भीमा कोरेगाँव की लड़ाई के 200 साल का जश्न – हताश रिपब्लिकन पैन्थर्स की अस्मितावादी राजनीति की पराकाष्ठा!
जाति अन्त की परियोजना ऐसे अस्मितावाद से आगे नहीं बल्कि पीछे जायेगी!

सत्यनारायण

यह लेख 24 दिसम्बर को लिखा गया था जब भीमा कोरेगाँव की लड़ाई के 200 साल का जश्न मनाने की तैयारी चल रही थी। 1 जनवरी को हुई हिंसा पर अलग लेख के लिए देखें ये लिंक

इतिहास की ऐसी लड़ाइयाँ जो उत्पीड़ित वर्गों ने अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के िख़लाफ़ लड़ी होती हैं, मानवता की धरोहर होती हैं। भले ही ऐसी लड़ाइयों में संघर्षरत जन पराजित हो जाये पर फिर भी उनका ऐतिहासिक मूल्य रहता है। हम उन्हें याद करते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं। पर अगर शासक वर्ग के दो खेमे आपस में लड़ रहे हों और उत्पीड़ित जनता का एक हिस्सा एक शासक की ओर से उसमें भागीदारी करे तो ऐसी लड़ाई से क्या प्रेरणा मिल सकती है? अगर ऐसी लड़ाई से उत्पीड़ित जनता कोई शर्त रखकर अपने लिए फ़ौरी राहत हासिल कर ले तब भी ये ऐतिहासिक प्रेरणा का कार्य तो कतई नहीं करती।
ऐसी ही एक लड़ाई भीमा कोरेगाँव की थी। आजकल महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पैन्थर नाम का एक संगठन ‘भीमा कोरेगाव शौर्यदिन प्रेरणा अभियान’ बैनर तले इस लड़ाई के 200 वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक बड़े आयोजन की योजना में लगा है। यह संगठन लाल और नीले का मिश्रण बनाने, यानी मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के समन्वय करने का हिमायती है। बातों में जय भीम-लाल सलाम और कार्यों में अस्मितावादी राजनीति, अब बस इस संगठन की पहचान यही बन गयी है। भीमा कोरेगाँव की लड़ाई को पेशवाई के खात्मे के तौर पर पेश करने और वर्तमान फ़ासीवादी सत्ता को नयी पेशवाई बोलकर ये कहते हैं कि भीमा कोरेगाँव को याद करने का मतलब है इस नयी पेशवाई को हराना। इन्होंने इस मौक़े पर इस आयोजन का औचित्य प्रतिपादन करते हुए एक पुस्तिका का भी प्रकाशन किया है। उस पुस्तिका में ख़ुद इतने अन्तरविरोध हैं कि लेखक से पूछने का मन करता है कि जब आप सब जानते ही हैं तो क्यों आयोजन की तकलीफ़ उठा रहे हैं? इस पुस्तिका में ऐतिहासिक स्रोतों, तर्कों की बजाय कपोल कल्पनाओं का इस्तेमाल ज़्यादा किया गया है। जहाँ कहीं पुस्तिका के ही विश्लेषण को ख़ारिज़ करने वाली कुछ सच्चाइयाँ ख़ुद बयान करनी पड़ी हैं, वहाँ भी उनको ऐसे दायें-बायें कर दिया गया है कि मूल विश्लेषण की लाज बच जाये। इस पुस्तिका में मौजूद अन्तरविरोधों व कपोल कल्पनाओं पर हम लेख के बीच यथास्थान टिप्पणी देंगे। साथ ही इस संगठन के दावों की पड़ताल हम ऐतिहासिक और वर्गीय नज़रिये से करने की कोशिश करेंगे और जानेंगे कि इस लड़ाई ने दलितों को क्या दिया।
