‘‘अब हम समाजवादी व्यवस्था का निर्माण शुरू करेंगे!’’ 

 जॉन रीड

”मैं दुनिया के मज़दूरों को निस्संकोच सलाह दूँगा कि वे इस पुस्तक को पढ़ें। यह एक ऐसी किताब है, जिसके लिए मैं चाहूँगा कि वह लाखों-करोड़ों प्रतियों में प्रकाशित हो और इसका सभी भाषाओं में अनुवाद किया जाये। सर्वहारा क्रान्ति तथा सर्वहारा अधिनायकत्व वास्तव में क्या है, इसको समझने के लिए जो घटनाएँ इतनी महत्वपूर्ण हैं, उनका इस पुस्तक में सच्चा और जीता-जागता चित्र दिया गया है।”
ये शब्द लेनिन के हैं और वे यहाँ अमेरिकी पत्रकार जॉन रीड की पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ की बात कर रहे हैं। यह पुस्तक अक्टूबर क्रान्ति के शुरुआती दिनों का एक सजीव तथा शक्तिशाली वर्णन प्रस्तुत करती है। इसी पुस्तक से प्रस्तुत है एक अंश।

ठीक आठ बजकर चालीस मिनट हुए थे, जब तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सभापतिमण्डल के सदस्यों ने प्रवेश किया। उनमें लेनिन – महान लेनिन भी थे। नाटा क़द, गठा हुआ शरीर, भारी सिर – गंजा, उभरा हुआ और मज़बूती से गर्दन पर बैठा हुआ। छोटी-छोटी आँखें, चिपटी सी नाक, काफ़ी बड़ा, फैला हुआ मुँह और भारी ठुड्डी; दाढ़ी फि़लहाल सफाचट, लेकिन पहले के और बाद के वर्षों की उनकी मशहूर दाढ़ी अभी से उगने लगी थी। पुराने कपड़े पहने हुए, जिनमें पतलून उनके क़द को देखते हुए ख़ासकर लम्बी थी। चेहरे-मोहरे से वह जनता के आराध्य नहीं लगते थे, फिर भी उन्हें जितना प्रेम और सम्मान मिला, उतना इतिहास में बिरले ही नेताओं को मिला होगा। एक विलक्षण जन-नेता, जो केवल अपनी बुद्धि के बल पर नेता बने थे। तबियत में न रंगीनी न लताफ़त, न ही कोई ऐसी स्वभावगत विलक्षणता, जो मन को आकर्षित करती। वह दृढ़, अविचल तथा अनासक्त आदमी थे, परन्तु उनमें गहन विचारों को सीधे-सादे शब्दों में समझने की और किसी भी ठोस परिस्थिति को विश्लेषित करने की अपूर्व क्षमता थी। और उनमें सूक्ष्मदर्शिता के साथ-साथ बौद्धिक साहसिकता कूट-कूटकर भरी थी।

कामेनेव सैनिक क्रान्तिकारी समिति की कार्रवाइयों के बारे में रिपोर्ट पेश कर रहे थे : सेना में मृत्यु-दण्ड समाप्त कर दिया गया, प्रचार-स्वातन्त्र्य को फिर से पुनःस्थापित किया गया है और राजनीतिक अपराधों के लिए गिरफ़्तार अफ़सरों और सिपाहियों को रिहा कर दिया गया है, केरेन्स्की को गिरफ़्तार करने का और निजी गोदामों में जमा अनाज की जब्ती का हुक्म जारी किया गया है… बड़े ज़ोर की तालियाँ।

बुन्द का प्रतिनिधि फिर बोलने के लिए खड़ा हुआ – बोल्शेविकों के कट्टर रुख़ का नतीजा यह होगा कि क्रान्ति कुचल दी जायेगी। इसलिए बुन्द प्रतिनिधि कांग्रेस में भाग लेने से इंकार करते हैं। हाल से आवाज़ें़, ‘‘…हमने तो समझा था कि आप लोग कल रात ही निकल गये! आप लोग कितनी बार सभा त्याग करेंगे?’’

