महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार पर काबू पाने में नाकाम मोदी सरकार राम मन्दिर के ज़रिये साम्प्रदायिक लहर पर सवार हो फिर सत्ता पाने की फ़िराक़ में
मज़दूरों-मेहनतकशों को इस साम्प्रदायिक साज़िश को सिरे से नकारना होगा वरना आने वाले साल उनके लिए विनाशकारी होंगे!
सम्पादकीय अग्रलेख
भाजपा सरकार, भाजपा पार्टी और समूचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मशीनरी 22 जनवरी को राम मन्दिर के उद्घाटन के नाम पर पूरे देश में साम्प्रदायिक माहौल बनाने में लग गयी है। हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करके देश में इसका प्रचार किया जा रहा है। हर शहर, हर गाँव में मन्दिर उद्घाटन के बड़े-बड़े पोस्टर और बैनर लटका दिये गये हैं। एक पोस्टर में तो राम को एक बालक के तौर पर दिखाया गया है, जो नरेन्द्र मोदी का हाथ पकड़कर मन्दिर की ओर जा रहा है! मतलब, खुलेआम नरेन्द्र मोदी को भाजपा सरकार व संघ परिवार एक अवतार के तौर पर पेश कर रही है। मक़सद है जनता की धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग व शोषण करके नये सिरे से धार्मिक उन्माद की एक लहर पैदा की जाय और इस लहर पर सवार होकर सत्ता में पहुँचा जाये।
उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश में जगह-जगह हज़ारों एलईडी स्क्रीन लगाकर मन्दिर उद्घाटन का सीधा प्रसारण करने का एलान किया है। संघ परिवार ने एलान किया है कि उसके 5 लाख कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश में हरेक घर में मन्दिर उद्घाटन का न्यौता लेकर जायेंगे। उत्तर प्रदेश में हर मन्दिर पर 22 जनवरी को मन्दिर उद्घाटन का जश्न मने, इसकी तैयारी ख़ुद उत्तर प्रदेश सरकार कर रही है। बिहार में हर मन्दिर के बाहर एलईडी स्क्रीन द्वारा मन्दिर उद्घाटन का सीधा प्रसारण करने का इन्तज़ाम बिहार के शामियाने वालों के एसोसियेशन के साथ मिलकर भाजपा कर रही है। हरियाणा सरकार ने घोषणा की है कि वह मन्दिर उद्घाटन के बाद हरियाणा से अयोध्या तक की हज़ारों वोल्वो बसें चलायेगी। इसी प्रकार यह ख़बर भी आ रही है कि मन्दिर उद्घाटन के दिन विशेष ट्रेनें व बसें चलाने का रेल विभाग व तमाम परिवहन विभाग इन्तज़ाम कर रहे हैं। तमाम शहरों में अपार्टमेण्टों में रहने वाले खाए-पिये-अघाये-मुटियाये उच्च मध्यवर्ग के बीच रेज़िडेण्ट वेलफ़ेयर एसोसियेशन के ज़रिये भाजपा के लोग ‘पूजित अक्षत’ लेकर जा रहे हैं और राम मन्दिर के उद्घाटन को लेकर धार्मिक उन्माद का माहौल तैयार कर रहे हैं। कुछ ज़िलों में तो प्रशासन ने स्कूलों में धार्मिक कार्यक्रम करने या दुकानदारों को राम मन्दिर का मॉडल रखने का सरकारी आदेश तक जारी कर दिया है।
हर कोई जानता है कि यह कोई धार्मिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्यक्रम है। महँगाई को क़ाबू करने, बेरोज़गारी पर लगाम कसने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़गार-सुरक्षा, बेहतर काम और जीवन के हालात, बेहतर मज़दूरी, व अन्य श्रम अधिकार मुहैया कराने में बुरी तरह से नाकाम मोदी सरकार वही रणनीति अपना रही है, जो जनता की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उसे बेवकूफ़ बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और उसका आका संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से अपनाते रहे हैं। चूँकि मोदी सरकार के पास पिछले 10 वर्षों में जनता के सामने पेश करने को कुछ भी नहीं है, इसलिए वह रामभरोसे सत्ता में पहुँचने का जुगाड़ करने में लगी हुई है। इसके लिए मोदी–शाह की जोड़ी के पास तीन प्रमुख हथियार हैं : पहला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देशव्यापी सांगठनिक काडर ढाँचा; दूसरा, भारत के पूँजीपति वर्ग की तरफ़ से अकूत धन–दौलत का समर्थन; और तीसरा, कोठे के दलालों जितनी नैतिकता से भी वंचित हो चुका भारत का गोदी मीडिया, जो खुलेआम साम्प्रदायिक दंगाई का काम कर रहा है और भाजपा व संघ परिवार की गोद में बैठा हुआ है।
यह जो सबकुछ चल रहा है, इसके बारे में कई सवाल हैं, जो एक मज़दूर को, एक मेहनतकश को पूछने चाहिए। आइए, एक–एक करके इन सवालों पर विचार करते हैं।
मन्दिर बनवाना, उसका उद्घाटन करवाना और उसे लेकर प्रचार करना क्या किसी सरकार का काम होता है?
मालिकों की जमात के पूँजीवादी लोकतन्त्र के मानकों से भी देखें तो किसी देश में मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, गुरद्वारे बनवाना सरकार का काम नहीं होता है। यह धार्मिक संस्थाओं का काम होता है, जिसमें धर्म को मानने वाले लोग होते हैं। और एक सेक्युलर पूँजीवादी लोकतन्त्र में धर्म पूरी तरह से लोगों का व्यक्तिगत मसला होता है। लेकिन भारत में पूँजीवाद फ्रांस या अमेरिका की तरह किसी जनवादी क्रान्ति के ज़रिये तो आया नहीं है! यह ज़मीन्दारों के वर्ग के साथ समझौते करके और उसे क्रमिक प्रक्रिया में पूँजीवादी भूस्वामी में तब्दील होने का मौका देते हुए, खरामा-खरामा आया है। नतीजतन, यहाँ क्रान्तिकारी जनवाद की ज़मीन हमेशा से बेहद कमज़ोर रही है। साम्राज्यवाद के दौर में जन्मे यहाँ के बौने लेकिन चालाक पूँजीपति वर्ग में यह दम ही नहीं था कि वह सेक्युलरिज़्म व अन्य जनवादी उसूलों पर अमल कर पाता। यहाँ की धर्मनिरपेक्षता का सच्चे सेक्युलरिज़्म से कोई लेना-देना नहीं रहा है। धर्म को राज्य व सामाजिक जीवन से पूर्ण रूप से अलग करने के सेक्युलर उसूल की जगह इसने ‘सर्वधर्म समभाव’ का धोखेबाज़ी भरा जुमला अपनाया जिसका असली मतलब यह था कि मज़दूरों और मेहनतकशों को बाँटने और बेवकूफ़ बनाने के लिए हर धर्म का समानतापूर्ण तरीके से इस्तेमाल करो!
