मज़दूर वर्ग के महान नेता स्तालिन के जन्मदिवस (21 दिसम्बर) के अवसर पर
पार्टी मजदूर वर्ग का संगठित दस्ता है
पार्टी मज़दूर वर्ग का केवल अग्रदल ही नहीं है। यदि वह अपने वर्ग के संघर्षों का वास्तविक संचालन करना चाहती है तो उसे सर्वहारा का संगठित दस्ता भी होना पड़ेगा, पूँजीवाद की परिस्थितियों में पार्टी के कार्य अत्यन्त गम्भीर और विविध हैं। भीतरी और बाहरी विकास की अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में उसे सर्वहारा वर्ग के संघर्षों का नेतृत्व करना होगा। जब परिस्थिति आक्रमण के अनुकूल हो तब उसे अपने वर्ग को लेकर चढ़ाई करनी होगी; और जब स्थिति प्रतिकूल हो जाए तो शक्तिशाली दुश्मन के प्रहार से उसे बचाने के लिए अपने वर्ग को पीछे हटा लाना होगा। साथ ही पार्टी के बाहर के करोड़ों असंगठित मज़दूरों को संघर्ष का ढंग और अनुशासन सिखलाना होगा और उनमें संगठन और सहनशीलता की भावना उत्पन्न करनी होगी। पार्टी यह सब काम तभी पूरा कर सकती है जब वह स्वयं संगठन और अनुशासन का आदर्श रूप हो, जब वह स्वयं सर्वहारा वर्ग का संगठित दस्ता हो। पार्टी में अगर ये गुण न हों तो वह करोड़ों सर्वहारा का पथ प्रदर्शन करने की बात भी नहीं सोच सकती।
पार्टी मज़दूर वर्ग का संगठित दस्ता है।
पार्टी नियमावली के पहले अनुच्छेद में ही लेनिन का यह सर्वप्रसिद्ध सिद्धान्त विद्यमान है कि पार्टी को एक संगठित इकाई होना चाहिए। उक्त अनुच्छेद में पार्टी को अपने विभिन्न संगठनों का योगफल माना गया है और कहा गया है कि इनमें से किसी संगठन का सदस्य ही पार्टी का सदस्य हो सकता है। मेंशेविकों ने 1903 में ही लेनिन के इस सिद्धान्त का विरोध किया था और एक संशोधन द्वारा उसकी जगह यह विधान करना चाहा था कि सीधे पार्टी में भर्ती होने की “व्यवस्था” हो; और ऐसे प्रत्येक “प्रोफेसर” और “कॉलेज के विद्यार्थी” को, प्रत्येक “हमदर्द” और “हड़ताली” को पार्टी सदस्यता की “पदवी” दी जाये जो किसी भी तरह से पार्टी का समर्थन करता हो, उनका कहना था कि पार्टी के प्रत्येक सदस्य के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पार्टी के मातहत किसी न किसी संगठन में काम करता हो या करने के लिए उत्सुक हो। यह प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है कि यदि पार्टी के अन्दर यह अनोखी “व्यवस्था” प्रतिष्ठित हो जाती तो उसमें प्रोफेसरों और कालेज के विद्यार्थियों की बाढ़ सी आ जाती और “हमदर्दों” के समुद्र में डूबती-उतराती हमारी पार्टी अपने आदर्श से स्खलित होकर एक ढीला-ढाला, असंगठित और शृंखलाहीन “ढाँचा” बनकर रह जाती। इस हालात में पार्टी और मज़दूर वर्ग के बीच का अन्तर मिट जाता और असंगठित जनसाधारण को अग्रदल के स्तर तक उठाने का पार्टी का उद्देश्य ही छिन्न-भिन्न हो जाता। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस तरह की अवसरवादी “व्यवस्था” में हमारी पार्टी क्रान्ति के दौरान सर्वहारा वर्ग का संगठन केन्द्र बनने का कार्य न कर पाती।
इस सम्बन्ध में लेनिन ने लिखा था, “मार्तोव के दृष्टिकोण से पार्टी की सीमाएँ अनिश्चित हैं क्योंकि उनके अनुसार ‘प्रत्येक हड़ताली… अपने को पार्टी का सदस्य घोषित’ कर सकता है। इस लचीलेपन से क्या लाभ हो सकता है? उनका कहना है कि इससे पार्टी के ‘नाम’ का दूर-दूर तक प्रचार हो जायेगा। किन्तु इस व्यवस्था से बहुत भारी हानि होगी। पार्टी और वर्ग का भेद अस्पष्ट हो जायेगा जिससे पार्टी के अन्दर विघटन का घुन लग जायेगा।” (लेनिन ग्रन्थावली, खण्ड 6, पृ. 211)
