Category Archives: इतिहास

क्रान्तिकारी चीन में स्वास्थ्य प्रणाली

हर देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे बुनियादी अधिकार होता है। यूँ तो देश का संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “कोई भी व्यक्ति अपने जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता”। लेकिन हम सभी जानते हैं कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हज़ारों लोग अपनी जान गँवा देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 70 फ़ीसदी भारतीय अपनी आय का 70 फ़ीसदी हिस्सा दवाओं पर ख़र्च करते हैं। मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ने हर मानवीय सेवा को बाज़ार के हवाले कर दिया है, जानबूझकर जर्जर और खस्ताहाल की गयी स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने के नाम पर सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ निजीकरण व बाज़ारीकरण पर एक राय हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि दुनिया की महाशक्ति होने का दम्भ भरने वाली भारत सरकार अपनी जनता को सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवा भी उपलब्ध नहीं कर सकता है। ऐसे में हम अपने पड़ोसी मुल्क चीन के क्रान्तिकारी दौर (1949-76) की चर्चा करेंगे, जहाँ मेहनतकश जनता के बूते बेहद पिछड़े और बेहद कम संसाधनों वाले “एशिया के बीमार देश” ने स्वास्थ्य सेवा में चमत्कारी परिवर्तन किया, साथ ही स्वास्थ्य कर्मियों और जनता के आपसी सम्बन्ध को भी उन्नततर स्तर पर ले जाने का प्रयास किया।

श्रीलंका में मई दिवस और मज़दूर आन्दोलन के नये उभार के सकारात्मक संकेत

श्रीलंका का मज़दूर वर्ग यदि स्वयं अपने अनुभव से संसदवाद, अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद से लड़ते हुए नवउदारवादी नीतियों और राज्यसत्ता के विरुद्ध एकजुट संघर्ष की ज़रूरत महसूस कर रहा है तो कालान्तर में उसकी हरावल पार्टी के पुनस्संगठित होने की प्रक्रिया भी अवश्य गति पकड़ेगी, क्योंकि श्रीलंका की ज़मीन पर मार्क्सवादी विचारधारा के जो बीज बिखरे हुए हैं, उन सभी के अंकुरण-पल्लवन-पुष्पन को कोई ताक़त रोक नहीं सकेगी। यदि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक पीढ़ी अपना दायित्व नहीं पूरा कर पायेगी, तो दूसरी पीढ़ी इतिहास के रंगमंच पर उसका स्थान ले लेगी।

चुप्पी तोड़ो, आगे आओ! मई दिवस की अलख जगाओ!!

मई दिवस का इतिहास पूँजी की ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ देने के लिए उठ खड़े हुए मज़दूरों के ख़ून से लिखा गया है। जब तक पूँजी की ग़ुलामी बनी रहेगी, संघर्ष और क़ुर्बानी की उस महान विरासत को दिलों में सँजोये हुए मेहनतकश लड़ते रहेंगे। हमारी लड़ाई में कुछ हारें और कुछ समय के उलटाव-ठहराव तो आये हैं लेकिन इससे पूँजीवादी ग़ुलामी से आज़ादी का हमारा जज्ब़ा और जोश क़त्तई टूट नहीं सकता। करोड़ों मेहनतकश हाथों में तने हथौड़े एक बार फिर उठेंगे और पूँजी की ख़ूनी सत्ता को चकनाचूर कर देंगे। इसी संकल्प को लेकर दिल्ली, लुधियाना और गोरखपुर में मज़दूरों के मई दिवस के आयोजनों में बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों ने शिरकत की और इन आयोजनों को क्रान्तिकारी धार और जुझारू तेवर देने में अपनी भूमिका निभायी।

एक विस्मृत गौरवशाली विरासत

फासीवाद के विरुद्ध 1920 और 1930 के दशक में पूरे यूरोप में जिन लोगों ने सर्वाधिक जुझारू ढंग से जनता को लामबन्द किया था और फासिस्टों से सड़कों पर लोहा लिया था, वे कम्युनिस्ट ही थे। 1934 से 1939 के बीच ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जो फासीवाद-विरोधी मुहिम चलाई थी, उसका एक गौरवशाली इतिहास रहा है, जो आज बहुतेरे लोग नहीं जानते। ‘केबल स्ट्रीट की लड़ाई’ (4 अक्टूबर, 1936) ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना थी। उस दिन 40,000 सदस्यों वाली ओसवाल्ड मोस्ले की ‘ब्रिटिश यूनियन ऑफ फासिस्ट्स’ लंदन के पूर्वी छोर से केबल स्ट्रीट और गार्डिनर्स कॉर्नर होते हुए (यह इलाका यहूदी बहुल था) एक मार्च निकाल रही थी। कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की संख्या उस समय मात्र 11,500 थी, पर उन्होंने आनन-फानन में एक लाख लोगों का लामबन्द करके फासिस्ट मार्च के रास्ते को रोक कर दिया और बी-यू-एफ- के यहूदी अल्पसंख्यक विरोधी फासिस्ट गुण्डों को खदेड़ दिया। ये तस्वीरें ‘केबल स्ट्रीट की लड़ाई’ की ही हैं। फिल पिरैटिन ने अपनी पुस्तक ‘अवर फ्लैग स्टेज़ रेड’ (1948) में इस घटना का विस्तृत विवरण दिया है। उस समय कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत संसदमार्गी वाम, सामाजिक जनवादियों और त्रात्स्कीवादियों (लेबर पार्टी और सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी आदि) से कम थी, पर जुझारू फासीवाद-विरोधी संघर्ष में अग्रणी भूमिका कम्युनिस्टों की ही थी। कम्युनिस्टों की ‘पॉपुलर फ्रण्ट’ की रणनीति को सुधारवादी बताने वाले त्रत्स्कीपंथी ब्रिटेन में अच्छी-खासी संख्या में थे, पर फासिस्टों के विरुद्ध सड़कों पर मोर्चा लेने के बजाय वे माँदों में दुबके रहे।

