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स्त्री मज़दूरों और उनकी माँगों के प्रति पुरुष मज़दूरों का नज़रिया

समूचे मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए, ज़रूरी है कि सामाजिक गतिविधियों और आर्थिक राजनीतिक संघर्षों में उस आधी आबादी की भागीदारी को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाया जाये जो घरेलू ग़ुलामी के बन्धनों में जकड़ी हुई है। पुरुष मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा का यह एक बुनियादी मुद्दा है कि शेष आधी आबादी को सच्चे मायने में बराबरी का दर्जा देकर पूँजी के विरुद्ध संघर्ष में भागीदार बनाये बिना मज़दूर मुक्ति का लक्ष्य कभी भी हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए सतत् राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के साथ ही सभी पुरुष- स्वामित्ववादी मूल्यों-मान्यताओं- संस्कृति के विरुद्ध एक निरन्तर अभियान चलाना होगा। साथ ही स्त्री मज़दूरों को भी अपनी गुलाम मानसिकता, संस्कार और रूढ़ियों से छुटकारा पाना होगा। न सिर्फ सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में सर्वहारा घरों की स्त्रियों को ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करना होगा, बल्कि मज़दूरों के रोजमर्रा के संघर्षों और दूरगामी राजनीतिक संघर्ष की प्रक्रिया (पूँजी की सत्ता का ध्वंस करके मज़दूर सत्ता की स्थापना का संघर्ष) में भी उन्हें अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी। स्त्री मज़दूर अपने अधिकारों के लिए भी सफलतापूर्वक तभी लड़ सकती हैं जब समूचे मज़दूर वर्ग के अधिकारों की लड़ाई में भी उसकी भागीदारी हो, यानी उसकी माँग समूचे मज़दूर वर्ग के माँगपत्रक का एक भाग हो।

स्त्री मज़दूरों और उनकी माँगों के प्रति पुरूष मज़दूरों का दृष्टिकोण (दूसरी किस्त)

एक पुरूष मज़दूर जब अपने घर जाता है तो अपनी बीवी और बेटी को कारख़ाने के गन्दे माहौल से बचाने के लिए भरसक घर में ही पीसरेट पर काम करने के लिए प्रेरित करता है। इससे दो चीज़ें होती हैं। एक तो परिवार में चूल्हे-चौकठ, बाल-बच्चे का सारा काम औरत के ही सिर पड़ा रहता है (वैसे ज्यादातर कारख़ाने जाने वाली औरतों को भी घर का पूरा काम-काज स्वयं ही करना पड़ता है), दूसरे, घर में कुछ अतिरिक्त कमाई आ जाती है। एक वर्ग चेतनाहीन पुरुष मज़दूर अपनी स्त्री की श्रमशक्ति की कीमत और पीस रेट पर काम करने के चलते सभी श्रम अधिकारों से वंचित होने की उसकी स्थिति के बारे में नहीं सोचता। वह यह भी नहीं सोच पाता कि उसके घर की स्त्री जब घर से बाहर निकलकर सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में उतरेगी तो अपने जैसी स्त्री मज़दूरों के साथ मिलकर अपने हक़ों के लिए लड़ेगी और समूचे मज़दूर वर्ग के साथ मिलकर सभी वर्गीय हक़ों के लिए लड़ते हुए मज़दूर संघर्ष की ताक़त को दूनी कर देगी।

स्त्री मज़दूरों और उनकी माँगों के प्रति पुरुष मज़दूरों का नज़रिया

चाहे स्त्री-पुरुष मज़दूरों के लिए समान कार्य के समान वेतन की माँग हो, चाहे मातृत्व अवकाश और नवजात पालन-पोषण अवकाश की माँग हो, चाहे कारख़ानों-वर्कशॉपों में शिशुशाला (क्रेच) और बाल शिक्षा (प्री-नर्सरी और नर्सरी) की व्यवस्था की माँग हो, चाहे कार्यस्थलों पर स्त्री मज़दूरों के लिए अलग टॉयलेट और रेस्टरूम की माँग हो, चाहे रात की पाली में काम करने वाली औरतों के आने-जाने और सुरक्षा के इन्तज़ाम की माँग हो, ज़्यादातर पुरुष मज़दूर अक्सर स्त्री मज़दूरों की इन माँगों की या तो उपेक्षा और अनदेखी करते हैं या मन ही मन इनके प्रति विरोध भाव रखते हैं। जो मज़दूर पीस रेट की व्यवस्था को ख़त्म करने और पीस रेट पर काम करने वालों से जुड़ी तमाम माँगों को उचित मानते हैं, उन्हीं में से ज़्यादातर ऐसे भी हैं जो चाहते हैं कि उनकी पत्नी, बहन या बेटी घर में ही रहकर तमाम घरेलू ज़िम्मेदारियाँ सम्हालते हुए पीस रेट पर काम करके कुछ कमा लिया करें। इस प्रकार स्त्री मज़दूर चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी के साथ-साथ पूँजीपतियों के लिए सबसे सस्ती दरों पर श्रम-शक्ति बेचने वाली और सबसे अधिक हाड़तोड़ मेहनत करने वाली उजरती ग़ुलाम बनकर रह जाती है।

