Category Archives: इतिहास

भयानक साज़िश

हम यहाँ एक लेख का अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो बताता है कि जब सारी जनता अंग्रेज़ों को देश से बाहर करने के संघर्ष में सड़कों पर थी, 1946-47 के उन दिनों में भी संघ अपने ही देश के लोगों के ख़िलाफ़ कैसी घिनौनी साज़िशों में लगा हुआ था। इसे पढ़ने के बाद आपको इस बात पर कोई हैरानी नहीं होगी कि गुजरात में संघियों ने किस तरह से मुसलमानों के घरों और दुकानों को चुन-चुनकर निशाना बनाया था। इसके पीछे उनकी महीनों की तैयारी थी। हिटलरी जर्मनी के नाज़ियों से सीखे इन तरीकों को इस्‍तेमाल करने में इन्हें महारत हासिल हो चुकी है। इस अंश को प्रसिद्ध पत्रकार और नौसेना विद्रोह के भागीदार सुरेन्द्र कुमार ने ‘दायित्वबोध’ पत्रिका के लिए प्रस्तुत किया था।

रोबर्ट ओवन : महान काल्पनिक समाजवादी

रोबर्ट ओवन का सबसे प्रसिद्ध और सफल प्रयोग न्यू लेनार्क के कॉटन मिल में किये गये उनके कामों को माना जाता है। सन 1800 से 1821 के बीच ओवन ने स्कॉटलैण्ड की न्यू लेनार्क नामक जगह में एक नयी आदर्श कॉलोनी बसायी। ओवन के अनुसार – “किसी भी क़िस्म का मानवीय चरित्र समुचित साधनों से किसी भी समाज को दिया जा सकता है चाहे वह समाज चेतस हो या भले ही अज्ञानी हो, बल्कि यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है” और इस बात को लागू करते हुए ही उन्होंने यह दिखाया कि कैसे जब नरक सरीखी ज़िन्दगी में जी रहे मज़दूरों को बेहतर परिस्थिति में जीने का मौक़ा मिला तो उनके जीवन में भारी बदलाव हुआ। मज़दूरों के बीच से शराबखोरी, ग़रीबी आदि ख़त्म हो गये। 500 मज़दूरों से शुरू हुई इस कॉलोनी की आबादी बढ़कर 2500 तक पहुँच गयी। उन्होंने अपनी फ़ैक्टरी में अनाथ बच्चों से काम करवाना बन्द करवा दिया और उनके लिए शिक्षा के बेहतर उपाय ढूँढ़े। न्यू लेमार्क कॉलोनी के लोगों के लिए ओवन ने कायदे और क़ानून भी बनाये जिससे लोग अपने घर और गलियों को साफ़-सुथरा और सुरक्षित रख सकें। इस नियम का पालन करवाने के लिए कॉलोनी के लोगों की समिति का गठन किया गया। कॉलोनी में दुकानें भी खोली गयी जहाँ ख़रीद दर पर सामान मिलता था। दो बड़े स्कूल खोले गये जहाँ सभी निवासियों के लिए दिन और शाम की क्लास मुहैया करायी जाती थी। बीमारों के इलाज के लिए एक फ़ण्ड बनाया गया जिससे सभी को डॉक्टर और दवाई मुहैया करायी जा सके।

समाजवादी चीन और पूँजीवादी चीन की दो फैक्टरियों के बीच फर्क

पूँजीवादी देश में फैक्टरियों में निजी हस्तगतीकरण होता है और मज़दूरों के श्रम से पैदा हुआ बेशी मूल्य सीधे मालिक अपनी जेब में रखता है इसलिए इनकी उत्पादन व्यवस्था अधिकतम प्रोडक्शन पर जोर देती है और मज़दूर को मशीन के एक टूकड़े में बदल देती है। उसके बरक्स समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो मज़दूरों को उसके जीवन का असली आधार प्रदान करती है। हम आगे इस अंतर को और आगे विस्तारित करेंगे और सिर्फ फैक्टरी स्तर पर ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रहने की जगह में, सुविधाओं के ढाँचे के बारे में विस्तार से बात करते हुए समाजवाद और पूँजीवाद के अंतर के बारे में गहनता से समझेंगे। लेकिन एक बात यहाँ जो समझ में आती है कि फैक्टरी फ्लोर के स्तर पर समाजवादी चीन और पूँजीवाद चीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह हमें समझना होगा कि हमें क्या चाहिए? फोक्स्कोन की फैक्टरी के हालात आज भारत की भी लगभग हर फैक्टरी के हालात हैं। यहाँ भी मैनेजमेंट और मज़दूर के बीच मालिक और गुलाम का सम्बन्ध है न कि किसी समूह के दो सदस्यों सरीखा व्यवहार है। हमें अपनी फैक्टरी के हालातों को बदलना है तो इस मैनेजमेंट को बनाने वाली मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था को ही ख़त्म करना होगा।

