स्त्री मज़दूर
स्त्री मज़दूरों और उनकी माँगों के प्रति पुरुष मज़दूरों का नज़रिया (दूसरी किस्त)
कविता
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पुरूष मज़दूर अगर बहुत संकीर्ण दायरे में सोचेंगे और केवल अपने तात्कालिक आर्थिक हितों को ही देखते रहेंगे, अगर वे व्यापक से व्यापकतर स्तर पर संगठित होकर अपने आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों की हिफ़ाजत एवं विस्तार के लिए लड़ने के बारे में नहीं सोचेंगे, तो वे स्त्री मज़दूरों के साथ स्वाभाविक तौर पर प्रतिस्पर्द्धा और द्वेष की भावना महसूस करेंगे!
स्त्री मज़दूरों को अपने संघर्ष में बराबर का भागीदार बनाने की अनिवार्य आवश्यकता वे तभी महसूस करेंगे, जब उनकी वर्ग-चेतना उन्नत होगी। इस बात को गहराई से जानने के लिये हमें पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की कुछ बुनियादी चीज़ों को समझना होगा।
पूँजी एक ऐसा मूल्य होती है जो अपने आप में अतिरिक्त मूल्य जोड़ते हुए लगातार मूल्य-संवर्धन करती चलती है। यह अतिरिक्त मूल्य कहाँ से आता है? – यह मज़दूर वर्ग के शोषण से आता है। पूँजीवादी समाज में हर उत्पादन, उत्पादन के सभी साधन और मानवीय इस्तेमाल में आने वाली हर चीज़ एक माल होती है। माल के दो पहलू होते हैं – उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य। यानी विनिमय या ख़रीद- फ़रोख़्त उसी चीज़ का हो सकता है जिसका उपयोग मूल्य हो। यानी हर माल का कोई न कोई उपयोग होता है। माल की दूसरी ख़ासियत यह है कि उसके उत्पादन में श्रम लगता है। माल के उत्पादन में लगा हुआ यह श्रम ही उसमें मूल्य पैदा करता है। बाज़ार में जब एक चीज़ से दूसरी चीज़ का विनिमय होता है तो उनके उत्पादन में लगी हुई श्रम की बराबर मात्रा के आधार पर होता है।
अब सवाल है कि श्रम की मात्रा को मापा कैसे जाये? किसी ख़ास प्रकार के कच्चे माल पर ख़ास औजार और ख़ास हुनर का इस्तेमाल करके ख़ास उपयोगिता की वस्तु बनायी जाती है। श्रम का यह पहलू मूर्त श्रम कहलाता है। अलग-अलग मालों के उत्पादन में अलग-अलग मूर्त श्रम लगता है (जो उसका उपयोग मूल्य तय करता है), पर एक बात समान है कि हर माल के उत्पादन में लगता मानवीय श्रम ही है। समरूपता का यह पहलू अमूर्त श्रम कहलाता है। इसी के द्वारा माल का मूल्य तय होता है। किसी माल के उत्पादन में लगे हुए श्रम की मात्रा उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम के काल से नापी जाती है। अब व्यक्तिगत कौशल, चुस्ती, औज़ार, परिस्थिति आदि के हिसाब से एक ही माल के उत्पादन में अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग समय लगायेंगे अतः मालों का मूल्य व्यक्तिगत श्रमकाल से नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम से तय होता है। उत्पादन की मौजूदा सामान्य स्थितियों में उस समय की औसत कुशलता और गहनता के द्वारा किसी उपयोग मूल्य के उत्पादन में लगे श्रमकाल को सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम कहते हैं।
अब समझने की बात यह है कि माल-उत्पादन और विनिमय की इस पूरी प्रक्रिया में मुनाफ़ा कहाँ से आता है? अतिरिक्त मूल्य पैदा कैसे होता है?
