Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

मेट्रो मज़दूरों के अधिकारों पर मेट्रो प्रशासन का नया फ़ासीवादी हमला

गत 4 फ़रवरी को मेट्रो प्रशासन ने अपने कर्मचारियों के नाम ‘कोड ऑफ़ वैल्यू एण्ड एथिक्स’ नाम से एक सर्कुलर जारी करके उन्हें उनके सभी बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया है। इस सर्कुलर में मज़दूरों व कर्मचारियों से स्पष्‍टतः कहा गया है कि वे किसी भी अन्य सरकारी विभाग में मेट्रो प्रशासन की शिकायत नहीं कर सकते हैं। वे मेट्रो में चल रहे किसी भी अन्याय या धाँधली के ख़िलापफ़ मीडिया को जानकारी नहीं दे सकते हैं। अपने साथ होने वाले किसी अन्याय के ख़िलाफ़ अदालत का दरवाज़ा खटखटाने पर भी मनाही है और अगर अदालत में जाना ही हो तो पहले डी.एम.आर.सी. से अनुमति लेनी होगी। कोई भी अन्याय, भ्रष्‍टाचार या गड़बड़ी होने पर कर्मचारी के पास सिर्फ़ यह अधिकार होगा कि वह डी.एम.आर.सी. के सतर्कता विभाग में शिकायत कर सके। यानी मेट्रो प्रशासन के ख़िलाफ़ मेट्रो प्रशासन से ही शिकायत करनी होगी! यानी गवाह भी मेट्रो प्रशासन, वकील भी मेट्रो प्रशासन और जज भी मेट्रो प्रशासन! ऐसे में मज़दूरों के साथ होने वाले अन्याय पर क्या न्याय होगा यह ख़ुद ही समझा जा सकता है। यानी, कर्मचारी न मीडिया में जा सकता है, न ही वह किसी उपयुक्त सरकारी विभाग में शिकायत कर सकता है, और सबसे बड़ी बात कि वह न्याय पाने के लिए न्यायालय में भी नहीं जा सकता है।

मज़दूरों पर मन्दी की मार: छँटनी, बेरोज़गारी का तेज़ होता सिलसिला

पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिस आर्थिक संकट को पैदा करता है वह इस समय विश्‍वव्यापी आर्थिक मन्दी के रूप में समूचे संसार को अपने शिकंजे में जकड़ती जा रही है। मन्दी पूँजीवादी व्यवस्था में पहले से ही तबाह-बर्बाद मेहनतकश के जीवन को और अधिक नारकीय तथा असुरक्षित बनाती जा रही है। इस मन्दी ने भी यह दिखा दिया है कि पूँजीवादी जनतन्त्र का असली चरित्र क्या है? पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी यानी ‘सरकार’ पूँजीपतियों के लिए कितनी परेशान है यह इसी बात से जाना जा सकता है कि सरकार पूँजीवादी प्रतिष्‍ठानों को बचाने के लिए आम जनता से टैक्स के रूप में उगाहे गये धन को राहत पैकेज के रूप में देकर एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। जबकि मेहनतकशों का जीवन मन्दी के कारण बढ़ गये संकट के पहाड़ के बोझ से दबा जा रहा है। परन्तु सरकार को इसकी ज़रा भी चिन्ता नहीं है। दिल्ली के कुछ औद्योगिक क्षेत्रों के कुछ कारख़ानों की बानगी से भी पता चल जायेगा कि मन्दी ने मज़दूरों के जीवन को कितना कठिन बना दिया है।

सफ़ाई कर्मचारियों की सेहत और सुरक्षा का ध्‍यान कौन रखेगा, जज महोदय?

