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लेनिन – फ्रेडरिक एंगेल्स की स्मृति में (जन्मतिथिः 28 नवम्बर, 1820)

1848-1849 के आन्दोलन के बाद निर्वासन-काल में मार्क्स और एंगेल्स केवल वैज्ञानिक शोधकार्य में ही व्यस्त नहीं रहे। 1864 में मार्क्स ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ’ की स्थापना की और पूरे दशक भर इस संस्था का नेतृत्व किया। एंगेल्स ने भी इस संस्था के कार्य में सक्रिय भाग लिया। ‘अन्तर्राष्ट्रीय संघ’ का कार्य, जिसने मार्क्स के विचारानुसार सभी देशों के सर्वहारा को एकजुट किया, मज़दूर आन्दोलन के विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण था। पर 19वीं शताब्दी के आठवें दशक में उक्त संघ के बन्द होने के बाद भी मार्क्स और एंगेल्स की एकजुटता विषयक भूमिका नहीं समाप्त हुई। इसके विपरीत, कहा जा सकता है, मज़दूर आन्दोलन के वैचारिक नेताओं के रूप में उनका महत्व सतत बढ़ता रहा, क्योंकि यह आन्दोलन स्वयं भी अरोध्य रूप से प्रगति करता रहा। मार्क्स की मृत्यु के बाद अकेले एंगेल्स यूरोपीय समाजवादियों के परामर्शदाता और नेता बने रहे। उनका परामर्श और मार्गदर्शन जर्मन समाजवादी, जिनकी शक्ति सरकारी यन्त्रणाओं के बावजूद शीघ्रता से और सतत बढ़ रही थी, और स्पेन, रूमानिया, रूस आदि जैसे पिछड़े देशों के प्रतिनिधि, जो अपने पहले कदम बहुत सोच-विचार कर और सम्भल कर रखने को विवश थे, सभी समान रूप से चाहते थे। वे सब वृद्ध एंगेल्स के ज्ञान और अनुभव के समृद्ध भण्डार से लाभ उठाते थे।

इक्कीसवीं सदी की सच्चाइयाँ और अक्टूबर क्रान्ति की प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ

अक्टूबर क्रान्ति की मशालें अभी बुझी नहीं है। श्रमजीवी शक्तियाँ धरती के विस्तीर्ण-सुदूर भूभागों में बिखर गयी हैं। उनकी हिरावल टुकड़ियाँ तैयार नहीं हैं, पूँजी के दुर्ग पर नये आक्रमण की रणनीति पर एकमत नहीं है। पूँजी का दुर्ग नीम अँधेरे में आतंककारी रूप में शक्तिशाली भले दिख रहा हो, उसकी प्राचीरों में दरारें पड़ रही हैं, बुर्ज कमजोर हो गये हैं, द्वारों पर दीमक लग रहे है और दुर्ग-निवासी अभिजनों के बीच लगातार तनाव-विवाद गहराते जा रहे हैं। बीसवीं शताब्दी समाजवादी क्रान्तियों के पहले प्रयोगों की और राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के (आमूलगामी ढंग से या क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से) पूरी होने की शताब्दी थी। इक्कीसवीं शताब्दी पूँजी और श्रम के बीच आमने-सामने के टकराव की, और निर्णायक टकराव की, शताब्दी है। विकल्प दो ही हैं – या तो श्रम की शक्तियों की, यानी समाजवाद की, निर्णायक विजय, या फिर बर्बरता और विनाश। पृथ्वी पर यदि पूँजी का वर्चस्व क़ायम रहा तो लोभ-लाभ की अन्धी हवस में राजा मीडास के वंशज इंसानों के साथ ही प्रकृति को भी उस हद तक निचोड़ और तबाह कर डालेंगे कि पृथ्वी का पर्यावरण मनुष्य के जीने लायक़ ही नहीं रह जायेगा। इतिहास की लम्बी यात्रा ने मानव जाति की चेतना का जो स्तर दिया है, उसे देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समय रहते वह चेत जायेगी और जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था भौतिक सम्पदा के साथ-साथ बहुसंख्यक जनों के लिए रौरव नर्क का जीवन, सांस्कृतिक-आत्मिक रिक्तता-रुग्णता और प्रकृति के भीषण विनाश का परिदृश्य रच रही है, उसे नष्ट करके एक न्यायपूर्ण, मानवीय, सृजनशील तथा प्रकृति और मनुष्य के बीच के द्वन्द्व को सही ढंग से हल करने वाली सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसके लिए सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान की रोशनी में आज के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन के हर पहलू को समझने वाली, सर्वहारा क्रान्ति के मित्र और शत्रु वर्गों को पहचानने वाली तथा उस आधार पर क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी का पुनर्निर्माण एवं पुनर्गठन पहली शर्त है। इसके बिना पूरी व्यवस्था के उस ‘कण्ट्रोलिंग, कमाण्डिंग ऐण्ड रेग्यूलेटिंग टॉवर” को, जिसे राज्यसत्ता कहते हैं, धराशायी किया ही नहीं जा सकता। अक्टूबर क्रान्ति के दूसरे संस्करण की तैयारी की प्रक्रिया की एकमात्र यही आम दिशा हो सकती है।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (बारहवीं किस्त)

जहाँ कहीं भी मज़दूर इस बहादुराना संघर्ष की कहानी एक बार फिर सुनने के लिए इकट्ठा होंगे ­ एक ऐसी कहानी जो बहुत पहले ही सर्वहारा शौर्य-गाथाओं के ख़ज़ाने में शामिल हो चुकी है ­ वे 1871 के शहीदों की स्मृति को गर्व के साथ याद करेंगे। और साथ ही वे आज के वर्ग संघर्ष के उन शहीदों को भी याद करेंगे जो या तो मार डाले गये या पूँजीवादी देशों के क़ैदख़ानों में अब भी यातना झेल रहे हैं, क्योंकि उन्होंने अपने उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ बग़ावत करने की हिम्मत की थी, जैसा कि पेरिस के मज़दूरों ने करीब डेढ़ सौ साल पहले किया था।

बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल! अक्टूबर की तूफ़ानी हवाओं को फिर ललकारो!!

आज से करीब 120 साल पहले रूस में क्रान्ति के बीज क्रान्तिकालीन यूरोप से पड़े। क्रान्ति का तूफान यूरोप से गुजरता हुआ रूस तक पहुँच गया। इस समय रूसी समाज बेहद पिछड़ा था। रूस का राजा जार सबसे बडा ज़मींदार था। रूस में बहुसंख्यक मेहनतकश किसान आबादी भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों से ग्रस्त थी। ज़ार और उसकी विराट राजशाही किसानों को जमकर लूटती थी। रूस के मुख्य शहरों में ओद्योगीकरण हो रहा था। फैक्टरियाँ भी मज़दूरो के लिए नरक थीं और रूसी पूँजीपति मज़दूरो को मन-मर्जी पर खटाते थे। परन्तु जहाँ दमन-उत्पीड़न होता है वहीं विद्रोह पैदा होता है! मज़दूरों ने अपने सामूहिक हथियार हड़ताल का जमकर प्रयोग करना शुरू किया। क्रान्तिकारी नेता लेनिन के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने फैक्टरियों की हालत पर पर्चे, हड़ताल के पर्चे और ट्रेड यूनियन संघर्ष चलाया व मज़दूर अध्ययन मण्डल संगठित किये। लेनिन और अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर मज़दूर अखबार ‘इस्क्रा’ (चिंगारी) निकालना शुरू किया जिसने पूरे मज़दूर आन्दोलन को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। इसी अखबार ने मज़दूर वर्ग की इस्पाती बोल्शेविक पार्टी की नींव रखी। बोल्शेविक पार्टी ने मज़दूर अखबार प्राव्दा (सत्य) भी निकाला। संघर्षों में लगातार डटे रहने के कारण मज़दूर और गरीब किसान बोल्शेविकों के साथ जुड़ते चले गए। राजनीतिक हड़तालों, प्रदर्शनों ने जो कि सीधे बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में चल रहे थे जार सरकार की चूलें हिला दी। औद्योगिक मज़दूरों की यूनियनों, गाँवों और शहरों में खड़े जन-दुर्ग, क्रान्तिकारी पंचायतें (सोवियतें) मिलकर जार की पुलिस और शासन का सामना कर रहे थे। पहला विश्व युद्ध छिड़ने पर बोल्शेविकों ने सैनिको के बीच इस साम्राज्यवादी युद्ध के खिलापफ़ जमकर पर्चे बांटे और रोटी, ज़मीन और शान्ति के नारे के साथ समस्त रूस को एकताबद्ध किया। आखिरकार फरवरी, 1917 में ज़ार का तख्ता पलट दिया गया पर उसकी जगह सत्ता पर पूँजीपतियों के प्रतिनिधि और मज़दूर वर्ग के गद्दार मेन्शेविक पार्टी के नेता बैठ गये। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पंचायतों ने बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में एकजुट होकर 7 नवम्बर (25 अक्टूबर) 1917 को पूँजीपतियों की सरकार का भी तख्ता पलट दिया। पेत्रेग्राद शहर में युद्धपोत अव्रोरा के तोप की गड़गड़ाहट ने इतिहास की पहली सचेतन सर्वहारा क्रान्ति कि घोषणा की! तोप के निशाने और मज़दुरों की बगावत के सामने राजा के महल में छिपे पूँजीपतियो की सरकार के नेता घुटने टेक चुके थे। मज़दूर वर्ग के नारों की हुँकार पूरी दुनिया में गूंज उठी। पूँजीपतियो के ‘‘स्वर्ग पर धावा’’ बोला गया और उसे जीत लिया गया। मज़दूर वर्ग ने इतिहास की करवट बदल दी। रूस में मज़दूर वर्ग की जीत दुनिया भर के शोषितों की जीत थी और शासको-लुटेरों की हार।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (ग्यारहवीं किस्त)

पूँजीवादी व्यवस्था की सभ्यता और न्याय अपना भयावह रूप तभी प्रकट करते हैं जब उसके ग़ुलाम और जांगर खटाने वाले अपने मालिकों के खि़लाफ़ सिर उठाते हैं। और तब यह सभ्यता और न्याय नग्न बर्बरता और प्रतिशोध के अपने असली रूप में प्रकट होते हैं। मेहनत के फलों को हड़पने वालों और उत्पादकों के वर्ग-संघर्ष के प्रत्येक नये संकट में यह तथ्य और अधिक नग्न रूप में सामने आता है। जून 1848 में मज़दूरों की बग़ावत को कुचलने के लिए पूँजीपतियों के ज़ालिमाना कारनामे भी 1871 के अमिट कलंक के आगे फीके पड़ गये। अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर जिस वीरता और शौर्य के साथ पेरिस के स्त्री-पुरुष और बच्चे तक वसार्य-पंथियों के प्रवेश के बाद आठ दिनों तक लड़े, वह इस बात का प्रमाण था कि वे किस ऊँचे लक्ष्य के लिए लड़ रहे थे। दूसरी ओर, वर्साय के फौजियों के नारकीय कृत्य उस सभ्यता की गन्दी आत्मा को प्रतिबिम्बित कर रहे थे जिसके वे भाड़े के नौकर थे।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (दसवीं किस्त)

1848 की क्रान्ति वह पहला मौक़ा था जब पूँजीपति वर्ग ने यह दिखाया कि जिस क्षण सर्वहारा अपने अलग हितों और अपनी अलग माँगों के साथ एक अलग वर्ग के रूप में खड़े होने का दुस्साहस करेगा, उस समय प्रतिशोध में पूँजीपति किस प्रकार पागलपन और क्रूरता का नंगा नाच दिखा सकते हैं। लेकिन 1871 में पूँजीपतियों ने जैसा वहशीपन दिखाया उसके आगे 1848 बच्चों का खेल था।

फ़ाँसी के तख़्ते से

जो आदमी यहाँ हिम्मत हार बैठता है और अपनी आत्मा को खो देता है, उसकी सूरत उस आदमी की अपेक्षा कहीं अधिक बुरी होती है जिसका शरीर यहाँ पंगु बना दिया गया है। यदि आपकी आँखों को यहाँ विचरने वाली मृत्यु पोंछ चुकी है, यदि आपकी इन्द्रियों में पुनर्जन्म फिर प्राणों का संचार कर चुका है, तो शब्दों के बिना भी आपको यह पहचानने में देर नहीं लगती कि कौन डगमगा चुका है, किसने दूसरे के साथ विश्वासघात किया है; और आप झट से उसे पहचान लेते हैं जिसने क्षण भर के लिए भी इस विचार को मन में आश्रय दिया है कि घुटने टेक देना और अपने सबसे कम महत्वपूर्ण सहकर्मियों का पता बता देना बेहतर है। जो लोग दुर्बल पड़ जाते हैं, उनकी हालत दयनीय है। अपनी वह ज़िन्दगी वे किस तरह बितायेंगे जिसे बचाने के लिए उन्होंने अपने एक साथी की ज़िन्दगी बेच डाली है।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (नवीं किश्त)

पेरिस कम्यून की असफ़लता का निचोड़ निकालते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने यह और अधिक स्पष्ट किया कि सर्वहारा वर्ग की सत्ता शस्त्रबल से हासिल होती है और इसी के सहारे कायम रह सकती है। यह तभी कायम रह सकती है जबकि बुर्जुआ वर्ग की सत्ता को ध्वस्त करने के बाद भी उसे सम्भलने का मौका न दिया जाये और उसके समूल नाश के लिए जंग जारी रखी जाये।

लेनिन कथा के दो अंश…

लेनिन मज़दूरों के और पास खिसक आये और समझाने लगे कि यह सही है कि मज़दूरों को जानकारी, अनुभव के बग़ैर जन-कमिसारियतों में कठिनाई हो रही है मगर सर्वहारा के पास एक तरह की जन्मजात समझ-बूझ है। जन-कमिसारियतों में हमारी अपनी, पार्टी की, सोवियतों की नीति पर अमल करवाने की ज़रूरत है। यह काम अगर मज़दूर नहीं करेंगे, तो और कौन करेगा? सब जगह मज़दूरों के नेतृत्व, मज़दूरों के नियन्त्रण की ज़रूरत है।

“और अगर ग़लती हो गयी तो?”

“ग़लती होगी, तो सुधारेंगे। नहीं जानते तो सीखेंगे। इस तरह साथियो,” खड़े होते हुए व्लादीमिर इल्यीच ने दृढ़तापूर्वक कहा, “कि पार्टी ने अगर आपको भेजा है, तो अपना कर्त्तव्य निभाइये।” और फिर अपनी उत्साहवर्धक मुस्कान के साथ दोहराया, “नहीं जानते तो सीखेंगे।”

भारतीय मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल (23-28 जुलाई, 1908)

जिस तरह आज़ादी की लड़ाई में मज़दूर-किसानों की शानदार भूमिका और मेहनतकशों की लाखों-लाख कुर्बानियों की चर्चा तक नहीं की जाती उसी तरह मज़दूरों के इस ऐतिहासिक संघर्ष पर भी साज़िशाना तरीक़े से राख और धूल की परत चढ़ाकर इसे भुला दिया गया। लगता है हमारे तथाकथित इतिहासकारों और नेताओं को इन संघर्षों का जिक्र करते हुए भय और शर्म की अनुभूति होती है। 15 अगस्त और 26 जनवरी को झण्डा फहराते हुए ‘साबरमती के सन्त’ के कारनामों की तो चर्चा होती है, अंग्रेज़ों के दल्ले तक ‘महान स्वतंत्रता सेनानी’ बन जाते हैं किन्तु जब देश की मेहनतकश जनता ने अपने ख़ून से धरती को लाल कर दिया था, और जिन जनसंघर्षों के दबाव के कारण अंग्रेज़ भागने को मजबूर हुए उनका कभी नाम तक नहीं लिया जाता।