आम लोगों में मौजूद मर्दवादी सोच और मेहनतकश स्त्रियों की घरेलू ग़ुलामी के ख़िलाफ़ संघर्ष के बारे में कम्युनिस्ट नज़रिया

(क्लारा जे़टकिन से व्ला. इ. लेनिन की लम्बी बातचीत का एक अंश)

(दुनिया की पहली समाजवादी क्रान्ति के महान नेता लेनिन ने जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी और अन्तरराष्ट्रीय स्त्री आन्दोलन की नेता क्लारा जे़टकिन के साथ यह बातचीत 1920 में मास्को में की थी। इस बातचीत में लेनिन ने स्त्रियों की घरेलू ग़ुलामी और पुरुषों की पुरुष-स्वामित्ववादी मानसिकता के प्रति गहरी नफ़रत दिखायी है। उनका कहना है कि मज़दूर वर्ग के भीतर भी ये चीजें गहराई से जड़ जमाये हुए हैं। मेहनतकश औरतों की घरेलू ग़ुलामी और पुरुष मज़दूरों की “पुराने दास स्वामियों जैसी” मानसिकता से संघर्ष किये बिना सर्वहारा क्रान्ति आगे डग नहीं भर सकती। मेहनतकश औरतों की आधी आबादी की लामबन्दी के बिना मज़दूर वर्ग अपनी मुक्ति की लड़ाई को कतई आगे नहीं बढ़ा सकता। लेनिन उन कम्युनिस्टों की कटु आलोचना करते हैं जो अन्दर से दकियानूस होते हैं और पुरुष-स्वामित्व के संस्कारों से मुक्त नहीं होते। वे स्त्री मज़दूरों को जागृत और संगठित करने के काम पर पर्याप्त ज़ोर न देने की प्रवृत्ति की भी कटु आलोचना करते हैं।

आज से 95 वर्षों पहले अक्टूबर 1917 में मज़दूर वर्ग ने रूस में समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न की थी। मज़दूर सत्ता ने स्त्रियों को दुनिया के किसी भी पूँजीवादी जनवादी गणराज्य के मुकाबले कई गुना अधिक समानता के अवसर और अधिकार दिये। जीवन के हर क्षेत्र में सक्रियता के अवसर देने के साथ ही घरेलू दासता से छुटकारे के लिए नयी-नयी सामाजिक संस्थाएँ खड़ी की गयीं। फिर भी लेनिन का मानना था कि स्त्रियों की सच्ची-सम्पूर्ण मुक्ति के लिए समाजवाद की पूरी अवधि के दौरान पुरुष स्वामित्ववाद और पूँजीवादी अवशेषों के विरुद्ध लगातार लम्बा संघर्ष चलाना होगा। – सम्पादक)

– “…उसूलों की स्पष्ट समझदारी के साथ, और एक मज़बूत सांगठनिक आधार पर स्त्री समुदाय की लामबन्दी कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए और उनकी जीत के लिए एक महत्वपूर्ण सवाल है। लेकिन हम ख़ुद को धोखा न दें। हमारे राष्ट्रीय सेक्शनों में (यानी कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के अंग के तौर पर अलग-अलग देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में -अनु.) अभी भी इस प्रश्न की सही समझदारी का अभाव है। जब कम्युनिस्ट नेतृत्व के अन्तर्गत मेहनतकश स्त्रियों का एक जनान्दोलन खड़ा करने का मुद्दा आता है तो वे एक निष्क्रिय और ‘इन्तज़ार करो और देखो’ जैसा रुख अपनाते हैं। उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता कि ऐसे जनान्दोलन को विकसित करना और नेतृत्व देना सभी पार्टी गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि सभी पार्टी कार्यों का आधा भाग है। एक स्पष्ट दिशा वाले, शक्तिशाली और व्यापक कम्युनिस्ट स्त्री आन्दोलन की ज़रूरत और क़ीमत को वे समय-समय पर स्वीकार तो करते हैं, लेकिन यह पार्टी के सतत् सरोकार और कार्यभार के रूप में उसकी स्वीकृति होने के बजाय अफ़लातूनी ज़ुबानी जमाख़र्च मात्र होती है।”

