गाँव के ग़रीबों का हित किसके साथ है?

लेनिन

(रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन की कृति ‘गाँव के ग़रीबों से’ 1903 के वसन्त में रूस में स्वतःस्फूर्त किसान आन्दोलन के उभार के समय लिखी गयी थी। किसानों की वर्गीय संरचना के विश्लेषण के आधार पर लेनिन दिखाते हैं कि देहात में सभी किसानों के हित एक समान नहीं हैं। लेनिन लिखते हैं कि गाँव के ग़रीब लोग सिर्फ़ मज़दूर वर्ग से मिलकर शोषण से मुक्ति पा सकते हैं, क्योंकि मज़दूर वर्ग वह एकमात्र शक्ति है, जो न सिर्फ़ भूदास-प्रथा के अवशेषों का उन्मूलन करने और राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करने के लिए सारे किसान वर्ग की लड़ाई का नेतृत्व कर सकता है, बल्कि गाँव के ग़रीब लोगों के साथ मिलकर उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व को ख़त्म करने और समाजवादी रूपान्तरण को अमल में लाने में समर्थ है।

देश और काल के अन्तर के बावजूद इस पुस्तिका का विश्लेषण आज के भारत में भी गाँव के ग़रीबों को उनके संघर्ष की सही दिशा को समझने में बहुत मददगार हो सकता है। हम इस पुस्तिका के एक अध्याय ”देहात में अमीरी और ग़रीबी, सम्पत्तिवान और मज़दूर” के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। आज देश में जिन किसान आन्दोलनों की बहुत चर्चा है, उनके सन्दर्भ में इसे पढ़ना सोच को नयी दिशा देगा, ऐसी हमें उम्मीद है। साथ ही, हम इस विषय में रुचि रखने वाले सभी व्यक्तियों को लेनिन की यह पूरी पुस्तिका ज़रूर पढ़ने का भी सुझाव देंगे – सम्पादक)

… लेकिन किसान यह नहीं जानता कि उसकी विपदा, भूख और तबाही का कारण क्या है और कैसे इस ग़रीबी से उसे निजात मिल सकती है। यह जानने के लिए हमें सबसे पहले यह समझना चाहिए कि शहर और देहात, दोनों में अभाव और ग़रीबी का स्रोत क्या है। हम थोड़े में यह पहले ही बता चुके हैं और देख चुके हैं कि ग़रीब किसानों और देहाती मज़दूरों को शहरी मज़दूरों के साथ ऐक्यबद्ध होना चाहिए। लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है। आगे यह पता लगाना ज़रूरी है कि देहात में किस तरह के लोग धनियों और सम्पत्तिवानों की ओर होंगे और किस तरह के लोग मज़दूरों की तरफ़, सामाजिक-जनवादियों की तरफ़ होंगे। यह पता लगाना ज़रूरी है कि क्या ऐसे किसान बहुत हैं, जो पूँजी जमा करने और दूसरों की मेहनत पर जीने में ज़मींदारों से कुछ कम समर्थ नहीं हैं। जब तक हम इस बात की तह तक नहीं पहुँचते, तब तक ग़रीबी के बारे में चाहे जितनी भी बात क्यों न की जाये, सब फि़ज़ूल होगी; तब तक गाँव के ग़रीब यह नहीं समझ सकेंगे कि गाँव के कौन-से लोग हैं, जिनके लिए आपस में और शहर के मज़दूरों के साथ एका करने की ज़रूरत है और ऐसा किस प्रकार किया जाये कि यह मेल पक्का बन जाये, कि ज़मींदार के अलावा उसके अपने भाईबन्द – धनी किसान – उसे ठग न पायें।

