Category Archives: इतिहास

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (चौथी किश्त)

बेहद मुश्किल हालात के बावजूद, अपने थोड़े-से समय में कम्यून कुछ बड़े कदम उठाने में कामयाब रहा। कम्यून ने स्थायी सेना, यानी सत्ताधरी वर्गों के हाथों के इस दानवी अस्त्र के स्थान पर पूरी जनता को हथियारबन्द किया। उसने धर्म को राज्य से पृथक करने की घोषणा की, धार्मिक पंथों को राज्य से दी जानेवाली धनराशियाँ (यानी पुरोहित-पादरियों को राजकीय वेतन) बन्द कर दीं, जनता की शिक्षा को सही अर्थों में सेक्युलर बना दिया और इस तरह चोग़ाधारी पुलिसवालों पर करारा प्रहार किया। विशुद्ध सामाजिक क्षेत्र में कम्यून बहुत कम हासिल कर पाया, लेकिन यह ”बहुत कम” भी जनता की, मज़दूरों की सरकार के रूप में उसके स्वरूप को बहुत साफ तौर पर उजागर करता है। नानबाइयों की दुकानों में रात्रि-श्रम पर पाबन्दी लगा दी गयी। जुर्माने की प्रणाली का, जो मज़दूरों के साथ एक क़ानूनी डकैती थी, ख़ात्मा कर दिया गया। आखिरी चीज़, वह प्रसिद्ध आज्ञप्ति जारी की गयी, जिसके अनुसार मालिकों द्वारा छोड़ दिये गये या बन्द किये गये सारे मिल-कारख़ाने और वर्कशाप उत्पादन फिर से शुरू करने के लिए मज़दूरों के संघों को सौंप दिये गये। और सच्ची जनवादी, सर्वहारा सरकार के अपने स्वरूप पर ज़ोर देने के लिए कम्यून ने यह निर्देश दिया कि समस्त प्रशासनिक तथा सरकारी अधिकारियों के वेतन मज़दूर की सामान्य मज़दूरी से अधिक नहीं होंगे और किसी भी सूरत में 6000 फ़्रांक सालाना से ज्यादा नहीं होंगे। इन तमाम कदमों ने एकदम साफ तौर पर यह दिखा दिया कि कम्यून जनता की ग़ुलामी और शोषण पर आधारित पुरानी दुनिया के लिए घातक ख़तरा था। इसी कारण बुर्जुआ समाज तब तक चैन महसूस नहीं कर सका, जब तक पेरिस की नगर संसद पर सर्वहारा वर्ग का लाल झण्डा फहराता रहा।

मज़दूर आन्दोलन के क्रान्तिकारी पुनर्जागरण के लिए आगे बढ़ो! टुकड़ों-रियायतों के लिए नहीं, समूची आज़ादी के लिए लड़ो!

मज़दूर वर्ग को संगठित करने की तमाम वस्तुगत नयी चुनौतियों के साथ-साथ क्रान्तिकारी हरावलों के सामने एक मनोगत चुनौती भी आम तौर पर सामने आती है। मज़दूरों के बीच जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठनकर्ता, जो शुरुआती दौरों में अधिकांशत: मध्यवर्गीय सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं, अपने वर्गीय विचारधारात्मक विचलनों-भटकावों का शिकार होकर अर्थवाद, उदारतावाद और लोकरंजकतावाद के गड्ढे में जा गिरते हैं। उनके वर्गीय जड़-संस्कारों के चलते मज़दूरों की तात्कालिक आर्थिक लड़ाइयाँ या ट्रेड यूनियन क़वायदें राजनीतिक कार्य का स्थानापन्न बन जाती हैं। ये संगठनकर्ता भूल जाते हैं कि वे मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावल हैं और आम मज़दूरों के तात्कालिक आर्थिक हितों के दबावों के आगे घुटने टेक देते हैं। उनका सर्वहारा मानवतावाद बुर्जुआ मानवतावाद में बदल जाता है और क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यों का स्थान अर्थवादी-सुधारवादी कदमताल ले लेते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ऐसे संगठनकर्ता अपनी इस रूटीनी कवायदों में इस क़दर मगन हो जाते हैं उन्हें यही मज़दूरों के बीच असली क्रान्तिकारी कार्य लगने लगता है और क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्य लफ्फ़ाज़ी लगने लगती है। इस आत्मगत चुनौती को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। देश का क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन आज जिस शुरुआती मुकाम पर खड़ा है वहाँ इन भटकावों के लिए बेहद अनुकूल ज़मीन मौजूद है। मज़दूरों के क्रान्तिकारी हिरावलों का जो समूह इस चुनौती की भी ठीक से पहचान कर पायेगा और सही क्रान्तिकारी सांगठनिक पद्धति से उसका मुकाबला करेगा वही मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्य को आगे बढ़ाते हुए व्‍यावहारिक रूप से संगठित कर पायेगा।

