प्रवासी मज़दूर : चिकित्सा सेवाओं के शरणार्थी
बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं प्रवासी मज़दूर
कपिल स्वामी
हर साल करोड़ों स्त्री-पुरुष गाँवों में फसल का काम ख़त्म होते ही रोज़गार की तलाश में देश के महानगरों की ओर चल पड़ते हैं। निर्माणस्थलों, ईंटभट्ठों और पत्थर की खदानों में कमरतोड़ काम करते हुए ये रेल की पटरियों के नीचे या सड़कों के किनारे, या गन्दे नालों के किनारे बोरी या पालिथीन की झुग्गियों में रहते हैं, और अक्सर आधा पेट खाकर ही गुज़ारा कर लेते हैं। ऐसे नारकीय हालात में शरीर का तमाम तरह की बीमारियों से ग्रस्त होना लाज़िमी ही है, फिर भी ये दर्द-तकलीफ की परवाह न करके काम में लगे रहते हैं। सरकारी अस्पतालों की सुविधाएँ उन्हें अक्सर मिल नहीं पातीं – ठेकेदार छुट्टी नहीं देता, अनजान शहर में अस्पताल दूर होते हैं और उनके पास राशन कार्ड आदि भी नहीं होते। निजी डाक्टर गली के ठगों की तरह उनकी जेब से आखि़री कौड़ी भी हड़प लेने की फिराक में रहते हैं। ज़्यादातर ठेकेदार इन प्रवासी मज़दूरों को पूरी मज़दूरी नहीं देते। उन्हें बस किसी तरह दो जून पेट भरने लायक मज़दूरी दी जाती है, बाकी ठेकेदार अपने पास रखे रहता है कि काम पूरा होने पर इकट्ठा देगा। लेकिन अक्सर इसमें भी काफी रकम धोखाधड़ी करके मार ली जाती है। ऐसे में अगर कोई गम्भीर रूप से बीमार हो गया – और कमरतोड़ मेहनत, कुपोषण तथा गन्दगी के कारण अक्सर ऐसा होता ही रहता है – तो शहर में रहकर इलाज करा पाना उसके बस में नहीं होता। अक्सर तो अपनी जमा-पूँजी लुटेरे डाक्टरों के हवाले करके उन्हें वापस गाँव लौटना पड़ जाता है।
कैसी विडम्बना है! एक तरफ लोग बेहतर इलाज के लिए दूर-दराज़ से शहर में आते हैं, वहीं ये प्रवासी मज़दूर शहरों में इलाज नहीं करा पाते और तिलतिलकर मरने या अपाहिज की ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए गाँव लौट जाते हैं।
छत्तीसगढ़ की ग्रामीण आबादी के बीच काम कर रही एक संस्था ‘जन स्वास्थ्य सहयोग’ के चिकित्सकों को ऐसे कई मज़दूर मिले जो दिल्ली, उसके आसपास और पंजाब के बड़े शहरों से सिर्फ इलाज करवाने के लिए छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाके में वापस लौट आये। लौटने वाले मज़दूरों ने इन बड़े शहरों यानी तथाकथित विकास के केन्द्रों की सरकारी अस्पतालों की ख़राब हालत और प्राइवेट डाक्टरों की खुली लूट की अनेकों घटनाएँ बयान कीं। संस्था के डा. अनुराग भार्गव ने अपनी रिपोर्ट में इन घटनाओं का उल्लेख किया है।
एक दिन एक आदमी बहुत कमजोर हो चुकी औरत को लेकर अस्पताल आया। उन्होंने बताया कि वे सीधे दिल्ली के पास गुड़गाँव से आ रहे हैं। वहाँ यह औरत (गीता) और उसका पति गुड़गाँव के एक निर्माणाधीन माल में बेलदारी करते थे। एक दिन उसकी नाक में एक फोड़ा हो गया। दो-तीन दिन में यह फैलकर आँख तक पहुँच गया और सूजन फैलकर दायें पैर तक पहुँच गयी। गली-मोहल्ले के डाक्टर से दवाई लेने के बावजूद कोई फायदा तो नहीं हुआ अलबत्ता उनकी सारी जमा-पूँजी लगभग 3,500 ख़र्च हो गये, जो उनकी कई महीने की मेहनत की बचत थी। अब उनके पास गाँव जाकर इलाज कराने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था। 30 साल की उम्र में गीता का वज़न 22 किलो रह गया था, उसकी दायीं आँख बेकार हो गयी और दूसरी में भी रोशनी बहुत कम रह गयी। उसके दायें पैर में बहुत बड़ा फोड़ा था। महज़ एक साधारण बैक्टीरिया के संक्रमण ने फैलकर इतना नुकसान कर डाला, क्योंकि लगातार कुपोषण और कड़ी मेहनत से उसका शरीर बिल्कुल जर्जर हो चुका था।
