Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

फ़ासीवाद को परास्त करने के लिए सर्वहारा रणनीति पर कुछ ज़रूरी बातें

चूँकि आर्थिक संकट जारी है, लिहाज़ा भारत में समूचे पूँजीपति वर्ग के बहुलांश का मोदी-शाह की सत्ता, भाजपा और संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को खुला समर्थन जारी है। क्योंकि उन्हें एक “मज़बूत नेता” की ज़रूरत है, जो मज़बूती से पूँजीपतियों यानी मालिकों, ठेकेदारों, बिचौलियों, दलालों, धनी कुलकों व पूँजीवादी फार्मरों, समृद्ध दुकानदारों, बिल्डरों आदि के हितों की रखवाली करने के लिए आम मेहनतकश जनता पर लाठियाँ, गोलियाँ चलवा सके, उन्हें जेलों में डाल सके और इस सारे कुकर्म को “राष्ट्रवाद”, “धर्म”, “कर्तव्य”, “सदाचार” और “संस्कार” की लफ़्फ़ाज़ियों और बकवास से ढँक सके। बाकी, भाजपाइयों व संघियों के “चाल, चेहरा, चरित्र” से तो समझदार लोग वाक़िफ़ हैं ही और जो नहीं हैं वह पिछले 9 सालों में लगातार राफ़ेल घोटाले, पीएम केयर फ़ण्ड घोटाले, भाजपाइयों द्वारा किये गये बलात्कारों, अडानी-हिण्डनबर्ग मसले और व्यापम घोटाले जैसी घटनाओं में देखते ही रहे हैं। “राष्ट्रवादी शुचिता, संस्कार और कर्तव्य” की भाजपाइयों और संघियों ने विशेषकर पिछले 9 सालों में तो मिसाल ही क़ायम कर दी है!

नेल्ली जनसंहार : इतिहास का वह प्रेत आज भी जीवित है

नेल्ली जनसंहार आज़ादी के बाद भारत का पहला इतने बड़े पैमाने का जनसंहार था। यह कोई दंगा नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित क़त्लेआम था जिसमें चौदह मुस्लिम गाँवों को घेरकर बच्चों और स्त्रियों सहित निहत्थी मुस्लिम आबादी को संगठित हथियारबन्द भीड़ ने गाजर-मूली की तरह काट डाला था। इसके बाद जो दूसरा बड़ा जनसंहार हुआ, वह 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पूरे देश में हुआ सिखों का क़त्लेआम था। तीसरा बड़ा क़त्लेआम ‘गुजरात-2002’ का था। यहाँ यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 1989 में आडवाणी की रथयात्रा के समय से लेकर आजतक पूरे देश में मुस्लिम आबादी पर हमलों की घटनाएँ लगातार होती रही हैं और जितने भी दंगे हुए हैं उनमें मुख्यतः उन्हें ही निशाना बनाया गया तथा राज्य मशीनरी भी हमेशा उन्हीं को बलि का बकरा बनाती रही है।

बजट 2023-24 : मोदी सरकार की पूँजीपरस्ती का बेशर्म दस्तावेज़

इस साल के बजट का एक संक्षिप्त विश्लेषण या उस पर एक सरसरी निगाह ही इस बात को दिखला देती है कि मोदी सरकार की प्राथमिकताएँ एक पूँजीवादी सरकार और विशेष तौर पर नवउदारवाद के दौर की फ़ासीवादी सरकार के तौर पर क्या हैं। नवउदारवाद के पूरे दौर में और विशेष तौर पर मोदी सरकार के दौर में भारत के पूँजीवादी विकास की पूरी कहानी वास्तव में मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश आबादी की औसत मज़दूरी को कम करने पर आधारित है।

विकास के नाम पर विनाश का मॉडल : गंगा विलास और टेण्ट सिटी

पूँजीपतियों के लिए टेण्ट सिटी और गंगा विलास तथा आम लोगों के लिए घाटों का धँसाव, नदी में प्रदूषण और भयंकर बीमारियों के ख़तरे के रूप में विनाश। अब यह हमें तय करना है कि हम विनाश के मॉडल को और ढोयेंगे और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाश के कगार पर खड़ी एक ज़हरीली दुनिया छोड़कर जायेंगे या इस विनाश के मॉडल को पलटकर सही मायने में एक इन्सानों के रहने लायक़ समाज बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।

चुनावी शिकस्त देकर फ़ासीवाद को हराने के मुंगेरी लालों के हसीन सपनों पर एक बार फिर पड़ा पानी!

गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचागत आर्थिक संकट बढ़ता जाता है वैसे-वैसे फ़ासीवाद की ज़मीन भी उर्वर और विस्तारित होती जाती है। ऐसे संकट के समय बुर्जुआ वर्ग की सार्वत्रिक आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली फ़ासीवादी ताक़तों को बुर्जुआ जनवादी चुनाव में शिकस्त देकर फ़ासिज़्म को रोकने व परास्त करने का सपना देखने वाले भारत के तमाम मुंगेरी लालों (उदारवादियों, सुधारवादियों, वामपन्थी बुद्धिजीवियों और सामाजिक जनवादियों) को अपने हसीन सपने के बारे में एकबार फिर से सोचने की ज़रूरत है।

राज्यसत्ता के संरक्षण में आज़ाद घूमते हत्यारे, दंगाई! निर्दोष प्रदर्शनकारियों का दमन-उत्पीड़न बदस्तूर जारी!