मई दिवस की कहानी

”अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को… ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करनेवाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो… आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।”

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (तीसरी किश्त)

कम्यून के जीवनकाल में ही कार्ल मार्क्‍स ने लिखा था : ”यदि कम्यून को नष्ट भी कर दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ़ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धान्त शाश्वत और अनश्वर हैं, जब तक मज़दूर वर्ग मुक्त नहीं हो जाता, तब तक ये सिद्धान्त बार-बार प्रकट होते रहेंगे।” मजदूरों की पहली हथियारबन्द बग़ावत और पहली सर्वहारा सत्ता की अहमियत बताते हुए मार्क्‍स ने कहा था, ”18 मार्च का गौरवमय आन्दोलन मानव जाति को वर्ग-शासन से सदा के लिए मुक्त कराने वाली महान सामाजिक क्रान्ति का प्रभात है।”

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (दूसरी किश्त)

जब मज़दूर आन्दोलन ने काफ़ी अनुभव हासिल कर लिया और मज़दूर वर्ग ज्यादा अच्छी तरह संगठित हो गया तभी एक ऐसा वैज्ञानिक सिद्धान्त सामने आया जो मानवता को मुक्ति की सही राह पर ले जा सकता था। इस सिद्धान्त ने दिखाया कि अब तक का सामाजिक विकास किन मंज़िलों से होकर हुआ है और समाज विकास की सबसे ऊँची मंज़िल कम्युनिज्म तक जाने का रास्ता क्या होगा। इस सिद्धान्त के सृजक थे मज़दूर वर्ग के महान नेता कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्स। जर्मनी में जन्मे इन दो अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने नौजवानी की शुरुआत में ही अपने आपको तन-मन से क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया। मार्क्‍स और एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और सर्वहारा के संघर्ष की कार्यनीति बनायी। उन्होंने कहा, ”सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा और कुछ नहीं है।” मार्क्‍सवाद ने दिखाया कि सर्वहारा सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है और यह निजी मालिकाने की समूची व्यवस्था को नष्ट करने के संघर्ष में सारे मेहनतकश अवाम की अगुवाई करेगा। लेकिन यह नया सिद्धान्त दुनिया को बदलने वाली ज़बर्दस्त ताक़त तभी बन सकता था जब वह जनता के दिलो-दिमाग़ पर छा जाये।

मज़दूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक लेनिन

लेनिन ने बताया कि क्रान्ति करने के लिए मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी पार्टी का होना ज़रूरी है। इस पार्टी की रीढ़ ऐसे कार्यकर्ता होने चाहिए जो पूरी तरह से केवल क्रान्ति के लक्ष्य को ही समर्पित हों। उन्हें ऐसे कार्यकर्ताओं को पेशेवर क्रान्तिकारी कहा। इस पार्टी का निर्माण एक क्रान्तिकारी मज़दूर अखबार के माध्यम से शुरू होगा और यह जनता के बीच अपनी जड़ें गहरी जमा लेगी। उन्होंने कहा कि क्रान्तिकारी पार्टी पूरी तरह खुली होकर काम नहीं कर सकती, उसका केन्द्रीय ढाँचा गुप्त रहना चाहिए ताकि पूँजीवादी सरकार उसे ख़त्म नहीं कर सके। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्या करें’ में उन्होंने सर्वहारा वर्ग की नये ढंग की क्रान्तिकारी पार्टी के सांगठनिक उसूलों को प्रस्तुत किया, जिसके अलग-अलग पहलुओं को विकसित करने का काम वे आख़िरी समय तक करते रहे।

चार्टिस्टों का गीत / टॉमस कूपर Chartist Song / Thomas Cooper

एक समय वो आयेगा जब धरती पर
होगा आनन्द और उल्लास चहुँओर,
जब हत्यारी तलवारें ज़ंग खायेंगी म्यानों में,
जब भलाई के गीत गूँजेंगे, फ़ैक्ट्री में, खलिहानों में।

