Category Archives: स्‍त्री मज़दूर

स्त्री मज़दूरों का संघर्ष श्रम की मुक्ति के महान संघर्ष का हिस्सा है

स्त्रियों की इस स्पष्ट महत्वहीनता और उदासीनता का कारण आसानी से समझा जा सकता है। सभी स्त्री संगठनों के ज़्यादातर हिस्से में यह आम है और हम इसे नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते। कारण यह है कि आज भी स्त्रियों को दो ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं: फ़ैक्टरी में वे सर्वहारा होती हैं और दिहाड़ी कमाती हैं जिस पर काफ़ी हद तक वे और उनके बच्चे निर्भर रहते हैं लेकिन वे घरेलू गुलाम भी हैं, अपने पतियों, पिताओं और भाइयों की बिना मज़दूरी की नौकर। सुबह फ़ैक्टरी जाने से पहले ही स्त्रियाँ इतना काम कर चुकी होती हैं कि अगर वही काम मर्दों को करना पड़े तो वे समझेंगे कि उन्होंने अच्छा-ख़ासा काम कर दिया है। दोपहर के समय मर्दों को कम से कम थोड़ा आराम मिलने की उम्मीद होती है, पर स्त्रियों को तब भी आराम नहीं मिलता। और आख़िरकार शाम का वक़्त बेचारे मर्द को अपने लिए मिल जाता है लेकिन और भी बेचारी स्त्री को तो उस वक़्त भी काम करना होता है। घरेलू काम उसका इन्तज़ार कर रहे होते हैं, बच्चों की देखभाल करनी होती है, कपड़ों की सफ़ाई और मरम्मत करनी पड़ती है। संक्षेप में, अगर किसी कारख़ाना इलाक़े के मर्द दस घण्टे काम करते हैं तो औरतें सोलह घण्‍टे करती हैं। फिर भला वे किसी और चीज़ में सक्रिय रुचि कैसे ले सकती हैं? यह भौतिक रूप से असम्भव लगता है। लेकिन इसके बावजूद इन्हीं कारख़ाना इलाक़ों में कुल मिलाकर औरतों की स्थिति सबसे अच्छी है। वे ‘अच्छी’ मज़दूरी पाती हैं, उनके काम के बिना मर्दों का काम नहीं चल सकता, और इसीलिए वे सापेक्षिक रूप से स्वतन्‍त्र हैं। जब हम उन शहरों या ज़िलों में पहुँचते हैं जहाँ स्त्रियों के काम का मतलब है नीरस और थकाऊ काम, जहाँ आम तौर पर बहुत सारा काम घर पर किया जाने वाला काम (किसी नियोक्ता के लिए घर पर किया गया काम) होता है, वहाँ हम पाते हैं कि स्थितियाँ सबसे बुरी हैं और संगठन की ज़रूरत सबसे अधिक है।

पेशागत बीमारियों और इलाज में उपेक्षा की दोहरी मार झेलती हैं स्त्री मज़दूर

आज देश भर में करोड़ों स्त्रियाँ हर तरह के उद्योगों में काम कर रही हैं। पूरे सामाजिक और पारिवारिक ढाँचे की ही तरह उद्योगों में भी स्त्री मज़दूर सबसे निचले पायदान पर हैं। सबसे कम मज़दूरी पर बेहद कठिन, नीरस, कमरतोड़ और थकाऊ काम उनके ज़िम्मे आते हैं। इसके साथ ही, काम की परिस्थितियों के चलते स्त्री मज़दूर तमाम तरह की पेशागत बीमारियों और स्वास्थ्य समस्याओं की शिकार हो रही हैं। किसी भी मज़दूर बस्ती में कुछ मज़दूरों के घरों में जाने पर इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। और कई सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं की रिपोर्टें इस सच्चाई को आँकड़ों के साथ बयान करती हैं।