अंग्रेज़ों ने एशिया के इस उपमहाद्वीपीय इलाक़े (उस वक़्त एक देश या ”राष्ट्र” तो अस्तित्व में नहीं था पर फिर भी आगे इस लेख में हम इस इलाक़े के लिए औपनिवेशिक भारत नाम इस्तेमाल करेंगे) को जीतने के लिए हर जगह तमाम जोड़-तोड़-तिकड़म किये। हर जगह यहाँ के कुछ लोगों को अपने साथ लिया और अलग-अलग रियासतों को पराजित करने में उनका इस्तेमाल किया। भीमा कोरेगाँव की लड़ाई 1 जनवरी 1818 को हुई थी। इस वक़्त तक अंग्रेज़ काफ़ी बड़े भारतीय भूभाग पर क़ब्ज़ा कर चुके थे। सभी जानते हैं कि प्लासी और बक्सर के युद्धों के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेज़ों का वर्चस्व एक वास्तविकता बन चुका था। अंग्रेज़ों की सामरिक ताक़त भी काफ़ी ज़्यादा थी। मराठा साम्राज्य इस वक़्त तक लगभग परास्त हो चुका था। पेशवा को पुणे से भगाया जा चुका था। पेशवा इधर-उधर दौड़ रहा था व बाद में वापस पुणे पर हमला करने की कोशिश में लग गया था। जब वो पुणे की तरफ़ बढ़ रहा था तो उसे रोकने के लिए शिरूर से सेना भेजी गयी थी। सेना में कुल 834 लोग थे जिसमें बॉम्बे नेटिव इन्फै़ण्ट्री के 500 सैनिक थे। हालाँकि इसमें महार कितने थे इसका आँकड़ा तो नहीं मिला पर अन्य स्रोतों के अनुसार बॉम्बे आर्मी का छठा हिस्सा (यानी लगभग 17 प्रतिशत) महार सैनिकों का था। कोरेगाँव की लड़ाई के बाद जो स्मारक लगा उसमें लिखे 49 नामों में से 22 महारों के है। यानी ये तय है कि सभी 500 सैनिक महार नहीं थे।
महार सेना में क्यों भर्ती हुए, इसको लेकर भी इस संगठन द्वारा जारी पुस्तिका में कल्पना का ही ज़्यादा सहारा लिया गया है। इनके अनुसार महार सेना में इसलिए भर्ती हुए क्योंकि वो पेशवाओं से अपने अत्याचार और अपमान का बदला लेना चाहते थे। ये बात ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों से कहीं साबित नहीं होती। अंग्रेज़ों ने जब भर्ती की तो उन्होंने महारों के किसी प्रतिनिधि को बुलाकर ये नहीं कहा कि आपको हम पेशवा से लड़ने के लिए भर्ती कर रहे हैं। ये एक संयोग था कि बॉम्बे आर्मी उस समय वहाँ उपस्थित थी और पुणे से आर्मी आने में देर लगने के कारण शिरूर की बटालियन को भेजा गया। यह पूरी तरह सच है कि पेशवाई का शासन जातिगत अत्याचारों का शासन था पर पेशवा का शासन अन्त होने के बाद भी परिस्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया। अगर अंग्रेज़ों व महारों का कोई घोषित या अघोषित क़रार इस सम्बन्ध में हुआ होता तो जाति अत्याचारों व भेदभावों पर अंग्रेज़ कुछ विशेष कार्य करते। यदि महारों की सेना में भर्ती से महार जाति को शिक्षा व अन्य लाभ मिले तो यह न तो महारों के सेना में शामिल होने के सचेतन निर्णय के कारण हुआ था और न ही अंग्रेज़ों द्वारा योजनाबद्ध ढंग से जातिगत उत्पीड़न ख़त्म करने के लिए हुआ था। अंग्रेज़ों ने देश के कई हिस्सों में उस समय जातिगत, जातीय (एथनिक), राष्ट्रीय समूहों की सेना में भर्ती की थी और बाद में उनकी रेजीमेण्टें भी बनायी थीं, जैसे कि सिख रेजीमेण्ट, गोरखा रेजीमेण्ट, नगा रेजीमेण्ट, राजपुताना रेजीमेण्ट आदि। इनमें से किसी भी रेजीमेण्ट को बनाने में न तो अंग्रेज़ों ने इन समुदायों के कल्याण को अपना लक्ष्य बनाया था और न ही इन समुदायों ने अपने उत्थान हेतु अंग्रेज़ सेना में शामिल होने का कोई सामूहिक निर्णय लिया था। महारों के सेना में शामिल होने पर भी यही बात लागू होती है। जैसाकि आनन्द तेलतुम्बडे ने लिखा है, अंग्रेज़ों के इस क़दम और ऐसे तमाम क़दमों से यदि दलितों को कहीं कुछ लाभ पहुँचा तो वह केवल अंग्रेज़ी शासन का उपोत्पाद (बाई प्रोडक्ट) था। बाद में बेशक इन फ़ायदों के कारण महार जाति के तमाम सुधारकों ने सेना में भर्ती को प्रोत्साहन दिया और साथ ही ब्राह्मणों के विरोध के कारण अंग्रेज़ों द्वारा सेना में महारों की भर्ती बन्द किये जाने पर अंग्रेज़ों को भर्ती पुन: प्रारम्भ करने के लिए आवेदन किये। ख़ैर, मूल चर्चा पर वापस लौटते हैं।