… … …

बात यह है कि किसान भी तरह-तरह के हैं: ऐसे भी किसान हैं, जो ग़रीब और भूखे हैं, और ऐसे भी हैं, जो धनी बनते जाते हैं। फलतः ऐसे धनी किसानों की गिनती बढ़ रही है, जिनका झुकाव ज़मींदारों की ओर है और जो मज़दूरों के विरुद्ध धनियों का पक्ष लेंगे। शहरी मज़दूरों के साथ एकता चाहने वाले गाँव के ग़रीबों को बहुत सावधानी से इस बात पर विचार करना और उसकी छानबीन करनी चाहिए कि इस तरह से धनी किसान कितने हैं, वे कितने मज़बूत हैं और उनकी ताक़त से लड़ने के लिए हमें किस तरह के संगठन की ज़रूरत है। अभी हमने किसानों के बुरे सलाहकारों का जि़क्र किया था। इन लोगों को यह कहने का बहुत शौक़ है कि किसानों के पास ऐसा संगठन पहले ही मौजूद है। वह है मिर या ग्राम-समुदाय। वे कहते हैं, ग्राम-समुदाय एक बड़ी ताक़त है। ग्राम-समुदाय बहुत मज़बूती के साथ किसानों को ऐक्यबद्ध करता है; ग्राम-समुदाय के रूप में किसानों का संगठन (अर्थात संघ, यूनियन) विशाल (मतलब कि बहुत बड़ा, असीम) है।

यह सच नहीं है। यह परी-कथा ही है, चाहे उसे नेक लोगों ने ही क्यों न गढ़ा हो। यदि हम परी-कथाओं पर कान देंगे, तो हम अपने लक्ष्य को, गाँव के ग़रीबों और शहरी मज़दूरों को ऐक्यबद्ध करने के लक्ष्य को तबाह कर देंगे। हर ग्रामवासी अपने चारों ओर ध्यान से देखे: क्या ग्राम-समुदाय का साहचर्य सभी धनियों के ख़िलाफ़, दूसरों की मेहनत पर जीने वाले सभी लोगों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए ग़रीबों के संघ के अनुरूप है? नहीं, न अनुरूप है और न हो ही सकता है। हर गाँव में, हर ग्राम-समुदाय में बहुत-से खेत-मज़दूर, बहुत-से कंगाल किसान हैं और साथ ही धनी किसान भी हैं, जो खेत-मज़दूरों से काम लेते हैं और ”इस्तमरारी” भूमि ख़रीदते जाते हैं। ये धनी किसान भी ग्राम-समुदाय के सदस्य हैं और वे ही ग्राम-समुदाय के ऊपर हावी हैं, क्योंकि वे ताक़त हैं। क्या यही संघ हम चाहते हैं, जिसमें धनी हों और जिसमें धनियों की प्रभुता हो? कभी नहीं! हम धनियों से लड़ने के लिए संघ चाहते हैं। फलतः ग्राम-समुदाय का साहचर्य हमारे लिए बिल्कुल ही बेकार है।

हमें एक ऐसा संगठन चाहिए, जिसमें लोग अपनी मर्ज़ी से शामिल हों, जो केवल ऐसे लोगों का संगठन हो, जिन्होंने यह समझ लिया है कि उन्हें शहरी मज़दूरों के साथ एकता की ज़रूरत है। ग्राम-समुदाय में किसान अपनी मर्ज़ी से शामिल नहीं होते, उसमें उनका शामिल होना अनिवार्य होता है। ग्राम-समुदाय उन लोगों को मिलाकर नहीं बना है, जो धनियों के लिए काम करते हैं और जो धनियों से लड़ने के लिए एक होना चाहते हैं। ग्राम-समुदाय में हर कि़स्म के लोग हैं, अपनी मर्ज़ी से नहीं, बल्कि इसलिए कि उनके माता-पिता उसी भूमि पर आबाद रहे, उसी ज़मींदार के लिए काम करते रहे, इसलिए कि अधिकारियों ने उन्हें उसी समुदाय का मेम्बर दर्ज किया है। ग़रीब किसानों को न ग्राम-समुदाय छोड़ने की आज़ादी है, न किसी ऐसे आदमी को उसमें लेने का अख़्त‍ियार है, जिसे पुलिस ने किसी दूसरे वोलोस्त में दर्ज कर रखा है, लेकिन जिसकी हमारे लिए, हमारे संघ के लिए ज़रूरत यहीं हो सकती है। नहीं, हम जैसा संघ चाहते हैं, वह बिल्कुल दूसरी कि़स्म का है; हम एक ऐसा संघ चाहते हैं, जिसमें लोग अपने मन से शामिल हों, जिसमें दूसरों के श्रम पर जीने वालों से लड़ने के लिए खेत-मज़दूरों और ग़रीब किसानों को छोड़कर और कोई न हो।