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन लोकुर के नेतृत्व में बनी जजों की एक कमेटी ने दिल्ली में फ़रवरी 2020 में हुए दंगो पर एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट ने केन्द्र व राज्य सरकार के साथ-साथ पूरी राज्य मशीनरी पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है और दिल्ली दंगों के मुख्य कारणों के तौर पर सत्तासीन हुक्मरानों को ज़िम्मेदार ठहराया है।

इंग्लैण्ड का नया दक्षिणपन्थी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक और बेगानी शादी में दीवाने अण्डभक्त

अभी जब इंग्लैण्ड में घोर मज़दूर-विरोधी, धुर-दक्षिणपन्थी कंज़रवेटिव पार्टी का भारतीय मूल का ब्रिटिश कुलीनवादी, धनपशु ऋषि सुनक लिज़ ट्रस नामक एक अन्य दक्षिणपन्थी नेत्री को हटाकर इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बना तो देश-विदेश में रहने वाले सारे खाते-पीते उच्च व उच्च मध्यवर्गीय भारतीय हर्षोन्माद में ऐसे बौरा गये मानो भारत ने इंग्लैण्ड से दो सौ साल की ग़ुलामी का बदला लेते हुए इंग्लैण्ड को अपना उपनिवेश बना लिया हो!

शुचिता और संस्कारों के भाजपाई ठेकेदार हमेशा ख़ुद अमानवीय-अनैतिक धन्धों और घृणित अपराधों में लिप्त क्यों पाये जाते हैं?

संघ परिवार और भाजपा से जुड़े लोग अक्सर ही देश में प्राचीन संस्कृति, संस्कारों, शुचिता, देशभक्ति और राष्ट्रवाद की दुहाई देते नज़र आ जाते हैं। बहुत सारे लोग तब ताज्जुब में पड़ जाते हैं जब संघियों-भाजपाइयों को स्त्री उत्पीड़न, बलात्कार, घरेलू कामगारों को यातना देने, बच्चों की तस्करी, बन्धक बनाना, यौन शोषण और हत्या तक के तरह-तरह के अवैध-अनैतिक धन्धों में शामिल पाते हैं। वैसे तो तमाम दलों और संगठनों में नाना प्रकार के लोग पाये जा सकते हैं लेकिन भाजपा और संघ परिवार में अक्सर ही घिनौनेपन की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।

इटली में धुर-दक्षिणपन्थी ज्यॉर्ज्या मेलोनी के आम चुनाव में जीत के मायने

इटली में धुर-दक्षिणपन्थी ज्यॉर्ज्या मेलोनी की पार्टी ब्रदर्स ऑफ़ इटली के नेतृत्व में दक्षिणपन्थी गठबन्धन की सरकार बनने जा रही है। इटली की जनता के एक बड़े हिस्से ने राष्ट्रवादी और प्रवासी-विरोधी प्रचार में बहकर धुर-दक्षिणपन्थी मेलोनी और अन्य दक्षिणपन्थियों को चुनाव में बहुमत दिया है। ख़ास तौर पर उत्तरी इटली के सफ़ेद कॉलर मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग ने बड़े स्तर पर मेलोनी को वोट किया है। मेलोनी ने न सिर्फ़ बरलोस्कुनी के फ़ोर्जा इतालिया और मात्तियो साल्वीनी के दक्षिणपन्थी लीग के दक्षिणपन्थी वोट आधार का एक हिस्सा पाया है बल्कि 2018 में सरकार में आयी फ़ाइव स्टार मूवमेण्ट पार्टी के निम्न मध्यवर्गीय वोटरों को भी आकर्षित किया है।

सिर्फ़ एक धर्म विशेष क्यों, हर धर्म के धार्मिक कट्टरपन्थी अतिवादी संगठनों पर रोक क्यों नहीं?

लेकिन यहाँ एक और अहम सवाल है। क्या पीएफ़आई देश में एकमात्र धार्मिक कट्टरपन्थी और आतंकवादी संगठन है? क्या केवल पीएफ़आई है जो जनता के बीच धार्मिक व साम्प्रदायिक कट्टरपन्थ और दक्षिणपन्थी अतिवादी सोच का प्रचार-प्रसार कर रहा है? सच तो यह है कि हमारे देश में जनता की एकता को हर प्रकार के धार्मिक कट्टरपन्थी और दक्षिणपन्थी साम्प्रदायिक अतिवाद से ख़तरा है और पीएफ़आई ऐसा अकेला संगठन नहीं है जो इस प्रकार की प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार और अतिवादी गतिविधियों में लगा रहा है। यहाँ तक कि पीएफ़आई को इस मामले में सबसे बड़ा ख़तरा भी नहीं कहा जा सकता है।