के रसातल में धकेल दी गयी है जो व्यवहारतः बाज़ार व्यवस्था से बहिष्कृत, समाज के हाशियों पर उपेक्षित, लांछित और अनुत्पादक ढंग से जी रही है। इसी आबादी के बीच अमानवीकरण और अपराधी प्रवृत्तियाँ भी पैदा होती हैं।
एक ब्रिटिश वेबसाइट ने दंगों पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि जिस समाज में सिर्फ़ एक घण्टे के बस के सफ़र से आप दो ऐसी अलग-अलग दुनियाओं में पहुँच जाते हैं जिनमें नागरिकों की औसत उम्र में 6 वर्ष का अन्तर है, वह एक बुरी तरह बीमार समाज है। कहने को लन्दन दुनिया का सबसे महँगा शहर है, लेकिन इसके भीतर एक ग़रीब देश भी बसता है। उदारीकरण की नीतियों के समर्थक अख़बार ‘फ़ाइनेंशियल टाइम्स’ ने भी पिछले साल चेतावनी दी थी कि “ब्रिटेन को बढ़ते अन्तर का ध्यान रखना होगा।” पिछले वर्ष आयी एक चर्चित किताब के लेखकों ने बताया था कि बढ़ती असमानता सामाजिक हिंसा और अपराधों को बढ़ावा दे रही है जिसके चलते 1990 से 2007 के बीच ब्रिटेन की जेलों में क़ैद लोगों की संख्या बढ़कर दो गुनी हो गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि इन क़ैदियों में सबसे बड़ी संख्या ग़रीबों और काले लोगों की है।
बढ़ते पुलिस उत्पीड़न और नस्लवादी घृणा ने आग में घी का काम किया है। पिछले दिनों लागू ज्वाइण्ट एण्टरप्राइज़ क़ानूनों के तहत किसी अपराध के लिए लोगों के पूरे समूह को दोषी ठहराया जा सकता है। यहाँ तक कि किसी अपराधी को जानने वाले निर्दोष लोग भी इसकी चपेट में आ सकते हैं। जैसा कि एक काले छात्र ने बीबीसी को बताया, “अगर आप किसी ग़रीब इलाक़े में रहते हैं तो यह नामुमकिन है कि आप किसी अपराधी को न जानते हों। और ऐसे में अगर आप ज्वाइण्ट एण्टरप्राइज़ क़ानून के तहत कम उम्र में ही जेल भेज दिये गये, तो बाहर आने के बाद आपको काम मिलना और भी मुश्किल हो जायेगा।”
पुलिस आये दिन ग़रीब इलाक़ों में छापे मारती रहती है। पिछले एक दशक में ब्रिटिश पुलिस की हिरासत में क़रीब 1000 लोगों की मौत हो चुकी है और आज तक किसी भी पुलिसकर्मी को इसमें सज़ा नहीं हुई है। ब्रिटेन में काले लोगों की आबादी महज़ 2.5 प्रतिशत है लेकिन पुलिस द्वारा किसी काले आदमी को रोककर तलाशी लेने की सम्भावना गोरों के मुक़ाबले सात गुना अधिक होती है। लोगों ने यह भी देखा है कि पुलिस अपने अपराधों के बारे में किस तरह झूठ बोलती है, जैसाकि उन्होंने मार्क डुगन के मामले में किया। 2005 में जब पुलिस ने लन्दन मेट्रो में बम विस्फोटों के बाद एक बेकसूर ब्राज़ीली नौजवान ज्यां चार्ल्स मेनेज़ेस के सिर में छह गोलियाँ मारी थीं तब उन्होंने कहा था कि उसकी हरकतें “आतंकवादी” जैसी थीं, जबकि प्रत्यक्षदर्शियों और जाँच रिपोर्टों के मुताबिक उसने कुछ भी असामान्य नहीं किया था। 