मेट्रो मज़दूरों के अधिकारों पर मेट्रो प्रशासन का नया फ़ासीवादी हमला
कर्मचारियों को बुनियादी मानवाधिकारों-जनतान्त्रिक अधिकारों से वंचित करता डीएमआरसी का नया सर्कुलर
बिगुल संवाददाता
मीडिया से लेकर सरकार तक दिल्ली मेट्रो को दिल्ली की शान बताने का कोई मौक़ा नहीं चूकते। मेट्रो के प्रशासन को एक उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है। दिल्ली मेट्रो की साफ़-सफ़ाई और उसके चाक-चौबन्द इन्तज़ाम को देखकर मध्यवर्ग के लोग फूले नहीं समाते हैं। लेकिन मेट्रो की चमक-दमक और जगमगाहट के पीछे मेट्रो में काम करने वाले मज़दूरों के जीवन के घने अँधेरे के बारे में कोई चर्चा नहीं होती है। पूरा दिल्ली मेट्रो मज़दूरों के ख़ून-पसीने और हड्डियों की नींव पर खड़ा किया गया है और इसके बदले में मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी, साप्ताहिक छुट्टी, पी.एफ़, ई.एस.आई. और यूनियन बनाने के अधिकार जैसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रखा गया है। श्रम क़ानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं, हालाँकि मेट्रो स्टेशनों और डिपो के बाहर मेट्रो प्रशासन ने एक बोर्ड ज़रूर लटका दिया है कि ‘यहाँ सभी श्रम क़ानून लागू किये जाते हैं’। चाहे मेट्रो में काम करने वाले सफ़ाई मज़दूर हों या फिर निर्माण मज़दूर, सभी से जानवरों की तरह हाड़तोड़ काम लिया जाता है और उन्हें कई बार साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं दी जाती है। पी.एफ़ या ई.एस.आई. की सुविधा तो बहुत दूर की बात है। ऊपर से यदि कोई मज़दूर इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है तो उसे तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है या फिर उसे निकालकर बाहर ही फेंक दिया जाता है।
इस नंगे शोषण के ख़िलाफ़ जब मेट्रो के कर्मचारियों के बीच से विरोध की आवाज़ उठनी शुरू हुई है तो मेट्रो का प्रशासन उनकी ज़ुबान बन्द करने पर आमादा हो गया है। गत 4 फ़रवरी को मेट्रो प्रशासन ने अपने कर्मचारियों के नाम ‘कोड ऑफ़ वैल्यू एण्ड एथिक्स’ नाम से एक सर्कुलर जारी करके उन्हें उनके सभी बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया है। इस सर्कुलर में मज़दूरों व कर्मचारियों से स्पष्टतः कहा गया है कि वे किसी भी अन्य सरकारी विभाग में मेट्रो प्रशासन की शिकायत नहीं कर सकते हैं। वे मेट्रो में चल रहे किसी भी अन्याय या धाँधली के ख़िलापफ़ मीडिया को जानकारी नहीं दे सकते हैं। अपने साथ होने वाले किसी अन्याय के ख़िलाफ़ अदालत का दरवाज़ा खटखटाने पर भी मनाही है और अगर अदालत में जाना ही हो तो पहले डी.एम.