Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

औद्योगिक दुर्घटनाओं पर एक वृत्तचित्र

दूर बैठकर यह अन्दाज़ा लगाना भी कठिन है कि राजधानी के चमचमाते इलाक़ों के अगल-बगल ऐसे औद्योगिक क्षेत्र मौजूद हैं जहाँ मज़दूर आज भी सौ साल पहले जैसे हालात में काम कर रहे हैं। लाखों-लाख मज़दूर बस दो वक़्त की रोटी के लिए रोज़ मौत के साये में काम करते हैं।… कागज़ों पर मज़दूरों के लिए 250 से ज्यादा क़ानून बने हुए हैं लेकिन काम के घण्टे, न्यूनतम मज़दूरी, पीएफ़, ईएसआई कार्ड, सुरक्षा इन्तज़ाम जैसी चीज़ें यहाँ किसी भद्दे मज़ाक से कम नहीं… आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं और मज़दूरों की मौतों की ख़बर या तो मज़दूर की मौत के साथ ही मर जाती है या फ़ि‍र इन कारख़ाना इलाक़ों की अदृश्य दीवारों में क़ैद होकर रह जाती है। दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, लोग मरते रहते हैं, मगर ख़ामोशी के एक सर्द पर्दे के पीछे सबकुछ यूँ ही चलता रहता है, बदस्तूर…

बंग्लादेश की हत्यारी गारमेंट फैक्टरियां

खुद को महान देशभक्त कहने वाले पूंजीपतियों को अपने देश के मज़दूरों का अमानवीय शोषण करने में कोई हिचक नहीं महसूस होती। उन्होंने तो पहले ही अपने देश की जनता के लिए ‘‘मानवीय संपदा’’ जैसा शब्द गढ़ लिया है जो उनके हर अनैतिक-अत्याचारी बर्ताव पर मुलम्मा चढ़ा देता है। इस काम में स्थानीय राजनेता उनका पूरा साथ देते हैं। बल्कि इससे भी आगे बढ़कर वे इन देशी-विदेशी कंपनियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए उदारीकरण की नीतियां लागू करते हैं श्रम कानूनों को और भी निष्प्रभावी बनाते जाते हैं और मज़दूर वर्ग के हित के प्रति एकदम आंख मूंदे रहते हैं। उनके इस काम में संशोधानवादी वामपन्थी पार्टियां भी पूरा साथ देती हैं जिन्होंने मज़दूर आन्दोलन को आज अपने रसातल में पहुंचा दिया है। यूं ही नहीं उन्हें बुर्जुआ जनवाद की दूसरी सुरक्षा पंक्ति कहा जाता है।

साल-दर-साल मज़दूरों को लीलती मेघालय की नरभक्षी कोयला खदानें

मेघालय की इन नरभक्षी खानों की एक और ख़ौफनाक हक़ीक़त यह है कि इनमें भारी संख्या में बच्चों से खनन करवाया जाता है। चूंकि सँकरी और तंग खदानों में बालिगों की बजाय बच्चों का जाना आसान होता है इसलिए इन खानों के मालिक बच्चों को भर्ती करना ज्यादा पसन्द करते हैं। ऊपर से राज्य सरकार के पास इस बात का कोई ब्योरा तक नहीं है कि इन खदानों में कुल कितने खनिक काम करते हैं और उनमें से कितने बच्चे हैं। ‘तहलका’ पत्रिका में छपे एक लेख के मुताबिक मेघालय की खानों में कुल 70,000 खनिकों ऐसे हैं जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है और इनमें से कई तो 10 वर्ष से भी कम उम्र के हैं। सरकार और प्रशासन ने इस तथ्य से इंकार नहीं किया है। गौरतलब है कि केंद्र के खनन क़ानून 1952 के अनुसार किसी भी खदान में 18 वर्ष से कम उम्र के नागरिकों से काम कराना मना है। यानी कि अन्य क़ानूनों की तरह इस क़ानून की भी खुले आम धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। यही नहीं इन खानों में काम करने के लिए झारखंड, बिहार, उड़ीसा, नेपाल और बांगलादेश से ग़रीबों के बच्चों को ग़ैर क़ानूनी रूप से मेघालय ले जाने का व्यापार भी धड़ल्ले से जारी है।

शिवकाशी की घटना महज़ हादसा नहीं, मुनाफे के लिए की गयी हत्या है!!