चुप्पी तोड़ो, आगे आओ! मई दिवस की अलख जगाओ!!

मई दिवस का इतिहास पूँजी की ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ देने के लिए उठ खड़े हुए मज़दूरों के ख़ून से लिखा गया है। जबतक पूँजी की ग़ुलामी बनी रहेगी, संघर्ष और कुर्बानी की उस महान विरासत को दिलों में सँजोये हुए मेहनतक़श लड़ते रहेंगे। पूँजीवादी ग़ुलामी से आज़ादी के जज़्बे और जोश को कुछ हारें और कुछ समय के उलटाव-ठहराव कत्तई तोड़ नहीं सकते। करोड़ों मेहनतक़श हाथों में तने हथौड़े एक बार फिर उठेंगे और पूँजी की ख़ूनी सत्ता को चकनाचूर कर देंगे।

अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर जारी पर्चा

यह कहानी सिर्फ़ उनके लिए है जो ज़िन्दगी से प्यार करते हैं; उनके लिए जो आज़ाद इंसान की तरह जीना चाहते हैं, गुलामों की तरह नहीं! यह कहानी उनके लिए है जो अन्याय और दमन से नफ़रत करते हैं; उनके लिए जो भुखमरी, ग़रीबी, कुपोषण और बेघरी में जानवरों की तरह नहीं जीना चाहते हैं; यह कहानी उन लोगों के लिए है जो हर रोज़ 12-14 घण्टे खटने, पेट का गड्ढा भरने और फिर शराब के नशे में अपनी निराशा-हताशा को डुबाकर सो जाने को ही ज़िन्दगी नहीं मानते हैं! यह कहानी उनके लिए है जो बराबरी, इंसाफ़ और इज़्ज़त भरी ज़िन्दगी जीना चाहते हैं! अगर आप उनमें से हैं तो यह कहानी आपके लिए ही है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (समापन किस्त)

भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र के छलावे का विकल्प भी हमें सर्वहारा जनवाद की ऐसी ही संस्थायें दे सकती हैं जिन्हें हम लोकस्वराज्य पंचायतों का नाम दे सकते हैं। ज़ाहिर है ऐसी पंचायतें अपनी असली प्रभाविता के साथ तभी सक्रिय हो सकती हैं जब समाजवादी जनक्रान्ति के वेगवाही तूफ़ान से मौजूदा पूँजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंका जायेगा। परन्तु इसका यह अर्थ हरगिज़ नहीं कि हमें पूँजीवादी जनवाद का विकल्प प्रस्तुत करने के प्रश्न को स्वतः स्फूर्तता पर छोड़ देना चाहिए। हमें इतिहास के अनुभवों के आधार पर आज से ही इस विकल्प की रूपरेखा तैयार करनी होगी और उसको अमल में लाना होगा। इतना तय है कि यह विकल्प मौजूदा पंचायती राज संस्थाओं में नहीं ढूँढा जाना चाहिए क्योंकि ये पंचायतें तृणमूल स्तर पर जनवाद क़ायम करने की बजाय वास्तव में मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के सामाजिक आधार को विस्तृत करने का ही काम कर रही हैं और इनमें चुने जाने वाले प्रतिनिधि आम जनता का नहीं बल्कि सम्पत्तिशाली तबकों के ही हितों की नुमाइंदगी करते हैं। ऐसे में हमें वैकल्पिक प्रतिनिधि सभा पंचायतें बनाने के बारे में सोचना होगा जो यह सुनिश्चित करेंगी कि उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर, हर तरफ़ से, हर स्तर पर उत्पादन करने वालों का नियन्त्रण हो – फ़ैसले लेने और लागू करवाने की पूरी ताक़त उनके हाथों में केन्द्रित हो। यही सच्ची, वास्तविक जनवादी व्यवस्था होगी।