वह समय लद गया – और फिर कभी लौटकर नहीं आयेगा – जब ग्राम-समुदाय सचमुच एक ताक़त था। ग्राम-समुदाय उस वक़्त एक ताक़त था, जब किसानों में प्रायः कोई काम की तलाश में रूस के एक छोर से दूसरे छोर तक डोलने वाला खेत-मज़दूर या मज़दूर नहीं था, जब प्रायः कोई धनी किसान नहीं था, जब सबके सब सामन्ती ज़मींदारों द्वारा समान रूप से कुचले जाते थे। मगर अब रुपया सबसे बड़ी ताक़त बन गया है। एक ही ग्राम-समुदाय के आदमी रुपये के लिए जंगली जानवरों की भाँति आपस में लड़ते हैं। रुपये वाले धनी किसान अपने भाई किसानों को सताने और चूसने में कभी-कभी ज़मींदारों से भी बढ़ जाते हैं। आज हमें तो कुछ चाहिए, वह ग्राम-समुदाय का साहचर्य नहीं है; हमें ऐसे संघ की ज़रूरत है, जो रुपये की सत्ता के ख़िलाफ़, पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ़ हो, जो विभिन्न ग्राम-समुदायों के सभी देहाती मज़दूरों और सभी ग़रीब किसानों का संघ हो, जो ज़मींदारों और धनी किसानों – समान रूप से दोनों – के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए शहरी मज़दूरों के साथ गाँव के सभी ग़रीबों का संघ हो।

… जिन ज़मीनों पर धनी किसान धनी बनता है, वे उनकी अपनी ज़मीनें नहीं हैं: वह दूसरों की बहुत सारी ज़मीन ख़रीदता है। उसकी ख़रीद ”इस्तमरारी” (यानी अपनी निजी मिल्कि़यत के रूप में) और ”चन्द-सालों के लिए” (यानी पट्टे पर), दोनों होती हैं। वह या तो ज़मींदारों से ज़मीन ख़रीदता है या अपने भाई किसानों से, उन किसानों से, जो ज़मीन छोड़ देते हैं या तंगहाली के कारण उसे लगान पर उठाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इन कारणों से धनी, मँझोले और ग़रीब किसानों में फ़र्क़ करने के लिए सबसे अच्छा ढंग यह है कि हम उनके घोड़ों की गिनती करें। जिसके पास बहुत घोड़े हैं, वह लगभग सदा ही धनी किसान होगा। जिसके पास अधिक संख्या में कामकाजी मवेशी हैं, वह, जाहिर है, ज़्यादा ज़मीन जोतता है, उसके पास आवंटित ज़मीन के अलावा और भी ज़मीन है और उसने रुपये भी जोड़ रखे हैं। इसके अतिरिक्त, यूरोपीय रूस में (साइबेरिया और काकेशिया को छोड़कर) बहुत-से घोड़े रखने वाले किसानों की तादाद मालूम की जा सकती है। बेशक यह नहीं भूलना चाहिए कि समस्त रूस के बारे में हम केवल औसत आँकड़े ही दे सकते हैं, विभिन्न उयेज़्दों तथा गुबेर्नियाओं की स्थिति एक जैसी नहीं है। मिसाल के तौर पर, शहरों के आस-पास हमें अक्सर ऐसे धनी किसान मिलते हैं, जिनके पास बहुत कम घोड़े होते हैं। उनमें से कुछ साग-सब्ज़ी की काश्त करते हैं, जो बड़े मुनाफ़े का कारोबार है। कुछ और हैं, जिनके पास घोड़े तो कम हैं, परन्तु गायें बहुत हैं और वे दूध बेचते हैं। रूस के सभी इलाक़ों में ऐसे किसान भी हैं, जो ज़मीन से धन नहीं कमाते, बल्कि व्यापार करते हैं – उन्होंने दूध में से मक्खन निकालने की डेरियाँ, छिलका उतारने की मशीनें तथा अन्य प्रकार की फै़क्टरियाँ लगा रखी हैं। जो लोग देहात में रहते हैं, वे अपने गाँव या जिले के धनी किसानों को अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन हमें यह पता लगाना है कि पूरे रूस में इस तरह के कितने किसान हैं और उनकी ताक़त क्या है, ताकि ग़रीब किसान शायद के चक्कर में न रहे, अँधेरे में न टटोलता रहे। तभी ग़रीब किसान अच्छी तरह समझ सकेंगे कि कितने उनके दोस्त हैं और कितने दुश्मन। (उस समय रूस में खेत की जुताई का काम घोड़ों से लिया जाता था – सं.)

