चुनावों के रास्ते फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय सम्भव नहीं
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ही दे सकता है जनविरोधी फ़ासीवादी सत्ता को निर्णायक शिकस्त
फ़ासीवादी मोदी सरकार के ख़िलाफ़ क्रान्तिकारी संघर्ष का पहला कदम है बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ जनता का जुझारू क्रान्तिकारी जनान्दोलन खड़ा करना

सम्पादकीय अग्रलेख

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे दिसम्बर के पहले सप्ताह में आ गये। राजस्थान में भाजपा की जीत पर ज़्यादा ताज्जुब नहीं हुआ। राजस्थान में सत्तारूढ़ दलों का सत्ता से जाने का इतिहास रहा है। लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में अधिकांश ओपिनियन व एक्ज़िट पोल में कांग्रेस को जीतता हुआ दिखाया गया था। ज़्यादातर चुनाव विश्लेषक और पत्रकार जो इन प्रदेशों का दौरा कर रहे थे, वे बता रहे थे कि माहौल गाँवों और शहरों दोनों ही जगहों पर स्पष्ट तौर पर कांग्रेस के पक्ष में है। लेकिन इन दोनों ही प्रदेशों में सभी को अचम्भित करने वाले नतीजे आये और भाजपा को बहुमत हासिल हुआ।

तेलंगाना में भाजपा पिछले कुछ माह से मुकाबले में रह ही नहीं गयी थी। वहाँ कांग्रेस ने बेहद तेज़ी से अपनी हवा बनायी थी। मुकाबला बी.आर.एस. और कांग्रेस के बीच था, जिसमें कांग्रेस ने बाज़ी मार ली। भाजपा को दक्षिण के राज्यों की उतनी फ़िक्र भी नहीं है। वजह यह कि 2014 और 2019 में भी कर्नाटक को छोड़ दें तो दक्षिण भारत से भाजपा को ज़्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ था। लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात में भाजपा ने अधिकांश सीटें जीतीं थीं। कुछ राज्यों, जैसे कि राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश में तो विपक्षी दलों को या तो एक भी सीट नहीं मिली थी, या 1-2 सीटें मिलीं थीं। भाजपा को पता है कि इन राज्यों में वह 2019 में पहले ही शीर्ष पर थी और अब वहाँ से ऊपर नहीं जाया जा सकता है। दक्षिण भारत में कोई नया फ़ायदा भाजपा को 2024 में होता नहीं दिख रहा है। इसलिए 2024 में भाजपा की विजय का दारोमदार इसी बात पर है कि उत्तर व पश्चिमी भारत के उपरोक्त राज्यों में वह शीर्ष से नीचे न गिरे। इसलिए तेलंगाना के नतीजों को लेकर भाजपा का नेतृत्व उतना परेशान नहीं था।

लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ और साथ ही राजस्थान को लेकर वह चिन्तित था। वहाँ पर विधानसभा में हारने का अर्थ था 2024 में उत्तर भारत में उसकी अजेयता के मिथक का टूटना और उसकी लहर के नीचे जाने की छवि का बनना। इसलिए इन राज्यों में मोदी-शाह नीत भाजपा ने सारी ताक़त झोंक दी थी। तमाम लोकलुभावन कल्याणकारी योजनाओं से लेकर केन्द्र सरकार द्वारा पैकेजों की घोषणाएँ जारी थीं; केन्द्रीय नेताओं-मन्त्रियों के दौरे जारी थे; संघ परिवार की पूरी मशीनरी अपनी पूरी ताक़त से भाजपा के पक्ष में चुनाव प्रचार में जुटी हुई थी; कारपोरेट घरानों और समूचे पूँजीपति वर्ग की ओर से अकूत धन-दौलत उड़ायी जा रही थी ताकि भाजपा जीते; कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में पैसे बाँटे जाने, पोस्टल बैलट को वक़्त से पहले खोले जाने, इत्यादि की चुनाव आयोग में बार-बार शिक़ायत की, लेकिन चुनाव आयोग दूसरी ओर मुँह करके बैठा रहा। लेकिन इन सबके बावजूद भाजपा जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रही थी।

लेकिन फिर भी अन्तत: भाजपा को मध्य प्रदेश में और छत्तीसगढ़ में जीत मिली और मध्य प्रदेश में तो उसने जीत के पिछले रिकॉर्ड तोड़ दिये। यह हरेक संजीदा पर्यवेक्षक व प्रेक्षक के लिए अविश्वसनीय था। कांग्रेस नेता कमलनाथ ने बताया कि कांग्रेस के कई प्रत्याशियों को अपने गाँवों तक से वोट नहीं मिला। नतीजों में सामने आया कि पोस्टल बैलट में कांग्रेस भाजपा से कहीं आगे थी। सभी ओपिनियन व एक्ज़िट पोल कांग्रेस की जीत को तय बता रहे थे, सिवाय दो गोदी सर्वेक्षणों के। ऐसे में भाजपा की जीत ने एक बार फिर से ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठा दिया। निश्चय ही, महज़ ईवीएम के ज़रिये जनता के बीच फ़ासीवादी राजनीति की पकड़ को व्याख्यायित करना मूर्खतापूर्ण है। लेकिन यह कहना दूसरा मूर्खतापूर्ण और “अतिक्रान्तिकारी” छोर है कि ईवीएम का मुद्दा कोई मुद्दा ही नहीं है। ऐसी अवस्थिति की सारवस्तु यह हिरावलपंथी सोच है कि पूँजीवादी चुनावों का कोई भी अर्थ नहीं है और इसलिए ईवीएम घोटाला हो भी रहा हो तो क्या फ़र्क़ पड़ता है! बुर्जुआ चुनावों के रास्ते समाजवाद लाने का स्वप्न देखने वाले संशोधनवादी-सुधारवादी निश्चय ही चुनावों के रणनीतिक इस्तेमाल को सही मानते हैं। लेकिन लेनिनवादी अवस्थिति भी तब तक बुर्जुआ चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप की अवस्थिति है, जब तक कि क्रान्तिकारी स्थिति नहीं पैदा होती और जनता के विचारणीय हिस्से की बुर्जुआ चुनावों में भागीदारी जारी रहती है। ऐसे में, ईवीएम की विश्वसनीयता पर खड़े सवाल अहम और बिल्कुल सही हैं और इस पर कोई अवस्थिति न रखना एक मूर्खतापूर्ण क्रान्तिकारी जुमलेबाज़ी की अवस्थिति होगी। इसलिए, आइए समझते हैं कि ईवीएम पर क्यों भरोसा नहीं किया जा सकता है।

ईवीएम पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता! जनता को ईवीएम का बहिष्कार करना होगा!