स्तालिन: पहले समाजवादी राज्य के निर्माता

मज़दूर वर्ग के पहले राज्य सोवियत संघ की बुनियाद रखी थी महान लेनिन ने, और पूरी पूँजीवादी दुनिया के प्रत्यक्ष और खुफ़ि‍या हमलों, साज़िशों, घेरेबन्दी और फ़ासिस्टों के हमले को नाकाम करते हुए पहले समाजवादी राज्य का निर्माण करने वाले थे जोसेफ़ स्तालिन। स्तालिन शब्द का मतलब होता है इस्पात का इन्सान – और स्तालिन सचमुच एक फ़ौलादी इन्सान थे। मेहनतकशों के पहले राज्य को नेस्तनाबूद कर देने की पूँजीवादी लुटेरों की हर कोशिश को धूल चटाते हुए स्तालिन ने एक फ़ौलादी दीवार की तरह उसकी रक्षा की, उसे विकसित किया और उसे दुनिया के सबसे समृद्ध और ताक़तवर समाजों की कतार में ला खड़ा किया। उन्होंने साबित कर दिखाया कि मेहनतकश जनता अपने बलबूते पर एक नया समाज बना सकती है और विकास के ऐसे कीर्तिमान रच सकती है जिन्हें देखकर पूरी दुनिया दाँतों तले उँगली दबा ले। उनके प्रेरक नेतृत्व और कुशल सेनापतित्व में सोवियत जनता ने हिटलर की फ़ासिस्ट फ़ौजों को मटियामेट करके दुनिया को फ़ासीवाद के कहर से बचाया। यही वजह है कि दुनिया भर के पूँजीवादी स्तालिन से जी-जान से नफ़रत करते हैं और उन्हें बदनाम करने और उन पर लांछन लगाने तथा कीचड़ उछालने का कोई मौका नहीं छोड़ते। सर्वहारा वर्ग के इस महान शिक्षक और नेता के निधन के 56 वर्ष बाद भी मानो उन्हें स्तालिन का हौवा सताता रहता है। वे आज भी स्तालिन से डरते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि रूस की और दुनिया भर की मेहनतकश जनता के दिलों में स्तालिन आज भी ज़िन्दा हैं।

माओ त्से-तुङ : हमारे समय के एक महानतम क्रान्तिकारी

माओ ने पहली बार यह स्पष्ट किया कि समाजवादी समाज में क्रान्तिपूर्ण समाज के अवशेष के रूप में बूर्जुआ विचार, परम्पराएं, मूल्य एवं आदतें एक लम्बे समय तक मौजूद रहती हैं और पर्याप्त अवधि तक छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन तथा लोगों के बीच असमानताओं एवं बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी के कारण पैदा हुई तरह-तरह की बुर्जुआ प्रवृत्तियाँ भी कम्युनिस्ट समाज की ओर गति की प्रतिकूल भौतिक शक्ति के रूप में काम करती रहती हैं। पार्टी के भीतर राज्य के संगठन में बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि मौजूद रहते हैं। जिसके कारण समाजवादी समाज में अन्तर्विरोध मौजूद रहते हैं जो समाजवादी संक्रमण की प्रक्रिया को बाधित करते रहते हैं। इस अन्तर्विरोध को हल करने के लिये माओ ने समाज के राजनीतिक-सांस्कृतिक (अधिरचना) दायरे में समाजवादी क्रान्ति को अन्त तक चलाने को अनिवार्य बताया।

लेनिन – फ्रेडरिक एंगेल्स की स्मृति में (जन्मतिथिः 28 नवम्बर, 1820)

1848-1849 के आन्दोलन के बाद निर्वासन-काल में मार्क्स और एंगेल्स केवल वैज्ञानिक शोधकार्य में ही व्यस्त नहीं रहे। 1864 में मार्क्स ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ’ की स्थापना की और पूरे दशक भर इस संस्था का नेतृत्व किया। एंगेल्स ने भी इस संस्था के कार्य में सक्रिय भाग लिया। ‘अन्तर्राष्ट्रीय संघ’ का कार्य, जिसने मार्क्स के विचारानुसार सभी देशों के सर्वहारा को एकजुट किया, मज़दूर आन्दोलन के विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण था। पर 19वीं शताब्दी के आठवें दशक में उक्त संघ के बन्द होने के बाद भी मार्क्स और एंगेल्स की एकजुटता विषयक भूमिका नहीं समाप्त हुई। इसके विपरीत, कहा जा सकता है, मज़दूर आन्दोलन के वैचारिक नेताओं के रूप में उनका महत्व सतत बढ़ता रहा, क्योंकि यह आन्दोलन स्वयं भी अरोध्य रूप से प्रगति करता रहा। मार्क्स की मृत्यु के बाद अकेले एंगेल्स यूरोपीय समाजवादियों के परामर्शदाता और नेता बने रहे। उनका परामर्श और मार्गदर्शन जर्मन समाजवादी, जिनकी शक्ति सरकारी यन्त्रणाओं के बावजूद शीघ्रता से और सतत बढ़ रही थी, और स्पेन, रूमानिया, रूस आदि जैसे पिछड़े देशों के प्रतिनिधि, जो अपने पहले कदम बहुत सोच-विचार कर और सम्भल कर रखने को विवश थे, सभी समान रूप से चाहते थे। वे सब वृद्ध एंगेल्स के ज्ञान और अनुभव के समृद्ध भण्डार से लाभ उठाते थे।