… जितनी ज़मीन कुल किसान मिलकर जोतते-बोते हैं, उसमें से आधी पर इन्हीं का क़ब्ज़ा है। ऐसे किसान अपनी और अपने परिवार की ज़रूरत से बहुत ज़्यादा अनाज पैदा करते हैं। वे ढेरों अनाज बेचते हैं। वे सिर्फ़ अपने ही खाने के लिए अनाज नहीं पैदा करते, बल्कि मुख्यतः उसे बेचने और रुपया बनाने के लिए पैदा करते हैं। ऐसे किसान धन जोड़ सकते हैं। वे उसे बचत-बैंकों में जमा करते हैं। वे अपने स्वामित्व में ज़मीन ख़रीदते हैं। हम पहले ही बता चुके हैं कि हर साल रूस भर में किसान कितनी ज़्यादा ज़मीन ख़रीदते हैं; यह लगभग सारी ज़मीन इन मुट्ठी भर धनी किसानों के पास चली जाती है। गाँव के ग़रीब तो ज़मीन ख़रीदने की बात सोच तक नहीं सकते, वे ज़मीन से अपनी रोटी ही जुटा पायें, तो गनीमत है। ज़मीन ख़रीदने की तो बात ही क्या, उनके पास बहुधा रोटी ख़रीदने के लिए भी पैसा नहीं होता। इसलिए बैंक और विशेषकर किसान बैंक सभी किसानों को ज़मीन ख़रीदने में मदद नहीं देते (जैसा कि किसानों को धोखा देने वाले लोग या बहुत ही सीधे-सादे लोग कभी-कभी कहा करते हैं), वे केवल मुट्ठी भर किसानों को, केवल धनी किसानों को मदद देते हैं। इसलिए जब किसानों के वे बुरे सलाहकार, जिनका हमने ऊपर जि़क्र किया है, यह कहते हैं कि किसान ज़मीन ख़रीद रहे हैं, कि ज़मीन पूँजी से श्रम के पास पहुँच रही है, तो वे सरासर झूठ बोलते हैं। भूमि कभी भी श्रम, अर्थात ग़रीब मेहनतकश के पास नहीं जा सकती, क्योंकि ज़मीन के लिए पैसा देना होगा और ग़रीबों के पास कभी फाजि़ल पैसा नहीं होता। भूमि सिर्फ़ धनी और पैसेवाले किसानों, पूँजीवाले किसानों ही के पास जा सकती है, सिर्फ़ ऐसे लोगों के पास जा सकती है, जिनके विरुद्ध गाँव के ग़रीबों को शहरी मज़दूरों से एका करके लड़ना होगा।

धनी किसान केवल इस्तमरारी ज़मीन ही नहीं ख़रीदते, वे अक्सर कुछ सालों के लिए पट्टे पर भी ज़मीन लेते हैं। स्वयं ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़े पट्टे पर लेकर वे ग़रीब किसानों को ज़मीन हासिल करने से रोकते हैं। … हिसाब लगाया गया कि किसानों द्वारा ग्राम-समुदाय की मार्फ़त राज्य से पट्टे पर ली जाने वाली ज़मीन में से धनी किसानों ने कितनी ज़मीन हथिया ली। पता चला कि धनी किसानों ने, जो संख्या में कुल किसान परिवारों का पाँचवाँ हिस्सा हैं, पट्टेवाली ज़मीनों का तीन-चौथाई हिस्सा हड़प लिया। हर जगह ज़मीन पैसेवालों के पास जाती है और केवल मुट्ठी भर धनियों के पास ही पैसा है।