रात में सफाई व्यवस्था के पक्ष में तर्क दिया गया है कि सफाई के दौरान उड़ने वाली धूल से अस्थमा, एलर्जी या सांस की बीमारियां हो सकती हैं और इसका खराब असर सुबह टहलने वाले लोगों पर पड़ता है। इस बात को सही मानने पर सबसे पहले तो सफाई कर्मचारी के स्वास्थ्य की सुरक्षा की चिन्ता की जानी चाहिए। सफाई कर्मचारी तो बरसों से बिना किसी सांस संबंधी सुरक्षा उपकरण के सफाई कर रहे हैं और उनमें टीबी, अस्थमा आदि रोग भी बहुतायत में मिलते हैं। इन बीमारियों से कई सफाई कर्मचारी जाने-अनजाने असमय मौत के मुंह में समाते रहते हैं। उड़ने वाली धूल से सेहत को सबसे ज्यादा खतरा इन सफाई कर्मचारियों को होता है जबकि चिन्ता की जा रही है दिनभर ऑफिसों-दुकानों- फैक्ट्रियों में बैठे-बैठे तोंद बढ़ाने वाले और फिर सुबह उसे कम करने के लिए हाँफते-काँपते दौड़ने वाले बाबू-सेठ लोगों की सेहत की या उनकी जो शानदार ट्रैकसूट पहनकर सुबह जॉगिंग करते हैं। जिन्दगी भर धूल-गन्दगी के बीच जीने वाले और अपनी सेहत की कीमत पर शहर को साफ-सुथरा रखने वाले सफाई कर्मचारियों के स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता न तो नगर निगम को है और न माननीय न्यायपालिका को।

मज़दूरों की क़ब्रगाह बनता दिल्ली-सोनीपत हाइवे

सुबह के समय जब मज़दूरों को काम पर पहुँचने की जल्दी होती है क्योंकि फ़ैक्ट्री में 5 मिनट भी लेट पहुँचने पर आधा दिन की दिहाड़ी काट ली जाती है। तो उन्हें तेज़ रफ़्तार से गुज़रने वाले गाड़ियों के रेले को गुज़रने का इन्तज़ार करना पड़ता है। ज्यों ही सड़क थोड़ी ख़ाली दिखती है वैसे ही मज़दूर लपककर सड़क पार करने लगते हैं। फिर उन्हें पतले से डिवाइडर पर खड़े होकर उस पार गाड़ियों के रेले को गुज़र जाने का इन्तज़ार करना पड़ता है। समय पर पहुँचने की जल्दी में आये दिन मज़दूर तेज़ रफ़्तार से आती गाड़ियों के नीचे कुचले जाते हैं। बुजुर्ग मज़दूर महिलाएँ इस तरह की दुर्घटनाओं का अधिक शिकार होती हैं।

दिल्ली मेट्रो की चकाचौंध के पीछे की काली सच्चाई

सफाई कर्मचारी ही नहीं मेट्रो के सभी कामगारों के हालात कमोबेश एक जैसे हैं, चाहे अपनी जान को जोखिम में डालकर कांस्ट्रक्शन में दिन-रात खटने वाले मजदूर हों या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड व अन्य वर्कर किसी को भी उनके जायज हक और सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। किसी को कभी भी बिना कारण बताये काम पर से हटा दिया जाता है। वह दिन दूर नहीं जब एक जैसे हालात में काम करने वाले मेट्रो के सभी कर्मचारी इस बात को समझेंगे और अपने हकों के लिए एकजुट होकर आवाज बुलंद करेंगे। अधिकार माँगने से नहीं मिलते वरन उनके लिए संघर्ष करना पड़ता है। मजदूर अपने रोजमर्रा के अनुभवों से अच्छी तरह जानते हैं कि अकेले अपने दम पर वे भ्रष्ट मेट्रो प्रशासन और लुटेरे ठेकेदारों से नहीं लड़ सकते, उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करना ही होगा।