देश की एक जानी-मानी संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (जनवादी सुधारों के लिए बना संघ) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर यह प्रार्थना की थी कि यदि ईवीएम को भरोसेमन्द बनाना है, तो सभी ईवीएम मशीनों में वीवीपैट की व्यवस्था की जाये। वीवीपैट की व्यवस्था में जब आप ईवीएम में किसी को वोट डालते हैं, तो आपको एक पर्ची मिलती है, जो दिखलाती है कि आपने किसको वोट किया है। अगर आपके पास ऐसी कोई पर्ची या रसीद नहीं है, तो आप कैसे जान सकते हैं कि आपका वोट किसको गया, चाहे आपने बटन कोई भी दबाया हो? इस पर मोदी-शाह की हमेशा हिमायत करने वाले चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि इसमें वक़्त लग जायेगा! यह किस प्रकार मज़ाकिया बहाना है? यदि चुनावों की विश्वसनीयता का सवाल हो, तो इतना वक़्त तो लगाया ही जा सकता है और लगाया ही जाना चाहिए। चुनावों से व्यवस्था नहीं बदलती, लेकिन सर्वहारा वर्ग इस जनवादी अधिकार को छीने जाने या उसे बेकार बना देने की वकालत थोड़े ही करता है! यह सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक वैज्ञानिक विश्लेषण है कि चुनावों से व्यवस्था परिवर्तन नहीं होता, लेकिन उसका राजनीतिक नज़रिया यह है कि जब तक जनसमुदायों का एक विचारणीय हिस्सा पूँजीवादी जनवादी चुनावों में हिस्सेदारी करता है, तब तक क्रान्तिकारी सर्वहारा शक्तियाँ भी उनमें रणकौशलात्मक हस्तक्षेप करती हैं, ताकि सर्वहारा वर्ग के जनसमुदायों को इस या उस पूँजीवादी पार्टी का पिछलग्गू बनने के विरुद्ध चेताया जा सके, रोका जा सके और साथ ही समाजवादी कार्यक्रम को जनसमुदायों के बीच लोकप्रिय बनाया जा सके। इसीलिए हमें इस बात पर विचार करने की निश्चित ही आवश्यकता है कि आज भारत में जो पूँजीवादी चुनाव हो रहे हैं, वे वास्तव में जनवादी व पारदर्शी हैं या नहीं। आज इसी बात पर सवाल खड़ा हो चुका है। चुनाव आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश शर्मनाक़ बहाने से यही प्रतीत हो रहा है।

दूसरा कारण जिससे ईवीएम निश्चित तौर पर सन्देह के घेरे में हैं, वह यह है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस को पोस्टल बैलट में भाजपा से ज़्यादा वोट मिले। किसी इक्का-दुक्का जगह ऐसे रुझान आते तो समझ में आता है। लेकिन पूरे प्रदेश में पोस्टल बैलट से एक रुझान सामने आये और ईवीएम से दूसरा रुझान सामने आये तो साफ़ है कि दाल में कुछ काला होने की पूरी सम्भावना है। साथ ही, ओपीनियन व एक्ज़िट पोल में भी भाजपा को हारते हुए दिखलाया गया था। इन दोनों ही चीज़ों से यह साफ़ इशारा मिलता है कि ईवीएम पर जनता कतई भरोसा नहीं कर सकती है।

आखिरी बात, जिस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है, वह यह है कि ईवीएम पर तमाम इंजीनियरों, सॉफ्टवेयर विशेषज्ञों और आई.आई.टी. के प्रो. शुभाशीष तक ने सवाल उठाया है। हरि प्रसाद नामक एक इंजीनियर ने 2010 में ईवीएम को हैक किया था और उनका कहना था कि 2019 या 2023 में इस्तेमाल ईवीएम भी वैसी ही हैं, यानी जिन्हें हैक किया जा सकता है। लेकिन चुनाव आयोग ने बार-बार प्रयास के बावजूद हरि प्रसाद से कोई भी बात करने या उन्हें ईवीएम की जाँच करने का मौका देने से इंकार कर दिया। यहाँ तक कि इस इंजीनियर को एक समय यह सवाल उठाने के लिए जेल तक जाना पड़ा था। अभी भी चुनाव आयोग हरि प्रसाद का नाम सुनते ही दूसरी ओर देखने लगता है। हरि प्रसाद ने बताया कि चुनावों के नतीजों को बदलने के लिए केवल 10 प्रतिशत ईवीएम को हैक करने की आवश्यकता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सबसे पहले ईवीएम पर सवाल भाजपा ने ही उठाया था। भाजपा जब सत्ता में नहीं थी तब इसके एक नेता ने इस बारे में पूरी किताब ही लिख दी थी कि ईवीएम के ज़रिए चुनाव में घपला कैसे-कैसे किया जा सकता है। इस किताब की भूमिका लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। आज वही भाजपा दावा करती है कि ईवीएम में कोई घपला नहीं हो सकता!

इसके अलावा एक सूचना अधिकार आवेदन के जवाब में पता चला था कि 19 लाख ईवीएम मशीनें देश में ग़ायब हैं! कहाँ हैं वे मशीनें? और क्या उनके ज़रिये चुनावों के नतीजों में घपले नहीं किये जा सकते? हालिया वर्षों के चुनावों में कई बार चुनाव अधिकारी स्ट्रांग रूम से गलत समय पर ईवीएम ले जाते, भाजपा के नेता अपनी कारों में ईवीएम ले जाते पकड़े गये हैं। क्या इससे यह साफ़ शक़ नहीं पैदा होता कि 19 लाख ग़ायब ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल भी चुनावों के नतीजों में घपला करने के लिए किया जा सकता है या किया जा रहा है?