सच्चे सेक्युलर व जनवादी उसूलों के अनुसार, यदि सरकार में मौजूद कोई व्यक्ति ईश्वर में आस्था रखता भी है, तो अपने सरकारी काम, अपनी राजनीतिक गतिविधियों में वह कभी भी अपने धर्म या ईश्वर को नहीं ला सकता है। वजह यह है कि निजी जीवन में आस्था के अनुसार चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो या ईसाई हो, या फिर वह नास्तिक ही क्यों न हो, वह केवल किसी एक धर्म या सम्प्रदाय के लोगों का नुमाइन्दा नहीं होता है। एक पूँजीवादी देश में भी, कम-से-कम जब तक वह सेक्युलर होने का दावा करता है, कोई प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री, विधायक, सांसद या पार्षद क़ानूनी व औपचारिक तौर पर हरेक नागरिक का नुमाइन्दा होता है, वह हरेक नागरिक का प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री, सांसद, विधायक या पार्षद होता है, चाहे किसी ने उसे वोट दिया हो या न दिया हो। इसलिए वह अपने व्यक्तिगत धर्म या आस्था को अपने राजनीतिक जीवन में कहीं भी नहीं आने दे सकता। यदि वह ऐसा करता है, तो ज़ाहिर है कि वह अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए, सत्ता के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण करना चाहता है।
कोई नौकरशाह, कोई जज या अधिकारी और साथ ही देश का मीडिया भी जनता के प्रति ही जवाबदेह होता है। वह किसी एक धर्म या आस्था का प्रचार नहीं कर सकता और न ही उसका कोई सम्बन्ध मन्दिरों-मस्जिदों के उद्घाटनों से होता है। औपचारिक जनवादी अर्थों में कहें तो मीडिया का काम होता है जनता के असल मुद्दों को उभारना और उन पर लोगों को जागरूक और सचेत करना। उसी प्रकार सरकारी मशीनरी का काम होता है जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, सरकारी योजनाओं को लागू करवाना, जनता की दिक़्क़तों को दूर करने के लिए कार्रवाई करना। और न्यायपालिका का काम होता है यह सुनिश्चित करना कि जनता को कम-से-कम पूँजीवादी दायरे में बुर्जुआ न्याय मिले। कम-से-कम बचपन से हमें बताया तो यही गया है। लेकिन हमारे देश में प्रधानमन्त्री, भाजपा के तमाम मुख्यमन्त्री, भाजपा के तमाम सांसद, विधायक व पार्षद खुलेआम राम मन्दिर के प्रचार में लगे हुए हैं, इसमें जनता के हज़ारों करोड़ रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं और धार्मिक उन्माद पैदा किया जा रहा है। समूची सरकारी मशीनरी को इस काम में झोंक दिया गया है ताकि मोदी-शाह की जोड़ी फिर से सत्ता में पहुँच सके।
कोई सरकार जो सही मायने में सेक्युलर हो, वह इस प्रकार की कार्रवाई कर ही नहीं सकती है। लेकिन हमारे देश में न्यायपालिका तक इस राजनीतिक अश्लीलता पर चुप्पी साधे हुए है। यह किसी प्रकार से क़ानूनी है कि बाक़ायदा सरकारी संस्थाओं का इस्तेमाल करके एक विशिष्ट धर्म या आस्था के प्रतीकों, पूजास्थलों व देवी-देवताओं का प्रचार किया जा रहा है? लेकिन हमारे देश का सुप्रीम कोर्ट तक इस पर चुप्पी साधे हुए है।
सरकार किसलिए होती है? औपचारिक नियमों व सिद्धान्तों के अनुसार चलें, जो पूँजीवादी किताबों तक में पढ़ाये जाते हैं, तो सरकार एक सामाजिक क़रारनामे के तौर पर अस्तित्व में आती है, जिसमें समाज के नागरिक सामूहिक तौर पर अपनी सम्प्रभुता, यानी अपना शासन स्वयं करने के अधिकार, को सरकार के हवाले करते हैं, उसे अपना प्रतिनिधि घोषित करते हैं और बदले में सरकार को जनता को रोटी, कपड़ा, मकान, रोज़गार, पढ़ाई, दवा-इलाज, पीने योग्य पानी, बिजली, सड़कें, सुरक्षा व अन्य सभी आवश्यक वस्तुएँ व सेवाएँ मुहैया करानी होती है। यदि सरकार ऐसा नहीं करती, तो उसे सरकार बने रहने का कोई हक़ नहीं है।
धर्म हरेक नागरिक का पूरी तरह से निजी मामला होता है। कोई व्यक्ति कौन-सा धर्म मानता है या कोई भी धर्म नहीं मानता, यह किसी अन्य नागरिक का, किसी सामाजिक या राजनीतिक मंच का मसला नहीं होता, और यदि कोई व्यक्ति उसे सामाजिक या राजनीतिक जीवन में घुसाता है तो एक सेक्युलर देश की सरकार उस व्यक्ति पर आपराधिक मुकदमा दर्ज़ करेगी। लेकिन हमारे देश में उल्टी गंगा बह रही है। यहाँ स्वयं सरकार ही धार्मिक उन्माद फैलाने का काम कर रही है, ताकि हरेक आर्थिक मोर्चे पर फ़ेल सत्ताधारी फ़ासीवादी गिरोह सत्ता में बरक़रार रहे।
