आपस की बात : ब्रिटेन के प्रवासी मज़दूरों के बुरे हालात
रिम्पी गिल (इंग्लैण्ड)
ब्रिटेन में सर्दी का मौसम शुरू होते ही कामकाज भी कम होने लगते हैं। बारिश का कोई भरोसा नहीं किसी भी समय शुरू हो जाती है जो कामगारों की मुश्किलों को और बढ़ा देती है। जिन मज़दूरों के पास काम करने की परमिशन होती है उन्हें काम ढूँढ़ने में इतनी मुश्किलें नहीं आतीं जितनी उन मज़दूरों को आती हैं जिन्हें यहाँ रहने की या काम करने की परमिशन नहीं है और इस बात का दलाल लोग पूरा फ़ायदा उठाते हैं। बिल्डिंग और कंस्ट्रक्शन का काम यहाँ सबसे मुश्किल कामों में से है और सर्दी के मौसम में तो मुश्किलें दुगनी हो जाती हैं। ऐसे में बिना काम की परमिशन वाले मज़दूर जिनमें ज़्यादातर प्रवासी ही होते हैं उनका शोषण भी ख़ूब होता है। यहाँ कंस्ट्रक्शन का काम करने वालों को मिनिमम £9 प्रति घण्टे के हिसाब से मज़दूरी तय है। लेकिन इन प्रवासी मज़दूरों को £3 प्रति घण्टे के हिसाब से ही पैसे मिलते हैं। अगर पूरे दिन की दिहाड़ी के हिसाब से बात हुई हो तो इससे भी कम पैसे दिये जाते हैं। एक दिन की दिहाड़ी £25 से शुरू होती है जिसमें एक से दो साल तक बढ़ने की कोई सम्भावना नहीं होती। काम की शिफ़्ट भी 12 से 13 घण्टे की होती है जिसमें ब्रेक का कोई निश्चित समय नहीं होता।
मुझे याद है जब मैं यहाँ नयी-नयी आयी थी और एक दूर के मामा के पास कुछ दिन ठहरी थी जिसके घर पर कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था। वहाँ काम करने वाले मज़दूर को मामा बहुत गन्दी गालियाँ देता था मैने कभी उसे उससे बिना गाली के बात करते हुए नहीं सुना था। मामा को पता था कि मैं कुछ बाग़ी स्वभाव की हूँ और मेरा उस मज़दूर से बात करना उसके लिए शायद नुक़सानदायक हो सकता है, इसलिए वो निगरानी रखता था कि मैं उससे बात न कर सकूँ। एक दिन जब वह घर पर नहीं था तो मैने उस मज़दूर से बात करना चाहा। लेकिन वो डरता था और मुझे बार-बार चले जाने को कह रहा था। बहुत ज़ोर देने पर उसने बताया कि वह भारत में एक बेंक में काम करता था, उसने इंजीनियरिंग में डिग्री पायी है। अब यहाँ उसकी पत्नी प्रेगनेण्ट है और उसे कहीं और काम नहीं मिल रहा। मजबूरी में उसे यहाँ काम करना पड़ रहा है। उसकी आवाज़ में दुख और लाचारी थी।
बिल्डिंग लाइन में काम करने वाले मज़दूरों की काम करने की मियाद कुछ 5-7 साल ही होती है। कड़कती ठण्ड में लगातार काम करते रहने से उनकी हड्डियाँ भी टेढ़ी हो जाती हैं। लगभग सभी को ही पीठ दर्द की शिकायत रहती है, लेकिन काम से निकाले जाने के डर से वो अपनी तकलीफ़ों का जि़क्र किसी से नहीं करते। प्रवासी मज़दूरों की मजबूरियों का फ़ायदा उठाने वाले ठेकेदार और दलाल भी प्रवासी ही होते हैं जो ख़ुद इस प्रक्रिया से गुज़रकर बाद में मालिक बनकर उनके सर पर सवार हो जाते हैं और उन्हें लूटने का कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते। मज़दूरों का ख़ून चूस कर अपने घर भरने वालों में पंजाबी सबसे आगे हैं। वह भारतीय प्रवासियों के अलावा रोमेनीयन, स्लोवाकियन और अन्य ग़रीब यूरोपीय मुल्क़ों के मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेते हैं और सारा दिन काम के बदले में उन्हें शराब और सिगरेट देकर मामला निपटा देते हैं। फिर बड़ी बेशरमी से कहते हैं कि इन्हें पैसे जोड़ने का कोई लालच नहीं होता, बस शराब सिगरेट से ही ख़ुश हो जाते हैं।
कहते हैं कि दूर के ढोल सुहाने होते हैं। भारत में बहुत से लोग वहाँ की ग़रीबी और बेरोज़गारी से परेशान होकर विदेशों में काम पाने के अवसर खोजते रहते हैं। लेकिन विदेशों में प्रवासी मज़दूरों की बहुत बुरी हालत होती है। चाहे खाड़ी देशों की बात हो या यूरोप-अमेरिका की।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2018
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