Category Archives: स्‍त्री मज़दूर

आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग की मुक्ति असम्भव है

चूँकि महिलाओं की श्रमशक्ति सस्ती क़ीमत पर उपलब्ध होती है, इसलिए पूँजीवाद अपने मुनाफ़े की दरों को बढ़ाने के लिए महिलाओं को घर की चौहद्दियों से निकालकर कारख़ानों का हिस्सा बनाता है। पूँजीवाद महिलाओं की मुक्ति के नज़रिये से नहीं बल्कि पूँजी के हितों की रक्षा के लिए यह क़दम उठाता है। हालाँकि पूँजीवाद द्वारा उठाये गये इस क़दम की तार्किक परिणति यह होती है कि वह महिलाओं को उजरती श्रम का हिस्सा बनाकर मज़दूर वर्ग की ताक़त को बढ़ाता है। यही मज़दूर वर्ग पूँजीवाद की कब्र खोदने का काम करता है। इस लिहाज़ से देखा जाये तो महिलाओं का घर की चौहद्दियों से बाहर निकलकर सामूहिक उत्पादन जगत का हिस्सा बनना एक सकारात्मक क़दम है।

घरेलू कामगार स्त्रियाँ: हक से वंचित एक बड़ी आबादी

देश में लाखों घरेलू कामगार स्त्रियों के श्रम को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता है। हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू काम और उनमें सहायक के तौर पर लगे लोगों के काम को बेनाम और न दिखाई पड़ने वाला, गैर उत्पादक की श्रेणी में रखा जाता है। सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी का दर्जा दिया जाता है। उसे एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो मूल कार्य नहीं करता बल्कि मूल कार्य पूरा करने में किन्हीं तरीकों से मदद करता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब मेहनताना ही तय नहीं होता। मालिकों की मर्ज़ी से बख्शीश ज़रूर दी जाती है। यह मनमर्ज़ी का मामला होता है अधिकार का नहीं। मन हुआ या खुश हुए तो ज़्यादा दे दिया और नहीं तो बासी सड़ा भोजन, फटे-पुराने कपड़े, जूते, चप्पल दे दिया जाता है। देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता। उल्टे इनको आलसी, कामचोर, बेईमान, गैर-ज़िम्मेदार और फ़ायदा उठाने वाला समझा जाता है।

स्त्री-विरोधी मानसिकता के विरुद्ध व्यापक जनता की लामबन्दी करके संघर्ष छेड़ना होगा!

यह अकारण नहीं है कि स्त्री विरोधी बर्बरता में तेज़ वृद्धि पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान आई है। नवउदारवाद की लहर अपने साथ पूँजी की मुक्त प्रवाह के साथ ही विश्व पूँजीवाद की रुग्ण संस्कृति की एक ऐसी आँधी लेकर आयी है जिसमें बीमार व रुग्ण मनुष्यता की बदबू भरी हुई है। हमारे देश में नयी व पुरानी प्रतिक्रियावादी रुग्णताओं का एक विस्फोटक मिश्रण तैयार हुआ है। भारतीय समाज में इस दो प्रकार की नयी व पुरानी संस्कृतियों के समागम से यह विकृत बर्बरतम घटनाएँ घटित हो रही हैं, जिसके उदाहरण हमें अनेकशः रूप में दिखायी दे रहे हैं। स्त्री उत्पीड़न की ये घटनाएँ गाँवों से लेकर महानगरों तक घट रही हैं।

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के 104 वें साल होने के अवसर पर