जब पेशवा को ये ख़बर मिली कि ब्रिटिश आर्मी भीमा नदी के किनारे है तो उसने अपने 2000 सैनिक लड़ने के लिए भेजे। ग़ौरतलब है कि उसके पास कुल 28000 सैनिक थे। व कुछ अम्बेडकरवादी इतिहासकार दावा करते हैं कि पेशवा ने सभी सैनिकों को लड़ने के लिए भेजा था। यह बात तथ्यत: सही नहीं है। इस संगठन ने भी अपने द्वारा जारी पुस्तिका में सभी 28000 सैनिकों को 834 से लड़वा दिया है। इस सम्बध में एक नाटकीय व काल्पनिक प्रसंग भी इन्होंने अपनी पुस्तिका में पेश किया है। इन्होंने लिखा है कि जब कैप्टन स्ट्राॅण्टन, जो कि अंग्रेज़ी सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व कर रहा था, ने पेशवा की सेना का मुकाबला करने की शुरुआत की, तो पहले-पहल वो 28000 की सेना देखकर घबरा गया पर अपनी बटालियन में महार सैनिकों का जिगर देखकर उसने लड़ने का निश्चय किया। सच यह है कि उस वक़्त स्ट्रॉण्टन के पास कोई विकल्प नहीं था और उसे अपनी छोटी-सी टुकड़ी के दम पर ही पुणे से सेना आने तक पेशवा को रोकना था। रोकने में भी उसकी ज़्यादा मदद उसके हथियारों ने की। यह बात दीगर है कि महार सैनिकों ने भी इस लड़ाई में पेशवाई के प्रति अपनी नफ़रत और असन्तोष के चलते जुझारू ढंग से भागीदारी की होगी। लेकिन जिस रूप में रिपब्लिकन पैन्थर्स ने पुस्तिका में पूरे वाक़ये को पेश किया है, वह अस्मिता निर्माण की परियोजना का हिस्सा ज़्यादा लगता है और ऐतिहासिक विवरण कम।
पेशवा की सेना का बड़ा हिस्सा अरबी था व मराठा, गोसांई भी काफ़ी संख्या में थे। 1 जनवरी को दोपहर में पेशवा व अंग्रेज़ों की सेना के बीच लड़ाई शुरू हुई। शुरू में पेशवा की सेना भारी पड़ी व अरबों ने नदी की रक्षा में लगी एकमात्र अंग्रेज़ी गन को क़ब्ज़े में ले लिया व 11 अंग्रेज़ गनर्स को मार गिराया (उस वक़्त तक इस महत्वपूर्ण पोस्ट पर अंग्रेज़ ही होते थे)। कुछ अंग्रेज़ी गनर इस मौक़े पर आत्मसमर्पण की सलाह भी दे रहे थे पर कैप्टन स्ट्रॉण्टन ने ये बात नहीं मानी। इसके बाद लड़ाई दोबारा शुरू हुई व रात नौ बजे पेशवा की सेना ने फ़ायरिंग रोक दी। पीछे से और अंग्रेज़ सैनिक आने की आशंका में वो चले गये। हालाँकि वो तुरन्त उस इलाक़े से भागे नहीं व दूसरे दिन भी अपना डेरा कोरेगाँव में डाल रखा था। अंग्रेज़ों के लगभग 275 सैनिक इस लड़ाई में मारे गये थे व पेशवा के 500-600। इसके बाद जनरल स्मिथ ने पेशवा का पीछा किया। रास्ते में आने वाले पेशवा के ज़्यादातर मराठा जागीरदार अंग्रेज़ों के सामने समर्पण कर चुके थे व अन्त में पेशवा ने भी 2 जून 1818 को अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली। उसे बदले में भारी-भरकम पेंशन (एक लाख पौण्ड सालाना) व अन्य सुविधाएँ दी गयीं।