किन्तु पार्टी अपने नीचे के संगठनों का केवल योगफल ही नहीं है; वह उन संगठनों की एकरस व्यवस्था को भी व्यक्त करती है। वह विभिन्न पार्टी संगठनों की नियमित एकता का केन्द्र है। उसके साथ वे अभिन्न रूप से बँधे हुए हैं, पार्टी के भीतर नेतृत्व की ऊँची और नीची समितियाँ हैं, उसके अन्दर अल्पमत को बहुत के आगे सिर झुकाना पड़ता है और बहुमत के व्यावहारिक निर्णय सभी पार्टी सदस्यों के लिए मान्य होते हैं। इन लक्षणों के अभाव में पार्टी एक एकरस, संगठित और सम्पूर्ण संस्था नहीं बन सकती और न वह मज़दूर वर्ग के संघर्ष का व्यवस्थित और संगठित रूप से नेतृत्व करने में ही समर्थ हो सकती है।
लेनिन ने कहा है, “पहले हमारी पार्टी एक नियमपूर्वक संगठित दल न होकर विभिन्न गुटों का जोड़ थी; इसलिए इन गुटों में विचार साम्य को छोड़कर और कोई सम्बन्ध न था। अब हम एक संगठित पार्टी हैं जिसका अर्थ है अब हम अनुशासन सूत्र में बँध गये हैं। विचारों की शक्ति अनुशासन में बदल गई है। पार्टी की निम्न संस्थाओं को उच्चतर संस्थाओं के आदेशों को मानना पड़ता है।” (वही, पृ- 291)
अल्पमत का बहुमत से अनुशासित होने तथा एक केन्द्र द्वारा पार्टी कार्य का संचालन करने के सिद्धान्तों को लेकर ढीले-ढाले और अस्थिर विचार के लोग पार्टी को “नौकरशाहों” का और ‘औपचारिकता-वादी’ संगठन बतलाते हैं। यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि इन सिद्धान्तों का पालन किये बिना पार्टी न तो एक संगठित संस्था के रूप में और व्यवस्थित ढंग से अपना कार्य कर सकती है और न मज़दूर वर्ग के संघर्षों का ही संचालन कर पाती है। संगठन के क्षेत्र में लेनिनवाद का तात्पर्य है इन सिद्धान्तों का दृढ़तापूर्वक प्रयोग करना। इन सिद्धान्तों के विरोध को लेनिन ने “रूसी नकारवाद” और “राजसी अराजकतावाद” का नाम दिया था। वास्तव में इस तरह का विरोध मात्र उपहास की चीज हैं और उसे हमें तिरस्कारपूर्वक ठुकरा देना चाहिए।
‘एक कदम आगे दो कदम पीछे’ नामक अपनी पुस्तक में लेनिन ने इन ढुलमुल विचार वाले लोगों के सम्बन्ध में ये बातें लिखी हैं, “यह राजसी अराजकतावाद रूसी निहिलिस्टों (नकारवादियों) की विशेषता है। पार्टी संगठन को वे भयानक ‘फैक्टरी’ समझते हैं; उनके विचार से पार्टी के विभिन्न अंगों का तथा अल्पमत का पूरी पार्टी से अनुशासित होना ‘दासता’ है। कुछ करुणा और कुछ हास्यास्पद स्वर में वे केन्द्र की देखरेख में काम के बँटवारे के सम्बन्ध में कहते हैं कि उससे लोग मशीन के ‘कल पुर्जे’ बन जाते हैं… पार्टी के संगठन सम्बन्धी नियमों पर वे मुँह बिचकाते हैं और बड़ी घृणा से… कहते हैं कि बिना नियम के ही काम चल सकता है।
मेरा ख्याल है कि तथाकथित नौकरशाही की बात करके ये लोग जो हायतौबा मचाया करते हैं वह स्पष्टतः केन्द्रीय संस्थाओं के सदस्यों के प्रति अपने असन्तोष को ढँके रखने का केवल एक बहाना है… तुम नौकरशाह हो, क्योंकि पार्टी कांग्रेस ने तुम्हें मेरी इच्छाओं के अनुसार नहीं बल्कि उनके विरुद्ध नियुक्त कर दिया है। तुम नियमवादी हो, क्योंकि तुम मेरी सहमति की परवाह न करके कांग्रेस के नियमित निर्णयों को मानते हो! तुम एक जड़ के समान काम करते हो, क्योंकि केन्द्रीय संस्थाओं में सम्मिलत होने के सम्बन्ध में मेरी निजी इच्छाओं की ओर ध्यान न देकर तुम पार्टी कांग्रेस के ‘यांत्रिक’ बहुमत के आदेशों को ही प्रमाणिक मानते हो! तुम निरंकुश हो, क्योंकि तुम पुराने गुटों को पार्टी संचालन का अधिकार देने के विरुद्ध हो (यहाँ अक्सेलरोद, मार्तोव, पोत्रेसोव आदि का जिक्र किया गया है। उन्होंने दूसरी कांग्रेस के निर्णयों को मानने से इन्कार कर दिया और लेनिन पर “नौकरशाह” होने का आरोप लगाया)!” (लेनिन, ग्रन्थावली, खण्ड 10, पृ- 280, 310)
(स्तालिन की कृति ‘लेनिनवाद के मूल सिद्धान्त’ के अंश)
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2014