लेनिन – आम लोगों में मौजूद मर्दवादी सोच और मेहनतकश स्त्रियों की घरेलू ग़ुलामी के ख़िलाफ़ संघर्ष के बारे में कम्युनिस्ट नज़रिया

बहुत कम पति, सर्वहारा वर्ग के पति भी इनमें शामिल हैं, यह सोचते हैं कि अगर वे इस ‘औरतों के काम’ में हाथ बँटायें, तो अपनी पत्नियों के बोझ और चिन्ताओं को कितना कम कर सकते हैं, या वे उन्हें पूरी तरह से भारमुक्त कर सकते हैं। लेकिन नहीं, यह तो ‘पति के विशेषाधिकार और शान’ के ख़िलाफ़ होगा। वह माँग करता है कि उसे सुकून और आराम चाहिए। औरत की घरेलू ज़िन्दगी का मतलब है एक हज़ार तुच्छ कामों में अपने स्व को नित्यप्रति कुर्बान करते रहना। उसके पति के, उसके मालिक के, पुरातन अधिकार बने रहते हैं और उन पर ध्यान नहीं जाता। वस्तुगत तौर पर, उसकी दासी अपना बदला लेती है। यह बदला छिपे रूप में भी होता है। उसका पिछड़ापन और अपने पति के क्रान्तिकारी आदर्शों की समझदारी का अभाव पुरुष की जुझारू भावना और संघर्ष के प्रति दृढ़निश्चयता को पीछे खींचने का काम करता रहता है। ये चीजें दीमक की तरह, अदृश्य रूप से, धीरे-धीरे लेकिन यकीनी तौर पर अपना काम करती रहती है। मैं मज़दूरों की ज़िन्दगी को जानता हूँ और सिर्फ किताबों से नहीं जानता हूँ। स्त्रियों के बीच हमारा कम्युनिस्ट काम, और आम तौर पर हमारा राजनीतिक काम, पुरुषों की बहुत अधिक शिक्षा-दीक्षा की माँग करता है। हमें पुराने दास-स्वामी के दृष्टिकोण का निर्मूलन करना होगा, पार्टी में भी और जन समुदाय के बीच भी। यह हमारे राजनीतिक कार्यभारों में से एक है, एक ऐसा कार्यभार जिसकी उतनी ही आसन्न आवश्यकता है जितनी मेहनतकश स्त्रियों के बीच पार्टी कार्य के गहरे सैद्धान्तिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण से लैस स्त्री और पुरुष कामरेडों का एक स्टाफ गठित करने की।

साल-दर-साल मज़दूरों को लीलती मेघालय की नरभक्षी कोयला खदानें

मेघालय की इन नरभक्षी खानों की एक और ख़ौफनाक हक़ीक़त यह है कि इनमें भारी संख्या में बच्चों से खनन करवाया जाता है। चूंकि सँकरी और तंग खदानों में बालिगों की बजाय बच्चों का जाना आसान होता है इसलिए इन खानों के मालिक बच्चों को भर्ती करना ज्यादा पसन्द करते हैं। ऊपर से राज्य सरकार के पास इस बात का कोई ब्योरा तक नहीं है कि इन खदानों में कुल कितने खनिक काम करते हैं और उनमें से कितने बच्चे हैं। ‘तहलका’ पत्रिका में छपे एक लेख के मुताबिक मेघालय की खानों में कुल 70,000 खनिकों ऐसे हैं जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है और इनमें से कई तो 10 वर्ष से भी कम उम्र के हैं। सरकार और प्रशासन ने इस तथ्य से इंकार नहीं किया है। गौरतलब है कि केंद्र के खनन क़ानून 1952 के अनुसार किसी भी खदान में 18 वर्ष से कम उम्र के नागरिकों से काम कराना मना है। यानी कि अन्य क़ानूनों की तरह इस क़ानून की भी खुले आम धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। यही नहीं इन खानों में काम करने के लिए झारखंड, बिहार, उड़ीसा, नेपाल और बांगलादेश से ग़रीबों के बच्चों को ग़ैर क़ानूनी रूप से मेघालय ले जाने का व्यापार भी धड़ल्ले से जारी है।