इस लड़ाई से पेशवा को क्या मिला, यह तो ऊपर स्पष्ट ही है। पर दलितों को अंग्रेज़ों की सेवा के बदल में क्या मिला, इसके लिए हमें इतिहास में थोड़ा और आगे बढ़ना पड़ेगा। जाति व्यवस्था पर ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के प्रभावों के बारे में काफ़ी विवाद रहा है। अम्बेडकर व कुछ जाति विरोधी सुधारक मानते हैं कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने दलितों की हालात में बेहतरी लाने का काम किया। इसके लिए वो पश्चिमी शिक्षा व सेना में मौक़ा देने का हवाला देते हैं। अगर समग्रता में देखा जाये तो ब्रिटिश शासन ने जाति व्यवस्था को और ज़्यादा मज़बूत किया व दलितों की स्थिति को राजनीतिक व आर्थिक रूप से ओर ज़्यादा अरक्षित बना दिया। दो कारक इसमें महत्वपूर्ण थे।
पहला कारक था अंग्रेज़ों की भू-राजस्व व्यवस्था के बदलाव। पहले 1793 का स्थायी बन्दोबस्त व बाद में रैयतवाड़ी व महालवारी बन्दोबस्त भूमिहीन दलितों के हितों के विरुद्ध थे। स्थायी बन्दोबस्त ने भूमि में निजी सम्पति की शुरुआत की व ज़मींदारों को भूमि का मालिक बना दिया। इससे पहले राजा या केन्द्रीय सत्ता भूमि की विधिक स्वामी थी और अन्य सभी जागीरदारों-ज़मींदारों को प्रयोगाधिकार (यूज़रफ्रक्ट) प्राप्त था। ज़मींदारों को क़ानूनी मालिक बनाने का काम अंग्रेज़ों ने किया। ज़ाहिर है ज़मींदार उच्च जातियों से ही आते थे। महालवारी बन्दोबस्त ने भूमि का मालिकाना ग्राम समुदाय को दिया व उसे ज़मीन बाँटने का अधिकार दिया। ज़्यादातर ग्राम समुदायों के प्रमुख उच्च जातियों से ही आते थे। यह दलित भूमिहीनों के साथ अन्याय था। रैयतवाड़ी बन्दोबस्त इन दोनों की तुलना में सबसे ज़्यादा प्रगतिशील था, हालाँकि उसमें भी ज़मीन दलितों को नहीं बल्कि मध्यम किसान जातियों को दी गयी। बाद में इनको प्रशासनिक व तकनीकी शब्दावली में अन्य पिछड़ा वर्ग कहा गया। अंग्रेज़ों के इन बन्दोबस्तों ने दलितों की भूमिहीनता को और ज़्यादा स्थायी बना दिया। ग्रामीण उत्पादन व वर्ग सम्बन्धों में जो थोड़ी बहुत गतिमानता की सम्भावना थी, उसे भी इन भूमि राजस्व व्यवस्थाओं ने समाप्त कर दिया। यही कारण था कि रियासतों के उच्च जातीय ज़मींदार व शासक अंग्रेज़ी औपनिवेशिक शासन के सहयोगी व सामाजिक आधार बने रहे। यही कारण था कि सबसे ज़्यादा ब्राह्मणवादी व जातीय ताक़तें जैसे हिन्दू महासभा व संघ ब्रिटिशों के िख़लाफ़ नहीं लड़े, बल्कि क्रान्तिकारियों के िख़लाफ़ जासूसी की व अन्त तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के सबसे विश्वसनीय सहयोगी बने रहे। और यही कारण था कि जब अंग्रेज़ देश छोड़कर जाने लगे तो राजे-रजवाड़ों और ज़मींदारों का पूरा उच्च जाति वर्ग अंग्रेज़ों से न जाने की वन्दना कर रहा था और हाथ-पाँव जोड़ रहा था।
दूसरा कारक जो ब्रिटिश सत्ता ने पेश किया और जिसने जाति व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण का काम किया व साथ ही राजनीतिक-क़ानूनी औपचारिकीकरण किया, वो था एथनोग्राफि़क राज्य का उभार। लोगों को गिनना, उनका वर्गीकरण करना ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के लिए अनिवार्य था। ब्रिटिश अनुभववाद और प्रत्यक्षवाद ने जोकि ब्रिटिश शासकों की विचारधारा था, ब्रिटिश शासकों की यह समझ बनायी थी कि भारत पर अच्छी तरह से शासन करने के लिए भारत को अच्छी तरह से जानना आवश्यक है। 