आगे चलिए। किसान स्वयं अब बहुत-सी ज़मीन पट्टे पर देने लगे हैं। किसान अपनी आवंटित ज़मीनें छोड़ जाते हैं, क्योंकि उनके पास ढोर और बीज नहीं होते तथा ऐसे साधन नहीं होते, जिनसे खेती चला सकें। आज अगर जेब में पैसा न हो, तो ज़मीन का भी कोई लाभ नहीं। … किसानों की सारी आवंटित ज़मीनों की एक-चौथाई, अर्थात ढाई लाख देस्यातीना ज़मीन पट्टे पर उठायी जाती है। इस ढाई लाख देस्यातीना में से डेढ़ लाख देस्यातीना (3/5 हिस्सा) ज़मीन धनी किसान पट्टे पर लेते हैं! इससे भी पता चलता है कि ग्राम-समुदाय की एकता से ग़रीबों को कोई लाभ नहीं है। ग्राम-समुदाय में जिसकी जेब में पैसा है, उसी के हाथ में ताक़त है। ज़रूरत इस बात की है कि सभी ग्राम-समुदायों के ग़रीब मिलकर एक हो जायें। (एक देस्यातीना क़रीब ढाई एकड़ के बराबर होता है – सं.)

सस्ते हल, कटाई मशीन तथा सभी प्रकार के नये औज़ार ख़रीदने के बारे में भी उसी तरह की बातें कहकर किसानों को धोखा दिया जाता है, जिस तरह ज़मीन की ख़रीदारी के बारे में। जेम्स्त्वो स्टोर और सहकारी समितियाँ खड़ी की जाती हैं और कहा जाता है: नये औज़ारों से किसानों की हालत सुधरेगी। यह एक धोखा है। ये सारे बेहतर औज़ार सिर्फ़ धनी किसान ले जाते हैं, ग़रीबों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। ग़रीब किसान हल और कटाई मशीनें ख़रीदने की बात सोच भी नहीं सकते, उन्हें चौबीसों घण्टे अपने पेट की फि़क्र पड़ी रहती है! इस प्रकार की ”किसान सहायता” धनियों की सहायता के सिवाय और कुछ नहीं है। जहाँ तक ग़रीब किसानों के विशाल समूह का सम्बन्ध है, जिनके पास न ज़मीन है, न मवेशी और न संचित राशि, उन्हें इस बात से कोई सहायता नहीं मिलती कि बेहतर औज़ार ज़्यादा सस्ते होंगे। एक मिसाल लीजिए। समारा गुबेर्निया के एक उयेज़्द में ग़रीब और धनी किसानों के सभी नये औज़ारों की गणना की गयी। पता चला कि जहाँ सभी परिवारों के पाँचवें हिस्से, अर्थात सबसे अमीर किसान परिवारों के पास नये औज़ारों का लगभग तीन-चौथाई भाग था, वहाँ उन ग़रीब परिवारों के पास केवल तीसवाँ भाग था, जिनकी संख्या कुल किसान परिवारों की आधी है। उस उयेज़्द में कुल 28 हज़ार परिवारों में से 10 हज़ार परिवारों के पास या तो घोड़े बिल्कुल नहीं थे या एक-एक घोड़ा था। सारे उयेज़्द में सभी किसान परिवारों के पास कुल 5724 नये औज़ार थे, जिनमें से उक्त 10 हज़ार परिवारों के पास केवल सात नये औज़ार थे। 5724 में से सात – यह है खेतीबारी के इन सारे सुधारों में गाँव के ग़रीबों का हिस्सा, हलों और कटाई मशीनों की संख्या-वृद्धि में गाँव के ग़रीबों का हिस्सा, जिनके बारे में कहा जाता है कि इनसे ”सभी किसानों” को मदद मिलेगी! ”किसानों की खेतीबारी को बेहतर बनाने” का शोर मचाने वाले लोगों से गाँव के ग़रीब बस यही आशा कर सकते हैं!