उड़न छापाखाना – रूस की मज़दूर क्रान्ति के दौरान गुप्त अख़बार की छपाई की रोमांचक और दिलचस्प दास्तान

यह एक अद्भुत छापाखाना था : इसके पास न तो रोटरी प्रेस, टाइप फेस थे और न ही कागज। इसके पास अपना दफ्तर तक नहीं था। लेकिन बगावत के दिनों में इसने क्रान्तिकारी अखबार इज्वेस्तिया निकालने का इंतजाम तो कर ही लिया। बोल्शेविकों ने इसे “फ्लाइंग प्रेस” नाम दिया था।
इसके कर्मचारियों में पंद्रह टाइप-सेटर और पचास मज़दूर गश्ती दल के सदस्य थे। छपाई दफ्तर उस समय मास्को का कोई भी छापाखाना हो सकता था। अकेले अथवा छोटे समूहों में मजदूर उस छापाखाने में पहुंच जाते जिसे उन्होंने अखबार की छपाई के लिए चुना होता। वे आनन-फानन में बरामदों को घेरते हुए सभी प्रवेश एवं निकास द्वारों पर कब्जा जमा लेते। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह रहती थी कि वे सड़क से पहचाने नहीं जाएं।

‘जो जलता नहीं, वह धुएँ में अपने आपको नष्ट कर देता है’

हज़ारों सालों से जिनके कन्धे जानलेवा मेहनत से चूर हैं, जिन्हें अरसे से हिक़ारत की निगाहों से देखा गया हो, उस मेहनतकश आबादी ने अपने बीच से समय-समय पर ऐसे मज़दूर नायकों को जन्म दिया है जिनका जीवन हमें आज के युग में तो बहुत कुछ सिखाता ही है पर भावी समाज में भी सिखाता रहेगा। निकोलाई ओस्त्रोवस्की मज़दूर नायकों की आकाशगंगा का एक ऐसा ही चमकता ध्रुवतारा है।

ओस्त्रोवस्की का जीवन युवा क्रान्तिकारियों के लिए एक महान आदर्श है। जनता के लिए, कम्युनिज़्म के उदात्त लक्ष्य के लिए जीना किसे कहते हैं; और क्रान्ति के प्रति सच्चे एवं नि:स्वार्थ समपर्ण की भावना कैसी होती है; समाजवाद के लक्ष्य के लिए एक उत्साही, क्रियाशील और अडिग सैनिक का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए इसका प्रातिनिधिक उदाहरण ओस्त्रोवस्की का छोटा मगर सार्थक जीवन है।

रूस के मज़दूरों की महान अक्टूबर क्रान्ति की 98वीं वर्षगाँठ पर जारी पर्चा

 आज इक्कीसवीं सदी में हम भारत के मज़दूरों को अपने देश में पूँजीपति वर्ग के शासन को नेस्तनाबूद करना है, यहाँ मज़दूरों का समाजवादी राज्य कायम करना है। यह तभी सम्भव है जब हम अपने इतिहास को जानेंगे, उससे जरूरी सबक निकालेंगे और लागू करेंगे। रूस की मज़दूर क्रान्ति के बारे में, इसकी उपलब्धियों के बारे में पूँजीपतियों के टी.वी. चैनल, उनकी किताबें, उनके अखबार, उनके कल्मघसीट लेखक कभी नहीं बताएँगे। क्योंकि वो डरते हैं मज़दूर वर्ग से, उसके महान इतिहास से, मज़दूर क्रान्तियों से। आईए, जानें क्या कैसे हूई मज़दूरों की रूसी क्रान्ति, क्या थी इसकी उपलब्धियाँ, और आज हमारे लिए उसके क्या मायने हैं, सबक हैं?

समाजवादी सोवियत संघ ने वेश्‍यावृत्ति का ख़ात्‍मा कैसे किया ?

क्रान्ति से पहले तक अकेले पीटर्सबर्ग शहर में सरकारी लायसेंसप्राप्त औरतों की संख्या 60,000 थी। 10 में से 8 वेश्याएं 21 साल से कम उम्र की थीं। आधे से ज़्यादा ऐसीं थीं, जिन्होंने 18 साल से पहले ही इस पेशे को अपना लिया था। रूस में नैतिक पतन का यह कीचड़ जहाँ एक तरफ आमदनी का स्रोत था, वहीं दूसरी तरफ यह रूस के कुलीन लोगों के लिए विदेशों से आने वाले लोगों के सामने शर्मिन्दगी का कारण भी बनता था। इसलिए इन कुलीन लोगों ने ज़ार सरकार पर दबाव बनाया और ज़ार द्वारा इस मसले पर विचार करने के लिए एक कांग्रेस भी बुलाई गई। इस कांग्रेस में मज़दूर संगठनों द्वारा भी अपने सदस्य भेजे गये। मज़दूर नुमाइंदों द्वारा यह बात पूरे जोर-शोर से उठाई गई कि रूस में वेश्यावृत्ति का मुख्य कारण ज़ारशाही का आर्थिक और राजनैतिक ढाँचा है। लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसे विचारों को दबा दिया गया। पुलिस अधिकारियों का कहना था कि ‘भले घरानों’ की औरतें पर प्रभाव न पड़े, इसलिए ज़रूरी है कि ‘निचली जमात’ की औरतें ज़िन्दगी भर के लिए यह पेशा करती रहें।

