”गुजरात मॉडल” का ख़ूनी चेहरा: सूरत का टेक्सटाइल उद्योग या मज़दूरों का क़त्लगाह!
बिगुल संवाददाता
गुजरात का सूरत शहर टेक्सटाइल उद्योग का एक बड़ा केन्द्र है। यहाँ टेक्सटाइल उद्योग में कई हज़ार मज़दूर काम करते हैं। देश भर के औद्योगिक इलाकों की तरह यहाँ भी मज़दूर बेहद असुरक्षित स्थितियों में काम करते हैं। हाल में जारी एक शोध अध्ययन ने सूरत के टेक्सटाइल उद्योग में 2012-15 के बीच 84 घातक दुर्घटनाओं का ब्यौरा जमा किया है जिनमें कम से कम 114 मज़दूरों की मौत हो गयी। औद्योगिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य निदेशालय से आरटीआई के ज़रिए मिली जानकारियों के अनुसार इस दौरान 375 से अधिक मज़दूरों को गम्भीर चोटें भी आयीं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि ज़्यादातर कारखानों में ईएसआई योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया जाता जिसके कारण बहुत से बीमा वाले मज़दूर भी विकलांग होने पर मिलने वाली देखभाल और सहायता से वंचित रह जाते हैं। ज़्यादातर मज़दूर तो ईएसआई की सुविधा से ही वंचित हैं।
गुजरात के अलंग बन्दरगाह के बारे में तो अब बहुत लोग जान चुके हैं जहाँ पुराने जहाज़ों को तोड़ने में लगे मज़दूर आये दिन जानलेवा दुर्घटनाओं और बीमारियों का शिकार होते रहते हैं। अब ‘सूरत के टेक्सटाइल उद्योग में मज़दूरों के हालात’ शीर्षक इस रिपोर्ट से गुजरात के एक और प्रमुख उद्योग की असली तस्वीर सामने आ रही है। वडोदरा में स्थित ‘पीपुल्स ट्रेनिंग एंड रिसर्च सेंटर’ (पीटीआरसी) के जगदीश पटेल द्वारा तैयार की गयी यह रिपोर्ट बताती है कि ये आँकड़े हालात की पूरी तस्वीर सामने नहीं लाते क्योंकि बहुत से कारखाने तो रजिस्टर्ड ही नहीं हैं और उनके आँकड़े सरकारी विभागों के पास होते ही नहीं हैं। इस संस्था ने अखबारों की कतरनों की जाँच से भी पता लगाया कि सूरत में टेक्सटाइल उद्योग में 2012-15 के बीच 121 मज़दूरों की मौत हुई और 126 गम्भीर रूप से घायल हो गये। लेकिन रिपोर्ट यह भी कहती है कि काम पर होने वाली चोटों या मौतों की ज़्यादातर खबरें अखबारों या जनता तक पहुँचती ही नहीं क्योंकि बहुतेरे कारखाने रजिस्टर्ड नहीं हैं और उनमें काम करने वाले मज़दूरों का भी कोई लेखा-जोखा नहीं रहता।
यह कोई नयी बात नहीं है। किसी भी औद्योगिक इलाक़े में काम करने वाला मज़दूर या मज़दूर कार्यकर्ता इस बात को जानता है। कुछ साल पहले दिल्ली के बादली औद्योगिक क्षेत्र में बिगुल मज़दूर दस्ता द्वारा आरटीआई के तहत उद्योग विभाग, श्रम विभाग और दिल्ली पुलिस से यह जानकारी माँगी गयी कि पिछले तीन महीनों में यहाँ के कारखानों में कितनी दुर्घटनाएँ हुईं और उनमें मरने या घायल होने वाले मज़दूरों की संख्या कितनी है। उद्योग विभाग और श्रम विभाग के पास तो कोई जानकारी ही नहीं थी। दिल्ली पुलिस ने बताया कि उस दौरान बादली के कारखानों में किसी मज़दूर की मृत्यु नहीं हुई और चार मज़दूर घायल हुए। जबकि बिगुल मज़दूर दस्ता ने खुद उन्हीं तीन महीनों में कम से कम 6 मज़दूरों की मौत नाम-पते के साथ दर्ज की थी।
