Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

आज़ादी के अमृत महोत्सव में सड़कों पर तिरंगा बेचती ग़रीब जनता

इस बार आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर अमृत महोत्सव मनाया गया। यह दीगर बात है कि पिछले 75 वर्षों में देश की व्यापक मेहनतकश जनता के सामने यह बात अधिक से अधिक स्पष्ट होती गयी है कि यह वास्तव में देश के पूँजीपति वर्ग और धनिक वर्गों की आज़ादी है, जबकि व्यापक मेहनतकश जनता को आज़ादी के नाम पर सीमित अधिकार ही हासिल हुए हैं। दाग़दार आज़ादी का उजाला हमारे सामने अँधेरा बनकर मँडरा रहा है। बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी ने तो पहले ही हमारा दम निकाल रखा है। तो सबसे पहले तो यही सोचना चाहिए कि ये महोत्सव किसके लिए है?

बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों की रिहाई : भाजपा और संघ की बेशर्मी की पराकाष्ठा

2002 से लेकर अब तक कुछ मामलों को छोड़कर लगभग सभी मामलों में न्याय का दरवाज़ा खटखटाने वालों को निराशा ही हासिल हुई है। अभी 24 जून 2022 को ज़ाकिया जाफ़री की याचिका ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इतिहास के इस काले अध्याय में देश को शर्मसार करने वाला एक और अध्याय जुड़ गया है। 15 अगस्त को बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों को क्षमा दे कर रिहा कर दिया गया। बिलकिस बानो भी गुजरात नरसंहार की शिकार महिला है।

तिरंगे झण्डे पर राजनीति करने वाले संघ-भाजपा के तिरंगा प्रेम का सच!

दूसरों से बात-बात पर देशप्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण माँगने वाले संघ ने ख़ुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया? इण्डिया गेट पर योग दिवस पर दिखावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तिरंगे से अपनी नाक और पसीना पोंछते दिखे, अगर यही काम किसी ग़ैर-संघी से हो जाता तो भाजपा और संघ उसे ‘देशद्रोही’ बताने में विलम्ब नहीं करते। दरअसल संघ के लिए हर भावना, हर विचार उसके अपना उल्लू सीधा करने का हथियार है।

“राष्ट्रवाद” की ठेकेदार बनी भाजपा और आरएसएस के आतंकवादियों से सम्बन्धों की पड़ताल!

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके तमाम अनुषंगी संगठन अपने जन्मकाल से ही “राष्ट्रवाद” के नाम पर जनता को बरगलाने में लगे रहे हैं। वर्ष 2014 में सत्ता में क़ाबिज़ होने के बाद भाजपा और संघ परिवार ने “देशभक्ति” और “राष्ट्रवाद” की अतिरिक्त ठेकेदारी ले ली है। आज़ादी के आन्दोलन में क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी और स्वतंत्रता व राष्ट्रीय आन्दोलन से ग़द्दारी करने वाला संघ परिवार अब धड़ल्ले से देशभक्ति के सर्टिफ़िकेट बाँट रहा है। संघ परिवार के “राष्ट्रवाद” और इनके राजनीतिक पूर्वजों की “देशभक्ति” के इतिहास पर ग़ौर किया जाये तो हक़ीक़त को समझने में देर नहीं लगेगी।

केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की बेटी द्वारा अवैध रूप से शराबख़ाना चलाने का मामला

देश में एक ओर नौजवानों की भारी आबादी बेकारी-बेरोज़गारी के धक्के खाने को मजबूर है और दूसरी ओर नेताओं के बाल-बच्चे मलाई चाट रहे हैं। मोदी सरकार में महिला एवं बाल विकास विभाग की कैबिनेट मंत्री स्मृति ईरानी की बेटी ज़ोइश ईरानी द्वारा गोवा के असगाओ में संचालित ‘सिली सोल्स कैफ़े एण्ड बार’ नामक एक रेस्टोरेण्ट में अवैध तरीक़े से शराबख़ाना चलाये जाने का मामला सामने आया है। एक शिकायतकर्ता के द्वारा मामला उठाये जाने के बाद इस रेस्तरां के ऊपर कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। इस मामले में कई सारे गम्भीर आरोप लगे हैं। शराब के लाइसेंस को पाने के लिए झूठे एवं ग़ैर-क़ानूनी दस्तावेज़ पेश किये गये हैं।

कश्मीर में अल्पसंख्यकों और प्रवासी मज़दूरों की हत्या की बढ़ती घटनाएँ

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस प्रकार निर्दोषों की लक्षित हत्या की बदहवास कार्रवाइयों को किसी भी रूप में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है और अन्ततोगत्वा ये कार्रवाइयाँ कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की न्यायसंगत लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करती हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन हत्याओं के लिए सीधे तौर पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के नेतृत्व में लागू की जा रही भारतीय राज्य की तानाशाहाना नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि ये नीतियाँ ही वे हालात पैदा कर रही हैं जिसकी वजह से कुछ कश्मीरी युवा बन्दूक़ उठाकर निर्दोषों का क़त्ल करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। इसलिए कश्मीर में शान्ति क़ायम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य के कन्धों पर है जिसे पूरा करने में वह नाकाम साबित हुआ है।

“बुलडोज़र” बन रहा है फ़ासिस्ट हुक्मरानों की दहशत की राजनीति का नया प्रतीक-चिह्न!