किसी भी समाज में, श्रमशक्ति एक मानवीय कार्य है। यह मनुष्य के शारीरिक-मानसिक यत्नों का कुल योग है। यही उत्पादन का मुख्य उपादान है। पूँजीवाद के जन्म के साथ ही, छोटे माल-उत्पादकों की तबाही और आदिम पूँजी-संचय के चलते एक ऐसा सामाजिक वर्ग अस्तित्व में आता है जिसके पास उत्पादन या आजीविका का कोई साधन नहीं होता। उसे जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचनी ज़रूरी होती है। इस श्रमशक्ति को वह पूँजीपति खरीदता है जो बड़े पैमाने पर उत्पादन के साधनों का मालिक होता है। वह अपनी ज़रूरत के लिए नहीं, बल्कि बेचने के लिए पैदा करता है। इसतरह पूँजीवादी समाज में श्रमशक्ति एक माल बन जाती है। दूसरे मालों की तरह उसका भी मूल्य और उपयोग होता है। दूसरे मालों की ही तरह इसके उत्पादन और पुनरुत्पादन में लगने वाले सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के परिमाण से ही श्रमशक्ति का मूल्य तय होता है। मज़दूर के श्रम करने की क्षमता बनाये रखने के लिए खाना, कपड़ा, आवास आदि बुनियादी चीज़ें ज़रूरी हैं। बूढ़े और मरने वाले मज़दूरों की जगह नये मज़दूर आयें, इसके लिए मज़दूरों के बच्चा पैदा करने, परिवार चलाने की भी ज़रूरत होगी। तात्पर्य यह कि श्रमशक्ति के उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए मज़दूर के घर-परिवार को चलाने भर का ख़र्च ज़रूरी होगा। यही मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य होता है।
जहाँ तक श्रमशक्ति के उपयोग मूल्य की बात है, इस मायने में यह सभी दूसरे मालों से भिन्न होता है। अनाज या कपड़ा जैसे किसी माल के उपयोग मूल्य का उपभोग करने से कोई नया उपयोग मूल्य सृजित नहीं होता, पर श्रमशक्ति एक ऐसा माल है, जिसका उपयोग एक नया मूल्य पैदा करता है और इससे भी अहम बात यह है कि स्वयं श्रमशक्ति के मूल्य से भी अधिक मूल्य पैदा करता है। यानी ‘‘श्रमशक्ति सिर्फ मूल्य का ही स्रोत नहीं, बल्कि उसमें निहित मूल्य से भी अधिक मूल्य का स्रोत है’’ (मार्क्स: ‘पूँजी’, खण्ड-1) और, ‘‘पूँजीपति जब श्रमशक्ति को खरीदता है तो उसकी दिलचस्पी इस बढ़े हुए मूल्य में ही होती है’’ (वही)। श्रमशक्ति के मूल्य और उसके द्वारा सृजित मूल्य के अन्तर को ही अतिरिक्त मूल्य कहा जाता है।
जैसे, पूँजीपति मज़दूर की एक दिन की श्रमशक्ति खरीदता है। मज़दूर उस श्रमशक्ति का मूल्य, यानी अपनी दिनभर की उजरत या पगार के बराबर मूल्य का उत्पादन चार घण्टे या उससे भी कम में कर लेता है। लेकिन पूँजीपति उससे आठ घण्टे या उससे भी अधिक काम करवाता है। यानी मज़दूर जितना पैदा करता है, उसके मूल्य बराबर उजरत उसे नहीं दी जाती, बल्कि उसे तो दिनभर महज उत्पादन करने लायक बने रहने तक की ही उजरत दी जाती है। इन दोनों के बीच का अन्तर ही अतिरिक्त मूल्य है जिसे पूँजीपति हड़प जाता है। एक कार्यदिवस के श्रम काल का जो हिस्सा मज़दूर की जीविका के लिए आवश्यक होता है, वह आवश्यक श्रमकाल होता है और जिस हिस्से के दौरान पूँजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, उसे अतिरिक्त श्रमकाल कहा जाता है। अतिरिक्त श्रमकाल और आवश्यक श्रमकाल का अनुपात ही अतिरिक्त मूल्य की दर होता है, जो मज़दूरों के शोषण की मात्रा प्रदर्शित करती है।