उसके पति ने बताया कि वे पहली बार शहर में काम करने गये थे। बीमार पड़ने से कुछ दिन पहले तक गीता सिर पर 25-25 किलो वज़न ढोती थी जिसके लिए उसे 50 रुपये दिहाड़ी मिलती थी।
अजीत नाम का एक नौजवान मज़दूर उनके अस्पताल में आया तो उसकी हालत बेहद ख़राब थी। कुछ ही दिनों पहले घर लौटा है और श्वसन के एक हल्के संक्रमण ने बिगड़कर यह हालत कर दी है। वह जम्मू से 150 किलोमीटर दूर सेना के लिए घर बनाने का काम करने गया था। उसे रोज़ाना सिर्फ 75 रुपये मिलते थे। उसे दिल के वाल्व ख़राब करने वाली दिल की बीमारी थी और उसका हीमोग्लोबीन सिर्फ 6 (स्वस्थ मनुष्य का 13 होता है) था। डाक्टरों के लिए यह बहुत हैरानी की बात थी कि इस हालत में वह काम कैसे कर रहा था। साँस का एक मामूली इंफेक्शन होते ही उसकी हालत बहुत ख़राब हो गयी और उसे 2,000 किलोमीटर लौटकर घर आना पड़ा। हालाँकि उसके काम की जगह पर अस्पताल था पर वह सिर्फ सेना के लिए था उस जैसे लोगों के लिए नहीं। बाद में उसे आईसीयू में भर्ती करवाने के लिए स्थानीय मेडिकल कालेज को लिखा गया, जहाँ वह 21 साल की उम्र में अपने पीछे एक जवान पत्नी और छोटा बच्चा छोड़कर चल बसा।
श्रवण नाम के एक छत्तीसगढ़िया मज़दूर को टीबी होने पर सरकारी अस्पताल में दवा नहीं दी गयी क्योंकि उसके पास राशन कार्ड नहीं था! उसी सरकारी डाक्टर ने अपनी क्लिनिक में बुलाकर उसे 1,800 रुपये की दवाएँ लिख दीं। पैसे ख़त्म होने लगे तो वह गाँव लौट आया। तब तक उसके फेफड़े टीबी से पूरी तरह संक्रमित हो चुके थे और वह ख़ून की उल्टियाँ कर रहा था। एक दिन वह किसी को कुछ बताये बिना घर छोड़कर चला गया…
ये चन्द उदाहरण हैं। ऐसी स्थितियाँ पूरे देश के प्रवासी मज़दूरों की हैं। वैसे तो मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के ज़्यादा से ज़्यादा मानवद्रोही होते जाने पर स्वास्थ्य सुविधाएँ पूरी आम आबादी के लिए ही मुश्किल हो गयी हैं। लेकिन सही दवा-इलाज न मिलने से प्रवासी मज़दूर सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। प्रायः मज़दूरों की छोटी-छोटी बीमारियाँ विकराल रूप लेकर असमय मृत्यु या जीवन-भर की विकलांगता का कारण बन जाती हैं। अक्सर इनकी वजह अच्छा खान-पान या शुरुआती दवा-इलाज ठीक से न मिल पाना होता है। मज़दूरों की बदतर जीवन-स्थितियाँ भी इन चीज़ों पर बहुत ध्यान देने की इजाज़त नहीं देती हैं। बहुत सारे लोग तो बीमारी के लक्षणों को छोटी-मोटी बीमारी मानकर टालते रहते हैं। इलाज करवाना उनके लिए एक गम्भीर चुनौती होती है। आखि़र में वे तभी इलाज करवाते हैं जब बीमारी के कारण काम करना बिल्कुल दूभर हो जाता है।