इसके बाद मेन्शेविक-अन्तरराष्ट्रीयतावादियों के प्रतिनिधि। आवाज़ें, ‘‘हैं! आप अभी यहाँ मौजूद हैं?’’ वक्ता ने सफ़ाई देते हुए कहा कि सभी मेन्शेविक-अन्तरराष्ट्रीयतावादियों ने कांग्रेस का परित्याग नहीं किया है, कुछ चले गये और बाक़ी कांग्रेस में भाग लेने वाले हैं।

‘‘हम समझते हैं कि सत्ता सोवियतों के हाथ में अन्तरित करना क्रान्ति के लिए ख़तरनाक है और सम्भवतः सांघातिक भी…’’ बीच में आवाज़ें, शोर। ‘‘लेकिन फिर भी हम अपना यह कर्तव्य समझते हैं कि कांग्रेस में मौजूद रहें और इस अन्तरण के विरुद्ध वोट दें।’’

और भी लोग बोले, परन्तु प्रगटतः किसी क्रम से नहीं। दोन प्रदेश के ख़ान मज़दूरों के एक प्रतिनिधि ने माँग की कि कांग्रेस कलेदिन के खि़लाफ़ कार्रवाई करे, जो राजधानी को होने वाली कोयले और अनाज की सप्लाई की लाइन को काट सकता है। मोर्चे से अभी-अभी पहुँचने वाले कई सिपाहियों ने कांग्रेस को अपनी-अपनी रेजीमेण्टों का उत्साहपूर्ण अभिवादन सन्देश दिया… और बाद में लेनिन बोलने के लिए खड़े हुए। मिनटों तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही, लेकिन वह ज़ाहिरा उससे बेख़बर लोगों के ख़ामोश हो जाने का इन्तज़ार करते हुए खड़े रहे – अपने सामने रीडिंग-स्टैण्ड को पकड़े, वह अपनी छोटी-छोटी, मिचमिचाती आँखों से भीड़ को एक सिरे से दूसरे सिरे तक देख रहे थे। जब तालियाँ बन्द हुईं, उन्होंने निहायत सादगी से बस इतना ही कहा, ‘‘अब हम समाजवादी व्यवस्था का निर्माण शुरू करेंगे!’’ और फिर जनसमुद्र का वही प्रचण्ड गर्जन।

‘‘पहला काम है शान्ति सम्पन्न करने के लिए अमली कार्रवाई करना… हम सोवियत शर्तों के आधार पर सभी युद्धरत देशों की जनता से शान्ति का प्रस्ताव करेंगे। ये शर्तें हैं बग़ैर संयोजनों के, बग़ैर हरजानों के और जातियों के आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ शान्ति। साथ ही, अपने वादे के मुताबिक़ हम गुप्त सन्धियों को प्रकाशित करेंगे और उन्हें रद्द करेंगे… युद्ध और शान्ति का प्रश्न इतना स्पष्ट है कि मेरा ख़याल है कि मैं बिना किसी प्रस्तावना के सभी युद्धरत देशों के जनों के नाम घोषणा के मसौदे को पढ़ सकता हूँ…’’

जब वह बोल रहे थे, उनका चौड़ा मुँह पूरा खुला था और उस पर जैसे हँसी खेल रही थी। उनकी आवाज़ भारी थी, मगर सुनने में बुरी नहीं थी – लगता था कि सालों तक बोलते रहने से यह आवाज़ सख्त हो गयी हो। वह एक ही लहज़े में बोलते रहे और सुनने वाले को यह महसूस होता था कि वह हमेशा, हमेशा ऐसे ही बोलते रह सकते हैं और उनकी आवाज़ कभी भी बन्द होने वाली नहीं है… अपनी बात पर ज़ोर देना होता, तो वह बस ज़रा सा आगे की ओर झुक जाते। न अंगविक्षेप, न भावभंगी। और उनके सामने एक हज़ार सीधे-सादे लोगों के एकाग्र मुखड़े श्रद्धा और भक्ति से उनकी ओर उठे हुए थे। जब तालियों की गड़गड़ाहट शान्त हुई, लेनिन ने फिर बोलना शुरू किया :

‘‘हम प्रस्ताव करते हैं कि कांग्रेस इस घोषणा का अनुसमर्थन करे। हम जनता का सम्बोधन करते हैं और सरकारों का भी, क्योंकि यदि हमारी घोषणा युद्धरत देशों की जनता के  नाम ही हो, तो उससे शान्ति-सन्धि सम्पन्न करने में विलम्ब हो सकता है। युद्ध-विराम काल में शान्ति-सन्धि की जो शर्तें विवर्त की जायेंगी, संविधान सभा उनका अनुसमर्थन करेगी। युद्ध-विराम की अवधि तीन महीना निश्चित करने में हमारी मंशा यह है कि इस ख़ून-खराबे और मारकाट के बाद जनता को यथासम्भव अधिक से अधिक विराम मिल सके और उसे अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने के लिए प्रचुर समय मिल सके। साम्राज्यवादी सरकारें हमारे इस शान्ति-प्रस्ताव का विरोध करेंगी – हमें इसके बारे में कोई मुग़ालता नहीं है। परन्तु हम आशा करते हैं कि सभी युद्धरत देशों में क्रान्तियाँ जल्द ही भड़क उठेंगी, यही कारण है कि हम फ़्रांस, इंग्लैण्ड और जर्मनी के मज़दूरों का विशेष रूप से सम्बोधन करते हैं…’’