अतिरिक्त मूल्य की दर बढ़ाने के लिए पूँजीपति एक रास्ता यह अपनाता है कि श्रमकाल को ही बढ़ा देता है। इस तरह हासिल किया गया अतिरिक्त मूल्य शुद्ध अतिरिक्त मूल्य कहलाता है। शोषण बढ़ाने के लिए श्रमकाल बढ़ा देने का तरीका आसान तो है, पर इसकी एक सीमा है। अतः पूँजीपति एक दूसरा शातिराना तरीक़ा अपनाता है। वह आवश्यक श्रमकाल को कम कर देता है। इससे सापेक्षिक श्रम काल बढ़ जाता है और पूँजीपति सापेक्षिक अतिरिक्त मूल्य हासिल कर लेता है। पूँजीपति जब नयी मशीनों और नयी तकनीक का इस्तेमाल करता है तो सामान्य श्रम उत्पादकता बहुत बढ़ जाती है और मज़दूर और उसके आश्रितों के भरण-पोषण के लिए ज़रूरी मूल्य का उत्पादन बहुत जल्दी हो जाता है। आवश्यक श्रमकाल घट जाता है यानी श्रम के पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी साधनों का मूल्य कम हो जाता है। श्रम उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही श्रम-सघनता बढ़ाकर भी (यानी मशीन की रफ़्तार बढ़ाकर, श्रम का कोटा बढ़ाकर और कुल कार्यदिवस कम किये बिना मज़दूरों की संख्या घटाकर) पूँजीपति आवश्यक श्रमकाल को घटाने का काम करता है। इसके अतिरिक्त अक्सर मज़दूरी कम करके, तरह-तरह के ज़ुर्माने लगाकर और नौकरशाही को मिलाकर, मज़दूरों को मिलने वाली क़ानूनी सुविधाओं में भी कटौती करके पूँजीपति मज़दूर की मज़दूरी उसकी श्रमशक्ति से भी कम कर देता है जिससे मज़दूर परिवारों का जीना मुहाल हो जाता है। कारख़ाना उत्पादन में मशीनें जैसे-जैसे उन्नत होती जाती हैं, स्वचालन जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे मज़दूर के शारीरिक बल की ज़रूरत कम होती जाती है और औरतों तथा बच्चों को काम पर लगाना आसान होता जाता है। औरतों और बच्चों का श्रम अपेक्षाकृत काफ़ी सस्ता होता है। इसलिए पुरुष मज़दूरों पर छँटनी की तलवार लटकने लगती है। श्रम-विभाजन और मशीनों का प्रयोग जितना बढ़ता जाता है, उतनी ही मज़दूरों की बेरोजगारी-अर्द्धबेरोजगारी भी बढ़ती है और श्रम बाज़ार में औरतों की उपस्थिति भी बढ़ती जाती है। इससे मज़दूरों में होड़ बढ़ती जाती है और मज़दूरी घटती जाती है।
देखें कि इस बात को मार्क्स ने कैसे लिखा हैः मशीन के कारण जो आदमी नौकरी से निकाल दिया गया है, उसकी जगह पर कारख़ाना मालिक सम्भवतः तीन बच्चों और एक औरत को नौकर रख लेता है! क्या उस मज़दूर की मज़दूरी का इतना होना ज़रूरी नहीं था कि उससे तीन बच्चों और एक औरत का भरण-पोषण हो सके? क्या न्यूनतम मज़दूरी का इतना होना ज़रूरी नहीं था कि उससे वंश की रक्षा और वृद्धि हो सके? तब फिर पूँजीपतियों के प्रिय फ़िकरों से क्या सिद्ध होता है? इससे अधिक और कुछ नहीं कि एक मज़दूर परिवार के जीवन निर्वाह के लिए अब पहले से चौगुने मज़दूरों को अपना जीवन खपाना होगा।’’ (मार्क्सः ‘उजरती श्रम और पूँजी’, मास्को, 1985, पृ”- 48-49)