130 करोड़ की आबादी में से 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के बूते जी रहे हैं। वे बेरोज़गारी व ग़रीबी के इस कदर मारे हुए हैं कि लगातार अर्द्ध-भुखमरी और कुपोषण में जीना उनकी नियति बन गया है। ऊपर से मोदी सरकार व अन्य भाजपा सरकारें ये 5 किलो राशन (जो अक्सर बेहद ख़राब गुणवत्ता का या सड़ा हुआ भी निकलता है) देने का इस धूम-धड़ाके से श्रेय लेने का प्रयास करतीं हैं, मानो उन्होंने जनता को सामाजिक और आर्थिक न्याय दे डाला हो! जबकि यह शर्म की बात है कि हमारे देश की 70 फीसदी से ज़्यादा जनता को आज सरकार के ख़ैराती राशन से काम चलाना पड़ रहा है। ताज्जुब की बात नहीं है कि मोदी सरकार पिछले 10 वर्षों में वे सारे काम करने में बुरी तरह से नाकाम रही है, जो पूँजीवादी जनवादी मानकों से भी एक सरकार को करने चाहिए और इतनी बुरी तरह से नाकाम रही है कि उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। नोटबन्दी से लेकर कोरोना काल के कुप्रबन्धन व अनियोजित लॉक डाउन से लेकर, जीएसटी व पेट्रोल उत्पादों पर अप्रत्यक्ष करों के अभूतपूर्व बोझ तक देखें तो मोदी सरकार जितना न तो जनता को किसी ने लूटा है और न ही पूँजीपतियों के हितों में अर्थव्यवस्था का इस क़दर कुप्रबन्धन किया है। पिछले 10 सालों में ही अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला आदि की सम्पत्ति में इतनी बढ़ोत्तरी हुई है जिसकी हमारे देश के इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। इतने कम समय में इन धनपशुओं की सम्पत्ति में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसकी दुनिया में भी कम ही मिसालें मिलेंगी। वजह यह है कि जनता की लूट-खसोट के ऐसे कीर्तिमान कभी नहीं बने।
मज़दूर ख़ुद जानते–समझते हैं कि पिछले 10 वर्षों मालिक, ठेकेदार व पूँजीपति वर्ग के अन्य हिस्से उसके प्रति कितने आक्रामक हो गये हैं। मज़दूरी की औसत दर में मामूली-सी सांकेतिक बढ़ोत्तरी हुई है, जिसकी तुलना यदि महँगाई की दर से करें तो वास्तव में मज़दूर वर्ग व मेहनतकश जमात की औसत वास्तविक मज़दूरी घटी है। मोदी सरकार नये लेबर कोड लाकर मज़दूरों को संगठित होने की सूरत में क़ानूनी तौर पर जो औपचारिक सुरक्षा मिल सकने की क्षीण सम्भावना थी, वह भी ख़त्म कर रही है, ताकि पूँजीपतियों को लेबर कोर्ट आदि का थोड़ा भी सरदर्द न झेलना पड़े। वैसे भी लेबर कोर्टों की पूरी व्यवस्था को फैक्ट्री इंस्पेक्टरों, लेबर इंस्पेक्टरों व अन्य स्टाफ़ की वर्षों से भर्ती न करके बरबाद कर दिया गया है। वास्तव में, पिछले 10 सालों में एक ऐसी स्थिति मोदी सरकार ने पैदा की है कि जितनी थोड़ी-बहुत सुनवाई मज़दूरों को लेबर कोर्ट व सिविल कोर्ट में मिल जाया करती थी, अब वह भी नहीं मिलती है। हालाँकि पहले भी संगठित हुए बिना व यूनियन के समर्थन के बिना किसी मज़दूर को बिरले ही इन कोर्टों में न्याय मिलता था और वह वर्षों तक अदालतों के चक्कर काटते चप्पलें घिस देता था, बाल सफेद कर देता था। लेकिन अब यूनियनों के समर्थन के साथ भी लेबर कोर्टों से कोई न्याय मिलने की उम्मीद नहीं रह गयी है। कारखानों के निरीक्षण की माँग पर लेबर कोर्ट ख़ुद ही हाथ खड़े कर देते हैं और कहते हैं कि इंस्पेक्टर ही नहीं हैं और स्टाफ़ ही नहीं हैं कि कारखानों में सुरक्षा, न्यूनतम मज़दूरी आदि का निरीक्षण किया जा सके। पिछले 10 सालों में मोदी सरकार ने सुनिश्चित किया है कि जब तक औपचारिक तौर पर श्रम क़ानून बने हुए हैं, तब तक भी उनकी प्रभाविता को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाये। इसीलिए श्रम क़ानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को ही पूरी तरह से मोदी सरकार बरबाद कर चुकी है और अभी भी कर रही है।
एक ऐसे देश में जहाँ रोज़ 5 हज़ार से ज़्यादा बच्चे भूख व कुपोषण से मर जाते हों, जहाँ 50 प्रतिशत से ज़्यादा औरतें ख़ून की कमी का शिकार हों, जहाँ 30 करोड़ से ज़्यादा लोग बेरोज़गार घूम रहे हों और आधे से ज़्यादा नौकरी ढूँढ रहे नौजवान बेरोज़गार ढूँढ रहे हों, जहाँ 14 करोड़ से भी ज़्यादा ग़रीब किसान सरकारी ऋण व समर्थन के अभाव में धनी फार्मरों, कुलकों व सूदख़ोरों के क़र्ज़ में दबकर लाखों की संख्या में आत्महत्याएँ कर रहें हों, जहाँ हर मिनट एक स्त्री-विरोधी अपराध होता हो जिसमें अक्सर ख़ुद सत्ताधारी भाजपा के लोग शामिल हुआ करते हों, वहाँ पर हज़ारों करोड़ रुपये राम मन्दिर की “प्राण–प्रतिष्ठा” के नाम पर बहाना, समूची सरकारी मशीनरी को उसमें झोंक देना और सत्ताधारी पार्टी का इसके ज़रिये धार्मिक उन्माद फैलाने में लग जाना क्या शुद्धत: राजनीतिक अश्लीलता, घटियाई और सीनाजोरी नहीं है? यह भला किसी सरकार का काम कबसे होने लगा? वास्तव में, जनता के प्रति सरकार का जो कर्तव्य व जवाबदेही होती है, उसे पूरा करने में तो मोदी सरकार पूरी तरह से नाकाम रही है। यही वजह है कि भाजपा मन्दिर राजनीति के तन्दूर को फिर से गर्म करने के लिए हज़ारों करोड़ रुपये बहा रही है।
अगर मोदी सरकार सफल है तो वह हज़ारों करोड़ रुपये मन्दिर प्रचार में बहाने के बजाय रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा व रिहायश सम्बन्धी अपनी योजनाओं व अन्य जनकल्याणकारी योजनाओं का प्रचार क्यों नहीं करती?
अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार तो मोदी सरकार तब करेगी जब जनता का पिछले 10 सालों में कोई कल्याण हुआ हो! इन 10 सालों आम मेहनतकश जनता केवल तबाहो-बरबाद हुई है, जिसके बदले में उसे 5 किलो राशन की ख़ैरात देकर और धर्म की अफ़ीम चटाकर चुप कराया जा रहा है।
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान नरेन्द्र मोदी-नीत भाजपा ने जो नारे दिये थे, वे अब मज़ाक बन चुके हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि भाजपा अब कभी ‘अच्छे दिनों’ का नाम तक क्यों नहीं लेती? क्या आपने सोचा है कि नरेन्द्र मोदी अब कभी नोटबन्दी का ज़िक्र तक क्यों नहीं करते? वैसे तो भाजपा हर धार्मिक घटना की वर्षगाँठ मनाती है! वह नोटबन्दी को लागू किये जाने की वर्षगाँठ क्यों नहीं मनाती? वह जीएसटी को लागू किये जाने की वर्षगाँठ क्यों नहीं मनाती?
क्या आपने कभी सोचा है कि अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार पिछले 10 वर्षों में इतनी कामयाब थी, तो वह हज़ारों करोड़ रुपये राम मन्दिर के उद्घाटन के प्रचार पर बहाने के बजाय उन 100 स्मार्ट सिटीज़ के प्रचार पर क्यों नहीं बहाती जो कि मोदी सरकार के दावे के अनुसार बन चुकी हैं? वह हर वर्ष 2 करोड़ रोज़गार देने के अपने वायदे की सफलता का प्रचार क्यों नहीं करती, जो उसने हर चुनाव के पहले किया है? वह पिछले 9 सालों में ग़रीबों के लिए 3 करोड़ मकान बनाये जाने की अपनी उपलब्धि का भी उतने ज़ोर–शोर से प्रचार क्यों नहीं करती? इसलिए क्योंकि ये दावे झूठ हैं! यह सिर्फ़ हम नहीं कह रहे हैं। जब मोदी सरकार के इन दावों की पड़ताल तथ्य जाँचने वाले कुछ ईमानदार पत्रकारों ने की तो पता चला कि ये कोरे झूठे दावे हैं। यही वजह है कि मोदी सरकार अपनी इन झूठी कथित “उपलब्धियों” का प्रचार करने और उनका जश्न मनाने पर हज़ारों करोड़ रुपये नहीं बहाती है। और ठीक यही वजह है कि महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और मज़दूरों के भयंकर शोषण के सवाल पर बुरी तरह से फेल होने के बाद भाजपा, संघ परिवार और मोदी-शाह सरकार अब रामलला के भरोसे है!
दूसरी ओर, भारत की तमाम बड़ी कम्पनियों और बड़े मालिकान को मोदी सरकार ने जमकर फ़ायदा पहुँचाया है। इसलिए वे अपनी पूँजी की ताक़त मोदी सरकार की सेवा में लगाये हुए हैं। उन्हीं के सारे मीडिया चैनल भी हैं। ज़ाहिर है कि वे मोदी सरकार और बड़े मालिकान व कम्पनियों के हितों के अनुसार ही बकवास करेंगे और कर रहे हैं। बड़े मालिकान व कम्पनियों को मोदी सरकार ने किस प्रकार फ़ायदा पहुँचाया है। 2014-15 से लेकर 2021-22 तक ही मोदी सरकार ने कुल कर आमदनी में कारपोरेट टैक्स (यानी, सबसे धनी पूँजीपतियों द्वारा दिया जाने वाला टैक्स) का हिस्सा लगभग 35 प्रतिशत से घटाकर 24 प्रतिशत कर दिया। यानी 10 प्रतिशत की कटौती। यहाँ तक कि छोटे पूँजीपतियों की कम्पनियों के लिए भी टैक्स को 25 प्रतिशत के बेस से घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया। यही कारण है कि छोटे और मँझोले पूँजीपति बड़ी पूँजी से प्रतिस्पर्द्धा में पिटते भी रहते हैं, लेकिन मोदी सरकार का गुणगान भी करते रहते हैं। कस्टम शुल्क को इसी दौर में 15.1 प्रतिशत से घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया। ज़ाहिर है, इसका फ़ायदा भी देशी व विदेशी पूँजीपति वर्ग को पहुँचा।
दूसरी ओर, अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर अभूतपूर्व सीमा तक पहुँचा दिया गया है, जिसका बोझ मुख्य तौर पर आम जनता उठाती है। पेट्रोल व डीज़ल की क़ीमत का लगभग 50 से 60 प्रतिशत तो सरकार को दिया जाने वाला टैक्स है! रसोई गैस की क़ीमत इसी दौ रु. 410 से बढ़कर रु. 1000 के करीब पहुँच चुकी है और कुछ राज्यों में रु. 1000 को पार कर गयी है। यह सब जनता पर लादा जा रहा अप्रत्यक्ष करों का बोझ है। आप ख़ुद सोचें: पेट्रोल उत्पादों पर कर से 2014 में सरकार की आमदनी थी रु. 99,000 करोड़। और आज यह रु. 4 लाख करोड़ के करीब है! यानी, करीब 300 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। यह सबकुछ आपकी–हमारी मज़दूरी में से कटौती है, जो पूँजीपति वर्ग सरकार के द्वारा कर रहा है। यानी, मोदी सरकार पूँजीपतियों को अभूतपूर्व छूट देने से सरकारी ख़ज़ाने में होने वाली कमी को जनता के ऊपर अप्रत्यक्ष करों का बोझ लादकर पूरा कर रही है। इस मामले में मोदी सरकार का नारा स्पष्ट है: पूँजीपतियों को पूजो, आबाद करो – जनता को लूटो, बरबाद करो! बदले में जनता को मन्दिर–मस्जिद की राजनीति में उलझाकर रखा और धर्म की अफ़ीम चटाते रहो।
मोदी सरकार इन क्षेत्रों में अपने द्वारा किये गये कारनामों के प्रचार पर पानी की तरह पैसा क्यों नहीं बहा रही है? वह इसका प्रचार क्यों नहीं कर रही है कि नोटबन्दी के बाद आतंकवाद और भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया? लेकिन फिर बताना पड़ता है कि पुलवामा हमला तो नोटबन्दी के बाद ही हुआ था! साथ ही, भाजपा द्वारा राफ़ेल घोटाला भी नोटबन्दी के एक साल बाद ही हुआ! तो आतंकवाद की कमर तो टूटी नहीं, ऊपर से भाजपा वाले ही भ्रष्टाचार की कीचड़ में नहा रहे हैं! तो फिर मोदी सरकार भला इस “उपलब्धि” का प्रचार कैसे करे?