उन्होंने अपना भाषण इन शब्दों के साथ ख़त्म किया, ‘‘छह तथा सात नवम्बर की क्रान्ति ने समाजवादी क्रान्ति के युग का सूत्रपात किया है… शान्ति तथा समाजवाद के नाम पर मज़दूर आन्दोलन जीतेगा और अपने भवितव्य को चरितार्थ करेगा…’’

इन शब्दों में एक ऐसी अद्भुत निष्कम्प शक्ति थी, जो प्राणों को आलोड़ित करती थी। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि क्यों जब लेनिन बोलते थे, लोग उनकी बात पर विश्वास करते थे…

लोगों ने हाथ उठाकर यह तुरन्त फ़ैसला कर दिया कि केवल राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को ही प्रस्ताव पर बोलने की इजाज़त दी जानी चाहिए, और हर भाषणकर्ता के लिए पन्द्रह मिनट का समय बाँध देना चाहिए।

सबसे पहले वामपन्थी समाजवादी-क्रान्तिकारियों की ओर से करेलिन बोले : ‘‘हमारे दल को घोषणा के मज़मून में संशोधन पेश करने का कोई मौक़ा नहीं मिला है। घोषणा बोल्शेविकों की निजी दस्तावेज़ है। फिर भंी हम उसके पक्ष में वोट देंगे, क्योंकि हम उसकी भावना से सहमत हैं…’’

सामाजिक-जनवादी अन्तर-राष्ट्रीयतावादियों की ओर से कामारोव उठे। लम्बा क़द, कन्धे कुछ झुके हुए, आँखें समीप-दर्शी – यह थे कामारोव, जाे आने वाले दिनों में विरोध पक्ष के विदूषक के रूप में शोहरत हासिल करने वाले थे। उन्होंने कहा कि सभी समाजवादी पार्टियों द्वारा बनायी गयी सरकार ही एक ऐसा महत्वपूर्ण क़दम उठाने का अधिकार रख सकती है। अगर एक संयुक्त समाजवादी मन्त्रिमण्डल बनाया जाये, तो उनका दल समूचे कार्यक्रम का समर्थन करेगा, नहीं तो वह उसके एक भाग का ही समर्थन करेगा। जहाँ तक घोषणा का प्रश्न है, अन्तरराष्ट्रीयतावादी उसकी मुख्य बातों से पूरी तरह सहमत हैं…

और तब उत्तरोत्तर बढ़ते हुए उत्साह के बीच एक वक्ता के बाद दूसरा वक्ता बोला : उक्रइनी सामाजिक-जनवाद की ओर से – समर्थन; लिथुआनियाई सामाजिक-जनवाद की ओर से – समर्थन; जन-समाजवादी – समर्थन; पोलिश सामाजिक-जनवाद – समर्थन; पोलिश समाजवादी – समर्थन, परन्तु उनकी दृष्टि में संयुक्त समाजवादी मन्त्रिमण्डल अधिक श्रेयस्कर होगा; लाटवियाई सामाजिक-जनवाद-समर्थन… इन आदमियों में जैसे कोई ज्योति जग गयी थी। एक ने ‘‘आसन्न विश्वक्रान्ति, जिसके हम अगले दस्ते है।,’’ की बात की; दूसरे ने उस ‘‘नये भ्रातृत्वपूर्ण युग’’ की बात की, ‘‘जब संसार के सभी जन एक परिवार जैसे हो जायेंगे…’’ एक प्रतिनिधि ने व्यक्तिगत रूप से बोलने की अनुमति माँगी। ‘‘घोषणा में एक अन्तरविरोध है,’’ उसने कहा। ‘‘पहले आप बग़ैर संयोजनों और हरजानों के शान्ति प्रस्ताव करते हैं और फिर आप कहते हैं कि आप शान्ति के सभी प्रस्तावों पर विचार करेंगे। विचार करने का अर्थ है ग्रहण करना…’’

लेनिन उठ खड़े हुए। ‘‘हम न्याय शान्ति चाहते हैं, पर हम क्रान्तिकारी युद्ध से घबराते नहीं… साम्राज्यवादी सरकारें सम्भवतः हमारी अपील का उत्तर नहीं देंगी, परन्तु हम कोई अल्टीमेटम नहीं जारी करेंगे, जिसे ठुकरा देना आसान होगा… अगर जर्मन सर्वहारा यह समझ ले कि हम शान्ति के सभी प्रस्तावों पर विचार करने के लिए तैयार हैं, तो शायद यह बारूद में चिंगारी का काम करे – और जर्मनी में क्रान्ति भड़क उठे…