अन्त में, धनी किसानों की एक मुख्य विशेषता यह है कि वे खेती के लिए उजरत पर खेत-मज़दूर और दिहाड़ीदार लगाते हैं। ज़मींदारों की भाँति ही धनी किसान भी दूसरों के श्रम पर जीते हैं। ज़मींदारों की भाँति वे भी इसलिए धनी बनते हैं कि आम किसान तबाह और कंगाल हो जाते हैं। ज़मींदारों की भाँति वे भी अपने खेत-मज़दूरों से ज़्यादा से ज़्यादा काम लेने और उनको कम से कम मज़दूरी देने की कोशिश करते हैं। अगर लाखों किसान पूरी तरह तबाह और दूसरों के लिए काम करने के लिए लाचार न होते, उजरती मज़दूर बनने के लिए लाचार न होते, अपनी श्रम-शक्ति बेचने के लिए लाचार न होते, तो धनी किसानों का अस्तित्व न रहता, वे अपनी खेती न चला सकते। तब छोड़ी हुई आवंटित ज़मीन उनके हाथ न लगती और न उजरत पर रखने के लिए मज़दूर होते। सारे रूस में 15 लाख धनी किसान निस्सन्देह कुछ नहीं तो दस लाख खेत-मज़दूरों और दिहाड़ीदारों से काम लेते हैं। यह साफ़ है कि सम्पत्तिवान और सम्पत्तिहीन वर्गों के बीच, मालिकों और मज़दूरों के बीच, बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच होने वाले महान संघर्ष में धनी किसान मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ रहेंगे और सम्पत्तिवान वर्ग का पक्ष लेंगे।

अब हम धनी किसानों की हालत और ताक़त जान चुके हैं। आइए, गाँव के ग़रीबों की हालत पर नज़र डालें।