“स्त्रियों के बीच उद्वेलन और प्रचार के काम को, उन्हें जगाने और क्रान्तिकारी बनाने के काम को वे दूसरे प्राथमिकता पर रखते हैं और इसे सिर्फ स्त्री कम्युनिस्टों का काम समझते हैं। यदि यह काम तेज़ी से और मज़बूती से आगे नहीं बढ़ता तो उसके लिए इन्हें (यानी स्त्री कम्युनिस्टों को -अनु.) ही फटकार लगायी जाती है। यह गलत है, बुनियादी तौर पर गलत है। यह सरासर गलत है। यह औरतों की समानता को ठीक उलट देने जैसी बात है।”

“हमारे राष्ट्रीय सेक्शनों (अलग-अलग देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों -अनु.) के इस गलत दृष्टिकोण की जड़ में क्या है? (मैं यहाँ सोवियत रूस की बात नहीं कर रहा हूँ।) अन्तिम विश्लेषण में, यह स्त्रियों को और उनकी उपलब्धियों को कम करके आँकना है। हाँ, यही बात है। दुर्भाग्यवश, अपने बहुतेरे कामरेडों के बारे में अभी भी हम कह सकते हैं: ‘कम्युनिस्ट को खुरचकर देखो, एक दकियानूस सामने आ जायेगा।’ इस बात को पक्का करने के लिए आपको संवेदनशील जगहों पर – जैसे कि स्त्रियों से सम्बन्धित उसकी मानसिकता को – खुरचना होगा। क्या इसका इससे भी ज़्यादा प्रत्यक्ष प्रमाण कोई और हो सकता है कि एक पुरुष शान्तिपूर्वक एक स्त्री को उसके घरेलू काम जैसे तुच्छ, उबाऊ, पस्त कर देने वाले, समय-खपाऊ काम में, खपते हुए देखता रहता है और उसकी आत्मा को संकुचित होते हुए, उसके दिमाग को कुन्द होते हुए, उसके दिल की धड़कन को मद्धम पड़ते हुए और उसके इरादों को कमज़ोर होते हुए देखता रहता है? बेशक मैं उन बुर्जुआ महिलाओं की बात नहीं कर रहा हूँ जो अपने सभी घरेलू कामों और अपने बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी नौकरों-नौकरानियों पर डाल देती हैं। मैं जो कह रहा हूँ वह स्त्रियों की विशाल बहुसंख्या पर लागू होता है जिनमें मज़दूरों की पत्नियाँ भी शामिल हैं और वे स्त्रियाँ भी शामिल हैं जो सारा दिन फ़ैक्ट्री में खटती हैं और पैसा कमाती हैं।”

“बहुत कम पति, सर्वहारा वर्ग के पति भी इनमें शामिल हैं, यह सोचते हैं कि अगर वे इस ‘औरतों के काम’ में हाथ बँटायें, तो अपनी पत्नियों के बोझ और चिन्ताओं को कितना कम कर सकते हैं, या वे उन्हें पूरी तरह से भारमुक्त कर सकते हैं। लेकिन नहीं, यह तो ‘पति के विशेषाधिकार और शान’ के ख़िलाफ़ होगा। वह माँग करता है कि उसे सुकून और आराम चाहिए। औरत की घरेलू ज़िन्दगी का मतलब है एक हज़ार तुच्छ कामों में अपने स्व को नित्यप्रति कुर्बान करते रहना। उसके पति के, उसके मालिक के, पुरातन अधिकार बने रहते हैं और उन पर ध्यान नहीं जाता। वस्तुगत तौर पर, उसकी दासी अपना बदला लेती है। यह बदला छिपे रूप में भी होता है। उसका पिछड़ापन और अपने पति के क्रान्तिकारी आदर्शों की समझदारी का अभाव पुरुष की जुझारू भावना और संघर्ष के प्रति दृढ़निश्चयता को पीछे खींचने का काम करता रहता है। ये चीजें दीमक की तरह, अदृश्य रूप से, धीरे-धीरे लेकिन यकीनी तौर पर अपना काम करती रहती है। मैं मज़दूरों की ज़िन्दगी को जानता हूँ और सिर्फ किताबों से नहीं जानता हूँ। स्त्रियों के बीच हमारा कम्युनिस्ट काम, और आम तौर पर हमारा राजनीतिक काम, पुरुषों की बहुत अधिक शिक्षा-दीक्षा की माँग करता है। हमें पुराने दास-स्वामी के दृष्टिकोण का निर्मूलन करना होगा, पार्टी में भी और जन समुदाय के बीच भी। यह हमारे राजनीतिक कार्यभारों में से एक है, एक ऐसा कार्यभार जिसकी उतनी ही आसन्न आवश्यकता है जितनी मेहनतकश स्त्रियों के बीच पार्टी कार्य के गहरे सैद्धान्तिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण से लैस स्त्री और पुरुष कामरेडों का एक स्टाफ गठित करने की।”