‘‘जिस हद तक मशीनें मांसपेशियों की शक्ति को अनावश्यक बना देती हैं, उस हद तक मशीनें मांसपेशियों की बहुत थोड़ी शक्ति रखने वाले मज़दूरों को और उन मज़दूरों को नौकरी देने का साधन बन जाती हैं, जिनका शारीरिक विकास तो अपूर्ण है पर जिनके अवयव और भी लोचदार हैं। इसलिए मशीनों का इस्तेमाल करने वाले पूँजीपतियों को सबसे पहले स्त्रियों और बच्चों के श्रम की तलाश होती थी। अतएव श्रम तथा श्रमजीवियों का स्थान लेने के लिए जिस विराट यंत्र का आविष्कार हुआ था, वह तुरंत ही मज़दूर के परिवार के प्रत्येक सदस्य को, बिना किसी आयुभेद या लिंग-भेद के, पूँजी के प्रत्यक्ष दासों में भरती करके मज़दूरी करने वालों की संख्या को बढ़ाने का साधन बन गया। उसके बाद से बच्चों को पूँजीपतियों के लिए जो अनिवार्य काम करना पड़ता था, उसने न केवल बच्चों के खेलकूद की जगह ले ली, बल्कि परिवार की आवश्यकताओं के लिए घर पर रहकर किये जाने वाले कुछ सीमित ढंग के स्वतंत्र श्रम की भी जगह ले ली।
‘‘श्रम-शक्ति का मूल्य केवल इसी बात से निर्धारित नहीं होता था कि अकेले वयस्क मज़दूर को जीवित रहने के लिए कितना श्रम काल आवश्यक है, बल्कि इस बात से भी कि मज़दूर के परिवार को जीवित रखने के लिए कितना श्रमकाल आवश्यक होता है। मशीनें उसके परिवार के प्रत्येक सदस्य को श्रम की मण्डी में लाकर पटक देती हैं और इसतरह मज़दूर की श्रमशक्ति के मूल्य को उसके पूरे परिवार पर फैला देती हैं। इस प्रकार मशीनें उसकी श्रमशक्ति के मूल्य को कम कर देती हैं। यह मुमकिन है कि पहले परिवार के मुखिया की श्रमशक्ति को खरीदने में जितना ख़र्च होता था, अब चार सदस्यों के पूरे परिवार की श्रमशक्ति को ख़रीदने में उससे कुछ अधिक ख़र्चा हो; लेकिन उसके एवज़ में एक दिन के श्रम की जगह पर चार दिन का श्रम मिल जाता है, और चार दिन का बेशी श्रम एक दिन के बेशी श्रम से जितना अधिक होता है, उसी अनुपात में इन चार दिनों के श्रम का दाम गिर जाता है। परिवार को जीवित रखने के लिए अब चार व्यक्तियों को न केवल श्रम, बल्कि पूँजीपति के लिए बेशी श्रम भी करना पड़ता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मशीनें उस मानव-सामग्री में, जो पूँजी की शोषक शक्ति का प्रधान लक्ष्य होती है, वृद्धि करने के साथ-साथ शोषण की मात्रा में भी वृद्धि कर देती है।’’ (मार्क्सः पूँजी, खण्ड-एक, पृ. 421-422, मास्को, 1987)
एक मज़दूर की औरत जबतक चूल्हे-चौकठ और बच्चे पालने का काम करती है, तबतक वह विनिमय के लिए माल-उत्पादन की सामाजिक कार्रवाई में भागीदार नहीं होती। अतः तबतक वह अतिरिक्त मूल्य भी नहीं पैदा करती। यानी हाड़तोड़, नीरस घरेलू श्रम करते हुए वह उत्पीड़न और घरेलू दासता की शिकार तो होती है पर राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से उसे शोषित नहीं कहा जा सकता। पूँजीवादी शोषण की शिकार वह तब होती है जब वह सामाजिक उत्पादन के दायरे में प्रवेश करती है। जबतक औरत घरेलू गुलामी की शिकार होती है, तबतक उसके सोच-विचार का दायरा अत्यन्त संकुचित और दकियानूस होता है। अपनी गुलाम मानसिकता के चलते वह पुरुष की चरण-सेविका भी बनी रहती है और यह भी सोचती है कि चूँकि कमाकर परिवार का पेट भरना मर्द की ही ज़िम्मेदारी है, अतः वह नौकरी के अतिरिक्त और कुछ भी न करे, नौकरी पर ख़तरा आने वाला कोई काम (ट्रेडयूनियन, पार्टी कार्य आदि) न करे और ओवरटाइम खटकर भी कुछ ज्यादा पैसा घर लाये। जब वह सार्वजनिक उत्पादन की दुनिया में प्रवेश करती है तो उसके सोचने का दायरा फैल जाता है, वह साहसी हो जाती है और अपने हक के लिए सामूहिक एकजुटता की ज़रूरत समझने लगती है। इसीलिए फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा थाः ‘‘स्त्रियों की मुक्ति की पहली शर्त यह है कि पूरी नारी जाति फिर से सार्वजनिक उत्पादन में प्रवेश करे और इसलिए यह आवश्यक है कि समाज की आर्थिक इकाई होने का वैयक्तिक परिवार का गुण नष्ट कर दिया जाये।’’ (एंगेल्सः परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति)
लेनिन ने भी नीरस, उबाऊ और अमानवीय घरेलू गुलामी के खि़लाफ़ अनेकों स्थान पर लिखा है। समाजवाद के निर्माण के लिए वे इस बात को अनिवार्य मानते थे कि बड़े पैमाने पर किण्डरगार्टेन, शिशुशाला, सामूहिक भोजनालय आदि का निर्माण करके स्त्रियों को घरेलू कामों से छुटकारा दिलाकर सामाजिक उत्पादन और अन्य सार्वजनिक गतिविधियों में भागीदारी का ज्यादा से ज्यादा अवसर दिया जाये। पूँजीवाद वैयक्तिक परिवार के आर्थिक इकाई होने के स्वरूप को, और फलतः घरेलू गुलामी को पूरी तरह नष्ट कदापि नहीं कर सकता। स्त्रियों की स्थिति यदि उत्पादन और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में पुरुषों के बराबरी पर हो तो पूँजीवाद न तो स्त्रियों का सस्ता श्रम ख़रीद पायेगा, न ही घरेलू स्त्रियों की पिछड़ी चेतना और स्त्री बनाम पुरुष अन्तरविरोध का लाभ उठाकर अपनी स्थिति मजबूत बना पायेगा। अतः एक ओर तो वह परिवार की घरेलू गुलामी बनाये रखना चाहता है, दूसरी ओर पूँजीवादी उत्पादन की स्वतंत्र गति से लगातार बढ़ता मज़दूरों का शोषण और असहनीय जीवन मज़दूरों के परिवार के स्त्रियों को भी श्रम बाज़ार में उतरने को बाघ्य कर देता है।
मार्क्स लिखते हैं: ‘‘…पूँजीवादी व्यवस्था में पुराने पारिवारिक बंधनों का टूटना चाहे जितना भयंकर और घृणित क्यों न प्रतीत होता हो, परंतु आधुनिक उद्योग स्त्रियों, लड़के-लड़कियों और बच्चे-बच्चियों को घरेलू क्षेत्र के बाहर उत्पादन की क्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका देकर परिवार के और नारी तथा पुरुष के सम्बन्धों के एक अधिक ऊँचे रूप के लिए एक नया आर्थिक आधार तैयार कर देता है।’’ (पूँजी,खण्ड-एक, पृ. 521)। आगे मार्क्स लिखते हैं कि यदि काम करने वाले सामूहिक दल में औरत-मर्द दोनों शामिल हों तो उपयुक्त परिस्थितियाँ होने पर यह मानवीय विकास का आधार बन जायेगा। पूँजीवाद स्त्रियों को सामाजिक उत्पादन में उतारकर एक ओर तो वस्तुगत रूप से प्रगतिशील काम करता है, लेकिन दूसरी ओर उजरती गुलामी की व्यवस्था के चलते यह समाज में दुराचार और दासता के ज़हर फैलाने का एक कारण भी बनता है। इस दुराचार और दासता का सामना स्त्री मज़दूरों को ही करना होता है, लेकिन मार्क्स, एंगेल्स या लेनिन इसका उपाय यह कत्तई नहीं बताते कि पूँजीवादी समाज में स्त्रियाँ सार्वजनिक उत्पादन में प्रवेश करने के बजाय घरों में ही कैद रहें। पूँजीवाद के अन्तर्गत भी सामाजिक उत्पादन में औरत-मर्द दोनों की भागीदारी उनके व्यक्तित्व, उनके सम्बन्धों और उनके परिवार को उच्चतर मानवीय रूप देता है। दूसरे, पूँजीवादी शोषण की शिकार स्त्रियों को ही पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए संगठित होने की चेतना दी जा सकती है। सर्वहारा आबादी की इस आधे हिस्से की सामाजिक पहलकदमी और सक्रियता के बिना समाजवाद के लिए संघर्ष को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