1784 में ओरियण्टल सोसायटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना से लेकर एचएच रिसले द्वारा की गयी जनगणना तक अंग्रेज़ों की कार्रवाई उनके इसी प्रयास का उदाहरण हैं। उन्होंने औपनिवेशिक राज्य के शासन सिद्धान्त के अनुसार असंख्य सर्वे, अध्ययन व शोध किये व वर्गीकरण किया। उन्होंने पहली बार अनुसूचित जातियों को परिभाषित किया व उनका क़ानूनी अस्तित्व बनाया जो ज़्यादा ठोस व कठोर था और बदलाव के लिए अभेद्य था। इसने जाति व्यवस्था के मज़बूतीकरण व सुदृढ़ीकरण को अंजाम दिया। इस बात को अब तमाम इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं।
यह सच है कि अंग्रेज़ों ने पश्चिमी शिक्षा के दरवाज़े कुछ रियासतों में दलितों के लिए आंशिक तौर पर खोले। साथ ही ईसाई मिशनरियों ने भी दलितों व उत्पीड़ित तबक़ों के बीच कुछ शिक्षण कार्य किया। लेकिन औपनिवेशिक भारत का विस्तार देखते हुए ये बहुत ही कम था। दूसरा, अंग्रेज़ों ने ये सुधार दलितों के उत्थान के लिए नहीं किये, जैसा कि आनन्द तेलतुम्बडे ने कहा है – यह औपनिवेशिक सत्ता की अफ़सरशाही के लिए विश्वसनीय व वफ़ादार बुद्धिजीवी तैयार करने के औपनिवेशिक निर्माण का उपोत्पाद (by-product) था। अंग्रेज़ों की अपनी ज़रूरतें थीं। और अगर उपोत्पाद के तौर पर मिले आंशिक लाभ की तुलना अंग्रेज़ी शासन द्वारा दलितों के दमन और शोषण को मिले ढाँचागत स्वरूप की हानि से की जाये तो लाभ की तुलना में हानि कई गुना ज़्यादा थी।
सेना में दलितों की भर्ती के प्रश्न पर ऐतिहासिक तथ्यों को स्पष्ट करना बेहद ज़रूरी है। अंग्रेज़ों ने सेना में विभिन्न तबक़ों को भर्ती किया, ख़ासकर वे जो पहले से किसी राजा की सेना में काम करते रहे थे। महार भी एक ऐसी ही दलित जाति थी जो शिवाजी के समय से सेना में रही थी। अंग्रेज़ों ने महारों को सेना में जगह तो दी थी पर ब्राह्मणों के दवाब में पहले तो उनको लडा़कू पदों से बाहर किया गया व बाद में मार्शल रेस का सिद्धान्त लाकर उनकी भर्ती बन्द भी कर दी थी। ग़ौरतलब है कि इस संगठन ने भी अपने द्वारा प्रकाशित पुस्तिका में इस तथ्य को स्वीकार किया है। इससे भी औपनिवेशिक सत्ता व ब्राह्मणवाद के अपवित्र गठबन्धन का पता लगता है। महार के अलावा अन्य सब की भर्ती जारी रखी गयी थी जैसे सिख, गोरखा आदि। दूसरी बात, इसमें भी ध्यान देने वाली बात यह है कि अंग्रेज़ों ने दलितों में भी सिर्फ़़ एक इलाक़े में व एक जाति (बॉम्बे आर्मी में महार) को ही सेना में भर्ती किया था, किसी अन्य दलित जाति को नहीं।
ब्रिटिश शासन का दूसरा प्रभाव कुछ उद्योगों का शुरू होना था। एक औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत सीमित व विनियमित पूँजीवादी विकास होने से निश्चित तौर पर जाति व्यवस्था के कुछ आयाम कमजोर हुए। शहरी मज़दूर वर्ग के उभार ने भी इसमें योगदान किया। संक्षेप में, उद्योगों, विशेषकर रेलवे के पूरे नेटवर्क के निर्माण और शहरीकरण ने जाति व्यवस्था के कुछ आयामों को कमज़ोर किया। कार्ल मार्क्स ने इस विकास के बारे में पहले ही इंगित किया था व बाद में अम्बेडकर ने अपने तरीक़े से यही बात कही थी। पर अगर हम ब्रिटिश शासन के जाति व्यवस्था पर प्रभाव का समग्रता में मूल्यांकन करें तो निस्सन्देह इसने उच्च जातियों के शासन का सुदृढ़ीकरण किया, औपनिवेशिक सत्ता के हित में ब्राह्मणों व ब्राह्मणवादी विचारधारा का सहयोजन किया। इसने दलितों व अन्य निम्न जातियों की स्थिति को और अरक्षित बनाया। औपनिवेशिक शासन ने कुछ जनजातियों को क़ानूनी रूप से आपराधिक जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया व उन पर ऐतिहासिक अन्याय किया। ये आपराधिक जनजातियों का टैग भारत के संविधान ने भी तुरन्त नहीं हटाया था।