बहनो! सोचो ज़रा ! अकेले दिल्ली और नोएडा में लाखों औरतें कारख़ानों में खट रही हैं। अगर हम एका बनाकर मुठ्टी तान दें तो हमारी आवाज़ भला कौन दबा सकता है साथियो! बिना लड़े कुछ नहीं मिलता। मेहनतकशों के बूते ही यह समाज चलता है और उनमें हम औरतें भी शामिल हैं। ग़ुलामी की ज़िन्दगी तो मौत से भी बदतर होती है। हमें उठ खड़ा होना होगा। हमें अपने हक़, इंसाफ़ और बराबरी की लड़ाई की नयी शुरुआत करनी होगी। सबसे पहले हमें थैलीशाहों की चाकरी बजाने वाली सरकार को मजबूर करना होगा कि मज़दूरी की दर, काम के घण्टे, कारखानों में शौचालय, पालनाघर वगैरह के इन्तज़ाम और इलाज वगैरह से सम्बन्धित जो क़ानून पहले से मौजूद हैं, उन्हें वह सख़्ती से लागू करवाये। फिर हमें समान पगार, ठेका प्रथा के ख़ात्मे, गर्भावस्था और बच्चे के लालन-पालन के लिए छुट्टी के इन्तज़ाम, रहने के लिए घर, दवा-इलाज और बच्चों की शिक्षा के हक़ के लिए एक लम्बी, जुझारू लड़ाई लड़नी होगी।

लगातार बढ़ता जा रहा है स्त्रियों और बच्चों की तस्करी का घिनौना कारोबार

मुनाफ़े पर टिके आर्थिक- सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे ने मानवता को कितना अमानवीय बना दिया है इसकी एक भयंकर तस्वीर मनुष्यों की तस्करी के रूप में देखी जा सकती है। विश्व स्तर पर यह व्यापार विश्व में तीसरा स्थान हासिल कर चुका है। यह तस्करी वेश्यावृत्ति, शारीरिक शोषण, जबरन विवाह, बन्धुआ मज़दूरी, अंगों की तस्करी आदि के लिए की जाती है। अस्सी फ़ीसदी की तस्करी तो सेक्स व्यापार के लिए ही की जाती है। मनुष्य की तस्करी का सबसे अधिक शिकार बच्चे हो रहे हैं और उनमें से भी बच्चियों को इसका सबसे अधिक शिकार होना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक आँकड़े के मुताबिक विश्व स्तर पर हर वर्ष 12 लाख बच्चों की ख़रीद-फरोख्त होती है। इन बच्चों में आधों की उम्र 11 से 14 वर्ष के बीच होती है।

कुत्ते और भेड़िये, और हमारी फ़ैक्टरी के सुपरवाइज़र

मैं इन सुपरवाइज़रों की कुत्ता-वृत्ति और भेड़िया-वृत्ति को पता नहीं
शब्दों में बाँध भी पा रही हूँ
कि नहीं
इनकी भौं-भौं और इनकी गुर्र-गुर्र
इनका विमानवीकरण
इनके दाँतों और नाख़ूनों में लगा
हमारी दम तोड़ती इच्छाओं और स्वाभिमान का ख़ून और ख़ाल

असली मुद्दा ख़नन की वैधता या अवैधता का नही बल्कि पूँजी द्वारा श्रम और प्रकृति की बेतहाशा लूट का है।

पूँजीवादी अदालतें और मीडिया अवैध खनन को वैध तरीके से चलाने की पुरज़ोर वकालत करते हैं। लेकिन मज़दूरों, मेहनतकशों के सामने तो असली सवाल यह है कि जहाँ यह ख़नन वैध तरीके से चल रहा है क्या वहाँ श्रम की लूट और प्रकृति का विनाश रुक गया है? अगर नहीं तो क्या वजह है कि सरकार, अदालतें और मीडिया मज़दूरों के श्रम की लूट के मुद्दे को एकदम गोल कर जाते हैं? उनका कुल ज़ोर ख़दानों को कानूनी बनाने पर ही क्यों रहता है। इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए हम रेत-खनन का ठोस उदाहरण लेते हैं।

दिल्ली में बादाम मज़दूर एक बार फिर हड़ताल की राह पर!

