साल-दर-साल मज़दूरों को लीलती मेघालय की नरभक्षी कोयला खदानें
आनन्द सिंह
जुलाई के दूसरे सप्ताह में राष्ट्रीय समाचारपत्रों के पिछले पन्नों पर एक छोटी-सी ख़बर आयी कि मेघालय की दक्षिण गारो पहाड़ियों में स्थित नांगलबिब्रा गाँव की कोयला खदान में पानी भर जाने से 30 मज़दूर खदान के अन्दर ही फँसे रह गये। कुछ दिनों बाद ख़बर आयी कि उनमें से 15 मज़दूर तो किसी तरह बचकर बाहर निकलने में क़ामयाब हो गये लेकिन अन्य 15 मज़दूरों का कोई अता-पता नहीं। ख़बर यह भी आयी कि बाकी 15 मज़दूरों को बचाने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल की एक टीम वहाँ गयी लेकिन कुछ दिनों बाद इस टीम ने भी हाथ खड़े कर दिये। यानी कि वे 15 मज़दूर मौत के मुँह में समा गये। रोंगटे खड़े कर देने वाली यह घटना, ऐसी कोई अकेली घटना नहीं है। दुनिया भर में खदान मज़दूरों के साथ इस किस्म की घटनाएँ अक्सर सुनने में आती रही हैं। लेकिन फिर भी मुनाफ़े की सनक में डूबी पूँजीवादी सत्ताएँ इन घटनाओं के रोकने के लिए कोई कारगर क़दम नहीं उठातीं।
जब तक इस क़िस्म का कोई हादसा नहीं होता तब तक खदान मज़दूरों की काली-अन्धेरी और घुटन तथा सन्नाटे से भरी ज़िन्दगी पूँजीवादी विकास की चकाचौंध और शोरगुल के पीछे मानो गुम-सी हो जाती है। वैसे तो खदानों में काम कर रहे मज़दूरों की स्थिति आम तौर पर ख़तरनाक ही होती है लेकिन मेघालय की गारो और जैंतिया पहाड़ियों में स्थित कोयला खदानों की हालत दिल दहला देने वाली है। उनकी हालत जानने के बाद यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है कि कोई इंसान इतने घुटन भरे काले-अंधेरे और सुनसान माहौल में रोज़ आठ से दस घण्टे काम कर सकता है। मेघालय की ये खदानें इतनी सँकरी और तंग हैं कि उनमें कोई इंसान खड़े होकर तो क्या बैठ कर भी नहीं जा सकता। मज़दूर इन खदानों में रेंगते हुए घुसते हैं और एक हथौड़ी और टार्च की मदद से लेटे-लेटे ही चट्टानों से कोयला निकालते हैं। इन खदानों के सँकरेपन की वजह से ही इन्हें चूहे के बिलनुमा खदानें (रैट होल माइन्स) कहा जाता है। इन खदानों में अक्सर ही चट्टानों के गिरने से और पानी भर जाने से मज़दूर अपनी जान गँवा बैठते हैं। जो मज़दूर ज़िन्दा बच पाते हैं वो कोयले की धूल और खदानों में मौजूद ज़हरीली गैसों की वजह से साँस की तमाम बीमारियों की चपेट में आ जाते है। जब तक ऐसे हादसे जैसी कोई भयानक घटना नहीं घटती, तब तक ये खदानें और उनमें काम करने वाले मज़दूर अख़बारों के पिछले पन्नों में भी जगह नहीं पाते।
मेघालय की इन नरभक्षी खानों की एक और ख़ौफनाक हक़ीक़त यह है कि इनमें भारी संख्या में बच्चों से खनन करवाया जाता है। चूंकि सँकरी और तंग खदानों में बालिगों की बजाय बच्चों का जाना आसान होता है इसलिए इन खानों के मालिक बच्चों को भर्ती करना ज्यादा पसन्द करते हैं। ऊपर से राज्य सरकार के पास इस बात का कोई ब्योरा तक नहीं है कि इन खदानों में कुल कितने खनिक काम करते हैं और उनमें से कितने बच्चे हैं। ‘तहलका’ पत्रिका में छपे एक लेख के मुताबिक मेघालय की खानों में कुल 70,000 खनिकों ऐसे हैं जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है और इनमें से कई तो 10 वर्ष से भी कम उम्र के हैं। सरकार और प्रशासन ने इस तथ्य से इंकार नहीं किया है। गौरतलब है कि केंद्र के खनन क़ानून 1952 के अनुसार किसी भी खदान में 18 वर्ष से कम उम्र के नागरिकों से काम कराना मना है। यानी कि अन्य क़ानूनों की तरह इस क़ानून की भी खुले आम धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। यही नहीं इन खानों में काम करने के लिए झारखंड, बिहार, उड़ीसा, नेपाल और बांगलादेश से ग़रीबों के बच्चों को ग़ैर क़ानूनी रूप से मेघालय ले जाने का व्यापार भी धड़ल्ले से जारी है।
इन खदानों से रोज़ाना लाखों मीट्रिक टन कोयला निकाला जाता है जिसकी क़ीमत करोड़ों में होती है। कोयला खदानें मेघालय राज्य के राजस्व का मुख्य स्रोत हैं। ग़ौरतलब है कि राज्य में खनन सम्बन्धी कोई नीति नहीं है और वहाँ की खानों पर सरकारी नहीं बल्कि निजी मालिकाना है। ये निजी मालिक ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए सभी श्रम क़ानूनों और बाल मज़दूरी विरोधी क़ानून को ताक पर रखकर खनिकों का घोर शोषण करते हैं। खनिकों की ख़तरनाक परिस्थितियों के बावजूद उनकी सुरक्षा सम्बन्धी कोई इंतजामात नहीं किये जाते है। मेघालय में खनन एक असंगठित लघु उद्योग है जहाँ खानों के मालिक अपनी बेहिसाब मुनाफ़ा पीटने के लिए क़ानूनन नहीं बल्कि अपनी मनमर्जी से खनन करवाते हैं। जैसा कि अक्सर होता है सरकार, प्रशासन और मालिकों की मिलीभगत से शोषण का ये गंदा खेल बदस्तूर ज़ारी है। इस प्रकार की खदानों की अवैज्ञानिकता और इनके जानलेवा चरित्र के स्थापित हो जानने के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारें इनके हालात को सुधारने की कोई कार्रवाही नहीं करते।
पूँजीवाद का इतिहास हमें बताता है कि इसकी विकास यात्रा धरती के ऊपर मज़दूरों, किसानों और आदिवासियों के खून से लथपथ होती है, और धरती के भीतर खनिकों के ख़ून से भी सराबोर होती है। पूँजीवाद की इस ख़ूनी यात्रा का अन्त तभी सम्भव होगा जब धरती के ऊपर और धरती के भीतर काम करने वाले सभी मेहनतकशों की फ़ौलादी एकता की ताक़त से इसे धरती के भीतर गहरी कब्र खोदकर गाड़ दिया जायेगा।
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन