Category Archives: इतिहास

अक्टूबर क्रान्ति के शताब्दी वर्ष की शुरुआत के अवसर पर ‘लेनिन कथा’ से कुछ अंश

व्लादीमिर इल्यीच ने अख़बार का नाम ‘ईस्क्रा’ (चिनगारी) ही रखने का फ़ैसला किया। शूशेन्स्कोये में रहते हुए ही उन्होंने उसकी पूरी योजना तैयार कर ली थी। अब उसे कार्यरूप देना था। साइबेरिया से लौटकर व्लादीमिर इल्यीच प्स्कोव में रहने लगे। अकेले ही। नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्‍ना (लेनिन की जीवनसाथी) की निर्वासन अवधि अभी ख़त्म नहीं हुई थी, इसलिए वह बाक़ी समय के लिए उफ़ा में ही रुक गयीं। व्लादीमिर इल्यीच को प्स्कोव में रहने की इजाज़त थी। वहाँ उन्होंने ‘ईस्क्रा’ निकालने के लिए तैयारियाँ शुरू कीं। वह विभिन्न शहरों की यात्रा करते। ‘ईस्क्रा’ में काम करने के लिए साथियों को ढूँढ़ते। अख़बार के लिए लेख लिखने वालों को ढूँढ़ना था। फि‍र ऐसे आदमियों की तलाश भी ज़रूरी थी, जो अख़बार का गुप्त रूप से वितरण करते। ‘ईस्क्रा’ को आम तरीक़े से दूकानों और स्टॉलों पर बेचा नहीं जा सकता था। और अगर कोई ऐसा करता, तो उसे तुरन्त जेल हो सकती थी। अख़बार निकालने के लिए पैसों की भी ज़रूरत थी।

अक्टूबर क्रान्ति की स्मृतियों से संकल्प लो – नयी सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों की तैयारी करो

जिस मज़दूर आबादी को अनपढ़, गँवार, पिछड़ा हुआ माना जाना है वह एक विशाल देश में न सिर्फ़ अपनी सत्ता को स्थापित कर सकती है, बल्कि उसे चला सकती है और एक बेहतर समाज की रचना कर सकती है। इस तौर पर, अक्टूबर क्रान्ति ने मानव इतिहास में एक निर्णायक विच्छेद का प्रदर्शन किया और एक नये युग का आरम्भ कियाः समाजवादी संक्रमण का युग। इस युग की आरम्भ के बाद मज़दूर वर्ग ने कई अन्य देशों में समाजवादी प्रयोग करके, विशेष तौर पर चीन में, नये मानक स्थापित किये और नये चमत्कार किये। लेकिन ये सभी प्रयोग पहले दौर के समाजवादी प्रयोग थे।

स्‍तालिन – सभी को काम, सभी को आज़ादी, सभी को बराबरी!

हर वर्ग के अपने उत्सव होते हैं। कुलीन सामन्त ज़मींदार वर्ग ने अपने उत्सव चलाये और इन उत्सवों पर उन्होंने ऐलान कि‍या कि‍ कि‍सानों को लूटना उनका ”अधि‍कार” है। पॅूंजीपति ‍वर्ग के अपने उत्सव होते हैं और इन पर वे मज़दूरों का शोषण करने के अपने ”अधि‍कार” को जायज़ ठहराते हैं। पुरोहि‍त-पादरि‍यों के भी अपने उत्सव हैं और उन पर वे मौजूदा व्यवस्था का गुणगान करते हैं जि‍सके तहत मेहनतकश लोग ग़रीबी में पि‍सते हैं और नि‍ठल्ले लोग ऐशो-आराम में रहकर गुलछर्रे उड़ाते हैं। मज़दूरों के भी अपने उत्सव होने चाहि‍ए जि‍स दि‍न वे ऐलान करें: सभी को काम, सभी के लि‍ए आज़ादी, सभी लोगों के लि‍ए सर्वजनीन बराबरी। यह उत्सव है मई दि‍वस का उत्सव।

अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर विश्वभर में गूँजी मज़दूर मुक्ति की आवाज़

इस वर्ष भी विश्वभर में करोड़ों मज़दूरों न पूँजीवादी लूट के खिलाफ़ जोरदार आवाज़ बुलन्द की है। आयोजन चाहे क्रान्तिकारी ताकतों की पहलीकदमी पर हुए हों या चाहे पूँजीपरस्त नेताओं/संगठनों की पहलकदमी पर हुए हों, अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर मज़दूरों द्वारा दिखाया जोश यह दिखाता है कि वे मौजूदा लुटेरी व्यवस्था से किस कदर दुखी हैं, कि वे पूँजीपक्षधर नेताओं के लक्ष्यों से अगली कार्रवाई चाहते हैं, कि वे गुलामी वाली परिस्थितियों से छुटकारा चाहते हैं। अनेक स्थानों पर क्रान्तिकारी व मज़दूर पक्षधर ताकतों के नेतृत्व में आयोजन हुए जिनके दौरान मज़दूर वर्ग की मुक्ति की लड़ाई जारी रखने, पूँजीवादी व्यवस्था को जड़ से मिटाने, पूँजीपति वर्ग के मज़दूर वर्ग और अन्य मेहनतकश लोगों के खिलाफ़ तीखे हो रहे हमलों के खिलाफ़ संघर्ष तेज़ करने के संकल्प लिए गये।

भयानक साज़िश

हम यहाँ एक लेख का अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो बताता है कि जब सारी जनता अंग्रेज़ों को देश से बाहर करने के संघर्ष में सड़कों पर थी, 1946-47 के उन दिनों में भी संघ अपने ही देश के लोगों के ख़िलाफ़ कैसी घिनौनी साज़िशों में लगा हुआ था। इसे पढ़ने के बाद आपको इस बात पर कोई हैरानी नहीं होगी कि गुजरात में संघियों ने किस तरह से मुसलमानों के घरों और दुकानों को चुन-चुनकर निशाना बनाया था। इसके पीछे उनकी महीनों की तैयारी थी। हिटलरी जर्मनी के नाज़ियों से सीखे इन तरीकों को इस्‍तेमाल करने में इन्हें महारत हासिल हो चुकी है। इस अंश को प्रसिद्ध पत्रकार और नौसेना विद्रोह के भागीदार सुरेन्द्र कुमार ने ‘दायित्वबोध’ पत्रिका के लिए प्रस्तुत किया था।

रोबर्ट ओवन : महान काल्पनिक समाजवादी

रोबर्ट ओवन का सबसे प्रसिद्ध और सफल प्रयोग न्यू लेनार्क के कॉटन मिल में किये गये उनके कामों को माना जाता है। सन 1800 से 1821 के बीच ओवन ने स्कॉटलैण्ड की न्यू लेनार्क नामक जगह में एक नयी आदर्श कॉलोनी बसायी। ओवन के अनुसार – “किसी भी क़िस्म का मानवीय चरित्र समुचित साधनों से किसी भी समाज को दिया जा सकता है चाहे वह समाज चेतस हो या भले ही अज्ञानी हो, बल्कि यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है” और इस बात को लागू करते हुए ही उन्होंने यह दिखाया कि कैसे जब नरक सरीखी ज़िन्दगी में जी रहे मज़दूरों को बेहतर परिस्थिति में जीने का मौक़ा मिला तो उनके जीवन में भारी बदलाव हुआ। मज़दूरों के बीच से शराबखोरी, ग़रीबी आदि ख़त्म हो गये। 500 मज़दूरों से शुरू हुई इस कॉलोनी की आबादी बढ़कर 2500 तक पहुँच गयी। उन्होंने अपनी फ़ैक्टरी में अनाथ बच्चों से काम करवाना बन्द करवा दिया और उनके लिए शिक्षा के बेहतर उपाय ढूँढ़े। न्यू लेमार्क कॉलोनी के लोगों के लिए ओवन ने कायदे और क़ानून भी बनाये जिससे लोग अपने घर और गलियों को साफ़-सुथरा और सुरक्षित रख सकें। इस नियम का पालन करवाने के लिए कॉलोनी के लोगों की समिति का गठन किया गया। कॉलोनी में दुकानें भी खोली गयी जहाँ ख़रीद दर पर सामान मिलता था। दो बड़े स्कूल खोले गये जहाँ सभी निवासियों के लिए दिन और शाम की क्लास मुहैया करायी जाती थी। बीमारों के इलाज के लिए एक फ़ण्ड बनाया गया जिससे सभी को डॉक्टर और दवाई मुहैया करायी जा सके।

समाजवादी चीन और पूँजीवादी चीन की दो फैक्टरियों के बीच फर्क

पूँजीवादी देश में फैक्टरियों में निजी हस्तगतीकरण होता है और मज़दूरों के श्रम से पैदा हुआ बेशी मूल्य सीधे मालिक अपनी जेब में रखता है इसलिए इनकी उत्पादन व्यवस्था अधिकतम प्रोडक्शन पर जोर देती है और मज़दूर को मशीन के एक टूकड़े में बदल देती है। उसके बरक्स समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो मज़दूरों को उसके जीवन का असली आधार प्रदान करती है। हम आगे इस अंतर को और आगे विस्तारित करेंगे और सिर्फ फैक्टरी स्तर पर ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रहने की जगह में, सुविधाओं के ढाँचे के बारे में विस्तार से बात करते हुए समाजवाद और पूँजीवाद के अंतर के बारे में गहनता से समझेंगे। लेकिन एक बात यहाँ जो समझ में आती है कि फैक्टरी फ्लोर के स्तर पर समाजवादी चीन और पूँजीवाद चीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह हमें समझना होगा कि हमें क्या चाहिए? फोक्स्कोन की फैक्टरी के हालात आज भारत की भी लगभग हर फैक्टरी के हालात हैं। यहाँ भी मैनेजमेंट और मज़दूर के बीच मालिक और गुलाम का सम्बन्ध है न कि किसी समूह के दो सदस्यों सरीखा व्यवहार है। हमें अपनी फैक्टरी के हालातों को बदलना है तो इस मैनेजमेंट को बनाने वाली मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था को ही ख़त्म करना होगा।

उड़न छापाखाना – रूस की मज़दूर क्रान्ति के दौरान गुप्त अख़बार की छपाई की रोमांचक और दिलचस्प दास्तान

यह एक अद्भुत छापाखाना था : इसके पास न तो रोटरी प्रेस, टाइप फेस थे और न ही कागज। इसके पास अपना दफ्तर तक नहीं था। लेकिन बगावत के दिनों में इसने क्रान्तिकारी अखबार इज्वेस्तिया निकालने का इंतजाम तो कर ही लिया। बोल्शेविकों ने इसे “फ्लाइंग प्रेस” नाम दिया था।
इसके कर्मचारियों में पंद्रह टाइप-सेटर और पचास मज़दूर गश्ती दल के सदस्य थे। छपाई दफ्तर उस समय मास्को का कोई भी छापाखाना हो सकता था। अकेले अथवा छोटे समूहों में मजदूर उस छापाखाने में पहुंच जाते जिसे उन्होंने अखबार की छपाई के लिए चुना होता। वे आनन-फानन में बरामदों को घेरते हुए सभी प्रवेश एवं निकास द्वारों पर कब्जा जमा लेते। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह रहती थी कि वे सड़क से पहचाने नहीं जाएं।

‘जो जलता नहीं, वह धुएँ में अपने आपको नष्ट कर देता है’

हज़ारों सालों से जिनके कन्धे जानलेवा मेहनत से चूर हैं, जिन्हें अरसे से हिक़ारत की निगाहों से देखा गया हो, उस मेहनतकश आबादी ने अपने बीच से समय-समय पर ऐसे मज़दूर नायकों को जन्म दिया है जिनका जीवन हमें आज के युग में तो बहुत कुछ सिखाता ही है पर भावी समाज में भी सिखाता रहेगा। निकोलाई ओस्त्रोवस्की मज़दूर नायकों की आकाशगंगा का एक ऐसा ही चमकता ध्रुवतारा है।

ओस्त्रोवस्की का जीवन युवा क्रान्तिकारियों के लिए एक महान आदर्श है। जनता के लिए, कम्युनिज़्म के उदात्त लक्ष्य के लिए जीना किसे कहते हैं; और क्रान्ति के प्रति सच्चे एवं नि:स्वार्थ समपर्ण की भावना कैसी होती है; समाजवाद के लक्ष्य के लिए एक उत्साही, क्रियाशील और अडिग सैनिक का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए इसका प्रातिनिधिक उदाहरण ओस्त्रोवस्की का छोटा मगर सार्थक जीवन है।

रूस के मज़दूरों की महान अक्टूबर क्रान्ति की 98वीं वर्षगाँठ पर जारी पर्चा

 आज इक्कीसवीं सदी में हम भारत के मज़दूरों को अपने देश में पूँजीपति वर्ग के शासन को नेस्तनाबूद करना है, यहाँ मज़दूरों का समाजवादी राज्य कायम करना है। यह तभी सम्भव है जब हम अपने इतिहास को जानेंगे, उससे जरूरी सबक निकालेंगे और लागू करेंगे। रूस की मज़दूर क्रान्ति के बारे में, इसकी उपलब्धियों के बारे में पूँजीपतियों के टी.वी. चैनल, उनकी किताबें, उनके अखबार, उनके कल्मघसीट लेखक कभी नहीं बताएँगे। क्योंकि वो डरते हैं मज़दूर वर्ग से, उसके महान इतिहास से, मज़दूर क्रान्तियों से। आईए, जानें क्या कैसे हूई मज़दूरों की रूसी क्रान्ति, क्या थी इसकी उपलब्धियाँ, और आज हमारे लिए उसके क्या मायने हैं, सबक हैं?