Category Archives: स्‍त्री मज़दूर

प्रवासी स्त्री मज़दूर: घरों की चारदीवारी में क़ैद आधुनिक ग़ुलाम

घर में काम करने वाले मज़दूरों की स्थिति हमेशा से ही ख़राब रही है, लेकिन आज जब पूँजीवाद अपने सबसे अनुत्पादक और परजीवी चरण में पहुँच गया है और इसने मानवीय मूल्यों के क्षरण और पतन की सारी सीमाएँ तोड़ दी हैं तो इन परिस्थितियों में समाज का सर्वाधिक कमज़ोर और अरक्षित हिस्सा जैसे बच्चे, औरतें और घरों में काम करने वाले आदि इस क्षरण और पतन का शिकार सबसे ज़्यादा होता है। घरों में काम करने वाले स्त्री-पुरुषों के साथ मार-पीट, गालियाँ, यौन उत्पीड़न बेहद सामान्य है लेकिन पिछले एक दशक से स्त्री मज़दूरों में जो ज़्यादातर घरेलू नौकरानी का काम करती हैं, उनमें काम की जगह से भागने के दौरान मौत या आत्महत्या की घटनाएँ बहुत अधिक बढ़ी हैं। इस उत्पीड़न से बच निकली स्त्रियों के लिए लेबनान तथा यूरोप के कई देशों में कुछ आश्रय गृह बने हैं। ब्रिटेन के आश्रयगृह में रहने वाली एक औरत का कहना है कि वह भाग्यशाली है कि वह बच निकली लेकिन उसके जैसी हज़ारों-हज़ार ऐसी औरतें हैं जो चुपचाप यह अत्याचार और उत्पीड़न झेल रही हैं और उनके पास बच निकलने का कोई रास्ता भी नहीं है।

रूस की स्त्रियां – महाकवि निराला का लेख

सोवियत सरकार ने स्त्रियों के घरेलू जीवन में भी एक क्रान्ति पैदा की है। स्त्रियों का बहुत-सा अमूल्य समय बाल-बच्चों के पालन-पोषण में ही निकल जाता था, और वे अपने सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन को सुदृढ़ तथा समुन्नत नहीं बना सकती थीं। उनका बहुत-सा समय गार्हस्थिक चिन्ताओं में ही बीत जाता था। देश और समाज के लिए वे कुछ भी न कर सकती थीं। इस महान दोष से देश को मुक्त करने के लिए सोवियत सरकार ने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-दीक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। महात्मा लेनिन के कथनानुसार घर तथा बाहर, दोनों ही जिम्मेदारी स्त्री-पुरुष पर समान रूप से पड़ी। स्त्रियों ने पुरुषों के समान अपने अधिकार प्राप्त किये और अब रूस के कोने-कोने में साम्यवादी सिद्धान्त का प्रभाव दिखलायी पड़ रहा है। सोवियत सरकार ने देश में ऐसे आश्रम बनाये हैं, जहाँ देश के प्रत्येक बच्चे का पालन-पोषण अत्यन्त ध्यानपूर्वक होता है। हर एक स्त्री-पुरुष अपने बच्चे को, पैदा होते ही, आश्रम में भेज देता है। वहाँ सब बच्चे स्वस्थ, निरोग, शिक्षित तथा योग्य बनाये जाते हैं।

पुलिसकर्मियों में व्याप्त घनघोर स्त्री-विरोधी विचार

समाज में स्त्री विरोधी विचार वैसे तो हमेशा ही मौजूद रहते हैं, पर कभी-कभी वे भद्दे और वीभत्स रूप में अभिव्यक्त हो जाते हैं। यही कृष्ण बलदेव की अभिव्यक्तियों में दिखा। इन महोदय के अनुसार – “आजकल की लड़कियाँ बिगड़ रही हैं, फ़िल्में देखने जाती हैं।” आगे उसने कहा – “यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामले तो फ़र्जी होते हैं, महिलाओं द्वारा लगाये गये अधिकतर आरोप तो बेबुनियाद होते हैं और इनसे हमारा काम बढ़ जाता है।” एक केस पर चर्चा के दौरान इन जनाब का कहना था, “इस महिला के चारित्रिक पतन की हद देखिये, देवता तुल्य अपने ससुर पर मनगढ़न्त आरोप लगाकर उन्हें परेशान कर रही है, बेचारे रोज़ चौकी के चक्कर काट रहे हैं।”