आर.सी. से अनुमति लेनी होगी। कोई भी अन्याय, भ्रष्टाचार या गड़बड़ी होने पर कर्मचारी के पास सिर्फ़ यह अधिकार होगा कि वह डी.एम.आर.सी. के सतर्कता विभाग में शिकायत कर सके। यानी मेट्रो प्रशासन के ख़िलाफ़ मेट्रो प्रशासन से ही शिकायत करनी होगी! यानी गवाह भी मेट्रो प्रशासन, वकील भी मेट्रो प्रशासन और जज भी मेट्रो प्रशासन! ऐसे में मज़दूरों के साथ होने वाले अन्याय पर क्या न्याय होगा यह ख़ुद ही समझा जा सकता है। यानी, कर्मचारी न मीडिया में जा सकता है, न ही वह किसी उपयुक्त सरकारी विभाग में शिकायत कर सकता है, और सबसे बड़ी बात कि वह न्याय पाने के लिए न्यायालय में भी नहीं जा सकता है।
डी.एम.आर.सी. पहले से ही इस बात पर अड़ा हुआ है कि वह किसी भी यूनियन को मान्यता नहीं देगा और इसके लिए कारण बताया गया है कि अनुशासन बरकरार रखने के लिए यह आवश्यक है। लेकिन भारतीय क़ानून और संविधान हर उपक्रम के मज़दूरों को यूनियन बनाने और संगठित होने का अधिकार देता है और इस अधिकार को डी.एम.आर.सी. छीन नहीं सकता है।
स्पष्ट है कि यह एक फ़ासीवादी सर्कुलर है जिसका मक़सद मज़दूरों को गुलाम और काम करने वाली मशीन बना देना है। मेट्रो प्रबन्धन के ख़िलाफ़ कोई मज़दूर आवाज़ नहीं उठा सकता है। अगर उसे मेट्रो प्रबन्धन की निष्पक्षता पर यक़ीन न हो तो वह कहीं नहीं जा सकता क्योंकि उसके न्यायालय जाने पर भी रोक लगा दी गयी है। अपने अधिकारों के वास्ते संघर्ष के लिए उसके एकजुट होने और यूनियन बनाने पर भी रोक है। यह मामला सिर्फ़ श्रमिक अधिकारों का नहीं है। हर श्रमिक एक नागरिक भी होता है। और इस नये सर्कुलर में मेट्रो प्रशासन ने हर उस अधिकार को छीन लिया है जिसका वह एक नागरिक के रूप में हक़दार है। न्यायालय में जाने से रोक लगाने का निर्देश ही असंवैधानिक है क्योंकि यह एक नागरिक को उसके प्राकृतिक न्याय के अधिकार से वंचित करता है। यूनियन बनाने से रोकने या उसे मान्यता न देने का मेट्रो का निर्णय भी ग़ैर-क़ानूनी है क्योंकि क़ानूनन यह हर उपक्रम के मज़दूरों का हक़ है। मेट्रो में चल रहे अन्याय या भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ किसी भी ऐसे सरकारी विभाग में जाने पर भी रोक लगा दी गयी है जो ऐसी शिकायतों को सुनने का अधिकार रखता है। यह रोक भी ग़ैर-क़ानूनी है क्योंकि यह उन सभी सरकारी विभागों के औचित्य और अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़े करती है जिनका काम ही श्रमिकों की शिकायतों को सुनना और औद्योगिक विवादों का निपटारा है, मिसाल के तौर पर, श्रमायुक्त कार्यालय। ऐसे में सरकार को यह बताना पड़ेगा कि ये कार्यालय आख़िर हैं किसलिए?