ऊपर हम चर्चा कर आये हैं कि पूँजीपति ज्यादा से ज्यादा अतिरिक्त मूल्य निचोड़ने के लिए और आपसी प्रतियोगिता में आगे बढ़ने के लिए लगातार नयी मशीनें और नयी तकनोलॉजी लाता जाता है। यानी मशीनी उपकरणों और कच्चे माल पर वह ज्यादा से ज्यादा पूँजी लगाता जाता है और कम से कम मज़दूर लगाकर ज्यादा से ज्यादा काम लेता है। यानी पूँजी की अवयवी संघटन में स्थिर पूँजी (मशीन व कच्चे माल की ख़रीद में लगी पूँजी) का अनुपात परिवर्तनशील पूँजी (श्रमशक्ति की ख़रीद में लगी पूँजी) के मुकाबले लगातार बढ़ता जाता है। इससे श्रमशक्ति की माँग में सापेक्षिक कमी आ जाती है। छँटनी और बेरोज़गारी बढ़ जाती है।
पूँजी-संचय आगे बढ़ने के साथ ही श्रमशक्ति की आपूर्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है। मशीनें, स्त्रियों और बच्चों को भी उजरती मज़दूरों की कतार में शामिल कर लेती हैं। साथ ही पूँजी- संचय की प्रक्रिया छोटे किसानों और अन्य छोटे माल-उत्पादकों को भी दिवालिया बनाकर अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर कर देती है। नतीजतन, पूँजीवादी समाज में सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी बेरोज़गारों-अर्धबेरोज़गारों की भारी जमात के रूप में मौजूद रहती है। यह आबादी वास्तव में ‘‘फालतू’’ नहीं होती क्योंकि उत्पादन के साधनों पर यदि समाज का नियंत्रण हो और उत्पादन का लक्ष्य यदि मुनाफ़ा न होकर सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति और सामाजिक प्रगति हो तो समस्त उत्पादक आबादी लगातार उत्पादक कार्रवाई करके समाज को प्रगति की नयी चोटियों तक पहुँचाती रहेगी। पूँजीवादी समाज में पूँजी-संचय की प्रक्रिया सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी पैदा करती है। यह सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी तीन प्रकार की होती हैः पहली, वह सचल अतिरिक्त आबादी होती है, जो औद्योगिक केन्द्रों में इस या उस कारख़ाने से बाहर किये जाने के बाद इधर-उधर भटकती रहती है और जहाँ जो भी काम मिल जाये, करने को तैयार रहती है। दूसरी, वह छिपी हुई अतिरिक्त आबादी होती है, जो कृषि के पूँजीवादीकरण के बाद खेती से उजड़ तो जाती है, पर विस्थापित होकर शहर आने के बजाय गाँव में ही ज़मीन के छोटे से टुकड़े से चिपकी रहती है, कुछ इधर-उधर काम करके पेट पालती है और कभी-कभार शहर आकर भी मज़दूरी कर लेती है। तीसरी, स्थिर अतिरिक्त आबादी होती है जो घरेलू काम-काज करती है और कभी-कभार कुछ इधर-उधर के छोटे-मोटे काम कर लेती है (जैसे कि पीस रेट पर घर लाकर भी कुछ काम कर लेती है)। इस आबादी का कोई स्थायी पेशा नहीं होता। मज़दूर परिवारों की औरतों का बड़ा हिस्सा इसी श्रेणी में आता है। सभी चूल्हे-चौकठ की गुलामी करती हैं। परिवार चलाना दूभर हो जाता है तो पीस रेट पर घर लाकर या कारख़ाने जाकर कोई काम कर लेती हैं, कभी दिहाड़ी मज़दूरी कर लेती हैं।