‘‘हम शान्ति की सभी शर्तों पर ग़ौर करने के लिए राजी हैं, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम उन शर्तों को मंजूर भी कर लेंगे… अपनी कुछ शर्तों के लिए हम अन्त तक लड़ेंगे, लेकिन हो सकता है कि दूसरी शर्तों की ख़ातिर हम लड़ाई चलाते जाना असम्भव पायेंगे… सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम लड़ाई ख़त्म करना चाहते हैं…’’

ठीक दस बजकर पैंतीस मिनट पर कामेनेव ने कहा कि वे जो लोग घोषणा के पक्ष में हैं, वे अपने कार्ड दिखायें। केवल एक प्रतिनिधि ने विरोध में अपना हाथ उठाने की जुर्रत की, लेकिन इस पर चारों ओर लोगों में इतना गुस्सा भड़क उठा कि उसने भी अपना हाथ जल्दी से नीचे कर लिया… घोषणा सर्वसम्मति से स्वीकृत हो गयी।

सहसा हम सब एक ही सहज प्रेरणा के वशीभूत होकर उठ खड़े हुए और ‘इण्टरनेशनल’ का मुक्त, निर्बाध, आरोही स्वर हमारे कण्ठों से फूट निकला। एक पुराना, खिचड़ी बालों वाला सिपाही बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा। अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई ने जल्दी से अपने आँसुओं को रोका। एक हज़ार कण्ठों से निकली यह प्रबल ध्वनि सभा भवन में तरंगित होकर खिड़कियों-दरवाज़ों से बाहर निकली और ऊपर उठती गयी, ऊपर उठती गयी और निभृत आकाश में व्याप्त हो गयी। ‘‘लड़ाई ख़त्म हो गयी! लड़ाई ख़त्म हो गयी!’’ मेरे पास खड़े एक नौजवान मज़दूर ने कहा, जिसका चेहरा चमक रहा था। और जब यह गान समाप्त हो गया और हम वहाँ निस्तब्ध खोये से खड़े थे, हाॅल के पीछे से किसी ने आवाज़ दी, ‘‘साथियो, हम उन लोगों की याद करें, जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया!’’ और इस प्रकार हमने शोकगान ‘शवयात्रा’ गाना शुरू किया, जिसका स्वर धीमा और उदास होते हुए भी विजयपूर्ण था। यह था दिल को हिला देने वाला एक ठेठ रूसी गाना। कुछ भी हो, ‘इण्टरनेशनल’ का राग विदेशी ही ठहरा, परन्तु ‘शवयात्रा’ में उस विशाल जनता के प्राणों की गूँज थी, जिसके प्रतिनिधि इस हाॅल में बैठे थे और अपनी धुँधले-धुँधले मानस-चित्र के आधार पर नये रूस का सृजन कर रहे थे – और शायद और भी ज़्यादा…

‘शवयात्रा’ की पंक्तियाँ :

तुमने जन-स्वातन्त्र्य के लिए, जन सम्मान के लिए

प्राणघाती युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी

तुमने अपना जीवन बलिदान दिया

और अपना सब कुछ होम कर दिया।

तुमने बन्दीगृह में नरक की यातनाएँ भोगीं

तुम जं़जीरों से बँधे कालापानी गये

तुमने इन जं़जीरों को ढोया

और उफ़ भी नहीं किया।

क्योंकि तुम अपने दुखी भाइयों की आवाज़ को

अनसुनी नहीं कर सकते थे।

क्योंकि तुम्हारा विश्वास था कि न्याय की शक्ति

खड्ग की शक्ति से बड़ी है

समय आयेगा जब तुम्हारा अर्पित जीवन रंग लायेगा

वह समय आने ही वाला है

अत्याचार ढहेगा और जनता उठेगी – स्वतन्त्र और महान।

अलविदा, भाइयो! तुमने अपने लिए महान पथ चुना।

तुम्हारे पदचिह्नों पर एक नयी सेना चल रही है,

जुल्म सहने और मर मिटने के लिए तैयार

अलविदा, भाइयो! तुमने अपने लिए महान पथ चुना।

हम तुम्हारी समाधि पर शपथ उठाते हैं,

हम संघर्ष करेंगे, आज़ादी के लिए और जनता की ख़ुशी के लिए…

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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