इस सर्कुलर में मज़दूरों को उनके निजी जीवन की नैतिकता पर भी उपदेश दिया गया है और आदेश देकर बताया गया है कि वे निजी जीवन में क्या करें और क्या नहीं। यह भी एक नागरिक के निजी जीवन में अवांछित हस्तक्षेप है। ज़ाहिर है कि पूरी भाषा ही फ़ासीवादी दौर के जर्मनी और इटली की याद दिलाती है जिसमें मज़दूरों के जीवन के हरेक पहलू को नियन्त्रित किया जाता था और उनके हर अधिकार को कुचल दिया जाता था। मेट्रो प्रबन्धन भी उन्हीं फ़ासीवादियों के पद-चिन्हों पर चलने का प्रयास कर रहा है। लगता है वह भूल गया है कि इतिहास में ऐसे फ़ासीवादियों का क्या हश्र हुआ है।
इस सर्कुलर के ज़रिये मेट्रो प्रशासन ने अपने मज़दूरों और कर्मचारियों पर शिकंजा कसते हुए उन्हें प्रत्येक जनवादी और श्रम अधिकारों से वंचित करने की एक असंवैधानिक और ग़ैर-क़ानूनी कोशिश की है। यह एक ग़ैर-जनतान्त्रिक फ़ासीवादी क़दम है। इस सर्कुलर के पीछे की मंशा एकदम साफ़ है। इसका मक़सद है कि मज़दूरों के मुँह पर ताला लगाकर और उनके सभी अधिकार उनसे छीनकर उन्हें गुलामों की तरह खटाया जाये और उन्हें काम करने वाली मशीन में तब्दील कर दिया जाये। मज़दूरों से यह कहा गया है कि वह मेट्रो सतर्कता विभाग में ही शिकायत कर सकते हैं। और यदि शिकायत सतर्कता विभाग के ही अधिकारी के ख़िलाफ़ हो तो? या मेट्रो में क़ानूनों के उल्लंघन और भ्रष्टाचार पर हो तो? क्या मेट्रो अपनी धाँधली की शिकायत पर स्वयं सुनवाई करेगा? यह तो अच्छा मज़ाक़ है!
असलियत यह है कि मेट्रो प्रशासन मज़दूरों से डर गया है। मज़दूरों की सोई हुई ताक़त के जाग उठने के ख़याल से मेट्रो प्रबन्धन को बुरे सपने आने लगे हैं। ज्ञात हो कि पिछले तीन-चार महीनों से मेट्रो के सफ़ाई-कर्मियों ने अपने अधिकारों के लिए जुझारू संघर्ष की शुरुआत की है। इससे पूरा मेट्रो प्रशासन भयाक्रान्त है और उसे डर है कि आज़ादी और हक़ों की यह लड़ाई मेट्रो के अन्य मज़दूरों तक न पहुँच जाये। इसलिए वह अपने आपको तमाम हिटलरशाही वाले नियम-क़ानूनों से पहले ही चाक-चौबन्द कर लेना चाहता है। मज़दूरों की नाक में नकेल डालकर उनसे पशुओं की तरह काम कराये जाने का प्रयास हो रहा है। मेट्रो प्रशासन इसीलिए हर आवाज़ को दबा देना चाहता है और हर अधिकार को कुचल डालना चाहता है। यह सर्कुलर इसी की मिसाल है जो स्वयं ग़ैर-क़ानूनी और असंवैधानिक है।
यूनियन बनाने से लेकर आठ घण्टे काम के दिन और न्यूनतम मज़दूरी तक का अधिकार मज़दूरों ने बेहद संघर्ष और कुर्बानियों के बाद हासिल किया है। देश का संविधान और क़ानून ये अधिकार देता है और इन्हें छीनने का हक़ किसी के पास नहीं है। इनका हर स्तर पर पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिए। यह सिर्फ मेट्रो के कामगारों का सवाल नहीं है। जनतांत्रिक अधिकारों के हनन का यह सिलसिला सिर्फ़ मज़दूरों तक ही नहीं रुकने वाला है। आज वैश्विक मन्दी के दौर में राजनीतिक जनवाद और अधिकारों का तेज़ी से क्षरण हो रहा है और जल्द ही मध्यवर्ग के तमाम दायरे भी इसकी चपेट में आयेंगे। अगर आज इस का विरोध नहीं किया गया तो यह एक ख़तरनाक नज़ीर बन जायेगी। हमें हिटलर के दौर में जर्मनी के कवि पास्टर निमोलर की इन पंक्तियों को कभी नहीं भूलना चाहिए:
पहले वे यहूदियों के लिए आये
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।
फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आये
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर वे ट्रेडयूनियन वालों के लिए आये
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेडयूनियन में नहीं था।
फिर वे मेरे लिए
और तब कोई नहीं था
जो मेरे लिए बोलता।
बिगुल, मार्च 2009
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