स्त्री मज़दूरों का संघर्ष श्रम की मुक्ति के महान संघर्ष का हिस्सा है

स्त्रियों की इस स्पष्ट महत्वहीनता और उदासीनता का कारण आसानी से समझा जा सकता है। सभी स्त्री संगठनों के ज़्यादातर हिस्से में यह आम है और हम इसे नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते। कारण यह है कि आज भी स्त्रियों को दो ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं: फ़ैक्टरी में वे सर्वहारा होती हैं और दिहाड़ी कमाती हैं जिस पर काफ़ी हद तक वे और उनके बच्चे निर्भर रहते हैं लेकिन वे घरेलू गुलाम भी हैं, अपने पतियों, पिताओं और भाइयों की बिना मज़दूरी की नौकर। सुबह फ़ैक्टरी जाने से पहले ही स्त्रियाँ इतना काम कर चुकी होती हैं कि अगर वही काम मर्दों को करना पड़े तो वे समझेंगे कि उन्होंने अच्छा-ख़ासा काम कर दिया है। दोपहर के समय मर्दों को कम से कम थोड़ा आराम मिलने की उम्मीद होती है, पर स्त्रियों को तब भी आराम नहीं मिलता। और आख़िरकार शाम का वक़्त बेचारे मर्द को अपने लिए मिल जाता है लेकिन और भी बेचारी स्त्री को तो उस वक़्त भी काम करना होता है। घरेलू काम उसका इन्तज़ार कर रहे होते हैं, बच्चों की देखभाल करनी होती है, कपड़ों की सफ़ाई और मरम्मत करनी पड़ती है। संक्षेप में, अगर किसी कारख़ाना इलाक़े के मर्द दस घण्टे काम करते हैं तो औरतें सोलह घण्‍टे करती हैं। फिर भला वे किसी और चीज़ में सक्रिय रुचि कैसे ले सकती हैं? यह भौतिक रूप से असम्भव लगता है। लेकिन इसके बावजूद इन्हीं कारख़ाना इलाक़ों में कुल मिलाकर औरतों की स्थिति सबसे अच्छी है। वे ‘अच्छी’ मज़दूरी पाती हैं, उनके काम के बिना मर्दों का काम नहीं चल सकता, और इसीलिए वे सापेक्षिक रूप से स्वतन्‍त्र हैं। जब हम उन शहरों या ज़िलों में पहुँचते हैं जहाँ स्त्रियों के काम का मतलब है नीरस और थकाऊ काम, जहाँ आम तौर पर बहुत सारा काम घर पर किया जाने वाला काम (किसी नियोक्ता के लिए घर पर किया गया काम) होता है, वहाँ हम पाते हैं कि स्थितियाँ सबसे बुरी हैं और संगठन की ज़रूरत सबसे अधिक है।

पेशागत बीमारियों और इलाज में उपेक्षा की दोहरी मार झेलती हैं स्त्री मज़दूर

आज देश भर में करोड़ों स्त्रियाँ हर तरह के उद्योगों में काम कर रही हैं। पूरे सामाजिक और पारिवारिक ढाँचे की ही तरह उद्योगों में भी स्त्री मज़दूर सबसे निचले पायदान पर हैं। सबसे कम मज़दूरी पर बेहद कठिन, नीरस, कमरतोड़ और थकाऊ काम उनके ज़िम्मे आते हैं। इसके साथ ही, काम की परिस्थितियों के चलते स्त्री मज़दूर तमाम तरह की पेशागत बीमारियों और स्वास्थ्य समस्याओं की शिकार हो रही हैं। किसी भी मज़दूर बस्ती में कुछ मज़दूरों के घरों में जाने पर इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। और कई सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं की रिपोर्टें इस सच्चाई को आँकड़ों के साथ बयान करती हैं।