भाजपाई और संघी पूछते हैं कि अगर भाजपा ईवीएम के ज़रिये चुनावों के नतीजों को अपने पक्ष में कर रही है तो कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में भाजपा कैसे हार गयी और कांग्रेस कैसे जीत गयी? यह मूर्खतापूर्ण सवाल है। क्योंकि यदि हर राज्य और हर चुनाव में भाजपा ऐसा करेगी, तो जनता सड़कों पर उतर आयेगी। यह खेल भी इसी प्रकार खेला जा सकता है और भाजपा समझदारी के साथ ऐसे ही खेलती लग रही है। हर चुनावों में यह करने के बजाय हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में और लोकसभा चुनावों में चुनिन्दा सीटों पर इसका इस्तेमाल करना सुरक्षित है, ख़ासकर वे सीटें जिन पर ऐतिहासिक तौर पर जीत का अन्तर कम रहता है, जिन्हें अंग्रेज़ी में ‘स्विंग सीट’ कहा जाता है। वैसे भी 2024 के चुनावों के ठीक पहले होने वाले विधानसभा चुनावों में विशेष तौर पर तथाकथित हिन्दी पट्टी में अजेयता के मिथक को स्थापित करना भाजपा नेतृत्व के लिए ख़ास तौर पर ज़रूरी था और इन चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल किये जाने की पूरी सम्भावना स्पष्ट तौर पर नज़र आ रही है।

आखिरी बात यह कि दुनिया के सभी उन्नत और तकनीकी रूप से ज़्यादा आगे चल रहे देशों में ईवीएम मशीनों का नहीं बल्कि अभी भी बैलट पेपर का इस्तेमाल ही होता है, क्योंकि किसी भी इलेक्ट्रॉनिक यंत्र की विश्वसनीयता पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता है। तकनोलॉजी विकसित होने के साथ उनको हैक करना या उनके प्रचालन को इच्छानुसार तोड़ना-मरोड़ना सम्भव हो जाता है। कई उन्नत देशों के तो सुप्रीम कोर्ट तक ने यह फ़ैसला दे दिया कि चुनाव जैसी अहम राजनीतिक प्रक्रिया ऐसी अविश्वसनीय मशीनों पर नहीं छोड़ी जा सकती। कुछ उन्नत देश जो कभी ईवीएम मशीनों के इस्तेमाल पर गये भी थे, वे कुछ ही समय बाद बैलट पेपर से चुनावों की व्यवस्था पर वापस आ गये। जब पूरी दुनिया में ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल नहीं हो रहा है, उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े किये जा चुके हैं और हमारे देश में स्पष्ट संकेत बारबार मिल रहे हैं कि इन पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता है तो फिर भाजपा सरकार और चुनाव आयोग इस पर इस पर इस क़दर क्यों अड़े हैं? यह अड़ियल रवैया ख़ुद सन्देह पैदा करता है। साथ ही, देश के 80 फ़ीसदी से ज़्यादा राजनीतिक दल चुनाव आयोग से सभी मशीनों में वीवीपैट लगाने या फिर बैलट पेपर से चुनाव कराने की माँग कर रहे हैं, तो जनवाद का भी यह तकाज़ा है कि चुनाव आयोग को यह बात मान लेनी चाहिए। लेकिन वह भी अड़ा हुआ है कि ईवीएम से ही चुनाव होंगे और वीवीपैट की व्यवस्था भी नहीं की जायेगी। ये सब साफ़ इशारा कर रहे हैं कि ईवीएम मशीनों पर भरोसा कतई नहीं किया जा सकता है।

लेकिन पूँजीवादी विपक्षी दलों के दाँत और नाखून झड़ गये हैं। वे इस पूँजीवादी जनवादी प्रक्रिया को बचाने के लिए संघर्ष करने की क्षमता खो चुके हैं। उनमें यह दम नहीं बचा कि ईवीएम से चुनावों से बहिष्कार का नारा दें। ऊपर से तमाम क्षेत्रीय पूँजीवादी दल अपनी अवसरवादी महत्वाकांक्षाओं में कभी भी भाजपा की गोद में बैठने को तैयार हैं। ऐसे में इस प्रश्न पर टिकाऊ विपक्षी एकता फ़िलहाल टेढ़ी खीर नज़र आती है। और इसीलिए ईवीएम के प्रश्न पर विपक्ष द्वारा किसी दृढ़ संघर्ष की गुंजाइश फ़िलहाल कम ही दिख रही है।

इस प्रश्न को भी जनता के जनान्दोलनों को उठाना होगा और ईवीएम के बहिष्कार का नारा देना होगा। जब जनता के अच्छेख़ासे हिस्से को इस मशीन पर यक़ीन ही नहीं है, तो इंसाफ़ का तकाज़ा है कि चुनाव आयोग इस माँग के स्वीकार करे, या ईवीएम के बहिष्कार के लिए तैयार रहे।

यह सच है कि ईवीएम के पहले के दौर में तमाम चुनावी पार्टियाँ बूथ कैप्चरिंग आदि जैसी हरकतें किया करती थीं। बाद के दौर में, शेषन जैसे नौकरशाहों ने इस पर रोक भी लगायी थी। ज़ाहिर है, जिस चुनावबाज़ पूँजीवादी दल के पास धनबल व बाहुबल होगा वह इलाके के अनुसार ऐसा करने की कोशिश कर सकता है। लेकिन इससे समूचे चुनावों के नतीजों को बदलना लगभग असम्भव होता है और कुछ इलाकों में ही इसका असर हो सकता है। ईवीएम द्वारा घपला स्वयं राज्यसत्ता द्वारा संस्थाबद्ध रूप में पूँजीवादी चुनावों को सारभूत तौर पर निरस्त कर देने जैसा है, भले ही औपचारिक तौर पर उनका अस्तित्व बना रहे। इसलिए जो ईवीएम घपले की तुलना अतीत की बूथ कैप्चरिंग आदि जैसी घटनाओं से करते हैं या जनता में शराब व पैसे बाँटने आदि से करते हैं, उन्हें अपनी राजनीतिक रतौंधी का इलाज करवाना चाहिए।

पूँजीवादी चुनावों के रास्ते फ़ासीवाद को निर्णायक शिकस्त नहीं दी जा सकती! इक्कीसवीं सदी में एक नयी फ़ासीवाद-विरोधी सर्वहारा रणनीति इसके लिए अपरिहार्य है!