हम पहले ही कह चुके हैं कि सारे रूस के किसान परिवारों में गाँव के ग़रीबों की प्रबल बहुलता है, वे क़रीब दो-तिहाई हैं। सबसे पहले, बग़ैर घोड़ेवाले परिवारों को ले लीजिए, जो तीस लाख से कम नहीं हैं, बल्कि आजकल और भी अधिक, शायद 35 लाख हैं। हर बार अकाल पड़ने पर या फ़सल के खराब होने पर लाखों गृहस्थियों का सर्वनाश हो जाता है। आबादी बढ़ती है, थोड़ी जगह में ज़्यादा लोग रहने लगते हैं, लेकिन सभी अच्छी ज़मीनें ज़मींदारों और धनी किसानों ने हड़प रखी हैं। इस तरह हर साल अधिकाधिक लोग बर्बाद होते जाते हैं। वे शहरों और कारख़ानों में चले जाते हैं, खेत-मज़दूरी करने लगते हैं, अथवा अकुशल मज़दूर बन जाते हैं। बिना घोड़े का किसान ऐसा किसान है, जो बिल्कुल सम्पत्तिहीन है। वह सर्वहारा है। वह भूमि से नहीं जीता, खेती से अपना पेट नहीं पालता, बल्कि मज़दूरी पर काम करके जीता है (यह कहना ज़्यादा सच होगा कि वह जीता नहीं, बल्कि तन और प्राण को बनाये रखने की कोशिश करता है)। वह शहर के मज़दूर का सगा भाई है। जिस किसान के पास घोड़ा नहीं, उसके लिए ज़मीन भी किसी काम की नहीं: बिना घोड़ेवाले आधे किसान परिवार अपनी आवंटित ज़मीनों को लगान पर उठा देते हैं, कुछ किसान उन्हें मुफ्त ही अपने-अपने ग्राम-समुदाय को सौंप देते हैं (यहाँ तक कि ऊपर से ख़ुद कुछ अदा भी करते हैं!), क्योंकि वे इस स्थिति में नहीं होते कि अपनी ज़मीन की जोताई-बोआई कर सकें। जिस किसान के पास घोड़ा नहीं है, वह एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो देस्यातीना ज़मीन पर काश्त करता है। उसे हमेशा अतिरिक्त अनाज ख़रीदना पड़ता है (अगर उसके पास ख़रीदने के लिए पैसे हों तो), क्योंकि उसकी अपनी फ़सल हमेशा नाकाफ़ी रहती है। एक घोड़ेवाले किसान भी, जिनके 35 लाख परिवार सारे रूस में हैं, कुछ बहुत बेहतर हालत में नही हैं। बेशक अपवाद होते हैं और हमने पहले ही कहा है कि कहीं-कहीं एक घोड़ेवाले किसान ख़ासे मँझोले किसान हैं, यहाँ तक कि धनी भी हैं। पर हम यहाँ अपवादों की, अलग-अलग स्थानों की नहीं, बल्कि सारे रूस की बात करते हैं। अगर हम एक घोड़ेवाले सभी किसानों को लें, तो हम ज़रूर कहेंगे कि वे सब कंगाल हैं। कृषिप्रधान गुबेर्नियाओं में भी एक घोड़ेवाला किसान केवल तीन या चार, कभी-कभार ही पाँच देस्यातीना ज़मीन की खेती करता है। उसकी फ़सल भी नाकाफ़ी होती है। अच्छी फ़सलवाले साल में भी उसका खाना-पीना बिना घोड़ेवाले किसानों से अच्छा नहीं होता, जिसका अर्थ यह है कि वह लगातार आधा पेट खाता है, लगातार भूखा रहता है। उसकी गृहस्थी जर्जर हो रही है, उसके मवेशी मरियल हैं, जिन्हें काफ़ी चारा नहीं मिलता, वह अपनी ज़मीन की ठीक तरह जोताई-बोआई नहीं कर सकता। मिसाल के लिए, वोरोनेज गुबेर्निया में एक घोड़ेवाला किसान अपनी सारी गृहस्थी पर (चारे के ख़र्च को छोड़कर) साल में बीस रूबल से ज़्यादा रक़म ख़र्च नहीं कर पाता! (एक धनी किसान इससे दस गुना ज़्यादा ख़र्च करता है।) बीस रूबल में ज़मीन का लगान, मवेशी की ख़रीदारी, लकड़ी के हल तथा दूसरे औज़ारों की मरम्मत, चरवाहे की मज़दूरी और बाक़ी सब ख़र्चे शामिल हैं। क्या इसे खेतीबारी कहेंगे? यह तो एक बखेड़ा है, क़ैद बा-मशक़्क़त है, मरते दम तक पिसते रहना है। बिल्कुल स्वाभाविक है कि एक घोड़ेवाले कुछ किसान भी – और ऐसे किसानों की संख्या कम नहीं है – अपनी आवंटित ज़मीनें लगान पर उठा दें। कंगाल को ज़मीन से भी कोई लाभ नहीं। उसके पास पैसा नहीं है और खेत से पैसे मिलने की तो बात ही क्या, खाना भी पूरा नहीं पड़ता। लेकिन हर चीज़ के लिए पैसे की ज़रूरत होती है: भोजन-छाजन के लिए, गृहस्थी के लिए और टैक्स अदायगी के लिए। वोरोनेज़ गुबेर्निया में, आम तौर से, एक घोड़ेवाले किसान को हर साल लगभग अठारह रूबल केवल टैक्सों में देने पड़ते हैं और अपना सारा ख़र्च चलाने के लिए वह सालाना 75 रूबल से अधिक नहीं कमा सकता। इन हालात में ज़मीन की ख़रीदारी, नये औज़ार और किसान बैंकों की बातें करना मज़ाक़ नहीं तो क्या है! ये चीज़ें ग़रीबों के लिए बिल्कुल नहीं बनायी गयी हैं।

