Category Archives: इतिहास

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (ग्यारहवीं किस्त)

पिछले साठ वर्षों के बीच ”लोकतन्‍त्रात्मक गणराज्य” या ”जनवादी गणराज्य” का जो अमली रूप सामने आया है उसने जनता के साथ हुई धोखाधड़ी को एकदम नंगा कर दिया है। इस बात का प्राय: बहुत अधिक डंका पीटा जाता है कि भारत का बहुदलीय संसदीय जनवाद साठ वर्षों से सुचारु रूप से चल रहा है। बेशक शासक वर्गों की इस हुनरमन्‍दी को मानना पड़ेगा कि साठ वर्षों से यह धोखाधड़ी जारी है! मगर सच यह भी है कि असलियत जनता से छुपी नहीं रह गयी है। यदि जनवाद का यह वीभत्स प्रहसन जारी है तो इसके पीछे बुनियादी कारण है राज्यसत्ता का दमन तन्‍त्र, शासक वर्गों द्वारा चतुराईपूर्वक अपने सामाजिक आधारों का विस्तार तथा जनता के जाति-धर्म के आधारों पर बाँटने के कुचक्रों की सफलता। लेकिन इससे भी बड़ा बुनियादी कारण है, इस व्यवस्था के किसी व्यावहारिक क्रान्तिकारी विकल्प का संगठित न हो पाना।

ऐतिहासिक मई दिवस से मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के नये दौर की शुरुआत

पिछली 1 मई को नई दिल्ली के जन्तर-मन्तर का इलाक़ा लाल हो उठा था। दूर-दूर तक मज़दूरों के हाथों में लहराते सैकड़ों लाल झण्डों, बैनर, तख्तियों और मज़दूरों के सिरों पर बँधी लाल पट्टियों से पूरा माहौल लाल रंग के जुझारू तेवर से सरगर्म हो उठा। देश के अलग-अलग हिस्सों से उमड़े ये हज़ारों मज़दूर ऐतिहासिक मई दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के मौक़े पर मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन 2011 क़े आह्वान पर हज़ारों मज़दूरों के हस्ताक्षरों वाला माँगपत्रक लेकर संसद के दरवाज़े पर अपनी पहली दस्तक देने आये थे।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (दसवीं किस्त)

भारत जैसे किसी भी कृषि प्रधान पिछड़े हुए समाज में क्रान्तिकारी ढंग से भूमि-सम्बन्धों को बदले बिना व्यापक जनसमुदाय की सामूहिक पहलक़दमी और सामूहिक निर्णय की शक्ति विकसित ही नहीं की जा सकती थी और ऐसा किये बिना साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद भी सम्भव नहीं हो सकता था। चीन की लोक जनवादी क्रान्ति ने यही काम कर दिखाया था, जबकि भारत में यह सम्भव नहीं हो सका। इसके चलते भारतीय जनता न तो आन्तरिक तौर पर सम्प्रभुता-सम्पन्न हो सकी और न ही बाहरी तौर पर। संविधान में उल्लिखित सम्प्रभुता महज़ जुमलेबाज़ी ही बनकर रह गयी।

शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी

अपने संघर्ष के दौरान मज़दूर वर्ग ने बहुत-से नायक पैदा किये हैं। अल्बर्ट पार्सन्स भी मज़दूरों के एक ऐसे ही नायक हैं। यह कहानी अल्बर्ट पार्सन्स और शिकागो के उन शहीद मज़दूर नेताओं की है, जिन्हें आम मेहनतकश जनता के हक़ों की आवाज़ उठाने और ‘आठ घण्टे के काम के दिन’ की माँग को लेकर मेहनतकशों की अगुवाई करने के कारण 11 नवम्बर, 1887 को शिकागो में फाँसी दे दी गयी। मई दिवस के शहीदों की यह कहानी हावर्ड फास्ट के मशहूर उपन्यास ‘दि अमेरिकन’ का एक हिस्सा है। इसमें शिलिंग नाम का बढ़ई मज़दूर आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले जज पीटर आल्टगेल्ड को अल्बर्ट पार्सन्स की ज़िन्दगी और शिकागो में हुई घटनाओं और मज़दूर नेताओं की कुर्बानी के बारे में बताता है।

एक नयी पहल! एक नयी शुरुआत! एक नयी मुहिम! मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफ़ानी जनान्दोलन बनाओ!

इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम की शक्तियों के बीच निर्णायक युद्ध होना ही है। मेहनतकशों के सामने नारकीय ग़ुलामी, अपमान और बेबसी की ज़िन्दगी से निज़ात पाने का मात्र यही एक रास्ता है। गुज़रे दिनों की पस्ती-मायूसी भूलकर और पिछली हारों से ज़रूरी सबक लेकर एक नयी लड़ाई शुरू करनी होगी और जीत का भविष्य अपने हाथों गढ़ना होगा। शुरुआत पूँजीवादी हुकूमत के सामने अपनी सभी राजनीतिक माँगों को चार्टर के रूप में रखने से होगी। मज़दूरों को भितरघातियों, नकली मज़दूर नेताओं और मौक़ापरस्तों से होशियार रहना होगा। रस्मी लड़ाइयों से दूर रहना होगा। मेहनतकश की मुक्ति स्वयं मेहनतकश का काम है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (नवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में तो राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भी जुझारू भौतिकवाद और क्रान्तिकारी जनवाद का झण्डा नहीं था। यह पुनर्जारण-प्रबोधन की प्रक्रिया से आगे नहीं बढ़ा था, यह कृषि-दस्तकारी-मैन्युफैक्चरिंग की नैसर्गिक गति से विकसित न होकर औपनिवेशिक सामाजिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ था। गाँधी का क्लासिकी बुर्जुआ मानवतावाद भी जुझारू तर्कणा नहीं बल्कि धार्मिक सुधारवादी था और उनका धार्मिक सुधारवाद तोल्स्तोय से भी काफी पीछे था। दलितों के नेता अम्बेडकर भी जुझारू सामाजिक संघर्षों और रैडिकल भूमि सुधार के विरोधी थे, वे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के संवैधनिक सुधारवाद के भक्त थे और फ्रांसीसी जन क्रान्ति जैसे जिस सामाजिक तूफान ने बुर्जुआ जनवादी मूल्यों (जिनके वे हामी थे) को जन्म दिया, वैसी किसी जन क्रान्ति से भी उनका परहेज़ था।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (आठवीं किस्त)

अम्बेडकर को लेकर भारत में प्रायः ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय “सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा मार्क्‍सवादी स्थापनाओं या आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है? अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, ऐतिहासिक विश्लेषण-पद्धति, उनके आर्थिक सिद्धान्तों और समाज-व्यवस्था के मॉडल पर ढंग से कभी बहस ही नहीं हो पाती।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सातवीं किस्त)

संविधान निर्माण के लिए गठित प्रारूप कमेटी ने 27 अक्टूबर 1947 को अपना काम शुरू किया। लेकिन सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र, ”इण्डियन सिविल सर्विसेज़” के कुछ घुटे-घुटाये नौकरशाह संविधान का एक प्रारूप पहले ही तैयार कर चुके थे। इनमें पहला नाम था सर बी.एन. राव का, जो संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे। दूसरा नाम था संविधान के मुख्य प्रारूपकार एस.एन. मुखर्जी का। इन दो महानुभावों ने 1935 के क़ानून के आधार पर संविधान का मसौदा तैयार किया था और संविधान सभा के कर्मचारियों ने उनकी मदद की थी। इस सच्चाई को अम्बेडकर ने भी प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष की हैसियत से 25 नवम्बर 1947 को दिये गये अपने लम्बे भाषण में भी स्वीकार किया था। संविधान सभा की प्रारूप कमेटी का काम था पहले से ही तैयार प्रारूप की जाँच करना और आवश्यकता होने पर संशोधन हेतु सुझाव देना। इस तथ्य को संविधान सभा के एक सदस्य सत्यनारायण सिन्हा ने भी स्वीकार किया है।

कश्मीर समस्या का चरित्र, इतिहास और समाधान

सैन्य-दमन का ख़ात्मा कश्मीर में मौजूदा ढाँचे के भीतर कर पाना भारतीय शासक वर्ग की किसी भी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल है। जो पार्टी स्वायत्ता या जनमत संग्रह की बात को मानेगी, वह पूँजीवादी राजनीति के दायरे के भीतर अपनी ही कब्र खोदेगी। कश्मीरी जनता की जो मूल माँगें हैं, यानी स्वायत्ता और आत्मनिर्णय का अधिकार, वे सैन्य-दमन के रास्ते से कभी ख़त्म नहीं होंगी। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ये माँगें कभी मानी जायेंगी इसकी सम्भावना काफी क्षीण है और कभी सैन्य-दमन और कभी जनता को सड़कों पर थका देने की रणनीति और कभी इन दोनों रणनीतियों के मिश्रण से भारतीय शासक वर्ग कश्मीर पर अपने अधिकार को कमोबेश इसी रूप में कायम रखने का प्रयास करता रहेगा।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (पाँचवीं किस्त)

15 अगस्त 1947 को मिली खण्डित और रक्तरंजित राजनीतिक स्वाधीनता ने देश की जनता में हर्ष-विषाद के मिले-जुले भाव उत्पन्न किये। लोग आधी रात को भारत की ”नियति के साथ करार” पर नेहरू के भाषण को सुनकर भावुक भी हो रहे थे, दूसरी ओर देश की परिस्थितियों को लेकर विषाद और आशंका के भाव भी थे। जनता के सुदीर्घ संघर्षों ने औपनिवेशिक ग़ुलामी के दिनों को पीछे धकेल दिया था और इतिहास ने आगे डग भरा था। लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन के बुर्जुआ नेतृत्व का विश्वासघात और समझौतापरस्ती भी एक वास्तविकता थी, जिसे 1947 में तो कम लोगों ने समझा था लेकिन दो दशक बीतते-बीतते भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र का चेहरा बहुसंख्यक आबादी के सामने नंगा हो चुका था।