लेकिन सवाल महज़ ईवीएम, वीवीपैट और पूर्ण रूप से पारदर्शी व जनवादी बुर्जुआ चुनावों का ही नहीं है। अब हम एक पल को मान लेते हैं कि जनता का कोई जुझारू जनान्दोलन ईवीएम को छोड़ बैलट पेपर की व्यवस्था पर आने के लिए सरकार और चुनाव आयोग को मजबूर कर देता है। यह भी मान लेते हैं कि ऐसे में 2024 में मोदी-नीत भाजपा चुनाव हार जाती है। इसकी गुंजाइश अभी बेहद कम है, लेकिन फिर भी कुछ समय के लिए यह कल्पना कर लीजिए। ऐसे में क्या होगा?

पहली बात यह है कि इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की ख़ासियत यह है कि यह आम तौर पर पूँजीवादी जनवाद के खोल को नहीं त्यागता है। 20वीं सदी के अपने प्रयोगों से उसने सबक लिया है और पूँजीपति वर्ग ने भी सबक लिया है। इस प्रकार के कदमों से उसका वर्चस्व कमज़ोर होता है और उसकी सत्ता कम टिकाऊ होती है। दूसरी बात, 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध से, नवउदारवादी दौर की शुरुआत के साथ साम्राज्यवाद अपने एक ऐसे परजीवी और मरणासन्न दौर में पहुँचा, जहाँ पूँजीवादी राज्य की थोड़ी-बहुत बची जनवादी सम्भावनासम्पन्नता भी ख़त्म हो गयी। ऐसे में, फ़ासीवाद एक राज्य परियोजना नहीं रह गया। पूँजीवादी जनवाद का कोई तत्व ऐसा नहीं बचा था, जो फ़ासीवादी कार्रवाइयों को अंजाम देने में कोई विशेष बाधा पैदा करता। तीसरी बात, 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध से अब तक के दौर के और विशेष तौर पर तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ में आये फ़ासीवादी संस्करण जैसे कि हिन्दुत्व फ़ासीवाद की ख़ासियत यह थी कि सत्ता पर द्रुत गति से चढ़ाई के बजाय वह सत्ता को एक लम्बे अवस्थितिबद्ध युद्ध में, मूलत: और मुख्यत:, अन्दर से ‘टेक ओवर’ कर लेता है; जैसा कि आर.एस.एस. ने किया है। सेना, पुलिस, नौकरशाही, सशस्त्र बल, न्यायपालिका व राज्य अन्य तमाम संस्थाओं में लम्बी घुसपैठ के ज़रिये पूँजीवादी राज्यसत्ता में संघी फ़ासीवाद ने एक बेहद प्रभावशाली, यहाँ तक कि काफ़ी हद तक नियन्त्रणकारी स्थिति बना ली है। ऐसे में, जब फ़ासीवादी शक्तियाँ सरकार से बाहर भी होती हैं, तो दण्डेतर तरीके से तमाम फ़ासीवादी कार्रवाइयाँ करती हैं और जनता के लिए, मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए पूँजीपति वर्ग की एक अनौपचारिक सत्ता, एक अनौपचारिक राजनीतिक शक्ति की भूमिका निभाती हैं। और लम्बी मन्दी के दौर में, बार-बार उनका सरकार में पहुँचना भी अनिवार्य होता है, जैसा कि हम 1990 के दशक से लगातार देखते आये हैं। हर बार सरकार बनाने के साथ फ़ासीवादी प्रतिक्रिया, राज्य पर फ़ासीवादी शक्तियों की पकड़ और समाज में उनकी विनाशकारी भूमिका और भी मज़बूत और आक्रामक होती जाती है।

नतीजा यह है कि फ़ासीवाद औपचारिक तौर पर सरकार में आ-जा सकता है। इसके बावजूद, समाज और राज्यसत्ता के भीतर उसकी बेहद प्रभावी स्थिति मौजूद रहेगी। उसे किसी चुनाव में हराकर उसकी निर्णायक पराजय का स्वप्न देखने वाले उदारपंथियों व तथाकथित वामपंथियों का यह भ्रम अब तक दूर हो जाना चाहिए, लेकिन इस राजनीतिक नस्ल की ख़ासियत ही यही होती है कि इसके उदारपंथी पूँजीवादी विभ्रम कभी दूर नहीं होते।

ऐसे में, मान लें कि 2024 में भाजपा चुनाव हार कर सरकार से बाहर हो जाती है, हालाँकि अभी इसकी उम्मीद बेहद कम है। इसके नतीजे के तौर पर दो सम्भावनाएँ पैदा होंगी: पहला, ‘इण्डिया’ गठबन्धन की सरकार बने; दूसरा, कांग्रेस अपने बूते पर बहुमत हासिल कर ले। दोनों में से पहले की असलियत में तब्दील होने की गुंजाइश ज़्यादा है। दोनों ही स्थितियों में ऐसी सरकार आर्थिक नीतियों में कोई बुनियादी अन्तर नहीं लायेगी। केवल निजीकरण, छँटनी, तालाबन्दी और बेरोज़गारी पैदा करने वाली नीतियों को लागू करने की रफ्तार और अन्दाज़ थोड़ा बदल जायेगा। वजह यह है कि ‘इण्डिया’ गठबन्धन की सभी पार्टियाँ कोई मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी की नुमाइन्दगी तो करती नहीं हैं! वे भी पूँजीपति वर्ग, धनी किसानों-कुलकों, ठेकेदारों, बड़े व्यापारियों व क्षेत्रीय पूँजीपति वर्गों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। लिहाज़ा, नवउदारवादी नीतियों को जारी करने की रफ्तार में परिवर्तन हो सकता है, थोड़ा परिवर्तन ग़ैर-जनवादी रवैये में हो सकता है, हालाँकि आज के दौर में इसकी उम्मीद भी कम ही की जा सकती है। साथ ही, एक बदलाव यह आ सकता है कि मनरेगा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे ही कुछ दिखावटी कल्याणवाद की नीतियाँ लागू की जा सकती हैं, जैसा कि यूपीए-I सरकार के दौर में हुआ था। इससे ज़्यादा देश की जनता कोई उम्मीद नहीं कर सकती है।