यह ‘‘फालतू’’ आबादी पूँजी-संचय की प्रक्रिया का नतीजा़ होती है और फिर इन्हें ही पूँजी-संचय की प्रक्रिया का एक औजार बना दिया जाता है। बेरोज़गारों की भारी आबादी की मौजूदगी को ‘‘ट्रम्पकार्ड’’ की तरह इस्तेमाल करते हुए कारख़ानेदार अपने मज़दूरों को धमकाते हैं और उनकी मज़दूरी उस हद तक कम कर देते हैं कि उनकी न्यूनतम ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं और पूँजीवादी क़ानून मज़दूरों को जो हक़ एवं सहूलियतें देते हैं, उन्हें भी छीन लेते हैं। तंग आकर मज़दूर यदि हड़ताल पर जाते हैं तो बाहर जो बेरोज़गारों की विशाल ‘‘औद्योगिक रिज़र्व फ़ौज’’ मौजूद रहती है, उनकी मजबूरी एवं पिछड़ी वर्गचेतना का लाभ उठाकर उन्हें ‘स्ट्राइकब्रेकर’ के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है।
इस प्रकार पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को ही दूसरे हिस्से के खि़लाफ़ खड़ा कर देता है, वर्ग एकजुटता को तोड़ देता है और यही उसका ब्रह्मास्त्र होता है। इस ब्रह्मास्त्र का मुकाबला बुर्जुआ और अर्थवादी ट्रेडयूनियनों के शिखण्डी कर ही नहीं सकते। मज़दूरों की लड़ाई को वे केवल आर्थिक लड़ाई तक सीमित रखते हैं, (उन्हीं के चन्दे से उनका धंधा चलता है) और संकीर्ण आर्थिक दायरे में सोचते हुए हड़ताली मज़दूर बाहर के बेरोज़गार मज़दूरों को अपना दुश्मन मान बैठते हैं। जो ट्रेडयूनियन नेतृत्व होता है, वह कारख़ानों के बाहर सड़कों-बस्तियों में भटकते बेरोज़गार या अर्द्ध-बेरोज़गार मज़दूरों को शिक्षित-संगठित करके पूँजी के खि़लाफ़ वर्गीय एकजुटता की शिक्षा देने की ज़रूरत ही नहीं समझतौ (इसमें उन्हें अपना कोई फ़ायदा भी तो नहीं दीखता!)। जो हड़ताली मज़दूर होते हैं, प्रायः तो वे अपने ही कारख़ाने के ठेका मज़दूरों या अस्थायी मज़दूरों को भी साथ लेने की कोशिश नहीं करते। वे उन्हें अपने लिए सम्भावित प्रतिस्पर्द्धी और खतरा के रूप में देखते हैं।
जो स्थिर ‘‘अतिरिक्त आबादी’’, यानी स्त्रियों की आबादी है, उसकी दुर्गति सबसे अधिक होती है। एक की कमाई से परिवार चलाना असम्भव होने पर जब वे श्रम बाज़ार में उतरती हैं तो उन्हें पुरुषों से कम मज़दूरी पर ज्यादा कठिन काम दिये जाते हैं, जिनमें मांसपेशियों की ताकत भले कम लगे पर एकाग्रता एवं एकरसता की दृष्टि से वे काफी कठिन होते हैं और स्वास्थ्य पर सर्वाधिक नुकसानदेह असर डालते हैं। पुरुष मज़दूर उन्हें अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में देखते हैं और उनकी किसी भी माँग पर प्रायः साथ नहीं आते। ‘‘घर की दासी’’ और ‘‘यौन गुलाम’’ को बाहर अपने बाजू में काम करते देख उनके अन्दर का ‘‘मर्द’’ वन्य पशु की तरह जाग उठता है और साथी स्त्री मज़दूरों को प्रायः वे भी (मालिक-मैनेजर-सुपरवाइज़र तो करते ही हैं) भद्दे अश्लील फिकरों-इशारों का शिकार बनाते रहते हैं।
