Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

कविता – मई दिवस

निर्दोष ग़रीबों के ख़ून से जब शहर शिकागो लाल हुआ,
जब गूँजा नारा अधिकारों का जब फटे कान सरकारों के
मौत से लड़ते जोश के आगे अमरीका बेहाल हुआ।
सारी दुनिया दहल गयी जब तूफ़ान उठा मज़दूरों का,
एक मई इतिहास बना है दुनिया के मज़दूरों का।

जीवन में बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है कि संघर्ष करना सीखो

लेकिन दोस्तो, उस बैल को लोग इतना चारा तो डालते हैं कि उसे खाकर वह मस्त हो जाये और काम पर लग सके। लेकिन दोस्तो, आपको इस बदलते युग (पूँजीवादी) में कोई पूछने भी नहीं आयेगा। आप सब क्यों जानते हुए भी जानवरों की तरह जीना चाहते हैं? यह भी कोई ज़िन्दगी है? आज अपनी मजबूरी दूर करने के लिए 8 घण्टे काम करो, 12 घण्टे खटो, 16 घण्टे लगाओ या साथी तुम पूरा वक्त लगाओ, चाहे मालिकों के पीछे पूरी ज़िन्दगी लगाओ, तुम मर जाओगे लेकिन तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा और तुम ज़िन्दगी में कभी सुख का अनुभव नहीं कर पाओगे। कुछ गिने-चुने लोग कम्पनी में यह कहते हुए भी सुने होंगे – “हमारी कम्पनी में आठ घण्टे काम चलता है। तो क्या पैसा बनेगा? ओवर टाइम तो लगता नहीं तो क्या बचेगा?” “हम तो उस कम्पनी में टाइम ज़्यादा लगाते थे तो पैसा अच्छा बचता था और सुख से रहते थे”। लेकिन साथियो, यह सुख वाली बात नहीं है बल्कि उसी से तुम दुखी हो। 8 घण्टे में पैसा पूरा नहीं मिला। अब मनोरंजन के समय को काम में लगाकर ओवर टाइम करते हो और परिवार का ख़र्च चलाते हो। यह सुख की बात है? यह बिल्कुल मूर्खता है। अगर आप ऐसा सोचोगे तो आपके बच्चे भी ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े जायेंगे – जैसेकि कुछ जगहों पर बँधुआ मज़दूर दिखते हैं।

बच्चों के खून-पसीने से बन रही है बेंगलोर मेट्रो

बेंगलोर मेट्रो के निर्माण कार्य के लिए झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से बच्चों को मज़दूरी के लिए लाया गया है। यहाँ पर 18 वर्ष से भी कम उम्र के बच्चे धातु की भारी चादरें और खम्भे उठा रहे हैं तथा खुदाई और ड्रिलिंग का काम भी कर रहे हैं। उन्हें मज़दूरी भी कम दी जाती है और बात-बात पर झिड़की और गालियों का सामना करना तो रोज़ की बात है।
लेकिन, श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाने वाले दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन की ही दिखायी राह पर चलते हुए बेंगलोर मेट्रो रेल कारपोरेशन भी सारी ज़िम्मेदारी ठेका कम्पनियों पर डालकर अपने को पाक-साफ बता रहा है। बाल मज़दूरों से काम लेने की खबर पफैली तो बेंगलोर मेट्रो रेल कारपोरेशन ने आनन-फानन में प्रेस कांफेंस करके इस बात का खण्डन किया और उसपर सवाल उठाने वालों को ही गलत बता दिया, जबकि वह बच्चा अब भी चाइल्ड हेल्पलाइन के पास मौजूद है।

बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं प्रवासी मज़दूर

हर साल करोड़ों स्‍त्री-पुरुष गाँवों में फसल का काम ख़त्म होते ही रोज़गार की तलाश में देश के महानगरों की ओर चल पड़ते हैं। निर्माणस्थलों, ईंटभट्ठों और पत्थर की खदानों में कमरतोड़ काम करते हुए ये रेल की पटरियों के नीचे या सड़कों के किनारे, या गन्दे नालों के किनारे बोरी या पालिथीन की झुग्गियों में रहते हैं, और अक्सर आधा पेट खाकर ही गुज़ारा कर लेते हैं। ऐसे नारकीय हालात में शरीर का तमाम तरह की बीमारियों से ग्रस्त होना लाज़िमी ही है, फिर भी ये दर्द-तकलीफ की परवाह न करके काम में लगे रहते हैं। सरकारी अस्पतालों की सुविधाएँ उन्हें अक्सर मिल नहीं पातीं – ठेकेदार छुट्टी नहीं देता, अनजान शहर में अस्पताल दूर होते हैं और उनके पास राशन कार्ड आदि भी नहीं होते। निजी डाक्टर गली के ठगों की तरह उनकी जेब से आखि़री कौड़ी भी हड़प लेने की फिराक में रहते हैं। ज़्यादातर ठेकेदार इन प्रवासी मज़दूरों को पूरी मज़दूरी नहीं देते। उन्हें बस किसी तरह दो जून पेट भरने लायक मज़दूरी दी जाती है, बाकी ठेकेदार अपने पास रखे रहता है कि काम पूरा होने पर इकट्ठा देगा। लेकिन अक्सर इसमें भी काफी रकम धोखाधड़ी करके मार ली जाती है। ऐसे में अगर कोई गम्भीर रूप से बीमार हो गया – और कमरतोड़ मेहनत, कुपोषण तथा गन्दगी के कारण अक्सर ऐसा होता ही रहता है – तो शहर में रहकर इलाज करा पाना उसके बस में नहीं होता। अक्सर तो अपनी जमा-पूँजी लुटेरे डाक्टरों के हवाले करके उन्हें वापस गाँव लौटना पड़ जाता है।

चेन्नई के सफाई कामगारों की हालत देशभर के सफाईकर्मियों का आईना है

मशहूर भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे ने अपनी एक फिल्म अमेरिका में प्रदर्शित की तो पहले शो में ही बहुत से अमेरिकी फिल्म बीच में ही छोड़कर आ गये क्योंकि सत्यजीत रे ने फिल्म के एक सीन में भारतीय लोगों को हाथों से खाना खाते हुए दिखाया था जिसे देखकर उन्हें वितृष्णा होने लगी थी। लेकिन अगर उन्हें इंसान के हाथों से सीवरेज की सफाई होती दिखला दी जाती तो शायद वे बेहोश हो जाते। सिर्फ अमेरिकी ही क्यों, इस नर्क के दर्शन से तो बहुत से भारतीय भी बेहोश हो जायेंगे। लोग अपने घरों में साफ-सुथरा टायलट इस्तेमाल करते हैं लेकिन वे शायद ही कभी सोचते हों कि उनके इस टायलट को साफ रखने के लिए इस दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो अपनी जान दे देते हैं। सिर्फ इसलिए कि दूसरे लोग एक साफ-सुथरी, ‘‘हाइजेनिक’’ ज़िन्दगी जी सकें।

गोरखपुर में शराब माफिया के ख़िलाफ़ नौजवान भारत सभा का संघर्ष रंग लाया

छोटे-छोटे काम-धन्धे करके मेहनत-मशक्कत से गुजारा करने वाले लोग जीवन की परेशानियों, तकलीफों को भुलाने के लिए शराब का सहारा लेते हैं लेकिन इसी चक्कर वे कब पेशेवर पियक्कड़ बन जाते हैं उन्हें खुद ही पता नहीं चलता है। जब उनकी खुमारी उतरती है तो अपने-आप को पहले से ज्यादा परेशान और जकड़ा हुआ पाते हैं। वे खुद तो तबाह होते ही हैं, उनका पूरा परिवार और बच्चों का भविष्य भी तबाह हो जाता है। सरकार सबकुछ जानकर भी दोगली नीति चलाती है। एक ओर वह करोड़ों रुपये खर्च करके शराबखोरी के खिलाफ प्रचार करती है और दूसरी ओर बस्ती-बस्ती में शराब की दुकानें खोलती है। इस मलिन बस्ती में मुहल्लेवासियों की इच्छा के खिलाफ सरकारी गुण्डई के दम पर दारू का अड्डा खोले रखना क्या साबित करता है? सरकार को आम नागरिकों और उनके परिवारों की फिक्र नहीं है बल्कि शराब की बिक्री से होने वाली अरबों रुपये की कमाई की चिन्ता है। हकीकत तो यह है कि सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, सब यही चाहती हैं कि हम अपने शोषण-अत्याचार, गरीबी-बेरोजगारी, महंगाई-भ्रष्टाचार और रोज-रोज होने वाले अपमान के बारे में न सोचें और नशे में डूबे रहें।