स्त्रियों, मज़दूरों, मेहनतकशों को अपनी रक्षा के लिए ख़ुद आगे आना होगा

अधिकतर परिवार छेड़छाड़, बलात्कार, अगवा आदि की घटनाओं को बदनामी के डर से दबा जाते हैं। लेकिन पीड़ित परिवार ने ऐसा नहीं किया। तमाम धमकियों, अत्याचारों के बावजूद भी लड़ाई जारी रखी है। पीड़ित लड़की और उसके परिवार का साहस सभी स्त्रियों, ग़रीबों और आम लोगों के लिए मिसाल है। इंसाफ़ की इस लड़ाई में मज़दूरों और अन्य आम लोगों धर्म, जाति, क्षेत्र से ऊपर उठकर जो एकजुटता दिखाई है वह अपने आप में एक बड़ी बात है। कई धार्मिक कट्टरपंथी, चुनावी दलाल नेता, पुलिस-प्रशासन के पिट्ठू छुट्टभैया नेता इस मामले को एक ‘‘कौम’’ का मसला बनाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन जनता ने इनकी एक न चलने दी। 14 दिसम्बर को रोड जाम करके किये गये प्रदर्शन के दौरान पंजाबी भाषी लोगों का भी काफी समर्थन हासिल हुआ। स्त्रियों सहित आम जनता को अत्याचारों का शिकार बना रहे गुण्डा गिरोहों और जनता को भेड़-बकरी समझने वाले पुलिस-प्रशासन, वोट-बटोरू नेताओं और सरकार के गठबन्धन को मज़दूरों-मेहनतकशों की फौलादी एकजुटता ही धूल चटा सकती है।

मामला सिर्फ़ मेडिकल लापरवाही या घटिया दवाओं का नहीं है!

यह नीति और नसबन्दी अभियान भयंकर हद तक नारी-विरोधी है और यह समाज में मौजूद मर्द प्रधानता और महिलाओं की गुलामों वाली हालत का एक बहुत ही नीच दिखावा है, जिसका एक सभ्य समाज में कोई चलन नहीं हो सकता, परन्तु भारत समेत तीसरी दुनिया के सभी देशों में औरतों को इस अमानवीय व्यवहार का दशकों से शिकार बनाया जा रहा है।

आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग की मुक्ति असम्भव है

चूँकि महिलाओं की श्रमशक्ति सस्ती क़ीमत पर उपलब्ध होती है, इसलिए पूँजीवाद अपने मुनाफ़े की दरों को बढ़ाने के लिए महिलाओं को घर की चौहद्दियों से निकालकर कारख़ानों का हिस्सा बनाता है। पूँजीवाद महिलाओं की मुक्ति के नज़रिये से नहीं बल्कि पूँजी के हितों की रक्षा के लिए यह क़दम उठाता है। हालाँकि पूँजीवाद द्वारा उठाये गये इस क़दम की तार्किक परिणति यह होती है कि वह महिलाओं को उजरती श्रम का हिस्सा बनाकर मज़दूर वर्ग की ताक़त को बढ़ाता है। यही मज़दूर वर्ग पूँजीवाद की कब्र खोदने का काम करता है। इस लिहाज़ से देखा जाये तो महिलाओं का घर की चौहद्दियों से बाहर निकलकर सामूहिक उत्पादन जगत का हिस्सा बनना एक सकारात्मक क़दम है।

घरेलू कामगार स्त्रियाँ: हक से वंचित एक बड़ी आबादी

देश में लाखों घरेलू कामगार स्त्रियों के श्रम को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता है। हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू काम और उनमें सहायक के तौर पर लगे लोगों के काम को बेनाम और न दिखाई पड़ने वाला, गैर उत्पादक की श्रेणी में रखा जाता है। सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी का दर्जा दिया जाता है। उसे एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो मूल कार्य नहीं करता बल्कि मूल कार्य पूरा करने में किन्हीं तरीकों से मदद करता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब मेहनताना ही तय नहीं होता। मालिकों की मर्ज़ी से बख्शीश ज़रूर दी जाती है। यह मनमर्ज़ी का मामला होता है अधिकार का नहीं। मन हुआ या खुश हुए तो ज़्यादा दे दिया और नहीं तो बासी सड़ा भोजन, फटे-पुराने कपड़े, जूते, चप्पल दे दिया जाता है। देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता। उल्टे इनको आलसी, कामचोर, बेईमान, गैर-ज़िम्मेदार और फ़ायदा उठाने वाला समझा जाता है।

स्त्री-विरोधी मानसिकता के विरुद्ध व्यापक जनता की लामबन्दी करके संघर्ष छेड़ना होगा!