स्पष्ट है कि भारत की जनता को बाँटने के लिए अंग्रेज़ों ने यहाँ की जाति व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया था और धर्म का भी। अंग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए सचेतन तौर पर कुछ ख़ास नहीं किया। ऐसे में कोई अपने आप को जाति अन्त का आन्दोलन कहे (रिपब्लिकन पैन्थर अपने को जाति अन्त का आन्दोलन घोषित करता है) और भीमा कोरेगाँव युद्ध की बरसी मनाने को अपने सबसे बड़े आयोजन में रखे तो स्वाभाविक है कि वह यह मानता है कि अंग्रेज़ जाति अन्त के सिपाही थे! हक़ीक़त हमारे सामने है। ऐसे अस्मितावादी संगठन जाति अन्त की कोई सांगोपांग योजना ना तो दे सकते हैं और ना उस पर दृढ़ता से अमल कर सकते हैं। हताशा-निराशा में हाथ-पैर मारते ये कभी भीमा कोरेगाँव जयन्ती मनाते हैं तो कभी ‘संविधान बचाओ’ जैसे खोखले नारे देते हैं। अपनी हास्यास्पद ऐतिहासिक समझदारी का एक नमूना ये यहाँ और भी पेश करते हैं जब ये आज की फ़ासीवादी राज्यसत्ता को नयी पेशवाई बोलते हैं। पेशवाई सिर्फ़़ ब्राह्मणवाद नहीं था बल्कि निश्चित और विशिष्ट आर्थिक सम्बध भी थे। यह सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों और सामन्ती विखण्डित राज्यसत्ता की नुमाइन्दगी भी करता था। ब्राह्मणवाद वह विचारधारा थी जिसके ज़रिये पेशवाई अपने सामन्ती शासन व उत्पीड़न को एक विचारधारात्मक व न्यायिक-विधिक मान्यता प्रदान करती थी। इतिहास गवाह है कि भारत में उत्तरवैदिक काल से लेकर अभी तक जितनी भी शोषक-उत्पीड़क व्यवस्थाएँ आयी हैं, उन्होंने अपने शोषण-उत्पीड़न को वैध ठहराने के लिए ब्राह्मणवादी विचारधारा का इस्तेमाल किया है। चाहे वह 16 जनपदों के युग की प्राक्-सामन्ती शोषक व्यवस्था हो, गुप्त वंश की सामन्ती व्यवस्था हो, यहाँ तक कि दिल्ली सल्तनत का मुस्लिम शासन हो (ग़ौरतलब है कि चौदहवीं सदी में फि़रोज़शाह तुग़लक़ ने बंगाल की एक मध्यजाति को निचला दर्जा देने का फ़रमान जारी कर उसकी अवनति करा दी थी!), मुग़ल शासन हो, ब्रिटिश शासन हो या फिर स्वातन्त्र्योत्तर भारत का पूँजीवादी शासन हो; सभी शोषक-शासक वर्गों ने जाति व्यवस्था को अपने आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों के अनुसार सहयोजित, पुनर्परिभाषित किया है और नये रूपों में ढाला है; अगर हम इस यथार्थ को नहीं समझते और यह समझते हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थों और संहिताओं ने जाति व्यवस्था बनायी, तो हम जाति-वर्ग व्यवस्था में पिछले लगभग साढ़े तीन हज़ार साल में आये बदलावों को व्याख्यायित नहीं कर सकते हैं। ब्राह्मणवाद एक ऐसी विचारधारा है जो कि भारतीय इतिहास सन्दर्भों में सभी शासक वर्गों को एक बेहद उपयोगी विचारधारात्मक उपकरण मुहैया कराती है, जिससे कि वे अपने शोषण व दमन को जायज़ ठहरा सकें। पूँजीवादी