सफ़ाई कर्मचारियों की रात की ड्यूटी अनिवार्य करने का अदालती फ़ैसला
सफ़ाई कर्मचारियों की सेहत और सुरक्षा का ध्यान कौन रखेगा, जज महोदय?
कपिल स्वामी
खुद गन्दी, बदबूदार, सीलनभरी जगहों पर रहते हुए शहर को चमकाने वाले सफाई कर्मचारियों के बदतर हालात में एक और इजाफा होने जा रहा है। दिल्ली हाईकोर्ट ने रात में सफाई व्यवस्था न करवा पाने के लिए नगर निगम को कड़ी फटकार लगायी है और इसे जल्द से जल्द लागू करने का आदेश दे दिया है। हालांकि अभी इस कर्मचारी विरोधी व्यवस्था के दिल्ली में लागू होने की बात ही चल रही है लेकिन यहां लागू होते ही तमाम अन्य शहरों में इसके लागू होने की सम्भावना भी काफी बढ़ जायेगी। दिल्ली के नजदीक ग़ाज़ियाबाद में भी इस योजना को लागू करने की तैयारियां अलग से चल रही हैं।
इस फैसले ने एक बार फिर से इस सामाजिक व्यवस्था के उस चश्मे को सामने ला दिया है जो खाये-पिये लोगों की सेहत और सुविधाओं को एक नजर से देखता है और गरीब मेहनतकश जनता की सेहत और सुविधाओं को दूसरी नजर से देखता है।
दरअसल कुछ “स्वास्थ्य-सजग” नागरिकों ने दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण का तर्क देते हुए रात को सफाई करवाने की याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने इस पर मुस्तैदी से सहमति की मुहर लगा दी। फिलहाल गेंद दिल्ली नगर निगम के पाले में है जो इसे लागू करने में “अपने कारणों से” से दाएं-बाएं कर रहा है। रात में सफाई व्यवस्था के पक्ष में तर्क दिया गया है कि सफाई के दौरान उड़ने वाली धूल से अस्थमा, एलर्जी या सांस की बीमारियां हो सकती हैं और इसका खराब असर सुबह टहलने वाले लोगों पर पड़ता है। इस बात को सही मानने पर सबसे पहले तो सफाई कर्मचारी के स्वास्थ्य की सुरक्षा की चिन्ता की जानी चाहिए। सफाई कर्मचारी तो बरसों से बिना किसी सांस संबंधी सुरक्षा उपकरण के सफाई कर रहे हैं और उनमें टीबी, अस्थमा आदि रोग भी बहुतायत में मिलते हैं। इन बीमारियों से कई सफाई कर्मचारी जाने-अनजाने असमय मौत के मुंह में समाते रहते हैं। उड़ने वाली धूल से सेहत को सबसे ज्यादा खतरा इन सफाई कर्मचारियों को होता है जबकि चिन्ता की जा रही है दिनभर ऑफिसों-दुकानों- फैक्ट्रियों में बैठे-बैठे तोंद बढ़ाने वाले और फिर सुबह उसे कम करने के लिए हाँफते-काँपते दौड़ने वाले बाबू-सेठ लोगों की सेहत की या उनकी जो शानदार ट्रैकसूट पहनकर सुबह जॉगिंग करते हैं। जिन्दगी भर धूल-गन्दगी के बीच जीने वाले और अपनी सेहत की कीमत पर शहर को साफ-सुथरा रखने वाले सफाई कर्मचारियों के स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता न तो नगर निगम को है और न माननीय न्यायपालिका को।
अदालत ने अपने फ़ैसले में यह नहीं बताया कि कर्मचारी अपनी ड्यूटी वाली जगहों पर पहुँचेंगे किस तरह? रात में सार्वजनिक परिवहन तो बिलकुल बंद रहता है। बिना किसी परिवहन सुविधा के रात में कर्मचारियों का काम की जगह पर पहुँचना असंभव है। एक और अहम सवाल रात में कर्मचारियों की सुरक्षा का है। खासतौर पर सफाई कर्मचारियों में बड़ी संख्या में काम करने वाली महिला कर्मचारियों की सुरक्षा की गारण्टी कौन देगा? रात में सफाई व्यवस्था लागू होने के लिए पर्याप्त रोशनी होना भी बेहद जरूरी है। अकसर दिन में भी कांच या नुकीली चीजों, कीड़ों-मकोड़ों से चोट लगती रहती है। रात में इसका खतरा बहुत बढ़ जाएगा। एक अहम सवाल यह है कि क्या नगर निगम नाईट शिफ़्ट से जुड़े श्रम कानूनों के सारे प्रावधानों को लागू करेगा?
दरअसल लगता है कि नगर निगम की इन सारी सुविधाओं को देने की मंशा नहीं है। वह चुपचाप इंतजार कर रहा है, जब अंतिम आदेश जारी हो जाएंगे तो आनन-फानन में इसे कोर्ट का आदेश बताकर लागू कर दिया जाएगा। इस तरह कर्मचारियों की दी जाने वाली सुविधाओं का खर्चा भी बचेगा और कोर्ट के आदेश का पालन भी हो जाएगा।
इस मामले में कर्मचारी यूनियनें भी चुप्पी मारे बैठी हैं। अधिकारियों के साथ मिलीभगत करके चुप्पी मारने वाले सफेद कपड़े पहनने वाले ये नेता तब तक कुछ नहीं करेंगे जब तक खुद कर्मचारी इसके विरोध के लिए अड़ न जायें। यदि कर्मचारियों की तरफ से विरोध होता है तो वे भी इसके विरोध में हल्ला मचाने लगेंगे और इस तरह अपनी नेतागिरी पक्की करेंगे। वैसे भी सफाईकर्मचारियों की तमाम समझौतापरस्त और दगाबाज यूनियनें अब मंत्रियों और अधिकारियों के तलवे चाटने वाले दलालों के अड्डे से ज्यादा कुछ हैसियत नहीं रखती हैं।
वैसे अगर स्वास्थ्य के नजरिये से देखा जाए तो इस योजना में कोई खामी नहीं है लेकिन एक ऐसे समाज में जहां गरीबों की जिन्दगी को जिन्दगी न समझा जाता हो और उनकी सेहत से खिलवाड़ करके एक तबका ऐशोआराम की जिन्दगी जी रहा हो, यह योजना मेहनतकश आबादी पर एक और हमला है। हालांकि इस सामाजिक व्यवस्था में न्याय-इंसाफ की उम्मीद करना बेमानी है लेकिन अगर स्वास्थ्य की रक्षा का तर्क दिया जाता है तो यह हर तबके के लोगों पर समान रूप से लागू होना चाहिए।
सफाई कर्मचारियों के खिलाफ ये नादिरशाही फरमान न पहला है न आखिरी। ठेकेदारी व्यवस्था लागू होने के बाद से पहले से ही जुल्म के शिकार ज्यादातर कर्मचारी आज बेहद बुरी हालत में काम करने को मजबूर हैं। जाहिर है हर चुप्पी एक नये जुल्म का रास्ता तैयार करेगी। अब सवाल यह है कि शहर की गन्दगी साफ करने वाले हाथ उन्हें गुलाम समझने वाले लोगों के खिलाफ उठना कब शुरू होंगे?
बिगुल, फरवरी 2009
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