Category Archives: स्‍त्री मज़दूर

8 मार्च के मौके पर ‘स्त्री मजदूर संगठन’ की शुरुआत

सभा में बड़ी संख्या में जुटी मेहनतकश औरतों को सम्बोधित करते हुए कविता ने कहा कि 8 मार्च को मनाया जाने वाला ‘अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस’ हर साल हमें हक, इंसाफ और बराबरी की लड़ाई में फौलादी इरादे के साथ शामिल होने की याद दिलाता है। पिछली सदी में दुनिया की औरतों ने संगठित होकर कई अहम हक हासिल किये। लेकिन गुजरे बीस-पच्चीस वर्षों से जमाने की हवा थोड़ी उल्टी चल रही है। लूट-खसोट का बोलबाला है। मजदूर औरत-मर्द बारह-चौदह घण्टे हाड़ गलाकर भी दो जून की रोटी, तन ढाँकने को कपड़े, सिर पर छत, दवा-इलाज और बच्चे की पढ़ाई का जुगाड़ नहीं कर पाते। मेहनतकश औरतों की हालत तो नर्क से भी बदतर है। हमारी दिहाड़ी पुरुष मजदूरों से भी कम होती है जबकि सबसे कठिन और महीन काम हमसे कराये जाते हैं। कई फैक्ट्रियों में हमारे लिए अलग शौचालय तक नहीं होते, पालनाघर तो दूर की बात है। दमघोंटू माहौल में दस-दस, बारह-बारह घण्टे खटने के बाद, हर समय काम से हटा दिये जाने का डर। मैनेजरों, सुपरवाइजरों, फोरमैनों की गन्दी बातों, गन्दी निगाहों और छेड़छाड़ का भी सामना करना पड़ता है। गरीबी से घर में जो नर्क का माहौल बना होता है, उसे भी हम औरतें ही सबसे ज्यादा भुगतती हैं।

स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी शिक्षित उच्च मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी दायरों के बाहर लाना होगा

जिस देश की ज्यादातर महिलाएँ मेहनत-मजदूरी करके, किसी तरह अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिन-रात खटती रहती है, जो घर के भीतर, चूल्हे-चौखट में ही अपनी तमाम उम्र बिता देने को अभिशप्त हैं, जो आये दिन अनगिनत किस्म के अपराधें और बर्बरताओं का शिकार होती हैं, उनकी गुलामी और दोयम दर्जे की स्थिति को कोई कानून या अधिनियम नहीं खत्म कर सकता। वास्तव में स्त्रियों की मुक्ति पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर सम्भव है ही नहीं। स्त्रियों की मुक्ति सिर्फ उसी समाज में सम्भव होगी जो पूरी मानवता को उसकी पूँजी की बेड़ियों से मुक्त करेगा। इसलिए आज स्त्री मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के साथ जुड़ना ही होगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि सामाजिक परिवर्तन की कोई भी लड़ाई आधी आबादी की भागीदारी के बिना नहीं जीती जा सकती।

सबसे ज्यादा जुझारू तेवर के साथ अन्त तक डटी रहीं स्त्री मज़दूर

गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन ने इतिहास के इस सबक को एक बार फिर साबित कर दिया कि आधी आबादी को साथ लिये बिना मज़दूर वर्ग की मुक्ति असम्भव है। इस आन्दोलन में स्त्री मज़दूरों ने बहादुराना संघर्ष किया और उनके जुझारू तेवर और एकजुटता ने मालिक-प्रशासन के गँठजोड़ को छठी का दूध याद दिला दिया। पवन बथवाल एंड कम्पनी को लगता था कि हमेशा चुपचाप सहन कर जाने वाली स्त्री मज़दूरों को दबाना-धमकाना आसान होगा, लेकिन इस आन्दोलन में उनके होश ठिकाने आ गये। हालत यह हो गई थी कि बथवाल स्त्री मज़दूरों को काम पर वापस नहीं लेने पर अड़ गया। उसे समझ आ गया था कि स्त्री मज़दूरों के जुझारू तेवर को दबाना सम्भव नहीं है।

अमानवीय शोषण-उत्पीड़न के शिकार तमिलनाडु के भट्ठा मज़दूर

भट्ठा मज़दूर भयंकर कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए अभिशप्त हैं। बिना आराम दिये लम्बे- लम्बे समय तक उनसे कठिन काम लिया जाता है। मज़दूरों ने बताया कि ज़्यादातर ईंट चैम्बरों में 3 बजे दोपहर से काम शुरू होता है जो 7 बजे शाम तक चलता है। उसके बाद 6 घण्टे का ब्रेक होता है और ब्रेक के बाद रात 1 बजे से दुबारा काम शुरू होता है जो 10-30 बजे सुबह तक चलता है। चूँकि ईंट को सुखाने के लिए ज़्यादा समय तक धूप में रखने की ज़रूरत होती है इसलिए मज़दूर केवल दिन में ही सो पाते हैं। ईंट ढुलाई करने वाले मज़दूरों का यही रुटीन है। दिन में उन्हें सिर्फ़ ग्यारह बजे से दो बजे तक का समय मिलता है, जिसमें वे खाना बना सकते हैं। तीन बजे से फिर काम पर लग जाना होता है।

आधी आबादी को शामिल किये बिना मानव मुक्ति की लड़ाई सफल नहीं हो सकती!!

पूँजी और पितृसत्ता की सत्ताएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। पुरुष वर्चस्ववाद के सामन्ती मूल्यों को पूँजीवाद ने अपना लिया है। स्त्रियों की असमान स्थिति और पितृसत्ता का वह अपने लिए इस्तेमाल करता है। आधी आबादी को परिवर्तन के संघर्ष से अलग रखने के लिए भी ज़रूरी है कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच समानता के मूल्यों और उसूलों को बढ़ावा न दिया जाये। पितृसत्ता के खिलाफ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती। दूसरी ओर यह भी सही है कि आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग भी अपनी मुक्ति की लड़ाई नहीं जीत सकता।

अक्टूबर क्रान्ति के दिनों की वीरांगनाएँ

अक्टूबर क्रान्ति की नायिकाएँ एक पूरी सेना के बराबर थीं और नाम भले ही भूल जायें उस क्रान्ति की जीत में और आज सोवियत संघ में और औरतों को मिली उपलब्धियों और अधिकारों के रूप में उनकी निःस्वार्थता जीवित रहेगी।

कविता – धीरे-धीरे आगे बढ़ती है / जेम्‍स कोनाली

अपनी देह और आत्‍मा में जकड़ी हुई
सदियों की बे‍ड़ि‍यों को तोड़ने के लिए उठ खड़ी
उन औरतों का प्रयास
आजादी की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है
मज़दूर वर्ग को अवश्‍य ही देना चाहिए साधुवाद
और जोरदार होनी चाहिए
उनकी वाहवाही
अगर दासता के खिलाफ उनकी नफरत और उमंग आजादी की ओर बढ़ती है धीरे-धीेरे
औरतों की सेना
लड़ाकू मज़दूरों की सेना के आगे-आगे।