तब किसान कहाँ से पैसा पाये? उसे ”अतिरिक्त कमाई” के लिए काम खोजना पड़ेगा। बिना घोड़ेवाले की तरह एक घोड़ेवाला भी केवल ”अतिरिक्त कमाई” की मदद से ही जीवित रहता है। लेकिन ”अतिरिक्त कमाई” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है दूसरे के लिए काम करना, मज़दूरी पर काम करना। इसका अर्थ यह है कि एक घोड़ेवाला किसान अब स्वतन्त्र किसान आधा ही रह गया, वह उजरती गुलाम बन गया, सर्वहारा बन गया। इसीलिए ऐसे किसानों को अर्द्ध-सर्वहारा कहते हैं। वे भी शहर के मज़दूरों के सगे भाई हैं, क्योंकि उन्हें भी सभी प्रकार के मिल्की हर तरह से चूसते हैं। उनके लिए भी सामाजिक-जनवादियों से मिलकर सभी धनियों, सभी सम्पत्तिवालों के ख़िलाफ़ लड़ने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है, छुटकारे की कोई और उम्मीद नहीं है। कौन रेलवे लाइनों के निर्माण में काम करता है? किसे ठेकेदार चूसते हैं? कौन जंगल काटता है और लकड़ी को नदियों में तैराता है? कौन खेत-मज़दूरी करता है? या दिहाड़ीदारी करता है? शहरों में और गोदी पर कौन अकुशल मज़दूरों की तरह काम करता है? वे सब गाँव के ग़रीब, बिना घोड़ेवाले या एक घोड़ेवाले किसान ही हैं। वे सब गाँव के सर्वहारा या अर्द्ध-सर्वहारा ही हैं। और रूस में ऐसे लोग कितनी भारी संख्या में पाये जाते हैं! हिसाब लगाया गया है कि काकेशिया और साइबेरिया को छोड़कर सारे रूस में हर साल अस्सी और कभी-कभी नब्बे लाख पासपोर्ट दिये जाते हैं। वे सभी एक स्थान से दूसरे स्थान में काम करने के लिए जाने वाले मज़दूरों के लिए होते हैं। वे सिर्फ़ नाम के लिए किसान हैं; असल में वे उजरती मज़दूर हैं। उन सबको शहरी मज़दूरों के साथ एकताबद्ध होना होगा। देहात में पहुँचने वाली रोशनी और ज्ञान की हर किरण इस एकता को पक्का और मजबूत करेगी। (ज़ारशाही रूस में एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए पासपोर्ट की ज़रूरत पड़ती थी – सं.)

”अतिरिक्त कमाई” के बारे में एक बात और है, जिसे नहीं भूलना चाहिए। सरकारी अफ़सर और वे सब लोग, जो सरकारी अफ़सरों की ही तरह सोचते हैं, यह कहना पसन्द करते हैं कि किसान को दो चीज़ों की ”ज़रूरत” है: ज़मीन की (लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं – वह बहुत मिल भी नहीं सकती, क्योंकि धनी सब हड़प चुके हैं!) और ”अतिरिक्त कमाई” की। इसलिए, वे कहते हैं, लोगों को सहायता पहुँचाने के लिए देहात में अधिक उद्योग-धन्धे शुरू करने की ज़रूरत है, जिनसे किसानों के वास्ते ”अतिरिक्त कमाई” की साधन ”जुटाये” जा सकें। इस तरह की बात बिल्कुल पाखण्ड है। ग़रीबों के लिए अतिरिक्त कमाई का अर्थ है उजरती मज़दूरी। किसानों के लिए ”अतिरिक्त कमाई जुटाने” का अर्थ है उन्हें उजरती मज़दूर बनाना। अच्छी सहायता है यह! धनी किसानों के लिए दूसरी ही तरह की ”अतिरिक्त कमाई” है, जिसमें पूँजी की ज़रूरत है – जैसे आटे की मिल या किसी दूसरी तरह का कारख़ाना लगाना, अनाज दँवाने की मशीनें ख़रीदना या व्यापार करना, इत्यादि। पैसेवालों की इस ”अतिरिक्त कमाई” के साथ ग़रीब की उजरती मज़दूरी को उलझा देना ग़रीबों को धोखा देना है। बेशक इस तरह धोखा देने से धनियों को लाभ पहुँचता है; उन्हें यह दिखाने से लाभ पहुँचता है कि सभी किसानों के लिए हर तरह की ”अतिरिक्त कमाई” के दरवाजे खुले हुए हैं और सभी किसान उनसे लाभ उठा सकते हैं। लेकिन जो असल में ग़रीब की फि़क्र करता है, वह सच्चाई को नहीं छिपायेगा, बल्कि सारी हक़ीक़त सामने रखेगा।

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2018


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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