व्यवस्था में यह एक अलग रूप में घटित होता है और उससे पहले की व्यवस्थाओं में अलग-अलग तरीक़ों से। लेकिन जब तक किसी शोषक अल्पसंख्या का शासन भारत में रहेगा, तब तक ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था बनी रहेगी, भले ही यह नयी व्यवस्था के अनुरूप ढलती रहे। जिस प्रकार अमेरिका में कोई भी शोषक शासक वर्ग नस्लवाद का अपने तरीक़े से प्रयोग अवश्य करेगा, उसी प्रकार भारत में कोई भी शोषक शासक वर्ग जातिवाद और ब्राह्मणवाद का अपने अनुसार प्रयोग अवश्य करेगा। इसलिए चाहे पेशवाई हो या आज का पूँजीवादी शासन, ये दोनों ही बदली हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों व वर्ग सम्बन्धों के अनुसार ब्राह्मणवाद व जाति व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन लाते हैं और उनका अपनी लेजिटिमाइजिंग विचारधारा के रूप में प्रयोग जारी रखते हैं। क्या इससे यह नतीजा निकलता है कि आज की फ़ासीवादी मोदी सरकार नयी पेशवाई है? इससे ज़्यादा अनैतिहासिक, अज्ञानतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण बात और क्या हो सकती है? आज के फ़ासीवादी पूँजीवादी शासन का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व ऐतिहासिक सन्दर्भ 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध की पेशवाई से एकदम भिन्न है। यही कारण है कि उस दौर की जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद और आज की जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के प्रकार्यों में भी काफ़ी अन्तर है। लेकिन ऐसी बातों को रिपब्लिकन पैन्थर्स जैसे अस्मितावादी समझें, इसकी उम्मीद करना बेकार है। मूल बात यह है कि आज यह अस्मितावाद केवल नुक़सान पहुँचा रहा है। किसी भी दमित अस्मिता के संघर्ष के प्राथमिक दौर में अस्मिता-निर्माण की एक मंजिल होती है, जिसे हम एक सामाजिक संस्तर/समुदाय के तौर पर उसके अपने अस्तित्व के बारे में सचेत बनने की मंजिल कह सकते हैं। लेकिन यदि वर्ग संघर्ष की समूची प्रक्रिया के आगे बढ़ने के साथ यदि कोई भी दमित समुदाय इस अस्मिता निर्माण और उसके सुदृढ़ीकरण पर ही रुक जाता है, तो यह उसके लिए घातक होता है। कोई भी परिधिगत या अल्पसंख्यक समुदाय उपरोक्त प्राथमिक मंजि़ल के अलावा, अस्मितावाद, अस्मिता निर्माण व सुदृढ़ीकरण पर रुका रहता है, तो वह अन्य अस्मिताओं को भी जाने-अनजाने मज़बूत करता जाता है। मिसाल के तौर पर, किसी एक अस्मिता को अन्य अस्मिताओं को सुदृढ़ किये बिना नहीं मज़बूत बनाया जा सकता क्योंकि अस्मितावाद का बुनियादी तर्क ही ‘अन्यकरण’ (othering) है। ऐसे तर्क का लाभ हमेशा बहुसंख्यकों को मिलेगा। अम्बेडकर का यह कहना एक मायने में सही था कि हिन्दू समाज की मूल विभाजक रेखा स्पृश्य और अस्पृश्य के बीच है। यदि यह बात सही है, तो अस्मितावाद का लाभ किसे मिलेगा? आज तक किसे मिलता आया है? यह उच्च वर्ग के ”उच्च” व ”उच्च-मध्य” जाति के लोगों को मिलेगा और अस्मितावाद का यह तर्क उनकी मदद करेगा कि ये लोग अपनी ही जाति के ग़रीबों और मेहनतकशों को भी जातिवाद और जातिगत श्रेष्ठतावाद के उन्माद में बहा ले जायें, क्योंकि इस ग़रीब ग़ैर-दलित आबादी में भी जातिगत पूर्वाग्रह मौजूद हैं। ऐसे में, अस्मितावाद किसे लाभ पहुँचायेगा? मराठा मूक मोर्चों ने क्या ठीक यही सिद्ध नहीं किया है? इस प्रकार की जातिगत गोलबन्दी के मज़बूत होने का लाभ क्या दलितों को मिल सकता है? लेकिन इस सीधे से तर्क को भी अस्मितावादी नहीं समझ पाते हैं। ख़ैर, उनसे यह आशा करना भी व्यर्थ है।