बड़े शहरों में रोज़ी-रोटी की तलाश में आने वाले प्रवासी मज़दूरों की ज़िन्दगी वैसे ही काफी मुसीबतों से भरी होती है। सबसे अधिक जोखिम वाली जगहों पर कम तनख़्वाह में इन्हें आसानी से काम मिल जाता है। अक्सर भारी-भरकम निर्माण परियोजनाओं से लेकर लोहे-प्लास्टिक-रबड़ के ख़तरनाक उद्योगों में ऐसे ही प्रवासी मज़दूर काम पर रखे जाते हैं। गन्दी बस्तियों में छोटी-छोटी कोठरियाँ बीमारियों के आशियाने होते हैं। गन्दी बजबजाती नालियों और कूड़े के ढेर के बीच उनकी सेहत लगातार गिरती जाती है। काम की जगहों पर सारे नियम-कानूनों को तिलांजलि देकर मालिकों-ठेकेदारों के मनमाफिक काम करवाया जाता है। सुरक्षा के तमाम इन्तज़ामात सिर्फ सरकारी श्रम विभागों की फाइलों की शोभा बढ़ाते हैं। ऐसे में काम की जगहों पर धूल और धुएँ से होने वाली बीमारियाँ और काम के दौरान लगने वाली गम्भीर चोटें आम बात होती हैं। चोट लगने पर हल्की-फुल्की दवा-पट्टी करवा दी जाती है जिसमें ज़्यादा चोट लगने वाले मज़दूर तो अक्सर मौत का शिकार हो जाते हैं। कुल मिलाकर बीमार होने या चोट लगने पर इलाज करवाना मज़दूर के ज़िम्मे होता है। जो अपनी हैसियत के अनुसार कभी पहले प्राइवेट डाक्टरों के पास और फिर सरकारी अस्पताल जाता है तो कभी पहले सरकारी अस्पतालों के धक्के खाकर मजबूरन प्राइवेट डाक्टरों की शरण लेता है।
प्रवासी मज़दूरों के साथ सरकारी अस्पतालों में भी दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। सरकारी अस्पतालों में उन्हें ज़्यादा धक्कों, ज़्यादा लाइनों का सामना करना पड़ता है और ज़्यादा चक्कर लगाने पड़ते हैं। यह भरम भी जल्द ही टूट जाता है कि यहाँ सबकुछ मुफ्त में होता है। सरकारी अस्पतालों में सिर्फ डाक्टर की फीस और बेड के ख़र्चे के अलावा दवा से लेकर हर ख़र्चा मरीज को ख़ुद करना पड़ता है। कदम-कदम पर दवा और जाँच कराने की दुकानों के दलाल मौजूद होते हैं, जिनके चंगुल में एक बार फँसने का मतलब अपनी सारी जमापूँजी उनके हवाले कर देना होता है। अक्सर उनकी सारी जमा-पूँजी इलाज की शुरुआत में ही ख़त्म हो जाती है। बिना काम किये इलाज करवाना और शहर में किराये पर रहना इन्हें तोड़ डालता है। इसके अलावा सरकारी अस्पतालों में होने वाले दुर्व्यवहार, दुत्कार और भयंकर लापरवाही से तंग आकर कई मरीज पूरा इलाज करवाये बिना ही लौट जाते हैं। कुछ गाँव लौटकर, तो कुछ शहरों में एक झूठी उम्मीद के साथ फिर से प्राइवेट डाक्टरों के पास पहुँच जाते हैं।
कुल मिलाकर प्रवासी मज़दूरों की स्थिति चिकित्सा क्षेत्र के शरणार्थी जैसी होती है जो इलाज के लिए इधर-उधर मारा-मारा फिरता है लेकिन आखि़र में उसके हाथ कुछ नहीं लगता।
अकाल मौत के मुँह में समा जाने वाले ये वही मज़दूर होते हैं जो दिल्ली, लखनऊ, पंजाब जैसे बड़े शहरों में आलीशान पुल, सड़कें बनाते हैं। नये-नये खुल रहे आलीशन फाइवस्टारनुमा अस्पतालों की इमारतें बनाते हैं! देश को तरक्की के रास्ते पर बढ़ाने वाले इन मज़दूरों का जिस्म जब छलनी हो जाता है तो इन्हें दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है।
बिगुल, मई 2009
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