पूँजी के ऑक्टोपसी पंजों में जकड़ी स्त्री मज़दूर

कभी आप अपने मोबाइल फ़ोन या चार्जर के भीतर झाँककर देखिये। आप सोचते होंगे कि इन बारीक़ पुर्जों को शायद किसी ऑटोमेटिक मशीन से जोड़ा गया होगा। आपको उन औरतों की हाड़तोड़ मेहनत और नारकीय ज़िन्दगी का अन्दाज़ा तक नहीं होगा जो तंग अँधेरी कोठरियों में बेहद कम मज़दूरी पर बारह या चौदह घण्टों तक बैठकर फ़ोन के चिप जोड़ती रहती हैं या चार्जर के तार लपेटती रहती हैं। बेंगलुरु-गुड़गाँव से लेकर अमेरिका की सिलिकॉन वैली तक कम्प्यूटर उद्योग और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग की दुनिया में घुसकर सुख-समृद्धि के सपने देखने वाले खाते-पीते घरों के नौनिहालों को उन स्त्रियों का घुटन, अभाव और बीमारियों भरा जीवन सपने में भी नहीं दिखता होगा जो सुबह से रात तक कम्प्यूटर और विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक सामानों के बारीक़ कल-पुर्जों को जोड़ने के यत्न में आँखें फोड़ती रहती हैं। सड़को-बाज़ारों में घूमते लोगों के शरीरों पर सजे फ़ैशनेबल कपड़ों पर तिरुपुर और बेंगलूरू की उन स्त्री मज़दूरों के ख़ून के छींटे नंगी ऑंखों से दिखायी नहीं देते, जो बर्बर शोषण-उत्पीड़न से तंग आकर आये दिन ख़ुदकुशी करती रहती हैं।

पीसरेट पर काम करने वाली स्त्री मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी

देश की तरक्की के लम्बे-चौड़े दावे किये जा रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी दिखायी जा रही है। मगर इस तरक्की में इन औरतों के श्रम का योगदान किसी को कहीं नहीं दिखायी देता है। अपने सारे घरेलू काम करने के अलावा ये औरतें 10-12 घण्टे काम करती हैं। बेहद कम मज़दूरी पर ये हाड़ गलाकर, आँख फोड़कर दिन-रात सबसे ज़्यादा मेहनत वाले, उबाऊ और थकाऊ कामों में लगी रहती हैं। कई स्त्रियाँ इसलिए भी घर पर काम करती हैं क्योंकि अपने छोटे बच्चों को घर छोड़कर फैक्ट्री में नहीं जा सकती हैं, या फैक्ट्री के माहौल के कारण वहाँ जाकर काम नहीं करना चाहतीं। कुछ महिलाएँ अपने पिछड़ेपन या पति के पिछड़ेपन की वजह से बाहर काम नहीं करना चाहती हैं, और इन वजहों से भी मालिकों की चाँदी हो जाती है। एक तो उन्हें बहुत कम मज़दूरी देनी पड़ती है, दूसरे, जगह के किराये, पानी-बिजली, मशीन-औज़ार, मेण्टेनेंस जैसे ख़र्चों से छुटकारा मिल जाता है। इनका भयंकर शोषण होता है, इन्हें कोई भी सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, कोई श्रम क़ानून इन पर लागू नहीं होता है। किसी भी सरकारी विभाग में इन्हें मज़दूर माना ही नहीं जाता। लेकिन सबसे बुरी बात तो ये है कि ये औरतें ख़ुद को मज़दूर मानती ही नहीं हैं, उन्हें लगता है कि अपने ख़ाली समय में या घर पर बैठे-बैठे थोड़ा-बहुत कमा लेती हैं जिससे बच्चों को थोड़ा बेहतर खाने को मिल जाता है या कर्ज़ का बोझ कुछ कम हो जाता है।

मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है!

हमारे आसपास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनमें स्त्रियों ने मजबूरी में फ़ैक्ट्री जाना शुरू किया या अपनी आज़ादी के लिए गर्व से यह रास्ता चुना। मज़दूर मुक्ति के लिए ज़रूरी है कि स्त्रियाँ आत्मनिर्भर हों, और पुरुषों के कन्धे से कन्ध मिलाकर चलें। यदि हम आधी आबादी को क़ैद करके रखेंगे या ग़ुलाम बनाकर रखेंगे तो हम भी पूँजीवाद की बेड़ियों से आज़ाद नहीं हो पायेंगे। इसलिए मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है।

आज की दुनिया में स्त्रियों की हालत को बयान करते आँकड़े

  • विश्व में किए जाने वाले कुल श्रम (घण्टों में) का 67 प्रतिशत हिस्सा स्त्रियों के हिस्से आता है, जबकि आमदनी में उनका हिस्सा सिर्फ़ 10 प्रतिशत है और विश्व की सम्पत्ति में उनका हिस्सा सिर्फ़ 1 प्रतिशत है।
  • विश्वभर में स्त्रियाँ को पुरुषों से औसतन 30-40 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है।
  • विकासशील देशों में 60-80 प्रतिशत भोजन स्त्रियों द्वारा तैयार किया जाता है।
  • प्रबन्धन और प्रशासनिक नौकरियों में स्त्रियों का हिस्सा सिर्फ़ 10-20 प्रतिशत है।
  • विश्वभर में स्कूल न जाने वाले 6-11 वर्ष की उम्र के 13 करोड़ बच्चों में से 60 प्रतिशत लड़कियाँ हैं।
  • विश्व के 80 करोड़ 75 लाख अनपढ़ बालिगों में अन्दाज़न 67 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 8 स्त्री मज़दूर सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हैं (दूसरी किस्‍त)

