Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

दिल्ली मेट्रो की चकाचौंध के पीछे की काली सच्चाई

सफाई कर्मचारी ही नहीं मेट्रो के सभी कामगारों के हालात कमोबेश एक जैसे हैं, चाहे अपनी जान को जोखिम में डालकर कांस्ट्रक्शन में दिन-रात खटने वाले मजदूर हों या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड व अन्य वर्कर किसी को भी उनके जायज हक और सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। किसी को कभी भी बिना कारण बताये काम पर से हटा दिया जाता है। वह दिन दूर नहीं जब एक जैसे हालात में काम करने वाले मेट्रो के सभी कर्मचारी इस बात को समझेंगे और अपने हकों के लिए एकजुट होकर आवाज बुलंद करेंगे। अधिकार माँगने से नहीं मिलते वरन उनके लिए संघर्ष करना पड़ता है। मजदूर अपने रोजमर्रा के अनुभवों से अच्छी तरह जानते हैं कि अकेले अपने दम पर वे भ्रष्ट मेट्रो प्रशासन और लुटेरे ठेकेदारों से नहीं लड़ सकते, उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करना ही होगा।

कम्पनी के लिए एक मज़दूर की जान की क़ीमत महज़ 50,000 रुपये

पैसे की हवस फिर एक मज़दूर की ज़िन्दगी को लील गयी। जिस उम्र में एक नौजवान को स्कूल कॉलेज में होना चाहिये था उस उम्र में वह नौजवान फ़ैक्ट्री में मालिकों के मुनाफ़े के लिए हाड़-माँस गलाते हुए असमय मौत का शिकार बन गया। मालिकों ने मज़दूर की एक ज़िन्दगी को 50,000 रुपये में तौल दिया। रात को जब चारों ओर सन्नाटा था तो सोनू की माँ की चीख-चीख कर रोने की आवाज़ अन्तरात्मा पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ रही थी। और सवाल कर रही थी कि हमारे मज़दूर साथी कब तक इस तरह मरते रहेंगे। कुछ लोगों के लिए हर घटना की तरह यह भी एक घटना थी उसके बाद वे अपने कमरे में जाकर सो गये। क्या वाकई 10-12 घण्टे के काम ने हमारी मानवीय भावनाओं को इस तरह कुचल दिया है कि ऐसी घटनाओं को सुनकर भी इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की आग नहीं सुलग उठती। एक बार अपनी आत्मा में झाँककर हमें ये सवाल ज़रूर पूछना चाहिए।

एवन साइकिल के मजदूरों की हड़ताल – चुप्पी अब टूट रही है!

एवन साइकिल में बहुत देर से अन्दर ही अन्दर आग धधक रही थी, जिसने अब लपटों का रूप धारण कर लिया है। कुछ समय पहले जी.टी. रोड पर स्थित यूनिट दो के मजदूरों ने कुछ घंटों के लिए हड़ताल की थी, जिस पर मजदूरों को धमकाने के लिए मालिकों ने गुंडों की मदद ली थी। इस पर मजदूरों का गुस्सा और भी भड़क उठा था। हजारों मजबूत हाथ जब एकजुट हुए तो मालिकों के टुकड़ों पर पलने वाले गुंडों को भागने का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। एक बार तो मजदूरों और मालिकों में समझौता हो गया और मजदूरों ने हड़ताल वापस ले ली, पर मजदूरों की मांगें वैसे ही लटकती रहीं।

चिता पे जिनके पांव नहीं जलते… – नमक मजदूरों की दिल दहलाने वाली दास्तान

विश्व के दूसरे मजदूरों की ही भांति भारत में भी नमक के खेतों में काम करने वाले मजदूर बदहाली का जीवन जी रहे हैं। सरकार के मुताबिक करीब एक लाख मजदूर नमक उद्योग में लगे हुए हैं लेकिन वास्तव में इनकी गिनती तीन लाख से भी ज्यादा है। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या गुजरात के नमक मजदूरों की है।

इधर कुआं उधर खाई

मैं कंट्रोल एंड स्विचगियर कम्पनी (प्लाट नं. ए–7 और 8 से 8, नोएडा –में एक परमानेंट मजदूर हूं। मुझे इस कम्पनी में हड्डियां गलाते हुए 10 साल हो गये। मुझे केवल 2500 रु. मिलते हैं। सरकार की तरफ से जो डी.ए. मिलता था वह भी कम्पनी ने देना बंद कर दिया है। मजदूर कैजुअल हो या परमानेंट यह डी.ए. सभी के लिए होता है पर कम्पनी उसे हमें देती ही नहीं। काम करने की दशा यह है कि हम सुबह 9 बजे यहां घुसते हैं और रात 10–11 बजे घर जाते हैं। सारा दिन प्रोडक्शन का भूत सवार रहता है। अगर एक–दो मिनट थोड़ी थकान दूर करने के लिए सुस्ताने लगें तो फौरन गेट पर खड़ा करने की धमकी मिलती है।

पंतनगर के मजदूर संघर्ष की राह पर – प्रशासन दमन पर आमादा

प्रशासन मजदूरों को गुमराह करने का असफल प्रयास भी कर रहा है। यहां की स्थिति एक बार फिर 1978 के ऐतिहासिक संघर्ष की याद दिला रही है और दमन के वैसे ही मंजर का अहसास करा रही है। निश्चित रूप से परिस्थितियां पहले से काफी भिन्न हैं। लेकिन इतिहास की यह एक कड़वी सच्चाई है कि दमन का पाटा जितना तेज चलता है मजदूरों का संघर्ष उतना ही निखरता जाता है।

भूमण्डलीकरण को ‘मानवीय’ बनाने में जुटे संसदीय वामपंथियों का असली अमानवीय चेहरा

भूमण्डलीकरण के चेहरे को मानवीय बनाने में जुटे संसदमार्गी वामपंथियों का असली चरित्र भी लोगों के सामने बिल्कुल साफ हो चुका है। पिछले एक साल में पश्चिम बंगाल के 14 चायबागानों में भुखमरी से 320 श्रमिकों की मौत से एक बार फिर यही साबित हुआ है कि अपने को आम लोगों की असली पार्टी बताने वाले संसदीय वाम के नंबरदार किस तरह इस पूंजीवादी व्यवस्था को ‘‘मानवीय’’ बनाते–बनाते खुद अमानवीय हो गये हैं।

कहानी : बदबू / शेखर जोशी

साहब ने तुम्हारी बदली कास्टिक टैंक पर कर दी है, बड़ा सख्त काम हैं, अब भी साहब को खुश कर सको तो बदली रुक सकती है। उत्तर में उसने कुछ नहीं कहा। उठकर कास्टिक टैंक पर चला गया। टैंक पर काम करने वाले मजदूरों ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया। उसे ऐसा लगा कि जैसे वे लोग जान-बूझकर उससे पृथक रहने का प्रयत्न कर रहे हों। पुराने पेंट’ और जंग लगे हुए सामान को कास्टिक में धोया जा रहा। था। आगे बढ़कर उसने भी उन्हीं की तरह काम शुरु कर दिया।