कम्पनी के लिए एक मज़दूर की जान की क़ीमत महज़ 50,000 रुपये

पैसे की हवस फिर एक मज़दूर की ज़िन्दगी को लील गयी। जिस उम्र में एक नौजवान को स्कूल कॉलेज में होना चाहिये था उस उम्र में वह नौजवान फ़ैक्ट्री में मालिकों के मुनाफ़े के लिए हाड़-माँस गलाते हुए असमय मौत का शिकार बन गया। मालिकों ने मज़दूर की एक ज़िन्दगी को 50,000 रुपये में तौल दिया। रात को जब चारों ओर सन्नाटा था तो सोनू की माँ की चीख-चीख कर रोने की आवाज़ अन्तरात्मा पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ रही थी। और सवाल कर रही थी कि हमारे मज़दूर साथी कब तक इस तरह मरते रहेंगे। कुछ लोगों के लिए हर घटना की तरह यह भी एक घटना थी उसके बाद वे अपने कमरे में जाकर सो गये। क्या वाकई 10-12 घण्टे के काम ने हमारी मानवीय भावनाओं को इस तरह कुचल दिया है कि ऐसी घटनाओं को सुनकर भी इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की आग नहीं सुलग उठती। एक बार अपनी आत्मा में झाँककर हमें ये सवाल ज़रूर पूछना चाहिए।

एवन साइकिल के मजदूरों की हड़ताल – चुप्पी अब टूट रही है!

एवन साइकिल में बहुत देर से अन्दर ही अन्दर आग धधक रही थी, जिसने अब लपटों का रूप धारण कर लिया है। कुछ समय पहले जी.टी. रोड पर स्थित यूनिट दो के मजदूरों ने कुछ घंटों के लिए हड़ताल की थी, जिस पर मजदूरों को धमकाने के लिए मालिकों ने गुंडों की मदद ली थी। इस पर मजदूरों का गुस्सा और भी भड़क उठा था। हजारों मजबूत हाथ जब एकजुट हुए तो मालिकों के टुकड़ों पर पलने वाले गुंडों को भागने का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। एक बार तो मजदूरों और मालिकों में समझौता हो गया और मजदूरों ने हड़ताल वापस ले ली, पर मजदूरों की मांगें वैसे ही लटकती रहीं।

चिता पे जिनके पांव नहीं जलते… – नमक मजदूरों की दिल दहलाने वाली दास्तान

विश्व के दूसरे मजदूरों की ही भांति भारत में भी नमक के खेतों में काम करने वाले मजदूर बदहाली का जीवन जी रहे हैं। सरकार के मुताबिक करीब एक लाख मजदूर नमक उद्योग में लगे हुए हैं लेकिन वास्तव में इनकी गिनती तीन लाख से भी ज्यादा है। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या गुजरात के नमक मजदूरों की है।

इधर कुआं उधर खाई

मैं कंट्रोल एंड स्विचगियर कम्पनी (प्लाट नं. ए–7 और 8 से 8, नोएडा –में एक परमानेंट मजदूर हूं। मुझे इस कम्पनी में हड्डियां गलाते हुए 10 साल हो गये। मुझे केवल 2500 रु. मिलते हैं। सरकार की तरफ से जो डी.ए. मिलता था वह भी कम्पनी ने देना बंद कर दिया है। मजदूर कैजुअल हो या परमानेंट यह डी.ए. सभी के लिए होता है पर कम्पनी उसे हमें देती ही नहीं। काम करने की दशा यह है कि हम सुबह 9 बजे यहां घुसते हैं और रात 10–11 बजे घर जाते हैं। सारा दिन प्रोडक्शन का भूत सवार रहता है। अगर एक–दो मिनट थोड़ी थकान दूर करने के लिए सुस्ताने लगें तो फौरन गेट पर खड़ा करने की धमकी मिलती है।

पंतनगर के मजदूर संघर्ष की राह पर – प्रशासन दमन पर आमादा

प्रशासन मजदूरों को गुमराह करने का असफल प्रयास भी कर रहा है। यहां की स्थिति एक बार फिर 1978 के ऐतिहासिक संघर्ष की याद दिला रही है और दमन के वैसे ही मंजर का अहसास करा रही है। निश्चित रूप से परिस्थितियां पहले से काफी भिन्न हैं। लेकिन इतिहास की यह एक कड़वी सच्चाई है कि दमन का पाटा जितना तेज चलता है मजदूरों का संघर्ष उतना ही निखरता जाता है।