सबसे निचले पायदान पर स्त्री मज़दूर हैं। उन्हें सबसे कम दामों पर, सबसे निचले दर्जे के, कमरतोड़, आँखफोड़ू और ऊबाऊ कामों में लगाया जाता है। मोबाइल फोन के चार्जर, माइक्रोचिप्स, सिले-सिलाये कपड़ों से लेकर गाड़ियों के सी.एन.जी. किट और प्लास्टिक के सामान बनाने वाले उद्योगों तक में औरतें काम कर रही हैं। घण्टों तक खड़े-खड़े कपड़ों की कटिंग, पुर्जों की वेल्डिंग, बेहद छोटे-छोटे पुर्जों की छँटाई, या फिर पूरे-पूरे दिन झुके हुए बैठकर कागज़ की प्लेटों की गिनती, पंखे की जाली की सफ़ाई, पेण्टिंग, पैकिंग, धागा कटिंग, बटन टाँकने, राख में से धातु निकालने जैसे अनगिनत काम बेहद कम दरों पर स्त्री मज़दूरों से कराये जाते हैं। स्त्रियाँ पहले से ही सबसे सस्ती श्रम शक्ति रही हैं जिन्हें जब चाहे धकेलकर बेकारों की रिज़र्व आर्मी में फेंका जा सकता है। आज उनकी स्थिति और भी कमज़ोर हो गयी है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला -7 स्त्री मज़दूर सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हैं (पहली किश्त)

उद्योगीकरण के अलग-अलग दौरों और पूँजी-संचय की प्रक्रिया के अलग-अलग चरणों में विभिन्न तरीक़ों से स्त्रियों को उन निकृष्टतम कोटि की उजरती मज़दूरों की कतारों में शामिल किया गया जो सबसे सस्ती दरों और सबसे आसान शर्तों पर अपनी श्रम शक्ति बेच सकती हों, सबसे कठिन हालात में काम कर सकती हों और घरेलू श्रम की ज़िम्मेदारियों के चलते संगठित होकर पूँजीपतियों पर सामूहिक सौदेबाज़ी का दबाव बना पाने की क्षमता जिनमें कम हो।

देश की राजधानी में कामगार महिलाएँ सुरक्षित नहीं

कामगार महिलाओं की सुरक्षा के बारे में सरकार ने कम्पनियों को कहा है कि रात की पाली में काम करने वाली महिलाओं को सुरक्षित घर छोड़ने की जिम्मेदारी कम्पनी की होगी व इसके लिए कुछ सुझाव भी दिये गये हैं जैसेकि महिला कर्मचारी को घर के दरवाजे तक छोड़ना होगा, आदि। पर मालिकों का कहना है कि वह ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इससे उनकी प्रचालन लागत (वचमतंजपवदंस बवेज) बढ़ जाती है! अब पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफा बचाये या महिला कामगारों को? इन कम्पनियों ने अपनी प्राथमिकता साफ कर दी है कि वे महिलाओं को घर छोड़ने की लागत नहीं उठा सकतीं। जिन्हें काम करना हो करें और अपनी सुरक्षा की व्यवस्था भी करें। यानी, पहले काम पर अपनी मेहनत की लूट झेलें और फिर रास्ते में पूँजीपतियों के अपराधी लौण्डों के हाथों अपनी इज्जत पर भी ख़तरा झेलें।

त्रिपुर (तमिलनाडु) के मजदूर आत्महत्या पर मजबूर

तमिलनाडु के त्रिपुर जिले में जुलाई 2009 से लेकर सितम्बर 2010 के भीतर 879 मजदूरों द्वारा आत्महत्या की घटनाएँ सामने आयी हैं। 2010 में सितम्बर तक388 मजदूरों ने आत्महत्या की जिनमें 149 स्त्री मजदूर थीं। सिर्फ जुलाई-अगस्त 2010 में 25 स्त्रियों सहित 75 मजदूरों ने अपनी जान दे दी। दिल दहला देने वाले ये आँकड़े भी अधूरे हैं। ये आँकड़े आत्महत्या करने वाले मजदूरों की महज वह संख्या बताते हैं जो काग़जों पर दर्ज हुई है। इससे भी अधिक दिल दहला देने वाली बात यह है कि इस जिले में हर रोज आत्महत्याओं की औसतन बीस कोशिशें होती हैं। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि इस जिले में तमिलनाडु के दूसरे जिलों के मुकाबले पिछले तीन वर्षों में कहीं अधिक आत्महत्याओं की घटनाएँ हो रही हैं।