साथियो! रोज़-रोज़ होने वाली मौतों पर हम चुप रहते हैं। यह सोचकर कि ये तो किसी दूसरे शहर में हुई है, या फिर किसी दूसरे कारख़ाने में हुई है, इसमें हमारा क्या सरोकार है! मगर ये मत भूलो कि पूँजीवादी मुनाफाखोरी का यह ख़ूनी खेल जब तक चलता रहेगा तब तक हर मज़दूर मौत के साये में काम करने को मजबूर है। अगर हम अपने मज़दूर साथियों की इन बेरहम हत्याओं पर इस पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ नफरत से भर नहीं उठते, बग़ावत की आग से दहकते नहीं, तो हमारी आत्माएँ मर चुकी हैं! तो हम भी ज़िम्मेदार हैं अपने मज़दूर भाइयों की मौत के लिए — क्योंकि ज़ुर्म को देखकर जो चुप रहता है वह भी मुज़रिम होता है!

मौत के मुहाने पर : अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूर

अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड में रोज़ाना जानलेवा हादसे होते हैं। विशालकाय समुद्री जहाज़ों को तोड़ने का काम मज़दूरों को बेहद असुरक्षित परिस्थितियों में करना पड़ता है। अपर्याप्त तकनीकी सुविधाओं, बिना हेल्मेट, मास्क, दस्तानों आदि के मज़दूर जहाज़ों के अन्दर दमघोटू माहौल में स्टील की मोटी प्लेटों को गैस कटर से काटते हैं, जहाज़ों के तहख़ानों में उतरकर हर पुर्ज़ा, हर हिस्सा अलग करने का काम करते हैं। अकसर जहाज़ों की विस्फोटक गैसें तथा अन्य पदार्थ आग पकड़ लेते हैं और मज़दूरों की झुलसकर मौत हो जाती है। क्रेनों से अकसर स्टील की भारी प्लेटें गिरने से मज़दूर दबकर मर जाते हैं। कितने मज़दूर मरते और अपाहिज होते हैं इसके बारे में सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों को तो पूरी तरह छिपा ही लिया जाता है। लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं। कुछ के परिवारों को थोड़ा-बहुत मुआवज़ा देकर चुप करा दिया जाता है। ज़ख्मियों को दवा-पट्टी करवाकर या कुछ पैसे देकर गाँव वापस भेज दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अलंग यार्ड में रोज़ाना कम से कम 20 बड़े हादसे होते हैं और कम से कम एक मज़दूर की मौत होती है। एक विस्फोट में 50 मज़दूरों की मौत होने के बाद सरकार ने अलंग में मज़दूरों का हेल्मेट पहनना अनिवार्य बना दिया। लेकिन हेल्मेट तो क्या यहाँ मज़दूरों को मामूली दस्ताने भी नहीं मिलते। चारों तरफ आग, ज़हरीली गैसों और धातु के उड़ते कणों के बीच मज़दूर मुँह पर एक गन्दा कपड़ा लपेटकर काम करते रहते हैं। ज्यादातर प्रवासी मज़दूर होने के कारण वे प्राय: बेबस होकर सबकुछ सहते रहते हैं। इन मज़दूरों की पक्की भर्ती नहीं की जाती है। उन्हें न तो कोई पहचान पत्र जारी होते हैं न ही उनका कोई रिकार्ड रखा जाता है।