लेकिन दिक्कत यह है कि आर्थिक संकट जिस स्थिति में है, मुनाफ़े की औसत दर जितनी बुरी हालत में है और विश्व बाज़ार में बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा से निपटने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग को जिन मज़दूर-विरोधी नीतियों को अपने देश में ज़रूरत है, उसके लिए इस समय तानाशाहाना अन्दाज़ में नवउदारवादी पूँजीपरस्त नीतियों को लागू करने की ज़रूरत है। भारत का पूँजीपति वर्ग चाहता है कि किसी भी प्रकार के कल्याणवाद पर सरकारी ख़र्च न किया जाये, हालाँकि यह सारा पैसा जनता का ही है। वह चाहता है कि सरकारी ख़ज़ाने का इस्तेमाल पूँजीपतियों को क़र्ज़ से छूट देने, करों से छूट देने, विशेष पैकेज देने, रियायती दरों पर या मुफ़्त में बिजली, पानी व ज़मीन देने के लिए किया जाये और साथ ही सरकारी ख़ज़ाने में होने वाली कमी को जनता पर करों का बोझ लाद कर पूरा किया जाये। भले ही इससे महँगाई बढ़े, भले ही इससे बेरोज़गारी बढ़े। वास्तव में, भाजपा की मोदी सरकार पिछले 10 साल यही करती आयी है। इसीलिए समूचे पूँजीपति वर्ग का उसको ज़बर्दस्त समर्थन मिला है और अभी भी मिल रहा है।

लेकिन पूँजीवादी जनवाद का खोल बरक़रार रखने के भी कुछ आन्तरिक अन्तरविरोध होते हैं। अगर ईवीएम का घपला न हो और पूँजीवादी चुनाव कमोबेश पारदर्शी तरीके से हों, तो कई बार पूँजीपति वर्ग की आम सहमति वाला उम्मीदवार नहीं भी जीत पाता है! ऐसे में, पूँजीपति वर्ग के अकूत धन के बूते मोदी के फिर जीतने की सम्भावना ही ज़्यादा है, लेकिन ईवीएम का खेल न हो, तो एक गौण सम्भावना मोदी के हारने की भी है। लेकिन इस सूरत में भी कोई गठबन्धन सरकार या कांग्रेस सरकार वही करेगी, जिसका ज़िक्र हमने ऊपर के पैराग्राफ़ में किया है। और वह भी आज पूँजीपति वर्ग को स्वीकार नहीं है, क्योंकि आर्थिक संकट ने फिलहाल पूँजीपति वर्ग को इतना-सा दिखावटी कल्याणवाद बर्दाश्त करने की स्थिति में भी नहीं रखा है।

इसके अलावा, ऐसे दिखावटी कल्याणवाद से भी बेरोज़गारी और महँगाई पर कोई बुनियादी अन्तर नहीं पड़ेगा। वजह यह कि बढ़ते आर्थिक संकट यानी मुनाफ़े की गिरती औसत दर की स्थिति में पूँजीपति वर्ग द्वारा निवेश की दर को घटाया जायेगा। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के ढाँचागत संकट को कोई पूँजीवादी सरकार अपने कल्याणवाद से दूर नहीं कर सकती। उल्टे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के दायरे के भीतर संकट को ऐसा कल्याणवाद कालान्तर में बढ़ाता ही है और साथ ही पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक प्रतिक्रिया को भी बढ़ाता है। नतीजनत, पूँजीपति वर्ग और ज़्यादा एकजुट होकर फ़ासीवादी शक्तियों को सत्ता में फिर से पहुँचाने की मुहिम में लग जाता है।

तीसरी बात, अगर ‘इण्डिया’ गठबन्धन या कांग्रेस की सरकार बनती भी है, तो इस बात की गुंजाइश बहुत कम है कि मोदी सरकार ने मज़दूर-विरोधी जितनी नीतियों, क़ानूनों व क़ायदों को लागू कर दिया है, वह नयी सरकार उसे वापस लेगी। मोदी सरकार द्वारा पूँजीपतियों के फ़ायदे के लिए और मज़दूरों की लूट और शोषण को बढ़ाने के लिए किये गये सारे इन्तज़ामों को कांग्रेस या ‘इण्डिया’ गठबन्धन की कोई भावी सरकार क़ायम ही रखेगी। इसके अलावा, मोदी सरकार ने जनता के जनवादी अधिकारों को निरस्त करने, उन पर हमला करने के जो इन्तज़ामात किये हैं, उसे भी ऐसी कोई ग़ैर-भाजपा सरकार क़ायम ही रखेगी क्योंकि पूँजीपति वर्ग को इसकी ज़रूरत है। ज़्यादा से ज़्यादा यह हो सकता है कि तात्कालिक तौर पर साम्प्रदायिक उन्माद भड़काकर चुनावों में फ़ायदा हासिल करने के लिए मोदी सरकार और उसकी समूची राज्य मशीनरी की मदद से संघ परिवार काशी और मथुरा जैसी जगहों पर मन्दिर की राजनीति को जिस तरह से भड़का रहा है, वह ‘इण्डिया’ गठबन्धन या कांग्रेस की कोई भावी सरकार न करे, हालाँकि कांग्रेस या ऐसा कोई गठबन्धन भी सच्चे मायने में, क्रान्तिकारी अर्थों में सेक्युलर नहीं है और वक़्त पड़ने पर नरम केसरिया लाइन का इस्तेमाल करते हैं।

चौथी बात, जब संघ परिवार और उसकी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी शक्तियाँ सरकार में नहीं होंगे, तो भी ‘इण्डिया’ गठबन्धन या कोई भी अन्य पूँजीवादी सरकार उन पर लगाम कसने का कोई काम नहीं करेगी। पहले की तरह ही ज़मीन पर जनसमुदायों के ख़िलाफ़, मुसलमानों, दलितों व औरतों के विरुद्ध संघी हाफ़पैण्टियों के अपराधी लम्पट गिरोह जैसे कि विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल आदि आतंक फैलाते रहेंगे, ताकि वे “अनुशासित” रहें और पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध आवाज़ न उठायें। हड़तालों को तोड़ने, मज़दूरों पर हमले करने का काम हर मज़दूर संघर्ष के दौरान ये फ़ासीवादी गिरोह करते रहेंगे, और पहले भी कांग्रेस सरकारों ने न सिर्फ इन पर कोई कार्रवाई नहीं की है, बल्कि मज़दूरों के विरुद्ध, विशेष तौर पर हड़तालों आदि के दौरान इनका इस्तेमाल भी किया है। मुम्बई और महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार ने मज़दूर आन्दोलन के ख़िलाफ़ शिवसेना और संघी ताक़तों का खूब इस्तेमाल किया था।

