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कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (समापन किस्त)
उपसंहार-3
आनन्द सिंह
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सोवियत संघ में वास्तविक जनवाद क़ायम होने का सबसे बड़ा उदाहरण सोवियतें थीं जो गाँव के स्तर की प्रतिनिधिमूलक संस्थायें थीं। सोवियतें किस प्रकार काम करती थीं इसकी एक झलक हमें रूसी क्रान्ति के चश्मदीद गवाह अमेरिकी पत्रकार अल्बर्ट रीस विलियम्स की पुस्तक ‘अक्टूबर क्रान्ति और लेनिन’ में मिलती हैं। इस पुस्तक में विलियम्स लिखते हैं, “सोवियतें जनता के दैनिक अनुभवों का अंग बन गयी थीं। इनके द्वारा उन्होंने अपनी हार्दिक आकांक्षायें पूरी की थीं। इन सोवियतों को चुनने वाले लोग मेहनतकश और शोषित जनसाधारण थे। बुर्जुआ वर्ग को वर्जित किया गया था। चुनाव की सारी नौकरशाही औपचारिकतायें ख़त्म कर दी गई थीं। जनसाधारण ख़ुद चुनाव की व्यवस्था और तारीख निर्धारित करते थे। उन्हें किसी भी चुने हुए व्यक्ति को कभी भी वापस बुलाने का पूरा अधिकार और पूरी आज़ादी थी।”
सोवियतों के बारे में लेनिन ने लिखा है, “इन सोवियतों के हाथ में केवल क़ानून बनाने और उन्हें लागू करने के अधिकार ही नहीं थे, बल्कि सोवियतों के सभी सदस्यों के मार्फ़त क़ानूनों को प्रत्यक्ष रूप से लागू करने के अधिकार भी थे। ताकि धीरे-धीरे समूची आबादी विधायी प्रकार्य और राजनीतिक प्रशासन के संचालन में पदार्पण कर सके।”
प्रबोधनकालीन आदर्शों स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के वास्तव में अमल में आने का दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण चीन में वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सम्पन्न हुई 1949 की नवजनवादी क्रान्ति के बाद देखने को मिला। क्रान्ति पूर्व चीन एक बेहद पिछड़ा हुआ अर्द्ध-सामन्ती और अर्द्ध-औपनिवेशिक देश था जहाँ की बहुसंख्यक किसान आबादी ग़रीबी, कंगाली, भुखमरी और कुपोषण से त्रस्त थी। हर साल लगभग 40 लाख लोग बीमारी और दवा के अभाव में दम तोड़ देते थे। वहाँ की 6 करोड़ आबादी अफ़ीम की लत का शिकार थी। वहाँ महिलाओं को दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा जाता था, आज के भारत की तरह वहाँ भी कन्या भ्रूण हत्या आम बात थी, वहाँ भी विवाह तय करने में मुख्य भूमिका माता-पिता और रिश्तेदारों की होती थी और युवाओं को अपना जीवनसाथी चुनने का कोई अधिकार नहीं था। इसके अतिरिक्त वहाँ एक बर्बर प्रथा यह थी कि छोटी बच्चियों के पैरों को 2-5 वर्ष की आयु से ही एक ख़ास क़िस्म के छोटे से जूते से नत्थी कर दिया जाता था ताकि उनके पैर न बढ़ सकें और सुडौल और सुन्दर दिखें। ऐसे पिछड़े और बर्बर संस्कृति वाले देश में क्रान्ति ने जो किया वह किसी चमत्कार से कम नहीं था।