जालन्धर में होज़री कारख़ाने की इमारत गिरने से कम से कम 24 मज़दूरों की मौत

यह हादसा और इसके बाद का सारा घटनाक्रम पूँजीवादी व्यवस्था के भ्रष्टाचार, अमानवीयता, पशुता, मुनाफ़ाख़ोर चरित्र की ही गवाही देता है। इस घटना ने देश के कोने-कोने में कारख़ाना मज़दूरों के साथ हो रही भयंकर बेइंसाफ़ी को एक बार फिर उजागर किया है। यहाँ भी वही कहानी दोहरायी गयी है जो पंजाब सहित पूरे भारत के औद्योगिक इलाक़ों में अक्सर सुनायी पड़ती है। मज़दूरों की मेहनत से बेहिसाब मुनाफ़ा कमाने वाले सभी बड़े-छोटे कारख़ानों के मालिक मज़दूरों की ज़िन्दगी की कोई परवाह नहीं करते हैं। वे मुनाफ़े की हवस में इतने अन्धे हो चुके हैं कि मज़दूरों की सुरक्षा के इन्तज़ामों को भयंकर रूप से अनदेखी कर रहे हैं। कभी मज़दूर कारख़ानों की कमज़ोर इमारतें गिरने से मरते हैं, कभी इमारतें ब्वॉयलर फटने से गिर जाती हैं, कभी इमारतों को इतना ओवरलोड कर दिया जाता है कि वे बोझ झेल नहीं पाती हैं। मज़दूर असुरक्षित मशीनों पर काम करते हुए अपनी जान या अपने अंग गँवा बैठते हैं। लेकिन मालिकों को इस बात की कोई परवाह नहीं है। उनके लिए तो मज़दूर बस मशीनों के फर्जे हैं जिनके टूट-फूट जाने पर या घिस जाने पर उनकी जगह नये पुर्जों को फिट कर दिया जाता है।

ये तो निर्माण मज़दूरों के भीतर सुलगते ग़ुस्से की एक बानगी भर है

आज भारत की कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मज़दूर आबादी का है, जिनके लिए कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। निर्माण उद्योग में काम करने वाले ठेका मज़दूरों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है जो इस असंगठित मज़दूर आबादी का एक हिस्सा हैं। इन मज़दूरों की समस्याओं की सुनवाई न तो श्रम विभाग में होती है, न किसी अन्य सरकारी दफ्तर में। ठेकेदार इन मज़दूरों को दासों की तरह मनमर्ज़ी से जहाँ चाहे वहाँ स्थानान्तरित करते रहते हैं।

पीरागढ़ी अग्निकाण्ड : एक और हादसा या एक और हत्याकाण्ड?

दो महीने का समय बीत चुका है लेकिन आज भी किसी को यह तक नहीं मालूम कि बुधवार की उस शाम को लगी आग ने कितनी ज़िन्दगियों को लील लिया। पुलिस ने आनन-फानन में जाँच करके घोषणा कर दी कि कुल 10 मज़दूर जलकर मरे हैं, न एक कम, न एक ज़्यादा। बने-अधबने जूतों, पीवीसी, प्लास्टिक और गत्तो के डिब्बों से ठसाठस भरी तीन मंज़िला इमारत के जले हुए मलबे और केमिकल जलने से काली लिसलिसी राख को ठीक से जाँचने की भी ज़रूरत नहीं समझी गयी। मंगोलपुरी के संजय गाँधी अस्पताल के पोस्टमार्टम गृह के कर्मचारी कहते हैं कि उस रात कम से कम 12 बुरी तरह जली लाशें उनके पास आयी थीं। आसपास के लोग, मज़दूरों के रिश्तेदार, इलाक़े की फैक्ट्रियों के सिक्योरिटी गार्ड आदि कहते हैं कि मरने वालों की तादाद 60 से लेकर 75 के बीच कुछ भी हो सकती है। पास का चायवाला जो रोज़ फैक्टरी में चाय पहुँचाता था, बताता है कि आग लगने से कुछ देर पहले वह बिल्डिंग में 80 चाय देकर आया था। सभी बताते हैं कि आग लगने के बाद कोई भी वहाँ से ज़िन्दा बाहर नहीं निकला। कुछ लोगों ने एक लड़के को छत से कूदते देखा था लेकिन उसका भी कुछ पता नहीं चला। फिर बाकी लोग कहाँ गये? क्या सारे के सारे लोग झूठ बोल रहे हैं? या दिल्ली पुलिस हमेशा की तरह मौत के व्यापारियों को बचाने के लिए आँखें बन्द किये हुए है?