रिपोर्ट कहती है कि साल दर साल इतनी बड़ी संख्या में दुर्घटनाएँ होती रहती हैं फिर भी सरकारी विभाग पूरी तरह आँखें मूँदे रहते हैं। रिपोर्ट के अनुसार सूरत में 1991-95 के बीच 100 घातक दुर्घटनाएँ हुईं। फिर 2007 और 2008 में क्रमश: 46 और 36 दुर्घटनाएँ दर्ज की गयीं। लेकिन इन्हें रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये। उल्टे नियम-क़ायदे को ताक पर रखकर काम करने वाले कारखानों की संख्या बढ़ती ही चली गयी।
रिपोर्ट के अनुसार ये आँकड़े सूरत के टेक्सटाइल कारखानों में पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा के हालात की बेहद चिन्ताजनक तस्वीर पेश करते हैं। दुर्घटनाओं के कारणाों पर नज़र डालें तो 2012 और 2015 के बीच हुई 121 घातक दुर्घटनाओं में से 30 जलने के कारण हुईं जबकि 27 बिजली का करण्ट लगने से हुईं। 23 दुर्घटनाओं का कारण ‘’दो सतहों के बीच कुचलना’’ बताया गया है। कारखानों की भीतरी तस्वीर से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति इसका मतलब समझ सकता है। इसके अलावा बहुत सी मौतें दम घुटने, ऊँचाई से गिरने, आग और विस्फोट, मशीन में फँसने, गैस आदि कारणों से हुई हैं। ज़्यादातर दुर्घटनाएँ जानलेवा क्यों बन जाती हैं इसका कारण कारखानों की हालत से जुड़ा हुआ है। रिपोर्ट में दिये गये एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। सूरत के सूर्यपुर इंडस्ट्रियल एस्टेट में अश्विनी कुमार रोड पर एक पावरलूम यूनिट में 3 अक्टूबर 2015 को सुबह 11.45 बजे आग लगी। दुर्घटना के दौरान ज़्यादातर मज़दूर तो बाहर आ गये लेकिन नीला नायक और कृष्णा लिम्जा नाम के दो मज़दूर दूसरी मंजिल पर फँसे रह गये। फायर ब्रिगेड ने जब तक दोनों को निकाला तब तक महिला मज़दूर की दम घुटने से मौत हो चुकी थी। रिपोर्ट बताती है, ‘’आग दूसरी मंज़िल पर शुरू हुई और तीसरी मंज़िल तक फैल गयी। मशीनें इस तरह रखी गयी थीं कि दो मशीनों के बीच में बिल्कुल जगह नहीं थी और चलने के रास्ते बिल्कुल सँकरे हो गये थे। रास्तों में ही कच्चा माल और तैयार माल के बण्डल भी ढेर लगाकर रखे गये थे। कारखाने में 200 मज़दूर थे। ग्राउण्ड फ्लोर के मज़दूर तो बाहर निकल गये लेकिन दूसरी और तीसरी मंजिलों के मज़दूर फँसे रह गये।’’
रिपोर्ट यह भी बताती है कि ज़्यादातर मामलों में मरने या घायल होने वाले मज़दूरों को मुआवज़ा या तो मिलता ही नहीं या फिर बहुत कम मिलता है। रिपोर्ट में अजय राजू यादव (18 साल) का उदाहरण दिया गया है जिसके साथ सूरत की एक इम्ब्रॉयडरी यूनिट में काम करते समय दुर्घटना हुई। मशीन में कपड़ा लगाते समय प्रेस मशीन के रोल में उसका बायाँ हाथ फँस गया। उसकी तीन उँगलियाँ काटनी पड़ीं और चौथी बेजान हो चुकी है। रिपोर्ट कहती है: ‘’मेडिकल विशेषज्ञ ने उसकी विकलांगता 47 प्रतिशत बतायी लेकिन उसे कोई मुआवज़ा नहीं मिला। यूनिट ईएसआई क़ानून के तहत रजिस्टर्ड थी लेकिन उस मज़दूर को ईएसआई कार्ड नहीं दिया गया था।’’ एक मज़दूर यूनियन की ओर से दो साल तक चली क़ानूनी कार्रवाई के बाद स्थानीय कोर्ट ने अजय को 2,88,685 रुपये मुआवज़ा और 86,605 रुपये जुर्माना देने का आदेश दिया। इसके बाद मालिक ने उस मज़दूर को काम से निकाल दिया। पिछले पाँच साल से उस मामले की सुनवाई अभी जारी है और अजय को एक भी पैसा मुआवज़ा नहीं मिला है। सूरत की मज़दूर बस्तियों में आपको ऐसे बहुत से मामलों के बारे में सुनने को मिलेगा।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018
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