इस पूरे संघर्ष को महिला मज़दूरों ने करावलनगर मज़दूर यूनियन के बैनर तले बड़े ही सुनियोजित तरीके और रणनीतिक कुशलता से आगे बढ़ाया है। इस लड़ाई के दौरान इन लोगों ने पुलिस प्रशासन की “सक्रियता” का मुँहतोड़ जवाब देते हुए जीवट और बहादुरी का परिचय दिया है। मालिकों की समन्वय और समझौता नीति की धज्जियाँ उड़ाकर उनकी नींदें हराम कर दी हैं। किसी भी हालत में वे अपनी माँगों से डिगना नहीं चाहतीं और अपने तीखे तेवर के साथ संघर्ष में जुटी हैं। इतिहास बताता है कि विश्व में जहाँ भी बड़ी और जुझारू लड़ाइयाँ लड़ी गयीं सभी में महिला मज़दूरों ने अग्रणी भूमिका निभायी। सर्वहारा वर्ग की विजय अपनी इस आधी आबादी को साथ लिये बिना सम्भव नहीं। करावलनगर की स्त्री मज़दूरों का संघर्ष ज़िंदाबाद!

कथित आज़ादी औरतों की

आज कितना भी प्रगतिशील विचारों वाला व्यक्ति क्यों न हो वो सामाजिक परिवेश की जड़ता को अकेले नहीं तोड़ सकता और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि औरत वर्ग सिर्फ़ पुरुष वर्ग की खोखली बातों से नहीं आज़ादी के लिए तो महिलाओं को ही एक क़दम आगे बढ़कर दुनिया की जानकारी हासिल करनी होगी। और अपनी मुक्ति के लिए इस समाज से संघर्ष चलाना होगा। और दूसरी बात यह है कि महिला वर्ग के साथ ही पुरुष वर्ग का यह पहला कर्तव्य बनता है कि वो अपनी माँ-बहन, पत्नी या बेटी को शिक्षित करें। उनको बराबरी का दर्जा दे। उनको समाज में गर्व के साथ जीना सिखाये, उनको साहसी बनाये। क्योंकि अगर आप अपने महिला वर्ग के साथ अन्याय, अत्याचार करेंगे तो समाज में आप भी कभी बराबरी का दर्जा नहीं पा सकेंगे क्योंकि समाज के निर्माण का आधार महिलायें ही हैं। एक इंसान को जन्म से लेकर लालन-पालन से लेकर बड़ा होने तक महिलाओं की प्रमुख भूमिका है। अगर महिलायें ही दिमाग़ी रूप से ग़ुलाम रहेंगी तो वो अपने बच्चों की आज़ादी, स्वतन्त्रता व बराबरी का पाठ कहाँ से पढ़ा पायेंगी। दोस्तों आज पूँजीपति भी यही चाहता है कि मज़दूर मेरा ग़ुलाम बनकर रहे। कभी भी हक़-अधिकार, समानता व बराबरी की बात न करे और आज की स्थिति को देखते हुए पूँजीपति वर्ग की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं है।

8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर ‘‘मजदूर अधिकार रैली’’

मेहनतकश औरतों की हालत तो नर्क से भी बदतर है। हमारी दिहाड़ी पुरुष मज़दूरों से भी कम होती है जबकि सबसे कठिन और महीन काम हमसे कराये जाते हैं। कानून सब किताबों में धरे रह जाते हैं और हमें कोई हक़ नहीं मिलता। कई फैक्ट्रियों में हमारे लिए अलग शौचालय तक नहीं होते, पालनाघर तो दूर की बात है। दमघोंटू माहौल में दस-दस, बारह-बारह घण्टे खटने के बाद, हर समय काम से हटा दिये जाने का डर। मैनेजरों, सुपरवाइज़रों, फोरमैनों की गन्दी बातों, गन्दी निगाहों और छेड़छाड़ का भी सामना करना पड़ता है। ग़रीबी से घर में जो नर्क का माहौल बना होता है, उसे भी हम औरतें ही सबसे ज़्यादा भुगतती हैं।