माँगपत्रक शिक्षणमाला-5 कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा हर मज़दूर का बुनियादी हक़ है!

आज देश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में जाकर पूछा जाये तो पता चलेगा कि मज़दूर हर जगह जान पर खेलकर काम कर कर रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। मुनाफ़ा बटोरने के लिए कारख़ाना मालिक सुरक्षा के सभी इन्तज़ामों, नियमों और सावधानियों को ताक पर रखकर अन्धाधुन्ध काम कराते हैं। ऊपर से लगातार काम तेज़ करने का दबाव, 12-12, 14-14 घण्टे की शिफ़्टों में हफ़्तों तक बिना किसी छुट्टी के काम की थकान और तनाव – ज़रा-सी चूक और जानलेवा दुर्घटना होते देर नहीं लगती। बहुत बार तो मज़दूर कहते रहते हैं कि इन स्थितियों में काम करना ख़तरनाक है लेकिन मालिक-मैनेजर-सुपरवाइज़र ज़बर्दस्ती काम कराते हैं और उन्हें मौत के मुँह में धकेलने का काम करते हैं। और फिर दुर्घटनाओं के बाद मामले को दबाने और मज़दूर को मुआवज़े के जायज़ हक़ से वंचित करने का खेल शुरू हो जाता है। जिन हालात में ये दुर्घटनाएँ होती हैं उन्हें अगर ठण्डी हत्याएँ कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा। कारख़ानेदार ऐसी स्थितियों में काम कराते हैं जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। श्रम विभाग सब कुछ जानकर भी आँख-कान बन्द किये रहता है। पुलिस, नेता-मन्त्री, यहाँ तक कि बहुत-से स्थानीय डॉक्टर भी मौतों पर पर्दा डालने के लिए एक गिरोह की तरह मिलकर काम करते हैं।

बादली औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों की नारकीय ज़िन्दगी की तीन तस्वीरें

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के बादली गाँव में एक जूता फ़ैक्ट्री में काम करने वाले अशोक कुमार की फ़ैक्ट्री में काम के दौरान 4 जनवरी 2011 को मौत हो गयी। वह रोज़ की तरह सुबह 9 बजे काम पर गया था। दोपहर में कम्पनी से पत्नी के पास फोन करके पूछा गया कि अशोक के पिता कहाँ हैं, मगर उसे कुछ बताया नहीं गया। बाद में पत्नी को पता लगा कि अशोक रोहिणी के अम्बेडकर अस्पताल में भरती है। उसी दिन शाम को अशोक की मौत हो गयी। मुंगेर, बिहार का रहने वाला अशोक पिछले 5 साल से इस फ़ैक्ट्री में काम कर रहा था। उसकी मौत के बाद मालिक अमित ने अशोक की पत्नी से कहा कि तुम्हारे बच्चों को स्कूल में दाखिल दिलाउंगा और तुम्हें उचित मुआवज़ा भी दिया जायेगा। तुम्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है, अशोक का क्रिया-कर्म कर दो। घरवाले मालिक की बातों में आ गये और किसी को कुछ नहीं बताया। बाद में जब अशोक की पत्नी मुआवज़ा लेने गयी तो मालिक ने उसे दुत्कारते हुए भगा दिया और कहा कि कोई भी ज़हर खाकर मर जाये तो क्या मैं सबको मुआवज़ा देते हुए घूमूँगा? उसने धमकी भी दी कि आज के बाद इधर फिर नज़र नहीं आना।