उसी प्रकार “बहुत हुआ नारी पर वार” के नारे का क्या हुआ? स्त्री–विरोधी अपराध कम करने का मोदी सरकार प्रचार क्यों नहीं करती? इसका जवाब तो हर किसी को पता है। जब सारे भाजपा के नेता–मन्त्री, विधायक, सांसद, पार्षद और स्थानीय छुटभैये स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर रहे हों, जब योगी, मोदी, अमित मालवीय के साथ फोटो खिंचवाने वाले भाजपा युवा मोर्चा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के गुण्डे आये–दिन बलात्कार व हत्या में धरे जा रहे हों और जब हर मिनट एक औरत का बलात्कार किया जा रहा हो, तो मोदी सरकार किस मुँह से स्त्री–विरोधी अपराधों पर काबू करने की बात करेगी? जब बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसके परिवार के हत्यारों को गुजरात सरकार सारे नियम-कायदे ताक पर रखकर रिहा कर रही हो, गुजरात हाईकोर्ट इसमें उसका साथ दे रहा हो, और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने पूँजीवाद की लुटती इज्जत बचाने के लिए इन मानवद्रोही हत्यारों को दोबारा जेल में भेजकर गुजरात सरकार को फटकार लगायी हो, तो मोदी सरकार स्त्री-विरोधी अपराधों पर काबू करने का प्रचार कैसे करेगी?
मोदी सरकार का हर वर्ष 2 करोड़ रोज़गार देने का वायदा कहाँ गया? हर वर्ष 2 करोड़ रोज़गार देने के बजाय मोदी सरकार ने अपने 10 वर्षों में नोटबन्दी और अनियोजित लॉकडाउन के ज़रिये और मज़दूरों के शोषण की दर को बढ़ाने में पूँजीपतियों की मदद करके बेरोज़गारी की दर को अभूतपूर्व स्तर पर पहुँचा दिया। इसी दौर में 5 करोड़ से ज़्यादा लोगों ने रोज़गार खोया। निजीकरण की जो आँधी मोदी सरकार ने चला रखी है, वह बेरोज़गारी में हर वर्ष इज़ाफ़ा कर रही है। नौजवानों का आधा हिस्सा बेरोज़गार है। और तो और, सरकारी बेरोज़गारी दर ही 10 प्रतिशत पार कर रही है, जिसके अनुसार, अगर पिछले हफ़्ते किसी व्यक्ति को एक दिन रोज़गार मिला था, तो उसे नौकरीशुदा माना जायेगा! अगर ऐसे मज़ाकिया मानक से भी 10 प्रतिशत काम करने योग्य लोग बेरोज़गार हैं, तो समझा जा सकता है कि रोज़गार के सच्चे मानकों के अनुसार देश में कितने बेरोज़गार होंगे। कुछ आकलनों के अनुसार, इस समय ऐसे लोग जो रोज़गार ढूँढ रहे हैं और उन्हें रोज़गार नहीं मिल रहा, उनकी तादाद 30 से 32 करोड़ के बीच है। ज़ाहिरा तौर पर, वे सब हिण्डन पुल से कूदकर आत्महत्या नहीं कर लेते। कोई काम चलाने के लिए पटरी दुकानदारी करता है, कोई रेहड़ी-खोमचा लगाता है, कोई लेबर चौक पर खड़ा होता है, तो कोई सेल्समैनी या गार्ड का काम कर लेता है और इसी तरह से भुखमरी और कुपोषण की रेखा पर किसी तरह से ज़िन्दा रहता है। जब देश में रोज़गार के ऐसे हालात हों तो ज़ाहिर है कि मोदी सरकार नौकरी देने के मामले में सफलता का प्रचार तो कर नहीं सकती!
इसलिए स्पष्ट है कि मोदी सरकार हज़ारों करोड़ रुपये राम मन्दिर के प्रचार पर क्यों बहा रही है और अपनी योजनाओं की सफलता के प्रचार पर क्यों नहीं बहा रही, हालाँकि सफल योजनाओं को जनता उनकी सफलता के कारण ही अपने जीवन के अनुभवों के ज़रिये जानती है, उनके प्रचार की आवश्यकता नहीं होती। सच्चाई यह है कि जनता की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के मामले में, जो कि सरकार का पहला काम होता है, मोदी सरकार भयंकर तरीके से फ़ेल हुई है। वह रोज़गार, महँगाई कम करने, स्त्री–विरोधी अपराधों को कम करने, नोटबन्दी की सफलता पर, कोरोना के लॉकडाउन की सफलता पर, रसोई गैस सस्ती करने के सवाल पर वोट माँग ही नहीं सकती; जो भाजपा नेता ऐसा करने का प्रयास करेगा, वह जनता के हाथों जूते खायेगा।
यही कारण है कि भाजपा के पास अपना पुराना तुरुप का पत्ता ही बचा है : साम्प्रदायिकता और धार्मिक जुनून फैलाकर जनता को उसके ही हितों के विपरीत फ़ासीवादी लहर में बहाना, मुसलमानों को दुश्मन के तौर पर दिखाना और “धर्म पर ख़तरे” और “हिन्दू ख़तरे में है” का नकली और काल्पनिक भय पैदा करके, लोगों के वोट बटोरना।
मोदी सरकार व संघ परिवार की रणनीति
ये ही वे कारण है जिनके चलते मोदी सरकार रामभरोसे 2024 में सत्ता में पहुँचने की जुगत भिड़ा रही है। वह आपकी धार्मिक भावनाओं का शोषण कर आप को ही मूर्ख बना रही है। हिटलर ने इसी प्रकार नस्लवाद का इस्तेमाल कर जर्मन जनता को उन्माद में बहाया था और बाद में नतीजा यह हुआ था कि जर्मन जनता का बहुलांश तबाहो-बरबाद हो गया था। जब तक जर्मनी की जनता का बहुलांश बरबाद नहीं हुआ था तो उसे भी लगता था कि जर्मनी दुनिया का महानतम राष्ट्र, “विश्वगुरु” और न जाने क्या–क्या बन गया था। मोदी के ही समान जर्मन मीडिया पर भी हिटलर का क़ब्ज़ा था। मीडिया का इस्तेमाल करके झूठ को सच और सच को झूठ बनाने का काम आज मोदी सरकार हिटलर की सरकार से कहीं ज़्यादा कुशलता से कर रही है क्योंकि आज संचार के साधन भी पहले से कहीं ज़्यादा उन्नत हैं और उनकी कहीं ज़्यादा पहुँच है।