क्रान्ति के बाद चीन में योजनाबद्ध विकास की शुरुआत हुई जिसमें गाँवों एवं शहरों के अन्तर, कृषि एवं उद्योग के अन्तर तथा शारीरिक श्रम एवं मानसिक श्रम के अन्तर को ख़त्म करने पर सचेतन रूप से बल दिया गया। इस योजनाबद्ध विकास का नतीजा यह हुआ कि जहाँ भारत जैसे देश आज तक खाद्य समस्या और कुपोषण जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं वहीं चीन 1970 के दशक तक आते-आते इन समस्याओं से पूरी तरह मुक्त हो चुका था, उसकी वार्षिक औद्योगिक विकास दर औसतन दस फीसदी से ऊपर और कृषि में विकास दर 3 फीसदी से ऊपर थी, जीवन प्रत्याशा जो 1949 में 32 वर्ष थी वह 1976 में 65 वर्ष हो चुकी थी, शिशु मृत्यु दर में ज़बर्दस्त गिरावट देखने को आयी थी जिसका अन्दाज़ा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1970 के दशक की शुरुआत में शंघाई की शिशु मृत्यु दर न्यूयार्क सिटी से भी कम थी। स्वास्थ्य की समस्या को हल करने के लिए महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान स्वास्थ्य विश्वप्रसिद्ध ‘बेयरफूट डाक्टर्स’ अभियान चलाया गया जिसमें लाखों युवा किसानों और शहरी युवाओं को प्रारम्भिक चिकित्सा की तकनीकों का प्रशिक्षण देकर देश भर के गाँवों और कस्बों में भेजा गया। जहाँ अमेरिका जैसे विकसित देशों में सार्वभौमिक स्वास्थ्य व्यवस्था आज तक नहीं उपलब्ध हो पायी है वहीं चीन ने यह क्रान्ति के दो दशक बाद समाज के हर सदस्य को बेहद सस्ती दर पर चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराकर समूचे विश्व को चकित कर दिया था।
क्रान्ति के बाद चीन में महिलाओं की स्थिति में गुणात्मक बदलाव आया। जहाँ क्रान्ति के पहले वे चहारदीवारियों में क़ैद रहती थीं, वहीं क्रान्ति के बाद बड़े पैमाने पर सामुदायिक भोजनालयों, सामुदायिक लॉण्ड्री, शिशु घरों आदि को बढ़ावा देने से महिलाएँ सामाजिक उत्पादन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगीं। क्रान्ति के कुछ ही महीनों के भीतर विवाह क़ानून 1950 बनाया गया जिसमें लड़के और लड़कियों की मर्ज़ी से शादी, तलाक़ का अधिकार, बच्चों के बेचने और भ्रूण हत्या पर पाबन्दी लगा दी गई थी। पूँजीवादी देशों की तरह ये महज़ कागज़ पर दिखने वाले क़ानूनी प्रावधान नहीं थे बल्कि इनको वास्तव में अमल में लाया गया था जिसकी वजह से चीन के ज्ञात इतिहास में पहली बार सामाजिक और राजनीतिक जीवन में महिलाओं को वास्तव में पुरुषों से बराबरी का दर्ज़ा मिल सका।
1949 की क्रान्ति के तुरन्त बाद चीन में “ज़मीन जोतने वाले को” के नारे के आधार पर क्रान्तिकारी भूमि सुधार हुए जो किसी भी उत्तर-औपनिवेशिक देश की तुलना में सबसे जल्दी और सबसे प्रभावी तरीक़े से सम्पन्न हुए। ग़ौरतलब है कि हालाँकि 1949 की चीनी क्रान्ति वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सम्पन्न हुई थी, फ़िर भी वह एक समाजवादी क्रान्ति नहीं बल्कि एक नवजनवादी क्रान्ति थी क्योंकि 1949 तक चीनी समाज में प्रभावी उत्पादन सम्बन्ध अर्द्ध-सामन्ती और अर्द्ध-औपनिवेशिक था जिसकी वजह से वहाँ मुख्य अन्तर्विरोध सामन्तवाद और उपनिवेशवाद से था। यही वजह थी कि क्रान्ति के बाद 1954 में जब चीन का पहला संविधान बना तो उसमें चीनी राज्य को सर्वहारा की तानाशाही वाला समाजवादी राज्य नहीं बल्कि सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व और मज़दूर-किसान संश्रय पर आधारित जनता का लोकतान्त्रिक राज्य घोषित किया