अख़बार और मज़दूर

सर्वोपरि, मज़दूर को बुर्जुआ अख़बार के साथ किसी भी प्रकार की एकजुटता को दृढ़ता से ख़ारिज करना चाहिए। और उसे हमेशा, हमेशा, हमेशा यह याद रखना चाहिए कि बुर्जुआ अख़बार (इसका रंग जो भी हो) उन विचारों एवं हितों से प्रेरित संघर्ष का एक उपकरण होता है जो आपके विचार और हित के विपरीत होते हैं। इसमें छपने वाली सभी बातें एक ही विचार से प्रभावित होती हैं: वह है प्रभुत्वशाली वर्ग की सेवा करना, और जो आवश्यकता पड़ने पर इस तथ्य में परिवर्तित हो जाती है: मज़दूर वर्ग का विरोध करना। और वास्तव में, बुर्जुआ अख़बार की पहली से आखि़री लाइन तक इस पूर्वाधिकार की गन्ध आती है और यह दिखायी देता है।

समाजवादी रूस और चीन ने नशाख़ोरी का उन्मूलन कैसे किया

सोवियत सरकार ने अब तक शराबख़ोरी के खि़लाफ़ चली लहरों की मौजूदा रिपोर्टों और जानकारियों का अध्ययन किया। इन तथ्यों की छानबीन के बाद सोवियत अधिकारियों ने शराबख़ोरी की समस्या की जाँच-पड़ताल का काम नये सिरे से अपने हाथ में लिया। इस जाँच-पड़ताल के दौरान यह सामने आया कि रूस में शराबख़ोरी की समस्या सामाजिक और आर्थिक समस्या के साथ जुड़ी हुई है। लोग शराब की तरफ़ उस समय दौड़ते हैं जब वे अपने आपको ग़रीबी, भुखमरी, बेकारी जैसी समस्याओं से घिरा हुआ देखते हैं। उनको अपने दुख-तकलीप़फ़ों को भूलने का एक ही हल नज़र आता था – शराब। दूसरा इसको प्रोत्साहन इसलिए दिया जाता था कि सरकार इससे टैक्सों के द्वारा भारी लाभ कमा सके। ज़ार सरकार की कुल आमदनी का चौथा हिस्सा शराब से आता था।

इण्डोनेशिया में 10 लाख कम्युनिस्टों के क़त्लेआम के पचास वर्ष

जनसमर्थन और सांगठनिक विस्तार के नज़रिये से देखा जाये तो इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी बेहद मज़बूत पार्टी थी लेकिन विचारधारात्मक तौर पर वह पहले ही ख़ुद को नख-दन्तविहीन बना चुकी थी। असल में 1950 के दशक में ही उसने समाजवादी लक्ष्य हासिल करने का शान्तिपूर्ण रास्ता चुना। वर्ष 1965 तक उसने न सिर्फ़ अपने सशस्त्र दस्तों को निशस्त्र किया बल्कि अपना भूमिगत ढाँचा भी समाप्त कर दिया। विचारधारा के स्तर पर वह पूरी तरह सोवियत संशोधनवाद के साथ जाकर खड़ी हो गयी। उसने इण्डोनेशियाई राज्यसत्ता की संशोधनवादी व्याख्या प्रस्तुत की और दावा किया कि यहाँ के राज्य के दो पहलू हैं – एक प्रतिक्रियावादी और दूसरा प्रगतिशील। उन्होंने यहाँ तक कहा कि इण्डोनेशियाई राज्य का प्रगतिशील पहलू ही प्रधान पहलू है। यह बात पूरी तरह ग़लत है और अब तक के क्रान्तिकारी इतिहास के सबक़ों के खि़लाफ़ है। राज्य हमेशा से ही जनता के ऊपर बल प्रयोग का साधन रहा है। शोषकों के हाथों में यह एक ऐसा उपकरण है जिसके ज़रिये वह शोषणकारी व्यवस्थाओं का बचाव करते हैं। पूँजीवाद के अन्तर्गत प्रगतिशील पहलू वाले राज्य की बात करना क्रान्ति के रास्ते को छोड़ने के बराबर है। यह राजनीतिक लाइन पहले भी इतिहास में असफल रही है और एक बार फिर उसे ग़लत साबित होना ही था। लेकिन इस ग़लत राजनीतिक लाइन की क़ीमत थी 10 लाख कम्युनिस्टों की मौत और लाखों को काल कोठरी।