एक अन्य तथ्य जिसकी ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना ज़रूरी है, वो है रिपब्लिकन पैन्थर्स की बौद्धिक कायरता व अवसरवादिता। हिन्दी जगत की प्रसिद्ध बौद्धिक पत्रिका ‘समयान्तर’ के नवम्बर 2017 अंक में रिपब्लिकन पैन्थर्स के सुधीर धवले का लेख ‘जाति और भारत का इंक़लाब’ प्रकाशित हुआ है। इस लेख को पढ़कर कोई भी ये समझ सकता है कि बुद्धिजीवियों के बीच में जहाँ एक तरफ़ ये कुछ ओर बोलते हैं, वहीं जनता के बीच अपनी अस्मितावादी राजनीति बचाने के लिए तुष्टीकरण की नीति अपनाते हैं। समयान्तर के अपने लेख में सुधीर धवले लिखते हैं – “अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने ब्राह्मणवादी हिन्दू व्यवस्था और विषमता पर आधारित जाति व्यवस्था को न तो बदला और न ही छुआ। दरअसल इसने जाति व्यवस्था को क़ानूनी व्यवस्था का अंग बनाया और इस प्रकार इसे नया जीवनदान दिया। … यानी अंग्रेज़ों ने अपने हित साधन के लिए जाति के अस्तित्व का इस्तेमाल किया।” (पेज 15, समयान्तर, नवम्बर 2017)। हालाँकि इनकी ये अवस्थिति भी काफ़ी समय के बाद बनी है जब पूरे देश के जाति विरोधी क्रान्तिकारी आन्दोलन में व साथ ही स्वतन्त्र इतिहासकारों में एक राय बन चुकी है कि अंग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को मज़बूत ही किया। जाति व्यवस्था के कुछ आयाम कमजोर हुए वो एक ऐतिहासिक गति के उत्पाद थे। भीमा कोरेगाँव पर जारी इनकी मराठी पुस्तिका जो जनता के बीच वितरित की जा रही है, उसमें इस महत्वपूर्ण तथ्य का कहीं जि़क्र नहीं हैं। क्योंकि अगर ये उसका जि़क्र वहाँ करते तो अगला सवाल दलित जनता इनसे यही करती कि फिर भीमा कोरेगाँव से दलितों को क्या मिला?
यह तय है कि रिपब्लिकन पैन्थर्स द्वारा किये जा रहे इस अस्मितावादी सर्कस से जाति अन्त की परियोजना आगे नहीं बढ़ सकती है। जाति अन्त की परियोजना इतिहास का एक सही सटीक मूल्यांकन करने और एक वर्ग आधारित जाति विरोधी आन्दोलन खड़ा करके ही आगे बढ़ सकती है। पिछले कई दशकों से इस बुनियादी बात को न समझने के कारण ही महाराष्ट्र समेत देश के तमाम हिस्सों में जाति अन्त आन्दोलन एक गोल चक्कर में घूम रहा है और उन जुझारू छात्रों-युवाओं की क़तारों में भारी हताशा और ऊब पैदा कर रहा है जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर जाति अन्त की लड़ाई में कूद चुके हैं। यह कुचक्र तोड़ना आज बेहद ज़रूरी है। इसके लिए क्रान्तिकारी साहस की आवश्यकता है, लेकिन हम जाति-अन्त योद्धाओं के पास और कोई रास्ता नहीं है। अगर हम जाति अन्त के संघर्ष में आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें ड्यूईवादी व्यवहारवाद और अस्मितावाद से छुटकारा पाना ही होगा।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2018


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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