2008 में जी-8 देशों के सम्मेलन के खिलाफ़ प्रदर्शनों के दौरान इयान टॉमलिन्सन नामक एक अख़बार विक्रेता को डण्डों से पीटकर मार डाला गया था। तब भी पुलिस ने कहा था कि उसे प्रदर्शनकारियों ने मारा है जबकि उसकी हत्या एक पुलिस सार्जेण्ट ने की थी। इसी वर्ष अप्रैल में एक काले प्रतिरोधी संगीतकार स्माइली कल्चर के घर पर पुलिस के छापे के दौरान पुलिस ने दावा किया कि उसने सीने में चाकू घोंपकर आत्महत्या कर ली। इस घटना के विरोध में भी उग्र प्रदर्शन हुए थे। मार्क डुगन जिस इलाक़े में रहता था उसी इलाक़े में दो दशक पहले पुलिस ने एक सामुदायिक कार्यकर्ता की मां सिन्थिया जैरेट की हत्या कर दी थी।
इस सबके कारण सिर्फ़ “स्थायी रूप से बेरोज़गार” युवाओं और रसातल की अन्य आबादी में ही नहीं बल्कि ग़रीब मेहनतक़शों, विद्यार्थियों और अन्य निचले तबके में भी हताशा और गुस्सा बढ़ता गया है। पिछले साल विश्वविद्यालयों की फीस में तीन गुना बढ़ोत्तरी का विरोध कर रहे छात्रों और पुलिस के बीच हिंसक झड़पें हुई थीं। हाल की घटनाओं के बाद अदालत में पेश किये गये लोगों में से एक ग्राफ़िक डिज़ाइनर, डाकघर के कर्मचारी, डेण्टिस्ट के असिस्टेण्ट, शिक्षक, फोर्कलिफ़्ट ड्राइवर जैसे लोग भी थे (न्यूयार्क टाइम्स)। ब्रिटिश समाचार एजेंसी रायटर की एक रिपोर्ट में हैकनी के एक नौजवान ने कहा, “(दंगे करने वाले) ये लोग कोई गुण्डे-मवाली नहीं थे। वे मेहनतकश लोग थे, जो गुस्से से भरे हुए हैं। उन्होंने हर चीज़ महँगी कर दी है, बच्चों को मिलने वाली सुविधाओं तक में कटौती कर दी है। हर किसी को बस अपना ग़ुस्सा निकालने का एक मौका मिल गया।”
लम्पट तत्वों द्वारा छोटी दुकानों में लूटपाट की घटनाओं को छोड़ दिया जाये तो ज़्यादातर जगहों पर लूटपाट का निशाना विशाल महँगे स्टोर और बड़ी कम्पनियों के शोरूम ही थे। यह नहीं भूलना चाहिए कि खुद पूँजीवादी समाज ग़रीबों के सामने विलासिता के अपने सामानों का अश्लील प्रदर्शन करता रहता है और उन्हें बार-बार यह एहसास कराता रहता है कि अगर तुम्हारे पास फ्लैटस्क्रीन टीवी, स्टीरियो, माइक्रोवेव या फैशनेबल कपड़े नहीं हैं तो तुम इन्सान होने के क़ाबिल ही नहीं हो, जबकि दूसरी ओर वही समाज आम आबादी को लगातार ऐसी ग़रीबी में धकेलता जाता है जहाँ उनके लिए अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करना ही मुश्किल हो जाता है। बड़े पैमाने पर हुई लूटपाट के पीछे एक प्रतिशोधी भावना भी थी। जैसा कि एक टीवी चैनल पर दो लड़कियों ने कहा, “हम अमीरों को दिखा देना चाहते हैं कि हम जो चाहे वो कर सकते हैं!”