सोवियत रूस की मौजूदा स्थितियों के बारे में मेरे (क्लारा ज़ेटकिन के -अनु.) सवाल का जवाब देते हुए लेनिन ने कहा:

“सर्वहारा अधिनायकत्व की सरकार – ज़ाहिर है कि कम्युनिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर – स्त्रियों-पुरुषों के पिछड़े विचारों पर विजय पाने और इस प्रकार पुरानी, गै़रकम्युनिस्ट मानसिकता को समाप्त करने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है। कहने की ज़रूरत नहीं कि क़ानून के सामने स्त्री और पुरुष पूर्णतः समान हैं। इस क़ानूनी समानता को प्रभावी बनाने की सच्ची ख़्वाहिश हर दायरे में स्पष्टतः देखी जा सकती है। हम अर्थतंत्र, प्रशासन, क़ानून बनाने और सरकार चलाने के कामों में भागीदारी के लिए औरतों की इन्दराजी कर रहे हैं। उनके लिए सभी पाठ्यक्रमों और शैक्षिक संस्थाओं के दरवाजे़ खुले हुए हैं, ताकि वे अपने पेशागत और सामाजिक प्रशिक्षण को उन्नत कर सकें। हम सामुदायिक रसोईघर, सार्वजनिक भोजनालय, लॉण्ड्री और मरम्मत की दूकानें, शिशुशालाएँ, किण्डरगार्टेन, बालगृह तथा हर प्रकार के शिक्षा संस्थान संगठित कर रहे हैं। संक्षेप में, हम लोग घरेलू और शिक्षा सम्बन्धी कार्यों को व्यक्तिगत गृहस्थी के दायरे से समाज के दायरे में स्थानान्तरित करने के अपने कार्यक्रम की शर्तों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संजीदा हैं। इस तरह औरत अपनी पुरानी घरेलू ग़ुलामी और अपने पति पर हर तरह की निर्भरता से मुक्त हो रही है। उसे सक्षम बनाया जा रहा है कि वह समाज में अपनी क्षमताओं और अभिरुचियों के हिसाब से अपनी भूमिका पूरी तरह से निभा सके। बच्चों को घर की अपेक्षा, विकास के बेहतर अवसर दिये जा रहे हैं। हमारे यहाँ स्त्री मज़दूरों के लिए दुनिया में सबसे प्रगतिशील श्रम क़ानून हैं और संगठित मज़दूरों के अधिकृत प्रतिनिधियों द्वारा उनकी तामील होती है। हम प्रसूति गृह, माँओं और बच्चों के देखभाल के केन्द्र, नवजातों और बच्चों के लालन-पालन सम्बन्धी पाठ्यक्रम, माँओं और बच्चों की देखभाल सम्बन्धी प्रदर्शनियाँ और ऐसी ही अन्य चीजें संगठित कर रहे हैं। हम ज़रूरतमन्द और बेरोज़गार औरतों की ज़रूरतें पूरी करने की हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं।”

“हम अच्छी तरह समझते हैं कि मेहनतकश स्त्रियों की ज़रूरतों को देखते हुए यह सब कुछ फिर भी बहुत कम है, कि उनकी सच्ची मुक्ति के लिए तो यह सब बिल्कुल नाकाफ़ी है। फिर भी, ज़ारकालीन और पूँजीवादी रूस में जो कुछ था, उसकी तुलना में यह बहुत आगे बढ़ा हुआ क़दम है। साथ ही, जिन देशों में अभी भी पूँजीवाद का बोलबाला है, वहाँ की स्थिति की तुलना में भी यह बहुत है। यह सही दिशा में एक अच्छी शुरुआत है, और हम इसे लगातार आगे बढ़ायेंगे, और सारी उपलब्ध ऊर्जा लगाकर आगे बढ़ायेंगे। आप, अन्य देशों के साथी, आश्वस्त रह सकते हैं। क्योंकि हर बीतते दिन के साथ यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि करोड़ों स्त्रियों को साथ लिये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।”

 

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2012

 


 

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