पूँजी के ऑक्टोपसी पंजों में जकड़ी स्त्री मज़दूर

कभी आप अपने मोबाइल फ़ोन या चार्जर के भीतर झाँककर देखिये। आप सोचते होंगे कि इन बारीक़ पुर्जों को शायद किसी ऑटोमेटिक मशीन से जोड़ा गया होगा। आपको उन औरतों की हाड़तोड़ मेहनत और नारकीय ज़िन्दगी का अन्दाज़ा तक नहीं होगा जो तंग अँधेरी कोठरियों में बेहद कम मज़दूरी पर बारह या चौदह घण्टों तक बैठकर फ़ोन के चिप जोड़ती रहती हैं या चार्जर के तार लपेटती रहती हैं। बेंगलुरु-गुड़गाँव से लेकर अमेरिका की सिलिकॉन वैली तक कम्प्यूटर उद्योग और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग की दुनिया में घुसकर सुख-समृद्धि के सपने देखने वाले खाते-पीते घरों के नौनिहालों को उन स्त्रियों का घुटन, अभाव और बीमारियों भरा जीवन सपने में भी नहीं दिखता होगा जो सुबह से रात तक कम्प्यूटर और विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक सामानों के बारीक़ कल-पुर्जों को जोड़ने के यत्न में आँखें फोड़ती रहती हैं। सड़को-बाज़ारों में घूमते लोगों के शरीरों पर सजे फ़ैशनेबल कपड़ों पर तिरुपुर और बेंगलूरू की उन स्त्री मज़दूरों के ख़ून के छींटे नंगी ऑंखों से दिखायी नहीं देते, जो बर्बर शोषण-उत्पीड़न से तंग आकर आये दिन ख़ुदकुशी करती रहती हैं।

पीसरेट पर काम करने वाली स्त्री मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी

देश की तरक्की के लम्बे-चौड़े दावे किये जा रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी दिखायी जा रही है। मगर इस तरक्की में इन औरतों के श्रम का योगदान किसी को कहीं नहीं दिखायी देता है। अपने सारे घरेलू काम करने के अलावा ये औरतें 10-12 घण्टे काम करती हैं। बेहद कम मज़दूरी पर ये हाड़ गलाकर, आँख फोड़कर दिन-रात सबसे ज़्यादा मेहनत वाले, उबाऊ और थकाऊ कामों में लगी रहती हैं। कई स्त्रियाँ इसलिए भी घर पर काम करती हैं क्योंकि अपने छोटे बच्चों को घर छोड़कर फैक्ट्री में नहीं जा सकती हैं, या फैक्ट्री के माहौल के कारण वहाँ जाकर काम नहीं करना चाहतीं। कुछ महिलाएँ अपने पिछड़ेपन या पति के पिछड़ेपन की वजह से बाहर काम नहीं करना चाहती हैं, और इन वजहों से भी मालिकों की चाँदी हो जाती है। एक तो उन्हें बहुत कम मज़दूरी देनी पड़ती है, दूसरे, जगह के किराये, पानी-बिजली, मशीन-औज़ार, मेण्टेनेंस जैसे ख़र्चों से छुटकारा मिल जाता है। इनका भयंकर शोषण होता है, इन्हें कोई भी सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, कोई श्रम क़ानून इन पर लागू नहीं होता है। किसी भी सरकारी विभाग में इन्हें मज़दूर माना ही नहीं जाता। लेकिन सबसे बुरी बात तो ये है कि ये औरतें ख़ुद को मज़दूर मानती ही नहीं हैं, उन्हें लगता है कि अपने ख़ाली समय में या घर पर बैठे-बैठे थोड़ा-बहुत कमा लेती हैं जिससे बच्चों को थोड़ा बेहतर खाने को मिल जाता है या कर्ज़ का बोझ कुछ कम हो जाता है।

मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है!

हमारे आसपास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनमें स्त्रियों ने मजबूरी में फ़ैक्ट्री जाना शुरू किया या अपनी आज़ादी के लिए गर्व से यह रास्ता चुना। मज़दूर मुक्ति के लिए ज़रूरी है कि स्त्रियाँ आत्मनिर्भर हों, और पुरुषों के कन्धे से कन्ध मिलाकर चलें। यदि हम आधी आबादी को क़ैद करके रखेंगे या ग़ुलाम बनाकर रखेंगे तो हम भी पूँजीवाद की बेड़ियों से आज़ाद नहीं हो पायेंगे। इसलिए मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है।