कुल मिलाकर, ब्रिटेन में ग़रीबों के असन्तोष का यह विस्फोट पूँजीवाद के अपरिहार्य अन्तरविरोधों और उसके बढ़ते संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। बढ़ती असमानता समृद्ध से समृद्ध पूँजीवादी समाज में भी अनिवार्य है। दुनियाभर से भारी मुनाफ़ा बटोरने वाले और ग़रीब देशों के श्रम और प्राकृतिक सम्पदा को मिट्टी के मोल ख़रीदने वाले साम्राज्यवादी लूट के एक हिस्से से अपने देश के मज़दूरों के ऊपरी तबके को सुविधाएँ देकर व्यवस्था-परस्त तो बनाते हैं लेकिन वे इतने उदार नहीं हो सकते कि अपने देश के मज़दूरों को लूटना ही बन्द कर दें। बढ़ते आर्थिक संकट के दबाव में उन्हें अपने देश के मज़दूरों को भी और अधिक निचोड़ने तथा उन्हें मिल रही सुविधाओं में कटौती करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। पिछले दिनों यूरोप के बहुत से देशों में हुए व्यापक आन्दोलन इसी का नतीजा थे। वहाँ मज़दूरों- कर्मचारियों का वह वर्ग अगली क़तारों में था जो दशकों से मिल रही सुविधाओं और बाक़ी दुनिया से काफ़ी बेहतर वेतन में कटौती से नाराज़ था। लेकिन ब्रिटेन में अभी जो हुआ वह एक अलग परिघटना है।
ब्रिटेन में 1980 के दशक में मार्गरेट थैचर द्वारा कठोर आर्थिक नीतियाँ लागू करने के दौर में भी दंगे भड़के थे। उसके बाद, 1995, 2001 और 2005 में भी कुछ शहरों में नस्ली दंगे हुए थे। लेकिन इस बार का विस्फोट उनसे बहुत व्यापक था और इसे जन्म देने वाला असन्तोष कहीं अधिक गहरा था। पहले के दंगे कुछ इलाक़ों तक सीमित थे, लेकिन इस बार इन दंगों ने जितनी तेज़ी से लगभग पूरे लन्दन और ब्रिटेन के सभी बड़े शहरों को अपनी लपेट में ले लिया उससे सत्ताधारी भौचक रह गये। इटली में छुट्टी बिता रहे प्रधानमन्त्री डेविड कैमरॉन को भागकर ब्रिटेन आना पड़ा। मगर ब्रिटिश शासक अब भी इस विद्रोह के सामाजिक-आर्थिक कारणों को स्वीकारने से इन्कार कर रहे हैं क्योंकि इसका मतलब होगा यह स्वीकार करना कि इन हालात के लिए ज़िम्मेदार उदारीकरण- निजीकरण की वे नीतियाँ हैं जिन्हें वे अपने देश सहित पूरी दुनिया पर थोप रहे हैं। कैमरॉन की सरकार सामाजिक सेवाओं में और अधिक कटौतियों के अपने प्रस्ताव पर अब भी अड़ी हुई है। दंगों के बाद सिर्फ़ एक कटौती वापस लेने के लिए सरकार राज़ी हुई है। वह है गृह विभाग के बजट में पुलिस बलों के मद में 2.7 अरब पौण्ड की कटौती का प्रस्ताव! इसकी वजह साफ़ है।
शीर्षस्थ अधिकारियों और मीडिया के अहंकारभरे और परोक्ष नस्लवादी तेवरों से हिम्मत पाकर ब्रिटिश नेशनल पार्टी और इंग्लिश डिफ़ेंस लीग जैसे ब्रिटेन के अन्धराष्ट्रवादी फ़ासिस्ट गुट भी खुलकर सामने आ गये हैं। इन गुटों के सदस्यों ने कई जगहों पर खुलेआम प्रदर्शन किये जिनमें ‘कालों को मार डालो’ जैसे नारे लगाये गये। कई वेबसाइटों पर प्रवासियों को देश से निकाल बाहर करने और यहाँ तक कि ख़त्म कर डालने का भी आह्वान किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इन मामलों में ब्रिटिश पुलिस ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है।
इतिहास में बार-बार साबित हुआ है कि जहाँ दमन है वहीं प्रतिरोध है। इतिहास इस बात का भी गवाह रहा है कि जब ग़ुलामों के मालिकों पर संकट आता है, ठीक उसी समय ग़ुलाम भी बग़ावत पर आमादा हो उठते हैं। ब्रिटेन का यह विद्रोह उस आबादी का विद्रोह है जिसे उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने धकेलते-धकेलते उस मुक़ाम पर पहुँचा दिया है जहाँ उसे अपने अस्तित्व के लिए भी जूझना पड़ रहा है। युवाओं की भारी आबादी को न कोई भविष्य दिखायी दे रहा है और न कोई विकल्प। ऐसे में बीच-बीच में इस तरह के अन्धे विद्रोह फूटते रहेंगे और पूँजीवादी शासकों की नींद हराम करते रहेंगे। ऐसे अराजक विद्रोह जनता को मुक्ति की ओर तो नहीं ले जा सकते लेकिन पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की भीतरी कमज़ोरी को ये सतह पर ला देते हैं और उसके सामाजिक संकट को और गहरा कर जाते हैं। साम्राज्यवादी देशों के भीतर सर्वहारा का आन्दोलन आज कमज़ोर है लेकिन बढ़ता आर्थिक संकट मज़दूरों के निचले हिस्सों को रैडिकल बना रहा है।
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