आपस की बात

सूली चढ़कर शहीद भगत ने दुनिया को ललकारा है,
नींद से जागो ऐ मज़लूमो सारा देश तुम्हारा है।
जीवनभर जो वस्त्र बनाया फटी बहन की साड़ी है,
सारी उम्र जो बैठ के खाया उसकी बंगला गाड़ी है।
जो काम करे वो रोटी खाये यही हमारा नारा है,
नींद से जागो ऐ मज़लूमो सारा देश तुम्हारा है।

भोरगढ़, नरेला के कारख़ानों में मज़दूरों का बर्बर शोषण बेरोकटोक जारी है

मैं जिस कम्पनी में काम करता हूँ उसमें केबल की रबर बनाने में पाउडर (मिट्टी) का इस्तेमाल होता है। मिट्टी इतनी सूखी और हल्की होती है कि हमेशा उड़ती रहती है। आँखों से उतना दिखाई तो नहीं देता किन्तु शाम को जब अपने शरीर की हालत देखते हैं तो पूरा शरीर और सिर मिट्टी से भरा होता है। ये मिट्टी नाक, मुँह के जरिये फ़ेफ़ड़ों तक जाती है। इस कारण मज़दूरों को हमेशा टी.वी., कैंसर, पथरी जैसी गम्भीर बीमारियाँ होने का खतरा बना रहता है। जो पाउडर केबल के रबर के ऊपर लगाया जाता है उससे तो हाथ फ़ट कर काला-काला हो जाता है। जलन एवँ खुजली होती रहती है। इन सबसे सुरक्षा के लिए सरकार ने जो नियम (दिखावटी) बना रखे हैं जैसे कि नाक, मुँह ढँकने के लिए कपड़े देना, हाथों के लिए दस्ताने, शाम को छुट्टी के समय गुड़ देना आदि। इनमें से किसी भी नियम का पालन मालिक या ठेकेदार नहीं करता है। वह सभी नियम-कानून को अपनी जेब में रख कर चलता है।

मज़दूरों के बारे में एक भोजपुरी गीत

मजदुरवन क भइया केहुना सुनवइया।
ये ही लोधियनवा क हव अइसन मालिक।
मज़दूरी मँगले पर देई देल गाली।
मिली जुली के करा तु इनकर सफइया।
मजदुरवन क भइया केहु ना सुनवइया।

कब तक ऐसे मरते रहेंगे

लुधियाना में ताजपुर रोड पर सेण्ट्रल जेल के सामने महावीर जैन कालोनी में ज़्यादातर कपड़ा रँगाई और पावरलूम की फ़ैक्ट्रियाँ चलती हैं। यहाँ ग्रोवर टैक्सटाइल नाम की फ़ैक्ट्री में भी पावरलूम चलता है। यहाँ पर लगभग 60 कारीगर काम करते हैं। पिछले 5-6 महीने से यह फ़ैक्ट्री यहाँ चल रही है। दूसरी पावरलूम फ़ैक्ट्रियों की तरह ही इसमें भी काम पीस रेट पर होता है। ताना बनाने से लेकर चैकिंग-पैकिंग तक का काम ठेके पर होता है। दिवाली के कुछ दिन बाद इस फ़ैक्ट्री में एक ताना मास्टर ताना बनाने वाली मशीन में लिपट गया और उसके शरीर की कई हड्डियाँ टूट गयीं। कुछ देर बाद जब उसको ताने में से निकाला गया तो उसकी हालत बहुत ख़राब थी। मालिक ने जल्दी से उसे श्रृंगार सिनेमा के पास ‘रतन’ बच्चों के अस्पताल में दाख़िल करवा दिया। हफ्ता भर वह ताना मास्टर मौत से लड़ता रहा लेकिन सही इलाज की कमी से आख़िरकार उसकी मौत हो गयी।