यह समझने की ज़रूरत है कि 1970 के दशक के बाद से ही फ़ासीवादी पूँजीवादी शक्तियों और अन्य पूँजीवादी दलों में कोई वैसा विरोध नहीं रह गया है, जो 1910, 1920 या 1930 के दशकों में था या फिर द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक बाद के दौर में था। नवउदारवाद के दौर की शुरुआत के बाद से ही, यानी दीर्घकालिक मन्दी की शुरुआत के बाद से ही पूँजीपति वर्ग की आम तौर पर यह ज़रूरत थी कि फ़ासीवादी शक्तियाँ सरकार में या सरकार से बाहर सतत् मौजूद रहें। फ़ासीवादी शक्तियों ने भी यह समाहार कर लिया था कि आपवादिक क़ानून लागू करके और खुले तौर पर पूँजीवादी जनवाद को ख़त्म करके पूँजी की तानाशाही को लागू करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय, पूँजीवादी जनवाद के खोल को बरक़रार रखना, राज्यसत्ता के समूचे उपकरण को अन्दर से लम्बी प्रक्रिया में टेकओवर करना, समाज में पोर-पोर में अपनी संस्थागत व्याप्ति को सुनिश्चित करना और अपने काडर-आधारित सांगठनिक ढाँचे को बरक़रार रखते हुए अवस्थितिबद्ध युद्ध जारी रखना बेहतर रणनीति है। हर आर्थिक संकट ऐसी फ़ासीवादी शक्ति के लिए औपचारिक तौर पर सत्ता पर काबिज़ होने का रास्ता खोलता है। फ़ासीवादी संघ परिवार 1990 के दशक की शुरुआत से ही ऐसे मौकों का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करता रहा है। लेकिन जब वह सरकार नहीं भी बनाता, तो समाज में उसकी व्याप्ति और उसकी मौजूदगी शक्तिशाली रूप में मौजूद रहेगी और जब भी ज़रूरत पड़ेगी, तो वह, विशेष तौर पर, मेहनतकश जनता के लिए पूँजीपति वर्ग की अनौपचारिक राज्यसत्ता का काम करेगा।

लुब्बेलुआब यह कि वह युग बीत गया जब फ़ासीवाद का एक आपदा के रूप में तीव्र, आकस्मिक उभार होता था, सत्ता में पहुँचने पर फ़ासीवादी शक्तियाँ आपवादिक कानूनों को लाकर पूँजीवादी जनवाद को औपचारिक तौर पर समाप्त कर देती थीं (क्योंकि उस समय पूँजीवादी जनवाद में इतनी सम्भावनासम्पन्नता थी कि वह फ़ासीवादी शक्तियों के रास्ते में बाधा बन सकता था!), और नतीजतन, कालान्तर में उनका उतना ही तीव्र, आकस्मिक और आपदासमान ध्वंस होता था। वह फ़ासीवाद का दुनिया में पहला अवतरण था। अपने दूसरे अवतरण में फ़ासीवाद हूबहू 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के दौर की पुनरावृत्ति नहीं कर रहा है और इतिहास में ऐसा होता भी नहीं है। आज का दौर एक ऐसा दौर है जब यह नवउदारवादी पूँजीवादी सत्ता और पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत है कि पूँजीवादी जनवाद का खोल बरक़रार रहे, क्योंकि इस मरे-गिरे पूँजीवादी जनवाद में ऐसा कुछ भी नहीं है जो कि बड़ी पूँजी की नग्न तरीके से सेवा में कोई बाधा पैदा करे; आज के दौर में, फ़ासीवादी शक्ति एक सतत् और शक्तिशाली मौजूदगी के साथ समाज में बनी रहती है और इस पूरे दौर में पूँजी के संचय की गति, आर्थिक संकट और उसके राजनीतिक संकट में तब्दील होने की स्थितियों के अनुसार सरकार बना सकती है और चुनाव हारकर सरकार गवाँ भी सकती है, लेकिन उस सूरत में भी वह समाज में ताकतवर स्थिति में बनी रहती है और अगली चढ़ाई के लिए अवस्थितिबद्ध युद्ध जारी रखती है। दीर्घकालिक संकट के इस पूरे दौर में पूँजीवादी व्यवस्था में यह आम नियम माना जा सकता है। अब फ़ासीवाद के निर्णायक अन्त का प्रश्न किसी पूँजीवादी जनवाद की पुनर्स्थापना से नहीं जुड़ा हुआ है, बल्कि समाजवादी क्रान्ति से जुड़ा हुआ है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि फ़ासीवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष के लिए सर्वहारा वर्ग की विशिष्ट रणनीति नहीं होगी। वजह यह है कि आज के दौर में भी फ़ासीवाद कोई भी पूँजीवादी प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि एक ऐसी पूँजीवादी प्रतिक्रिया है, जो कि प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का स्वरूप लेती है, जिसके पीछे एक छद्म शत्रु यानी नकली दुश्मन पेश करने वाली और मिथकों को यथार्थ में तब्दील करने वाली फ़ासीवादी विचारधारा खड़ी होती है और इसके पीछे एक फ़ासीवादी काडर-आधारित संगठन मौजूद होता है। नतीजतन, क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के पास एक विशिष्ट फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति होनी ही चाहिए, जिसके विशिष्ट तत्व हैं समाज के बीच अपने क्रान्तिकारी संस्थाबद्ध कार्य द्वारा अपनी खन्दकें खोदना, जनता के बीच जैविक राजनीतिक आधार विकसित करना, इलाक़ेवार कामों व संस्थाओं को विकसित करना और सर्वहारा वर्ग व आम मेहनतकश जनता की जुझारू व लड़ाकू शक्ति को संगठनबद्ध करना और सतत् फ़ासीवाद-विरोधी प्रचार कर फ़ासीवादी शक्तियों की कलई जनता के बीच खोल देना। आज संशोधनवादी यानी नकली संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों समेत किसी भी बुर्जुआ शक्ति के साथ आम रणनीतिक मोर्चा बनाकर, पूँजीवादी जनवाद की पुनर्स्थापना की कोई लड़ाई फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष का क्षितिज नहीं हो सकती है। ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ समूह व कुछ अन्य छोटे क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुपों द्वारा 21वीं सदी के फ़ासीवाद से लड़ने के लिए 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध की फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति को पुनर्जीवित करने की बातें न सिर्फ़ हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण हैं, बल्कि सर्वहारा वर्ग के लिए नुकसानदेह हैं। वह रणनीति तब भी आम तौर पर समूचे यूरोप व दुनिया के कुछ अन्य हिस्सों में असफल हुई थी और वह थी ही उस समय लागू करने के लिए जब पूँजीवादी जनवाद के खोल को भी नष्ट कर दिया गया हो और एक मज़बूत रहे मज़दूर आन्दोलन का पूर्ण ध्वंस हो चुका हो। आज यह रणनीति भयंकर विनाशकारी साबित होगी। जो लोग एक राज्य-परियोजना के रूप में फ़ासीवाद द्वारा पूँजीवादी राज्य के पूर्ण औपचारिक रूपान्तरण का इन्तज़ार कर रहे हैं, वे उसका इन्तज़ार करते ही रह जायेंगे क्योंकि अपवादस्वरूप आपवादिक सन्धि-बिन्दु के पैदा होने के अतिरिक्त यह सम्भावना अब नगण्य हो चुकी है। वैसे भी यह इन्तज़ार वास्तव में ये हास्यास्पद “कम्युनिस्ट” क्रान्तिकारी ग्रुप अपनी निष्क्रियता और कुछ न करने को सही ठहराने के बहाने के तौर पर ही कर रहे हैं।