गया। इस संविधान में सारी सत्ता जनता को देने की घोषणा थी और राज्य के कामकाज केन्द्रीय स्तर पर राष्ट्रीय जन-कांग्रेस और विभिन्न स्तरों पर स्थानीय जन-कांग्रेसों के ज़रिये चलाने की बात कही गई थी। इसमें चीन की सभी राष्ट्रीयताओं को समानता का अधिकार और भेदभाव एवं उत्पीड़न से आज़ादी की भी बात कही गई थी। शोषण की व्यवस्था को ख़त्म कर क्रमशः समाजवादी समाज की ओर बढ़ने की भी बात कही गई थी। इसमें समूची जनता के स्वामित्व वाले सार्वजनिक उपक्रमों और राज्य फार्मों के अतिरिक्त स्वामित्व के अन्य रूपों जैसे कि सामूहिक खेती, सहकारी खेती और यहाँ तक कि निजी खेती और निजी उद्योगों के भी अधिकार दिये गये थे। परन्तु 1954 के संविधान बनने के कुछ ही वर्षों के भीतर ही चीन में समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। 1958 में ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ आन्दोलन के साथ ही जब समाजवादी संक्रमण ने आगे डग भरे तो जन-कम्यूनों का निर्माण पूरे चीन में एक व्यापक मुहिम के रूप में शुरू हुआ और जल्दी ही चीन की 50 करोड़ किसान आबादी 26,000 कम्यूनों में संगठित हो गई। पेरिस कम्यून के अमर नायक सर्वहारा जनवाद का जो मॉडल पेश करना चाहते थे, चीन के जन-कम्यूनों ने उन्हें साकार कर दिखाया। इन कम्यूनों ने तृण मूल स्तर पर जनवाद को लागू किया। कम्यून को अपने क्षेत्र के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक फैसलों को लेने की पूरी आज़ादी थी। सस्ते, स्थानीय विधायी एवं कार्यकारी संस्था का यह जनवादी ढाँचा व्यापक जनता की पहलक़दमी व सर्जनात्मकता को जागृत करने के साथ ही सर्वहारा वर्ग की केन्द्रीय सत्ता के व्यापक आधार का कार्य भी करता था। आगे चलकर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान कम्यूनों और सोवियतों के प्रयोग को ही विस्तार देते हुए क्रान्तिकारी कमेटियों का गठन किया गया। इनके पीछे माओ का तर्क था कि पूँजीवादी पुर्नस्थापना को रोकने के लिए शासन और निर्णय की प्रक्रिया में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी ज़्यादा से ज़्यादा क़ायम करके सर्वहारा राज्य के आधारों को विस्तारित करना आवश्यक है। चीनी समाज में आये इन आमूलचूल बदलावों के मद्देनज़र 1954 का संविधान अप्रासंगिक हो चला था। अतः 1975 में एक नया संविधान बनाया गया जिसमें स्पष्ट रूप से घोषित किया गया कि चीन सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व और मज़दूर-किसान संश्रय पर आधारित सर्वहारा की तानाशाही वाला एक समाजवादी राज्य है। इस संविधान में निजी सम्पत्ति के समूल नाश और जन-कम्यूनों और क्रान्तिकारी कमेटियों को वैधता देते हुए प्रावधान भी मौजूद थे।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि माओ की मृत्यु के बाद सत्तासीन हुई नयी पूँजीवादी सत्ता ने पहला काम यह किया कि क्रान्तिकारी कमेटियों को गैरक़ानूनी क़रार दे दिया। इसके कुछ ही वर्षों बाद गाँवों और कारखानों से जन-कम्यूनों को भंग करने की भी शुरुआत हो गई। ऐसा नये शासकों के लिए ज़रूरी था क्योंकि जन प्रतिनिधित्व की सर्वहारा संस्थाओं को भंग किये बिना वे निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को लागू कर ही नहीं सकते थे।
पेरिस कम्यून, सोवियतें, चीन के जन-कम्यून और क्रान्तिकारी कमेटियों के प्रयोगों ने यह साफ दिखाया कि स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के जिन आदर्शों से पूँजीपति वर्ग मुँह मोड़ चुका है उन्हें वास्तव में अमल में लाने की क्षमता केवल सर्वहारा वर्ग में ही है। इन प्रयोंगों ने यह भी साबित किया कि महँगी, भ्रष्ट, धोखाधड़ी से भरपूर पूँजीवादी संसदीय प्रणाली का विकल्प महज़ किताबी बात नहीं है, बल्कि सर्वहारा क्रान्तियों के गुजरे हुए प्रारम्भिक चक्र के दौरान ही मेहनतकश जनता इन्हें धरती पर साकार भी कर चुकी है।
भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र के छलावे का विकल्प भी हमें सर्वहारा जनवाद की ऐसी ही संस्थायें दे सकती हैं जिन्हें हम लोकस्वराज्य पंचायतों का नाम दे सकते हैं। ज़ाहिर है ऐसी पंचायतें अपनी असली प्रभाविता के साथ तभी सक्रिय हो सकती हैं जब समाजवादी जनक्रान्ति के वेगवाही तूफ़ान से मौजूदा पूँजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंका जायेगा। परन्तु इसका यह अर्थ हरगिज़ नहीं कि हमें पूँजीवादी जनवाद का विकल्प प्रस्तुत करने के प्रश्न को स्वतः स्फूर्तता पर छोड़ देना चाहिए। हमें इतिहास के अनुभवों के आधार पर आज से ही इस विकल्प की रूपरेखा तैयार करनी होगी और उसको अमल में लाना होगा। इतना तय है कि यह विकल्प मौजूदा पंचायती राज संस्थाओं में नहीं ढूँढा जाना चाहिए क्योंकि ये पंचायतें तृणमूल स्तर पर जनवाद क़ायम करने की बजाय वास्तव में मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के सामाजिक आधार को विस्तृत करने का ही काम कर रही हैं और इनमें चुने जाने वाले प्रतिनिधि आम जनता का नहीं बल्कि सम्पत्तिशाली तबकों के ही हितों की नुमाइंदगी करते हैं। ऐसे में हमें वैकल्पिक प्रतिनिधि सभा पंचायतें बनाने के बारे में सोचना होगा जो यह सुनिश्चित करेंगी कि उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर, हर तरफ़ से, हर स्तर पर उत्पादन करने वालों का नियन्त्रण हो – फ़ैसले लेने और लागू करवाने की पूरी ताक़त उनके हाथों में केन्द्रित हो। यही सच्ची, वास्तविक जनवादी व्यवस्था होगी।
आइये एक ऐसी व्यवस्था और शासनप्रणाली के बारे में सोचें, जहाँ गाँव-गाँव के स्तर पर, कारखानों के स्तर पर और शहरी मुहल्लों के स्तर पर किसान, मज़दूर और आम मध्यवर्गीय जनता अपनी पहल पर खड़ी की गई प्रतिनिधिमूलक पंचायती संस्थाओं में संगठित हो। वे अपने स्तर पर प्रशासकीय और न्यायकारी दायित्व भी सँभालें और ऊपर के स्तर के लिए अपने प्रतिनिधियों का प्रत्यक्षतः चुनाव करते हों जिसमें न तो धन की और न ही नौकरशाही की कोई भूमिका हो। ये पंचायतें गाँवों, मुहल्लों, जिलों और राज्यों से लेकर केन्द्रीय स्तर तक एक पिरामिडीय संरचना में एक दूसरे से सम्बद्ध होंगीं। निर्वाचक मण्डलों का आकार छोटा होगा ताकि ऐसा न हो कि कोई प्रत्याशी धन की कमी की वजह से अपनी बात लोगों तक नहीं पहुँचा सके। इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि हर आम नागरिक को चुनने और चुने जाने का समान अधिकार हो। पर शोषक वर्गों को यह अधिकार तभी मिलने चाहिए जब नयी व्यवस्था के प्रति उनकी वफ़ादारी सिद्ध हो जाये। निर्वाचकों को यह भी पूरा अधिकार हो कि चुने गये प्रतिनिधियों को वे जब चाहें वापस बुला सकते हों। हर स्तर की पंचायत के सदस्यों को अपने स्तर पर फैसले लेने और लागू करने का अधिकार हो, पर उनकी यह स्वायत्तता पूरे मेहनतकश राज्य के सम्पूर्ण हितों के मातहत हो, जिसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी केन्द्रीय स्तर की पंचायत की हो। चुने हुए प्रतिनिधियों का वेतन आम मेहनतकशों के बराबर हो और उन्हें कोई भी विशेषाधिकार न प्राप्त हो। प्रशासन और प्रबन्धन का ज़्यादातर काम जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की कमेटियों द्वारा अंजाम दिये जायें। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसमें नीतियाँ बनाने वाले (विधायिका) और उन्हें लागू करने वाले (कार्यपालिका) के बीच अन्तर नहीं होगा। ऊपर से नीचे तक इस पिरामिडीय संरचना में विकेन्द्रीकरण और केन्द्रीकरण दोनों के तत्व मौजूद होंगे। शुरू में वेतनभोगी नौकरशाही की मज़बूरी भी हो तो यह नौकरशाही मज़दूर राज्य के अवयव – अपने स्तर की पंचायत के मातहत हो और धीरे-धीरे नौकरशाही तन्त्र के सम्पूर्ण ख़ात्मे की प्रक्रिया जारी रहे। इस प्रकार के ढाँचे में नीचे से ऊपर तक जननिगरानी की वजह से भ्रष्टाचार की समस्या का भी समाधान सम्भव हो सकेगा।
मौजूदा व्यवस्था के अन्तर्गत व्यापक जनता की पहल पर गठित ऐसी प्रतिनिधि सभाओं को कोई संवैधानिक अधिकार भले ही न हासिल हो, लेकिन क्रान्तिकारी शक्तियों को जनता का आह्वान करना चाहिए कि वह बुर्जुआ संसदीय प्रणाली और फर्जी पंचायती राज्य के सारे छल-छद्म की जवाबी कार्रवाई के तौर पर गाँव-गाँव और औद्योगिक क्षेत्रों में, लोक स्वराज्य पंचायतों का गठन करना शुरू कर दे। हो सकता है कि ऐसी प्रतिनिधि सभा पंचायतों का गठन शुरुआती दौर में पूँजीवादी संसदीय प्रणाली को ख़ारिज करने की एक प्रतीकात्मक प्रक्रिया मात्र हो, पर जनसंघर्षों के आगे बढ़ने की प्रक्रिया में ऐसी प्रतिनिधि संस्थाओं का गठन और इनके अस्तित्व का बने रहना एक कारगर हथियार बन सकता है और धीरे-धीरे ऐसी प्रतिनिधि संस्थाएँ जनता की क्रान्तिकारी समानान्तर सत्ता का केन्द्र बनकर उभर सकती हैं।
अतः हमें साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध नयी सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी के इस दौर में सच्चे जनवाद की बहाली के लिए लोकस्वराज्य पंचायतों के गठन का नारा बुलन्द करना होगा। साथ ही साथ हमें मात्र 11 फ़ीसदी लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली संविधान सभा द्वारा निर्मित जनविरोधी पूँजीवादी संविधान को रद्दोबदल करके एक नया संविधान बनाने के लिए सार्विक मताधिकार के आधार पर गठित एक नयी संविधान सभा बुलाने का नारा भी बुलन्द करना होगा।
मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014
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