कब तक ऐसे मरते रहेंगे

राजविन्दर

लुधियाना में ताजपुर रोड पर सेण्ट्रल जेल के सामने महावीर जैन कालोनी में ज़्यादातर कपड़ा रँगाई और पावरलूम की फ़ैक्ट्रियाँ चलती हैं। यहाँ ग्रोवर टैक्सटाइल नाम की फ़ैक्ट्री में भी पावरलूम चलता है। यहाँ पर लगभग 60 कारीगर काम करते हैं। पिछले 5-6 महीने से यह फ़ैक्ट्री यहाँ चल रही है। दूसरी पावरलूम फ़ैक्ट्रियों की तरह ही इसमें भी काम पीस रेट पर होता है। ताना बनाने से लेकर चैकिंग-पैकिंग तक का काम ठेके पर होता है।

दिवाली के कुछ दिन बाद इस फ़ैक्ट्री में एक ताना मास्टर ताना बनाने वाली मशीन में लिपट गया और उसके शरीर की कई हड्डियाँ टूट गयीं। कुछ देर बाद जब उसको ताने में से निकाला गया तो उसकी हालत बहुत ख़राब थी। मालिक ने जल्दी से उसे  श्रृंगार सिनेमा के पास ‘रतन’ बच्चों के अस्पताल में दाख़िल करवा दिया। हफ्ता भर वह ताना मास्टर मौत से लड़ता रहा लेकिन सही इलाज की कमी से आख़िरकार उसकी मौत हो गयी। इस हादसे की कोई ख़बर तक अख़बारों या टीवी पर नहीं आयी। उस समय जब ताना मास्टर का इलाज चल रहा था तब मालिक कारख़ाने में लगातार प्रचार कर रहा था कि हमारा तो बहुत ख़र्चा हो रहा है। एक घण्टे का 5,000 रुपये तक ख़र्च हो रहा है। इन सारी बातों से कारीगर मालिक को बहुत नेक समझ रहे थे। लेकिन इस बात का भाण्डा तब फूटा जब उस ताना मास्टर की हालत और बिगड़ गयी और अस्पताल से जवाब मिलने के बाद उसकी मौत हो गयी। इस फ़ैक्ट्री के कुछ कारीगरों से हमने ताना मास्टर के बारे में जानना चाहा तो सिर्फ़ इतना पता चला कि वह बिहार का था। तब भी कारीगर यह ही कह रहे थे कि “मालिक तो बहुत कुछ कर रहा है, इतना तो कोई मालिक अपने कारीगर के लिए नहीं करता।” कारीगरों की यह सोच बहुतेरे मज़दूरों की सोच है। क्योंकि वे यह नहीं जानते कि फ़ैक्ट्री स्थल पर अगर कोई हादसा होता है तो उसकी ज़िम्मेदारी मालिक की होती है। उस वर्कर का इलाज मालिक को करवाना होता है और अगर मौत हो जाये तो उचित मुआवज़ा देना होता है। यह मज़दूरों के उन अधिकारों में से एक है जो उन्होंने लड़कर हासिल किये थे। लेकिन मालिकों ने सभी छीन लिये हैं।

इस पूरी घटना में कुछ बातें हैं जो सोचने को मजबूर करती हैं कि अगर मालिक इतना ख़र्च कर ही रहा था और ईमानदारी से ताना मास्टर को बचाना चाहता था तो उसको डी.एम.सी., सी.एम.सी. या अपोलो जैसे बेहतर अस्पताल में क्यों नहीं ले जाया गया। बच्चों के अस्पताल में एक गम्भीर घायल आदमी का इलाज करवाना कहाँ तक जायज़ था। असल में मालिक चाहता था कि यह हादसा रोशनी में न आये। अगर आदमी मरता भी है तो कोई बवाल ना हो। वही हुआ भी। ताना मास्टर की मौत के बाद मालिक पर कोई असर नहीं पड़ा। उसका काम धड़ाधड़ चल रहा है। लेकिन उस दिवंगत मज़दूर के बच्चों की भूखों मरने की नौबत आ गयी है। ऐसे कुछ हादसे पहले भी इस फ़ैक्ट्री में हुए लेकिन हमेशा दबाये जाते रहे।

थोड़ा ताना बनाने वालों की हालत पर भी विचार कर लिया जाये। एक दिन में एक आदमी 1 से 3 तक ताने भर देता है। एक ताने का रेट 80-90 से शुरू होकर क्वालिटी के हिसाब से कम-ज़्यादा होता है। और सारा महीना काम भी नहीं मिलता। इसलिए जब भी काम मिलता है तो हर कोई यही चाहता है कि ज़्यादा से ज़्यादा काम कर ले और जल्दी-जल्दी करे। इसलिए कई ऐसे जुगाड़ भी किये जाते हैं कि मशीन रुके बिना लगातार चले। जिसके कारण आये दिन हादसे होते रहते हैं। ठेके का काम होने के कारण मालिक इस और ज़्यादा ध्यान भी नहीं देते हैं।

एक कारीगर ने बताया कि जब वह मुम्बई में था तो एक बार ताने वालों की हड़ताल हुई थी। तब मशीनों में सेफ्टी का एक पुर्जा लगाया गया था जो लगभग 1500-2000 रुपये का होता है। इसके अलावा रेट भी बढ़ाया गया था। अभी लुधियाना में ऐसी सेफ्टी का कोई इन्तज़ाम नहीं है।

असल मुद्दा तो यह है कि भर्ती ही मालिक की ओर से हो। महीने की आठ घण्टे की ड्यूटी की तनख़्वाह इतनी मिले कि बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकें। इसके अलावा फ़ण्ड, बोनस, ईएसआई कार्ड, मकान का किराया, छुट्टियाँ, वर्दी, बूट आदि – वे सारे हक़ मिलें जो मज़दूरों, मालिकों और सरकार के बीच समझौता हुआ था। लेकिन यह आसान बात नहीं है। मालिकों के अपने संगठन और लूटने की रणनीति है। हमें भी अपने मज़दूर संगठन बनाने हैं और जान-समझकर आगे बढ़ना है।

 

 

बिगुल, मार्च 2009

 


 

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