इसलिए आज की फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति के लिए ये तत्व अनिवार्य और अपरिहार्य हैं: एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण गठन, संस्थाबद्ध क्रान्तिकारी सुधार कार्यों द्वारा जनता के बीच जैविक सामाजिक आधार का विकास करना, इलाकेवार जनता के वर्गों को जुझारू लड़ाकू रूप में संगठनबद्ध करना, फ़ासीवादी विचारधारा राजनीति के विरुद्ध सतत् क्रान्तिकारी प्रचार कर उसकी असलियत को जनता के सामने उजागर करना, और तात्कालिक तौर पर बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, बेघरी, पहुँच से बाहर होती शिक्षा चिकित्सा तथा साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनता के वर्गों के जुझारू जनान्दोलन खड़े करना जो कि इन सभी सवालों पर एक ठोस कार्यक्रम ठोस नारा पेश करते हों। इसमें से आज के दौर में, जब जनता बेरोज़गारी व महँगाई से अभूतपूर्व रूप से त्रस्त है, तो ये आखिरी काम तात्कालिक तौर पर अहम बन जाता है।

बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनता के जुझारू जनान्दोलन खड़ा करना पहला क़दम है

ये वे सवाल हैं जो व्यापक जनसमुदायों को इस समय सबसे ज़्यादा प्रभावित कर रहे हैं चाहे वे मज़दूर हों, ग़रीब व निम्न-मध्यम किसान हों, शहरी व ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा व निम्न-मध्यवर्गीय आबादी हो, आम घरों से आने वाले छात्र-युवा हों या फिर समाज के तमाम दमित समुदाय। बेरोज़गारी से मज़दूर, मेहनतकश और आम छात्र-नौजवान त्रस्त हैं, महँगाई ने आम जनता के घर की अर्थव्यवस्था ध्वस्त कर दी है, अच्छी व गुणवत्ता वाली शिक्षा और चिकित्सा निजीकरण के कारण आम लोगों के सपनों से भी बाहर हो गयी है। पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं, नतीजतन, यातायात से लेकर रसोई गैस तक महँगी हो गयी है, दवाएँ, खाने-पीने के सामान, सभी महँगे हो गये हैं। लोगों में इसके विरुद्ध गुस्सा और भयंकर असन्तोष भी है। लेकिन एक ओर तो कोई क्रान्तिकारी शक्ति देश के पैमाने पर लोगों को इन सवालों पर गोलबन्द और संगठित करने की गम्भीर कोशिश नहीं कर रही है, वहीं संघ परिवार अपने फ़ासीवादी साम्प्रदायिक प्रचार का ज़हर भी जनता के निम्न-मध्यवर्ग, लम्पट सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता के दिमागों में घोल रहा है और यह बताने की कोशिश कर रहा है कि मुसलमानों की “समस्या” का समाधान हो जाये, तो सारी समस्या का समाधान हो जायेगा और “रामराज्य” आ जायेगा! सच्चाई यह है कि रामराज्य कल्पना के साहित्यिक जगत के अलावा कहीं था नहीं और इस काल्पनिक रामराज्य में भी दलितों, स्त्रियों, शूद्रों कामगारों का स्थान सेवक और दास का ही है।

ऐसे में, मज़दूरों, ग़रीब किसानों, अर्द्धसर्वहारा आबादी, निम्न मध्यवर्गीय आबादी, स्त्रियों, छात्रों-युवाओं के बीच इन मुद्दों पर जागरूकता लाना, उन्हें गोलबन्द और संगठित करना और इन सभी मुद्दों पर केवल अस्पष्ट उद्वेलन न करना, बल्कि इन सभी मुद्दों पर एक ठोस कार्यक्रम और ठोस नारा जनता को देना, सबसे ज़रूरी है।

मसलन, महँगाई पर केवल हाय-तौबा मचाने के बजाय लोगों को यह सच्चाई बताना कि वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में महँगाई की समस्या से जनता को कोई स्थायी मुक्ति नहीं मिल सकती है, लेकिन तात्कालिक तौर पर अभी देश में अति-महँगाई (hyper-inflation) की जो स्थिति पैदा हो रही है, उसकी ज़िम्मेदार मोदी सरकार की एक नीति है : अमीरों पर से करों के बोझ को समाप्त करना, उनके ऋण माफ़ करना, उन्हें फ्री में बिजली, ज़मीन, पानी आदि प्राकृतिक संसाधन देना और दूसरी ओर सरकारी ख़ज़ाने में इसकी वजह से होने वाली कमी की पेट्रोलियम उत्पादों पर 60 प्रतिशत तक कर लगाकर और जीएसटी के ज़रिये जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाकर भरपाई करना। इसके विरुद्ध जनता का ठोस कार्यक्रम व ठोस नारा क्या होना चाहिए? अप्रत्यक्ष करों की व्यवस्था को क्रमिक प्रक्रिया में समाप्त करो, पेट्रोलियम उत्पादों पर करों व शुल्कों को तत्काल 30 प्रतिशत से कम करो, भारी जीएसटी दरों को समाप्त करो। इसके ज़रिये महँगाई से जनता को राहत दी जा सकती है। सवाल है जनता के वर्गों को इस सच्चाई से अवगत कराने का और उन्हें इस पर संघर्ष के गोलबन्द और संगठित करने का।