मज़दूर वर्ग और समाजवाद को समर्पित एक सच्चा बुद्धिजीवी: जॉर्ज थॉमसन

एक सच्चे कम्युनिस्ट योद्धा की तरह जॉर्ज थॉमसन अपनी आख़िरी साँस तक वर्ग युद्ध के मोर्चे पर डटे रहे। एक सच्चा क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी कैसा होना चाहिए, जॉर्ज थॉमसन इसकी मिसाल ताउम्र पेश करते रहे। वे सच्चे मायनों में जनता के आदमी थे। बौद्धिक प्रतिभा के इतने धनी होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्षों को समर्पित कर दिया। उनके हर संघर्ष में उनकी पत्नी एक सच्चे जीवन साथी की तरह उनके साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर चलती रहीं। 1987 में 84 वर्ष की उम्र में जॉर्ज थॉमसन ने दुनिया को अलविदा कहा। ऐसे सच्चे क्रान्तिकारी को हमारा क्रान्तिकारी सलाम!

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (प्रथम किश्त)

शुरुआती दौर में जब मज़दूरों ने अपनी माँगों के लिए हड़ताल करना शुरू किया तो उनके पस ऐसा कोई संगठन नहीं होता था जो हड़ताल के दौरान पैदा होने वाली एकजुटता को आगे भी क़ायम रख सके। मज़दूर वर्ग की सभी संस्थाएँ और संघ ग़ैर-क़ानूनी माने जाते थे इसलिए मज़दूरों ने गुप्त सोसायटियाँ बनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या और सक्रियता बढ़ती चली गयी। मज़दूरों के संघर्ष के कारण आख़िरकार इंग्लैण्ड की सरकार को 1824 में उन क़ानूनों को रद्द करना पड़ा जो संगठन बनाने को प्रतिबन्धित करते थे। इसके बाद जल्दी ही उद्योग की प्रत्येक शाखा में ट्रेड-यूनियनें बन गयीं जो बुर्जुआ वर्ग के अत्याचार और अन्याय से मज़दूरों को बचाने का काम करने लगीं। उनके उद्देश्य थे : सामूहिक समझौते से मज़दूरी तय कराना, मज़दूरी में यथासम्भव बढ़ोत्तरी कराना, कारखानों की प्रत्येक शाखा में मज़दूरी का समान स्तर क़ायम रखना। ऐसी कई यूनियनों ने मिलकर राष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों को एकजुट करने के प्रयास भी शुरू कर दिये। यूनियनों के संघर्ष के तरीके थे — हड़ताल, फिर हड़ताल तोड़ने वाले मज़दूरों का मुक़ाबला करना और यूनियन से बाहर रहने वाले मज़दूरों को शामिल होने के लिए राज़ी करना। यूनियनों की कार्रवाइयों से मज़दूरों की चेतना और संगठनबद्धता बहुत तेज़ी से बढ़ने लगी।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (बारहवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने बड़ी कुशलता के साथ पूँजीवादी विकास के अपने रास्ते को समाजवाद के आवरण में पेश किया। भाकपा, माकपा और कुछ अन्य कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियाँ भी इसी को समाजवाद की दिशा में कदम का दाम देती थीं और राष्ट्रीकरण की रट लगाती रहती थीं। आज भी ये पार्टियाँ सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर इस कदर मातम करती हैं मानो वास्तव में जनता से समाजवाद छीन लिया गया हो। क्या बड़े उद्योगों पर सरकार का स्वामित्व ही समाजवाद है? पूँजीवाद के तहत होने वाला राष्ट्रीकरण विशुद्ध पूँजीवाद ही होता है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के नौकरशाहों और टेक्नोक्रेट के रूप में एक विशाल नौकरशाह पूँजीपति वर्ग अस्तित्व में आया। इन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों से उगाहे गये अतिरिक्त मूल्य का हस्तगतकर्ता जनता नहीं थी। इसकी भारी मात्रा पूँजीपतियों को अपने उद्योगों के विकास में मदद के लिए थमा दी जाती थी और बाकी नौकरशाह पूँजीपतियों के नये वर्ग के ऐशो-आराम और विलासिता पर खर्च होती थी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शीर्षस्थ अफसर अपने ऊपर करोड़ों रुपये खर्च करते थे।