फ़ासीवादी सरकारें “क़ानून के राज” को क़ायम करने के लिए आम मुसलमानों के घरों पर ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से बुलडोज़र चला रही हैं और पूँजीवादी विपक्षी दलों से लेकर उच्चतम न्यायलय समेत सभी अदालतें तक इस आतंक और दहशत के ताण्डव को मूक दर्शक बने देख रहे हैं। ऐसे हज़ार मामलों में से किसी एक मामले में यदि अदालतें हस्तक्षेप करती भी हैं तो संशोधनवादियों, सामाजिक-जनवादियों समेत पूरा वाम-उदार तबक़ा लहालोट हो उठता है मानो क्या ग़ज़ब का काम किया हो! जिन 999 मामलों में अदालतों की ज़ुबान पर ताले लटके रहते हैं उनको विस्मृति के अँधेरे में धकेल दिया जाता है और उनपर कोई बात भी नहीं होती है। यह भी सोचने वाली बात है कि बुलडोज़र द्वारा ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से मुसल्मानों के घरों को गिराये जाने के एक भी मसले में सर्वोच्च न्यायलय या उच्च न्यायालयों ने स्वतः संज्ञान नहीं लिया। इसके लिए भी पूर्व न्यायाधीशों को सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश से अदालती हस्तक्षेप की गुहार लगानी पड़ी थी। क्या यह मौजूदा न्याय व्यवस्था के बारे में कुछ नहीं बताता?

शिक्षा का भगवाकरण : पाठ्यपुस्तकों में बदलाव छात्रों को संघ का झोला ढोने वाले कारकून और दंगाई बनाने की योजना

फ़ासीवादी विचारधारा और इसे संरक्षण देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई हमें तेज़ करनी होगी क्योंकि ऐसी पढ़ाई हमारे मासूम बच्चों को दंगाई और हैवान बनायेगी। हमें अपने बच्चों को बचाना होगा हमें सपनों को बचाना होगा। इन ख़तरनाक क़दमों को मज़दूर वर्ग को कम करके नहीं आँकना चाहिए। ये क़दम एक पूरी पीढ़ी के दिमाग़ों में ज़हर घोलने, उनका फ़ासीवादीकरण करने, उन्हें दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाने और साथ ही मज़दूर वर्ग को वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क्षमता से वंचित करने का काम करते हैं। जिस देश के मज़दूर और छात्र-युवा वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क़ाबिलियत खो बैठते हैं वे अपनी मुक्ति के मार्ग को भी नहीं पहचान पाते हैं और न ही वे मज़दूर आन्दोलन के मित्र बन पाते हैं। उल्टे वे मज़दूर आन्दोलन के शत्रु के तौर पर तैयार किये जाते हैं और शैक्षणिक, बौद्धिक व सांस्कृतिक संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण इसमें एक अहम भूमिका निभाता है।

सुप्रीम कोर्ट का गुजरात दंगों पर निर्णय : फ़ासीवादी हुकूमत के दौर में पूँजीवादी न्यायपालिका की नियति का एक उदाहरण

तमाम हत्याओं, साज़िशों और एनकाउण्टर के बाद भी गुजरात दंगों का भूत बार-बार किसी-न-किसी गवाह या मामले के रूप में सामने आ ही जाता था। फ़ासीवाद की पैठ राज्यसत्ता में पहले भी थी लेकिन इस पैठ को अभी और गहरा होना था। 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह काम फ़ासीवाद ने तेज़ी से किया है। लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर संघ के वफ़ादार लोगों को बैठाया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर क्लर्क की भर्ती से लेकर आला अफ़सरों तक की भर्ती सीधे संघ से जुड़े या संघ समर्थकों की होने लगी और हो रही है। मोदी-शाह को अब अपने राजनीतिक ख़तरों से निपटने के लिए पुराने तरीक़ों के मुक़ाबले अब नये तरीक़े ज़्यादा भा रहे हैं। अब सीधे राज्य मशीनरी का इस्तेमाल इनके हाथों में है। पिछले कुछ सालों में जितनी भी राजनीतिक गिरफ़्तारियाँ हुई हैं उनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत हासिल नहीं हुआ है लेकिन उनकी रिहाई भी नहीं हुई है।

फासीवाद की बुनियादी समझ बनायें और आगे बढ़कर अपनी ज़िम्मेदारी निभायें

फासीवादि‍यों का विरोध करने वाले बहुत से बुद्धिजीवियों और अनेक क्रान्तिकारी संगठनों के बीच भी फासीवाद को लेकर कई तरह के विभ्रम मौजूद हैं। मज़दूर बिगुल के पाठकों से भी अक्सर फासीवाद को लेकर कई तरह के सवाल हमें मिलते रहते हैं। कविता कृष्णपल्लवी की यह टिप्पणी यह समझने में मदद करती है कि फासीवाद एक सामाजिक आन्दोलन है जिसने भारतीय समाज में गहरे जड़ें जमा ली हैं। इसके महज़ चुनावों में हराकर परास्त और नेस्तनाबूद नहीं किया जा सकता। इसके विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई की तैयारी करनी होगी। हालाँकि इसे मोदी के सत्ता में आने से पहले लिखा गया था लेकिन यह आज और भी प्रासंंगिक है।