मोदी सरकार धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। वह अपने आपको “धार्मिक” दिखाती है। इसका यह अर्थ नहीं कि भाजपा के लोग बड़े दूध के धुले, धर्मध्वजाधारी, आदर्शों व नैतिकता के पहरेदार हैं। भाजपा और संघ परिवार के तमाम संगठनों में कैसे संस्कारी लोग भरे हैं, यह तो विशेष तौर पर पिछले 10 सालों में सबको पता चल गया है। अगर किसी इलाके में यह ख़बर आती है कि वहाँ से भाजपाइयों की रैली या जुलूस निकलने वाला है तो स्त्रियाँ तो वैसे ही घर के भीतर चली जाती हैं। ‘बेटी बचाओ’ नारे का मतलब जनता को अब समझ में आया है : ‘भाजपा से बेटी बचाओ!’ धर्म का चोगा तो भाजपा सिर्फ़ इसलिए ओढ़ती है, क्योंकि जनता के पिछड़े हिस्से आदर्श, नैतिकता, सद्चरित्र, सत्य आदि को धर्म से जोड़कर देखते हैं, हालाँकि इसका कोई ठोस आधार नहीं होता। यह एक विचारधारात्मक यानी कि छलने वाली झूठी छवि है, जो सदियों से शासक वर्गों ने जनता को दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाये रखने के लिए बनायी है और लोक चेतना में उसे बिठाया है।
लेकिन धर्म के क्षेत्र में भी भाजपा महज़ धार्मिक छवि इस्तेमाल करके अपने “चाल–चेहरा–चरित्र” को साफ़ नहीं दिखाना चाहती, बल्कि वह समूची हिन्दू आबादी की एकमात्र प्रवक्ता व प्रतिनिधि बनना चाहती है, ताकि भाजपा का विरोधी होने को ही हिन्दू–विरोधी होना दिखलाया जा सके। इसके एक प्रमाण पर ग़ौर करिये: हिन्दू धर्म के भीतर भी जो संस्थान, सन्त, नेता आदि राम मन्दिर के राजनीतिक इस्तेमाल किये जाने का विरोध कर रहे हैं, गोदी मीडिया उन पर चुप्पी साधे हुए है। चार पीठों के शंकराचार्यों ने राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा का यह कहकर विरोध किया है कि मोदी सरकार अपने चुनावी व राजनीतिक फ़ायदे के लिए एक अधूरे बने मन्दिर का उद्घाटन कर रही है। इसके ज़रिये, वह 2024 के लोकसभा चुनावों में, विशेष तौर पर उत्तर भारत की हिन्दी पट्टी में वोट बटोरना चाहती है। लेकिन कोई गोदी मीडिया इन शंकराचार्यों का इण्टरव्यू लेने नहीं जा रहा है।
अब मोदी सरकार यह तो बोल नहीं सकती कि ये सारे शंकराचार्य हिन्दू धर्म–विरोधी हैं! कांग्रेस को तो राम मन्दिर उद्घाटन पर न जाने के लिए भाजपा व मोदी सरकार ने तुरन्त ही हिन्दू–विरोधी बता दिया! लेकिन शंकराचार्य को कैसे हिन्दू–विरोधी कहें! इससे तो सारा खेल ही बिगड़ जायेगा! नतीजतन, हिन्दू धर्म के दायरे के भीतर मौजूद ऐसी ताक़तों का भी मोदी सरकार गोदी मीडिया द्वारा ब्लैक-आउट करवा रही है। उसका मकसद साफ़ है: मोदी को हिन्दू–हृदय सम्राट के रूप में पेश करना और इस बात को एक ‘कॉमन सेंस’ के रूप में जनता में स्थापित कर देना कि जो मोदी–विरोधी है वह हिन्दू–विरोधी है! मोदी व भाजपा हिन्दू आबादी के अकेले प्रवक्ता और प्रतिनिधि हैं। धर्म तक पहुँच भी भाजपा और संघ परिवार के ज़रिये और नरेन्द्र मोदी के आशीर्वाद के ज़रिये ही होगी, जिसे कुछ छुटभैये भाजपाई नेता तो विष्णु का नया अवतार भी बताने लगे हैं! मीडिया व संचार तन्त्र पर अपना नियन्त्रण हिटलर के समान ही, या हिटलर से भी बेहतर तरीके से क़ायम करके मोदी सरकार व संघ परिवार अपने इस घटिया मंसूबों को कामयाब बनाने की तरकीबें लगा रहे हैं।
हमारे देश के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों ने अपने पूर्वजों यानी हिटलर व मुसोलिनी से सीखा है। हमें भी अपने पूर्वजों यानी इन देशों में क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग व मेहनतकश जनता व उनके राजनीतिक नेतृत्व की ग़लतियों से सीखना चाहिए। निश्चित तौर पर, जनता केवल मीडिया से सच को झूठ व झूठ का सच समझती रहे, ऐसा नहीं होता। आज तो जनता का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा गोदी मीडिया की सच्चाई से वाकिफ़ भी हो रहा है। जनता अपने जीवन के हालात से भी सच्चाई को समझती है और कहना चाहिए कि सबसे पहले वह अपने जीवन के अनुभवों से सच्चाई की पड़ताल करती है। किसी भूखे को टेलीविज़न कितना भी बताता रहे कि उसका पेट भरा है, वह नहीं मानेगा। किसी बेरोज़गार को गोदी मीडिया कितना भी बताता रहे कि वह नौकरीशुदा है, या वह नौकरी न ढूँढ़े बल्कि खुद ही कोई धन्धा कर ले, तो वह सहमत होगा क्या? आम तौर पर, नहीं होगा।
लेकिन केवल इतने से ही जनसमुदायों का बड़ा हिस्सा फ़ासीवाद के विरोध में नहीं खड़ा हो सकता कि वह फ़ासीवादी प्रचार की सच्चाई को कमोबेश समझने लगे। उसे राजनीतिक नेतृत्व की ज़रूरत होती है, जो अपनी हिरावल पार्टी की अगुवाई में केवल और केवल सर्वहारा वर्ग ही दे सकता है। केवल ऐसी ताक़त के नेतृत्व में आम मेहनतकश जनता एक विकल्प देख पाती है, उस विकल्प को अपना पाती है, अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों जैसे भोजन, आवास, रोज़गार, शिक्षा व चिकित्सा के लिए सड़कों पर उतर पाती है, सरकार को घेर पाती है। कुछ क्रान्तिकारी जनसमुदायों को यह विकल्प देने के जटिल और दुरूह संघर्ष से तो भाग खड़े होते हैं और फिर जनता को ही गाली देते हैं कि वह मोदी सरकार के ख़िलाफ़ उठ क्यों नहीं खड़ी होती! सर्वहारा वर्ग का नज़रिया साफ़ है : जब तक जनता के सामने एक ठोस राजनीतिक नेतृत्व, एक ठोस राजनीतिक कार्यक्रम और एक ठोस राजनीतिक विकल्प नहीं होगा, तब तक जनता जुआ नहीं खेलती।
फ़ासीवादी चुनौती का जवाब कैसे दें?