और फिर इन्हीं में से एक पुरूष मज़दूर जब अपने घर जाता है तो अपनी बीवी और बेटी को कारख़ाने के गन्दे माहौल से बचाने के लिए भरसक घर में ही पीसरेट पर काम करने के लिए प्रेरित करता है। इससे दो चीज़ें होती हैं। एक तो परिवार में चूल्हे-चौकठ, बाल-बच्चे का सारा काम औरत के ही सिर पड़ा रहता है (वैसे ज्यादातर कारख़ाने जाने वाली औरतों को भी घर का पूरा काम-काज स्वयं ही करना पड़ता है), दूसरे, घर में कुछ अतिरिक्त कमाई आ जाती है। एक वर्ग चेतनाहीन पुरुष मज़दूर अपनी स्त्री की श्रमशक्ति की कीमत और पीस रेट पर काम करने के चलते सभी श्रम अधिकारों से वंचित होने की उसकी स्थिति के बारे में नहीं सोचता। वह यह भी नहीं सोच पाता कि उसके घर की स्त्री जब घर से बाहर निकलकर सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में उतरेगी तो अपने जैसी स्त्री मज़दूरों के साथ मिलकर अपने हक़ों के लिए लड़ेगी और समूचे मज़दूर वर्ग के साथ मिलकर सभी वर्गीय हक़ों के लिए लड़ते हुए मज़दूर संघर्ष की ताक़त को दूनी कर देगी।
जो अर्थवादी-सुधारवादी चवन्नीछाप गीदड़ ट्रेडयूनियन नेता हैं; अव्वलन तो वे व्यापक मज़दूर एकता चाहेंगे ही क्यों? यह उनके हित के खि़लाफ़ है! दूसरे, उनके कलेजों में इतना दम भी नहीं होता कि अपने आसन्न आर्थिक हितों को लेकर एकदम नाक के ठीक आगे तक देखने वाली आम मज़दूर आबादी को ओजस्वी ढंग से ललकारकर उसे पूँजी के खि़लाफ़ श्रम की व्यापक एकजुटता के दूरगामी परिणामों और मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के बारे में बता सकें तथा यह समझा सकें कि सभी असंगठित (ठेका व दिहाड़ी) तथा कारख़ाना गेट के बाहर, सड़कों पर बस्तियों में, मौजूद बेरोजगार सर्वहाराओं को साथ लेकर, स्त्री मज़दूरों की आधी आबादी को साथ लेकर, अपने घरों की स्त्रियों को सामाजिक उत्पादन और संघर्ष की दुनिया में उतारकर ही वे प्रभावी ढंग से संघर्ष कर सकते हैं और जीत सकते हैं। यह बात भूमण्डलीकृत पूँजीवाद के वर्तमान दौर में पहले हमेशा की अपेक्षा कई गुना अधिक लागू होती है।
यह कहना अनुचित या गलत नहीं होगा कि मज़दूर आन्दोलन की दुनिया में अर्थवाद का मर्दवाद से एक प्रकट-अप्रकट अपवित्र गठबंधन होता है। पुरुष मज़दूर संकीर्ण आर्थिक हितों के दायरे से बाहर व्यापक वर्गीय मुक्ति के ऐतिहासिक प्रश्न पर सोचेगा तभी वह समाज में स्त्री मज़दूरों को प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि संघर्ष का सहयोद्धा मानेगा, तभी वह अपने घरों की स्त्रियों को भी न केवल सामाजिक उत्पादन मे बल्कि आर्थिक-सामाजिक आन्दोलनों में उतरने के लिए प्रेरित करेगा। इस बात की चर्चा हम पहले कर चुके हैं कि यदि स्त्री और बच्चे भी काम पर जाते हैं तो उनकी मज़दूरी उनकी संयुक्त आमदनी में जुड़ जाती है और इससे पूरी श्रमशक्ति सस्ती हो जाती है। इसके बावजूद मार्क्स और एंगेल्स ने स्त्रियों के घर में रहकर सामाजिक सरोकारों से अलग-थलग पड़े रहने की जगह सामाजिक उत्पादन में उनकी भागीदारी पर बल दिया।
सामाजिक उत्पादन में भागीदारी करते हुए ही स्त्री सर्वहाराओं की आधी आबादी आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों की भागीदार बन सकती है और मज़दूर मुक्ति के ऐतिहासिक संघर्ष की सफलता की यह एक बुनियादी गारण्टी है।
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