यह अकारण नहीं है कि स्त्री विरोधी बर्बरता में तेज़ वृद्धि पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान आई है। नवउदारवाद की लहर अपने साथ पूँजी की मुक्त प्रवाह के साथ ही विश्व पूँजीवाद की रुग्ण संस्कृति की एक ऐसी आँधी लेकर आयी है जिसमें बीमार व रुग्ण मनुष्यता की बदबू भरी हुई है। हमारे देश में नयी व पुरानी प्रतिक्रियावादी रुग्णताओं का एक विस्फोटक मिश्रण तैयार हुआ है। भारतीय समाज में इस दो प्रकार की नयी व पुरानी संस्कृतियों के समागम से यह विकृत बर्बरतम घटनाएँ घटित हो रही हैं, जिसके उदाहरण हमें अनेकशः रूप में दिखायी दे रहे हैं। स्त्री उत्पीड़न की ये घटनाएँ गाँवों से लेकर महानगरों तक घट रही हैं।

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के 104 वें साल होने के अवसर पर

बहनो! सोचो ज़रा ! अकेले दिल्ली और नोएडा में लाखों औरतें कारख़ानों में खट रही हैं। अगर हम एका बनाकर मुठ्टी तान दें तो हमारी आवाज़ भला कौन दबा सकता है साथियो! बिना लड़े कुछ नहीं मिलता। मेहनतकशों के बूते ही यह समाज चलता है और उनमें हम औरतें भी शामिल हैं। ग़ुलामी की ज़िन्दगी तो मौत से भी बदतर होती है। हमें उठ खड़ा होना होगा। हमें अपने हक़, इंसाफ़ और बराबरी की लड़ाई की नयी शुरुआत करनी होगी। सबसे पहले हमें थैलीशाहों की चाकरी बजाने वाली सरकार को मजबूर करना होगा कि मज़दूरी की दर, काम के घण्टे, कारखानों में शौचालय, पालनाघर वगैरह के इन्तज़ाम और इलाज वगैरह से सम्बन्धित जो क़ानून पहले से मौजूद हैं, उन्हें वह सख़्ती से लागू करवाये। फिर हमें समान पगार, ठेका प्रथा के ख़ात्मे, गर्भावस्था और बच्चे के लालन-पालन के लिए छुट्टी के इन्तज़ाम, रहने के लिए घर, दवा-इलाज और बच्चों की शिक्षा के हक़ के लिए एक लम्बी, जुझारू लड़ाई लड़नी होगी।

लगातार बढ़ता जा रहा है स्त्रियों और बच्चों की तस्करी का घिनौना कारोबार

मुनाफ़े पर टिके आर्थिक- सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे ने मानवता को कितना अमानवीय बना दिया है इसकी एक भयंकर तस्वीर मनुष्यों की तस्करी के रूप में देखी जा सकती है। विश्व स्तर पर यह व्यापार विश्व में तीसरा स्थान हासिल कर चुका है। यह तस्करी वेश्यावृत्ति, शारीरिक शोषण, जबरन विवाह, बन्धुआ मज़दूरी, अंगों की तस्करी आदि के लिए की जाती है। अस्सी फ़ीसदी की तस्करी तो सेक्स व्यापार के लिए ही की जाती है। मनुष्य की तस्करी का सबसे अधिक शिकार बच्चे हो रहे हैं और उनमें से भी बच्चियों को इसका सबसे अधिक शिकार होना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक आँकड़े के मुताबिक विश्व स्तर पर हर वर्ष 12 लाख बच्चों की ख़रीद-फरोख्त होती है। इन बच्चों में आधों की उम्र 11 से 14 वर्ष के बीच होती है।