आज का सबसे बड़ा तात्कालिक कार्यभार यह है : जनता के असल मुद्दों, यानी बेरोज़गारी, महँगाई, आवास, शिक्षा, चिकित्सा, भ्रष्टाचार व साम्प्रदायिकता के मसले पर ठोस माँगों व ठोस कार्यक्रम के साथ व्यापक मेहनतकश जनता को जागरूक, गोलबन्द और संगठित किया जाये; उसे साम्प्रदायिक फ़ासीवादी मोदी सरकार की असलियत से वाकिफ़ कराया जाये; उसे सच्चे सेक्युलरिज़्म के उसूलों से वाकिफ़ कराया जाये; उसे बताया जाये कि मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए सबसे सही और सटीक बात है कि धर्म को वे पूर्णत: निजी मामला घोषित कर दें और मालिकों की किसी भी पार्टी को अपनी धार्मिक भावनाओं का शोषण न करने दें। याद रखें कि शहीदे–आज़म भगतसिंह ने फाँसी चढ़ने से पहले देश के मेहनतकशों को क्या सन्देश दिया था। भगतसिंह ने देश के मज़दूरों व ग़रीब किसानों से कहा था : हम धर्म के मामले में अलग होकर भी अपनी राजनीति में एक हो सकते हैं और हमें होना ही होगा। इसके बिना हम मालिकों के जमात के हाथों धोखा खाते रहेंगे, लुटते रहेंगे और कुचले जाते रहेंगे। आज हमें अपने असल मुद्दों पर एक जुझारू जनान्दोलन खड़ा कर फ़ासीवादी, जनविरोधी, मज़दूर-विरोधी, ग़रीब किसानों की विरोधी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी व आदिवासी-विरोधी मोदी सरकार को घेरना होगा, कठघरे में खड़ा करना होगा और उसकी व संघ परिवार की साम्प्रदायिक राजनीति को सिरे से नकार देना होगा। यह सबसे पहला तात्कालिक कार्यभार है।
इसके साथ ही आज देश में मेहनतकशों के संघर्षों को एक लड़ी में पिरोने और उन्हें सूझबूझ के साथ नेतृत्व देने के लिए एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को खड़ा करने, उससे जुड़ने और उसे मज़बूत करने की ज़रूरत है। जिस प्रकार के देशव्यापी क्रान्तिकारी जनान्दोलन को खड़ा करने की आज ज़रूरत है, वह एक क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व के बिना बहुत लम्बा सफ़र नहीं तय कर पायेगा। जिन आन्दोलनों के पास एक सूझबूझ वाला राजनीतिक नेतृत्व, एक ठोस राजनीतिक कार्यक्रम और एक स्पष्ट राजनीतिक विकल्प नहीं होता, वे कालान्तर में बिखर जाने के लिए अभिशप्त होते हैं। इसलिए मज़दूरों, मेहनतकशों, ग़रीब किसानों और निम्न व मँझोले मध्यवर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली एक देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को खड़ा करने का काम हमें आज ही से शुरू करना होगा। यह तात्कालिक कार्यभार भी है और दूरगामी कार्यभार भी।
इसके अलावा, आज हरेक मज़दूर-मेहनतकश को कुछ बातें समझ लेने की ज़रूरत है, जो ये हैं :
मोदी सरकार और उसके नेता-मन्त्री जो भी बोलें, आम तौर पर, उसके उल्टे को आप सच मान सकते हैं।
व्हाट्एप आदि के ज़रिये स्थानीय व केन्द्रीय संघ परिवार के ग्रुप झूठा साम्प्रदायिक प्रचार करते रहते हैं। एक नियम बना लें कि हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद आदि की बात करने वाला हर व्हाट्सएप मैसेज आपकी दुश्मन जमात, यानी मालिकों, ठेकेदारों व धनपशुओं के जमात द्वारा आपको बाँटने और फिर आप पर राज करने की साज़िश का हिस्सा है। ऐसे ग्रुपों को छोड़ दें व ब्लॉक कर दें जो साम्प्रदायिक प्रचार व धार्मिक उन्माद फैलाते हैं।
गोदी मीडिया जो भी बोले, आम तौर पर, उसके उल्टे को आप सच मानें। यह आज हमारे लिए एक बेहद कारगर नियम हो सकता है।
तथ्यों व सच्चाइयों की पड़ताल अपने जीवन के ठोस अनुभवों को अपने मज़दूर-मेहनतकश भाइयों-बहनों में साझा करके करें।
वैकल्पिक मीडिया, जो आम तौर पर टेलीविज़न पर नहीं, बल्कि यूट्यूब, सोशल मीडिया आदि पर उपलब्ध है, उसके ज़रिये सच्चाइयों की जाँच-पड़ताल करें। ज़ाहिर है कि यूट्यूब व सोशल मीडिया आदि पर फ़ासीवादी कचरा भी बहुत है। ऐसे में, आपको पहचान करनी होगी कि ईमानदार पत्रकारिता की नुमाइन्दगी करने वाले पत्रकार कौन हैं और उनके कार्यक्रमों को कहाँ देखा जा सकता है। ऐसे कुछ पत्रकारों में रवीश कुमार और कुछ अन्य स्वतंत्र यूट्यूब चैनल शामिल हैं। उनके विचारों व राजनीति से हम निश्चय ही असहमति रख सकते हैं और उनके उदार बुर्जुआ पूर्वाग्रहों की आलोचना कर सकते हैं, लेकिन यह मान सकते हैं कि वे पत्रकारिता के उन बुनियादी उसूलों का काफ़ी हद तक पालन करते हैं जिसके अनुसार मीडिया का काम जनपक्षधर सच्चाई को दिखाना और पूँजीवादी सत्ता से प्रश्न करना होता है।
रोज़गार-गारण्टी, आवास-गारण्टी, प्राथमिक से उच्चतर स्तर तक सभी को समान व निशुल्क शिक्षा, सभी को समान व निःशुल्क अच्छे दवा-इलाज की गारण्टी और एक सच्चे मायने में सेक्युलर राज्य की गारण्टी की पाँच माँगों को अपनी बुनियादी माँग बना लें और इस पर अड़ जायें, लड़ जायें, गोलबन्द व संगठित हो जायें।
आने वाले चुनावों में जो भी धर्म या जाति का, मन्दिर-मस्जिद का, हिन्दू-मुसलमान का ज़िक्र भी करे, उसका बहिष्कार करें, उसे अपनी चौखट से ‘सेवा-सत्कार’ कर रुख़सत करें। उससे पूछें कि वह रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाने का लिखित वायदा करने को तैयार है या नहीं? वह अप्रत्यक्ष करों को समाप्त करने का लिखित वायदा करने को तैयार है या नहीं? वह साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ एक सख़्त क़ानून लाने की लिखित गारण्टी देने को तैयार है या नहीं? वह अपनी पार्टी को चन्दा या चुनावी बॉण्ड के तहत धन देने वाले हरेक व्यक्ति की पहचान और अपने फ़ण्ड का पूरा हिसाब जनता के सामने खोलने को तैयार है या नहीं?