उसी प्रकार बेरोज़गारी के सवाल पर बिना किसी नतीजे वाला हो-हल्ला मचाने से कुछ नहीं होगा। हमारा इस सवाल पर ठोस कार्यक्रम क्या होना चाहिए? ठोस माँग और ठोस नारा क्या होना चाहिए? हमारा नारा होना चाहिए सभी नागरिकों के लिए रोज़गार की सरकारी गारण्टी या फिर गुज़ारे योग्य बेरोजगारी भत्ता सुनिश्चित करने वाला क़ानून बनाओ! इसे ही कई क्रान्तिकारी संगठनों ने नाम दिया है : भगतसिंह राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी क़ानून (BSNEGA)। हमारा तर्क बिल्कुल सीधा है : अगर सरकार गाँव के ग़रीबों के लिए रोज़गार की गारण्टी और संवैधानिक अधिकार को स्वीकार कर रही है (मनरेगा के तहत) तो देश के बाकी ग़रीबों व बेरोज़गारों का क्या अपराध है? मनरेगा के तहत उतनी ज़िम्मेदारी मानते ही यह बात साफ़ हो जाती है कि सरकार को यह उत्तदायित्व सारे नागरिकों के लिए लेना चाहिए। यह भी स्पष्ट है कि ऐसा क़ानून बनने पर अगली लड़ाई उस क़ानून को लागू करवाने की होगी, जैसा कि मनरेगा की हालत देखकर आप समझ सकते हैं। केवल इस लड़ाई के ठोस अनुभवों के ज़रिये ही आम मेहनतकश जनसमुदाय क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट प्रचार की सच्चाई को आत्मसात कर सकते हैं जो बताता है कि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर पूर्ण रोज़गार असम्भव है क्योंकि पूँजीवाद को बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी की ज़रूरत हमेशा होती है। केवल पटना के दोन किहोते पीआरसी सीपीआई (एमएल) के “महासचिव” अजय सिन्हा के कहने से व्यापक जनसमुदाय ऐसा नहीं मान लेगा। ऐसा सोचना भी एक प्रकार का मनोगतवादी भाववाद है, लेनिन ने जिसके ख़िलाफ़ हरदम संघर्ष किया।

उसी प्रकार साम्प्रदायिकता के सवाल पर भी हम यूँ ही शोरगुल नहीं मचा सकते, बल्कि हमें इसके ख़िलाफ़ एक ठोस माँग और ठोस नारा सूत्रबद्ध करना होगा। हमें माँग करनी चाहिए कि धर्म का राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव करने वाला एक सख़्त क़ानून बनाया जाना चाहिए जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में किसी भी धर्म का ज़िक्र भी करता है, किसी धार्मिक समुदाय के प्रति टीका-टिप्पणी करता है, मन्दिर-मस्जिद का ज़िक्र भी करता है, तो उसे तत्काल गिरफ़्तार करने और राजनीतिक जीवन से उसे प्रतिबन्धित करने का क़ानून लाया जाये। इसमें क्या ग़लत है? इसे अगर सख़्ती से लागू किया जाये तो न तो कोई संघी फ़ासीवादी हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का सियासत में इस्तेमाल कर पायेगा और न ही कोई ओवैसी राजनीति में मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल और न ही कोई सिख कट्टरपंथी अमृतपाल सिख जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीति में इस्तेमाल कर पायेगा। ऐसा क़ानून जो धर्म को पूर्ण रूप से व्यक्तिगत मसला बना दे, इसमें क्या ग़लत है? औपचारिक क़ानूनी अर्थों में भी देखा जाये तो अगर किसी दल का राजनीतिज्ञ जनता के बीच चुनाव लड़ने ला रहा है, कोई राजनीतिक अभियान चलाने जा रहा है, तो उसका मक़सद तो हर नागरिक के लिए नौकरी, शिक्षा, इलाज, घर आदि के अधिकारों को सुनिश्चित करना है न, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो? तो फिर ऐसा क़ानून बनना ही चाहिए जो धर्म को राजनीति से पूर्ण रूप से अलग कर दे। इसके अभाव की वजह से ही हमारे देश में बेवजह का खून-ख़राबा और सिर-फुटौव्वल खूब होता है और फ़ासीवादी कुकुरमुत्तों को उगने के लिए खाद-पानी मिलता है। ऐसे क़ानून का नारा तो मूलत: 18वीं और 19वीं सदी में पूँजीपति वर्ग ने दिया था लेकिन अपनी अभूतपूर्व पतनशीलता के दौर में वह इस सच्चे क्रान्तिकारी सेक्युलरिज़्म का नारा भूल चुका है और आज उसे पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी रूप में व ऊँचे वैज्ञानिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग उठा रहा है।

इसी प्रकार भ्रष्टाचार, घर के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, इलाज के अधिकार के लिए भी ठोस कार्यक्रम, ठोस माँगों व ठोस नारों पर जनता के वर्गों को संगठित करना आज फ़ासीवाद-विरोधी लड़ाई का पहला अहम क़दम है। इसके बिना, यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती है।

अन्त में, हम कह सकते हैं कि इस तात्कालिक क़दम पर क्रान्तिकारी शक्तियों को तत्काल काम शुरू कर देना चाहिए, अपनी पूरी शक्ति और ऊर्जा के साथ इस काम को अंजाम देना चाहिए। साथ ही, लम्बी दूरी के उन लक्ष्यों पर भी काम आज से ही शुरू करना होगा जिनका ज़िक्र हम ऊपर आज के दौर की फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति के मूल तत्वों के रूप में कर चुके हैं।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2023


 

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