ईवीएम मशीनों पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता है, यह बात अब साफ़ हो चुकी है। दुनिया के तमाम उन्नत देश भी ईवीएम से वापस बैलट पेपर चुनावों पर जा चुके हैं। सिर्फ़ यह बात कि मोदी सरकार और उसके इशारों पर काम कर रहा चुनाव आयोग ईवीएम को हटाने की बात आते ही ऐसी उछल-कूद मचाने लगता है मानो किसी संवेदनशील स्थान पर मिर्च लग गयी हो, इस बात को साफ़ कर देती है कि ईवीएम अविश्वस्नीय है। और बैलट पेपर पर जाने के लिए जो ख़र्च है, वह सरकार निश्चित ही कर सकती है क्योंकि यहाँ प्रश्न चुनाव की प्रक्रिया पर जनता के भरोसे का है। विभिन्न विपक्षी पार्टियाँ इस सवाल पर मज़बूती से स्टैण्ड लेने का दमखम और साहस नहीं रखतीं। इस प्रश्न पर एक जनान्दोलन की ज़रूरत है।
हमें हर हालत में धर्म को एक पूर्णत: व्यक्तिगत मसला मानना चाहिए। शहीदे-आज़म भगतसिंह ने भविष्यवाणी की थी कि साम्प्रदायिकता व धार्मिक उन्माद का ज़हर आने वाली पीढ़ियों की कमर तोड़कर रख देगा, अगर सच्चे सेक्युलरिज़्म को हमने नहीं अपनाया। यानी, हमें अपना एक बुनियादी उसूल बना लेना चाहिए कि हम हर ऐसी ताक़त का राजनीतिक बहिष्कार करेंगे जो धर्म, धार्मिक सम्प्रदाय आदि को राजनीति व सामाजिक जीवन में लाती है, चाहे वह भाजपा हो या फिर ओवैसी जैसे इस्लामिक कट्टरपंथी।
राम मन्दिर “प्राण-प्रतिष्ठा” के नाम पर फैलाये जा रहे उन्माद में बहने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। जो मेहनतकश मन्दिर-मस्जिद के उन्माद में बहा, वह और उसकी आने वाली कई पुश्तें आर्थिक और सामाजिक तौर पर इसकी भारी क़ीमत चुकायेंगी। वास्तव में, क्या हम पहले इस धार्मिक उन्माद में बहने की क़ीमत आज नहीं चुका रहे हैं? 1986, 1992, 2002 में हमारे बहुत-से भाई-बहन धर्म के उन्माद में बहे थे। अब अपने आपसे पूछिये कि इससे पिछले 40, 30 या 20 सालों में आपकी ज़िन्दगी के हालात बेहतर हुए या बदतर हुए। कोई भी व्यक्ति आपको बता देगा कि विशेष तौर 1986 से जो साम्प्रदायिक फ़ासीवादी आन्दोलन धीरे-धीरे सत्ता पर अपनी चढ़ाई करने में कामयाब हुआ, उससे हरेक मज़दूर-मेहनतकश की जिन्दगी बदतर हुई है क्योंकि इस फ़ासीवादी आन्दोलन का असली चरित्र ही यह है कि यह दुकानदारों, कारखानेदारों, ठेकेदारों, दलालों का आन्दोलन है, जिसके पीछे असुरक्षा से ग्रस्त व अन्धी प्रतिक्रिया से त्रस्त एक टुटपुँजिया आबादी चलती है। लेकिन यह आन्दोलन विशेष तौर पर सबसे बड़े पूँजीपतियों और आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा करता है। यही तो वजह है कि तमाम दुकानदार, कारखानेदार, ठेकेदार, दलाल, बिचौलिये, प्रापर्टी डीलर, शेयर सटोरिये भाजपा के समर्थक होते हैं। कभी-कभी किसी आन्दोलन व पार्टी का चरित्र केवल इस बात से समझ लेना चाहिए कि उसे पैसे कौन देता है! यह बात हर मज़दूर-मेहनतकश को गाँठ बाँध लेनी होगी कि धर्म को पूरी तरह से निजी मसला मानेंगे और धार्मिक उन्माद में नहीं बनेंगे, चाहे कोई राम, लक्ष्मण, सीता, कृष्ण, शिव-शंकर का कितना भी नाम क्यों न ले। आज अगर हम इस बात को नहीं समझेंगे तो कल बहुत देर हो जायेगी।
‘मज़दूर बिगुल’ आपका आह्वान करता है कि मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के लिए ज़रूरी उपरोक्त कार्यभारों को पूरा करने के लिए जागरूक हों, गोलबन्द हों व संगठित हों। आपके ज़ेहन में इन्हें लेकर कोई सवाल है, तो हमें लिखें, हमसे सम्पर्क करें। ‘मज़दूर बिगुल’ स्वयं इस मुहिम में शामिल है। जनता का जुझारू क्रान्तिकारी जनान्दोलन ही फ़ासीवाद को शिकस्त दे सकता है। उसकी शुरुआत करने का वक़्त आ चुका है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन