शिक्षा का भगवाकरण : पाठ्यपुस्तकों में बदलाव छात्रों को संघ का झोला ढोने वाले कारकून और दंगाई बनाने की योजना
लता
नेता-मंत्रियों और पूँजीपतियों के बच्चे महँगे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं और उच्च शिक्षा के लिए विदेशों के नामी-गिरामी विश्वविद्यालय जाते हैं। ये नेता-मंत्री और पूँजीपति गर्व से अपने बच्चों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि ये तो बड़े लोग हैं, इनके बच्चे तो अच्छी शिक्षा पायेंगे ही! लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि ये ही संघी नेता-मंत्री हमारे बच्चों को अपनी पार्टियों में भर्ती करते हैं, शाखा में बुलाते हैं और धर्म के नाम पर उनके दिमाग़ में ज़हर घोलते हैं, उन्हें दंगाई बनाते हैं, सड़कों पर गुण्डागर्दी करने को उकसाते हैं। इनके बच्चे ऊँची तनख़्वाह पायें और आलीशान घरों में रहें और हमारे बच्चे सड़कों की ख़ाक छानें और इनके दंगों के औज़ार बनें! भाजपाइयों का यही इरादा है।
सरकारी स्कूलों-कॉलेजों की जो स्थिति है वह हमसे छुपी नहीं है लेकिन अब शिक्षा पर हमला कई माध्यमों से हो रहा है। दिमाग़ में ज़हर घोलने और दंगाई बनाने का काम जो शाखा या संघ प्रायोजित स्कूलों में होता था आज वही काम स्कूली पाठ्यक्रमों में बदलाव लाकर देश स्तर पर किया जा रहा है। पाठ्यक्रमों के “औचित्यसाधन” के नाम पर उनका भगवाकरण हो रहा है। वैसे तो यह भगवाकरण लम्बे समय से जारी है लेकिन 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद से तीन बार (2017, 2019 और 2022) पाठ्यक्रमों में बड़े बदलाव किये गये हैं और इस बार इसे पूरी तरह भगवा रंग में रंग देने की योजना है।
केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड व राज्य बोर्ड के तहत आने वाले स्कूलों के पाठ्यक्रम में बदलाव कर इनमें पढ़ने वाले बच्चों की तार्किक चेतना को कुन्द करने और उनके दिमाग़ में नफ़रत के बीज बोने की योजना केन्द्र सरकार तथा भाजपाशासित राज्य सरकारों की है।
अभी 6 महीने पहले राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने “औचित्यसाधन” के नाम पर स्कूल के पाठ्यक्रमों से इतिहास, जनसंघर्षों और जनवादी अधिकारों की जानकारी देने वाले कई हिस्सों और अध्यायों को हटा दिया है। किताबों से इन हिस्सों को हटाने के पीछे का तर्क दिया जा रहा है कि कोविड व लॉकडाउन से आयी पढ़ाई में बाधा के कारण विद्यार्थियों पर पढ़ाई का बोझ बढ़ गया था इसे ही कम करने के प्रयास में ऐसा किया जा रहा है। लेकिन यह बोझ तो अब लगभग जीवन के सामान्य होते जाने से कम हो जायेगा लेकिन हटाये जा रहे हिस्से स्थाई तौर पर हटाये जा रहे हैं। समझा जा सकता है कि कोविड मात्र बहाना है असल निशाना बच्चों के इतिहास बोध, जनवादी चेतना और तार्किकता को कुन्द करना है।
गुजरात नरसंहार को इतिहास से मिटा देने की संघी साज़िश
2002 में गुजरात में हुए नरसंहार को छुपाने के लिए उसे बारहवीं के राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। इस घटना में स्पष्ट तौर पर नरेन्द्र मोदी सरकार की देखरेख में संघ परिवार द्वारा गुजरात में सुनियोजित दंगे करवाये गये थे। दंगाइयों के वीडियो टेप इस बात के गवाह हैं। यह बात उस समय भी स्पष्ट थी लेकिन इसके तथ्य धीरे-धीरे सामने आने लगे। लेकिन आज जब स्वयं केन्द्र में वही व्यक्ति बैठा है जिसकी राज्य सरकार की देखरेख में इस नरसंहार को अंजाम दिया गया था तो ज़ाहिर है कि वह क़तई नहीं चाहेगा कि आने वाली पीढ़ियों को उसके कुत्सित कारनामों की जानकारी हो। इसलिए हज़ारों माँओं की चीख़ों, बच्चों के रोने-बिलखने, गर्भ तक से उन्हें निकालकर सड़कों पर काट डालने, हत्या, बलात्कार, आगजनी और हज़ारों-हज़ार के बेरोज़गार-बेघर हो जाने को जनमानस और विशेषकर युवा पीढ़ी के स्मृति पटल से ओझल किया जा रहा है। अब इन सच्चाइयों को बयान करने पर ही रोक लगाने का प्रयास किया जा रहा है और भारत की न्यायपालिका भी इसमें एक भूमिका निभा रही है और कह रही है कि इन सच्चाइयों का ज़िक्र करने से ही देश में तनाव बना रहता है, लेकिन जो संघी ताक़तें वास्तव में देश में तनाव फैला रही हैं, साम्प्रदायिकता फैला रही हैं और नरसंहारों का माहौल तैयार कर रही हैं व नरसंहार करवा रही हैं, वे न्यायपालिका की निगाह से ओझल हैं! ऐसा नहीं है कि इन पुस्तकों के अध्यायों में नरेन्द्र मोदी सरकार और अमित शाह के लिप्त होने की बात लिखी गयी थी। इनमें तो बस 2002 गुजरात हत्याकाण्ड की आलोचना की गयी थी। लेकिन साहब को इतना भी मंज़ूर नहीं! अपनी छवि स्वच्छ, साफ़-सुथरी रखने के लिए सभी दाग़-धब्बों को इस तरह धोया जा रहा है। साहब के जवानी के मुसलमान दोस्त अब्बास की खोज जारी है! तानाशाह की इतिहास में बेदाग़ तरीक़े से दर्ज होने की महत्वाकांक्षा भी है और अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न और दमन जारी रखना उसकी राजनीति की ज़रूरत भी है। ऐसे में, इतिहास के तथ्य और ऐसे तथ्यों को दर्ज करने वाली पुस्तकें संघ परिवार और मोदी सरकार की निगाह में चुभ रही हैं, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है।
आपातकाल का काला अध्याय और मौजूदा फ़ासीवादी सरकार की आपातकाल से हमदर्दी
बारहवीं के राजनीतिशास्त्र के ही एक अध्याय जिसमें इन्दिरा गाँधी द्वारा 1975 में घोषित आपातकाल का ज़िक्र है उसके पाँच पन्ने कम कर दिये गये हैं। जिन पन्नों को हटाया गया है उसमें आपातकाल में सरकार द्वारा मनमाने तरीके से आपातकाल लगाने के निर्णय, आपातकाल के दौरान हुई राजनीतिक गिरफ़्तारियों, मीडिया पर नियंत्रण, कारावास में यंत्रणाओं व हत्याओं, ग़रीबों के विस्थापन, ज़बरन नसबन्दी और फ़रमानशाहियों की आलोचनात्मक चर्चा थी।
समाजशास्त्र की ही पुस्तक में अध्याय 6 में एक बार फिर आपातकाल का उल्लेख था। इस अध्याय में लिखा गया था कि आपातकाल के दौरान भारतवासियों ने कुछ समय के लिए तानाशाही का अनुभव किया और इस काल के विनाशकारी प्रभावों को झेला। अध्याय में लिखा था कि किस प्रकार आपातकाल के दौरान सभी जनवादी अधिकारों को स्थगित कर दिया गया, संसद को भंग कर दिया गया, बिना मुक़दमा चलाये लोगों को जेलों में भर दिया गया, सरकार सीधे क़ानून बनाने लगी और निचले तबक़े के अधिकारियों के कन्धों पर नीतियों को लागू करने और तत्काल परिणाम प्रस्तुत करने के लिए ज़ोर-ज़बर्दस्ती करने लगी। अधिकारियों और कर्मचारियों को बिना वजह बताये बर्ख़ास्त किया जा रहा था। लोगों में घोर असन्तोष था। 1977 के चुनाव में जनता ने सरकार ने इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी को हरा दिया। इस पूरे हिस्से को ही हटा दिया गया है! मज़दूर आन्दोलन के अध्याय से भी आपातकाल की चर्चा हटा दी गयी है जिसमें मज़दूर यूनियनों की सभी गतिविधियों पर प्रतिबन्ध की बात की गयी है।
आज जब देश में अघोषित अपातकाल की-सी स्थिति है, मीडिया पूरी तरह फ़ासीवादी सरकार के पैरों में लोट रही है, प्रतिरोध की आवाज़ को गिरफ़्तारियों और झूठे मुक़दमों से दबाया जा रहा है, सरकार फ़रमानशाही चला रही है (नोटबन्दी, बिना योजना लॉकडाउन, रेलवे के चौथे दर्जे के प्रवेश नियमों में बदलाव, अग्निपथ के माध्यम से सेना में ठेकाकरण, आदि), अभिव्यक्ति की आज़ादी छीन ली जा रही है तो देश के नौजवान इसकी तुलना घोषित आपातकाल से न कर लें इसलिए सरकार पाठ्यपुस्तकों से इन हिस्सों को हटा रही है।
प्रतिरोध आन्दोलनों के ज़िक्र से भयाक्रान्त मोदी सरकार
कक्षा छ: से बारहवीं कक्षा तक के पाठ्यक्रम से कई अध्याय हटा दिये गये हैं जिनमें प्रतिरोध आन्दोलनों और सामाजिक आन्दोलनों की चर्चा थी। उत्तराखण्ड के चिपको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन, महाराष्ट्र में दलित पैन्थर, आन्ध्र प्रदेश का शराबबन्दी आन्दोलन, आदि जिन-जिन अध्यायों में थे उन्हें हटा दिया गया है या उन पन्नों को कम कर दिया गया है। इन आन्दोलनों की अपनी कमियाँ-कमज़ोरियाँ थीं, उन्हें भी दिखाया जाना चाहिए। लेकिन उन्हें पूरी तरह से हटाना शिक्षा से जनप्रतिरोध के इतिहास को मिटाने का प्रयास है। फ़ासिस्ट सबसे अधिक जनप्रतिरोध से भयाक्रान्त रहते हैं। ऐसा नहीं है कि इनके जनप्रतिरोधों के इतिहास को मिटा देने से जनप्रतिरोध की सम्भावनाएँ मिट जायेंगी। लेकिन निश्चित ही प्रतिरोध का इतिहास भावी पीड़ी को अन्याय से लड़ने की शिक्षा देता है। बच्चों और नौजवानों को सवाल करना नहीं बल्कि मात्र आज्ञा पालन सिखाना संघ का उद्देश्य है।
इस प्रकार ही बुर्जुआ जनवाद और भारत में बुर्जुआ जनवाद के निर्माण की प्रक्रिया पर आधारित चार अध्यायों को भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। कक्षा में बुर्जुआ जनवाद के मूलभूत तत्वों पर आधारित अध्याय को हटा दिया गया है जिसमें जनवादी प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी, विवादों का निपटारा, एकता और समानता की बात की गयी थी। बुर्जुआ जनवाद आधारित अध्याय में कक्षा 8 की पुस्तक से “जनवाद की चुनौतियों” वाला अध्याय भी हटा दिया गया है जिसमें जाति, धर्म, रंगभेद, क्षेत्र आधारित असमानताओं की बात की गयी है।
कई और अध्याय जिनमें बुर्जुआ नज़रिए से ही सही, लेकिन नक्सलबाड़ी आन्दोलन, किसानों के आन्दोलन आदि की चर्चा थी उन्हें भी हटा दिया गया है। पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के मौजूदा परजीवी व मरणासन्न दौर में प्रतिक्रियावादी पूँजीपति वर्ग को अपने क्रान्तिकारी दौर में पैदा हुए उसूलों की चर्चा से भी एलर्जी होना स्वाभाविक है और यदि फ़ासीवादी शासन हो तो यह प्रतिक्रियावाद ज़ाहिरा तौर पर अपने चरम पर पहुँच जाता है।
बुर्जुआ शिक्षा व्यवस्था का अपना एक वर्ग चरित्र होता है। स्कूल के बच्चों और कॉलेज व विश्वविद्यालय के छात्रों को शोषण-आधारित इस व्यवस्था की एक और ईंट बनाने के प्रयास में बुर्जुआ सत्ता शिक्षा का बख़ूबी इस्तेमाल करती है। हालाँकि अपनी आवश्यकताओं के आधार पर और औपचारिक जनवादी आवरण को बनाये रखने के लिए एक हद तक विज्ञान और तर्क आधारित शिक्षा और शोध इसकी भी ज़रूरत होती है। लेकिन जैसे-जैसे पूँजीवाद का संकट गहराता जा रहा है वैसे-वैसे पूँजीवादी व्यवस्था के लिए वैज्ञानिक सोच और तर्क का सीमित स्पेस भी नागवार होता जा रहा है और जो कुछ भी प्रगतिशील था उसे नष्ट करना इसकी आवश्यकता बन गया है। इसलिए पूँजी के गहराते संकट और पूँजीपति वर्ग के बढ़ते प्रतिक्रियावादी चरित्र के इस दौर में शिक्षा पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं। तर्क, विज्ञान, जनवाद, न्यायबोध, संवेदना और सच्चाई के साथ खड़े होने की जो थोड़ी-बहुत शिक्षा बुर्जुआ व्यवस्था कम-से-कम औपचारिक तौर पर देती थी आज फ़ासीवाद के इस दौर में उसे भी छीनना बुर्जुआ सत्ता की ज़रूरत है।
इसलिए इतिहास के नाम पर भारत के किसी स्वर्णिम युग और राम राज्य की अस्पष्ट तस्वीर खींची जाती है, मिथकों को इतिहास बनाकर पेश किया जाता है और कपोल-कल्पनाओं को तथ्य बताया जाता है। उस स्वर्णिम युग में भारत के पास आज की तमाम तकनॉलोजी, विज्ञान, यातायात और संचार के सभी साधन थे। बताया जाता है कि उस दौर में स्टेम सेल, शल्य चिकित्सा, परमाणु विज्ञान आदि सभी कुछ था। एक ओर विज्ञान के स्तर पर हमने इतना विकास किया था वहीं समाज में पूर्ण सामंजस्य था। सभी लोग प्रसन्न और मंगलमय थे, समाज में समान मात्रा में सदाचार, नैतिकता और आदर्श मौजूद थे। फिर इस आदर्श व पूर्ण समाज को किसी बाहरी हमले (मुसलमान, ईसाई, कम्युनिस्ट आदि) ने नष्ट कर दिया। सारी सम्पदा की चोरी कर ली, सारी नैतिकता का ह्रास हो गया और सारे वैज्ञानिक शोध नष्ट कर दिये गये! इन बाहरियों के आने के बाद सारी समस्याओं की शुरुआत हो गयी, लोग अज्ञानी हो गये, शोषण और उत्पीड़न की शुरुआत हो गयी! कहने की ज़रूरत नहीं कि यह अनर्गल बकवास के अलावा और कुछ नहीं है।
हर सभ्यता-संस्कृति का अपना इतिहास होता है, उसका गौरवशाली पहलू भी होता है और उसका शोषक-उत्पीड़क पहलू भी होता है। इसमें कोई शक नहीं कि दर्शन, नाट्यशास्त्र, गणित, भाषा विज्ञान, खगोलशास्त्र से लेकिर विज्ञान तक की तमाम शाखाओं में हमारे यहाँ उल्लेखनीय काम हुआ था और भरत, पाणिनि, कणाद, कपिल, आर्यभट्ट, सुश्रुत, चरक आदि पर कोई भी गर्व कर सकता है और करना भी चाहिए। यह काम भी जनता की रचनात्मक ऊर्जा और उत्पादक गतिविधियों के बूते ही सम्भव था और उसी की पैदावार था। लेकिन विज्ञान और शोध की जिस सीमा से वह काल बँधा था उसे तार्किक तरीक़े से समझे बिना मनगढ़न्त बातों से विश्व गुरू बनने का प्रयास सारी दुनिया के सामने बस हमारी मूर्खता का प्रदर्शन ही करेगा।
इतिहास का निर्माण आम जनता करती है। लेकिन जनता अपनी मनमर्ज़ी से जैसा चाहे वैसे इतिहास का निर्माण नहीं कर सकती है। वह मौजूद भौतिक परिस्थितियों के मातहत होती है और वह अपने युग की सीमाओं से बँधी होती है। वैदिक या प्राचीन काल के लोग अपने समय तक हासिल ज्ञान को ही आगे बढ़ा सकते थे। यह सम्भव नहीं है कि वह अपने समय के मौजूदा ज्ञान का अतिक्रमण कर आधुनिक तकनीक और यातायात का निर्माण कर लेते, या परमाणु बम बना लेते या मानव अंग प्रत्यारोपण कर लेते! विज्ञान के विकास की गति तीव्र और धीमी हो सकती है लेकिन कोई विज्ञान पूरी तरह से विलुप्त नहीं हो जाता। यह सारी कपोल कल्पनाएँ हैं जिन्हें संघ परिवार इतिहास का जामा पहनाकर हमारे बच्चों को मूर्ख बनाने का काम कर रहा है। संघ के स्वर्णिम भारत में जाति आधारित शोषण-उत्पीड़न नहीं होता था! जाति व्यवस्था होती है लेकिन सभी सामंजस्यपूर्ण तरीक़े से अपना-अपना काम करते हुए ख़ुश रहते थे! पंचम वर्ण मैला उठाकर, समाज से बाहर रहकर ख़ुश रहता था! उसे समानता, कला, साहित्य ज्ञान की कभी कोई लालसा नहीं थी और स्त्रियाँ भी घरों में क़ैद पति-परिवार की सेवा करते ख़ुश रहती थीं! उन्हें भी समाज में बराबरी या ज्ञान की कोई इच्छा नहीं थी! लेकिन फिर जाति उत्पीड़न की शुरुआत कैसे हो गयी इसका कोई जवाब संघ के ज्ञानियों के पास नहीं होता है। यह उत्पीड़न तो दिल्ली सल्तनत और मुग़ल काल के पहले से चला आ रहा है! स्त्रियों के साथ होने वाला भेद-भाव, उत्पीड़न भी उतना ही पुराना है! इन पर कोई बात नहीं होती क्योंकि संघ के स्वर्णिम भारत में ऐसा कुछ नहीं होता था!
जिस स्वर्णिम भारत की बात संघ करता है ऐसा कोई युग भारत में नहीं था। सभी जगहों पर शोषकों और शोषितों के बीच का संघर्ष इतिहास को एक काल से दूसरे में ले गया है। इतिहास की गति के यही नियम हैं। संघ परिवार इस संघर्ष के इतिहास पर पर्दा डालना चाहता है। उसे छुपाने के लिए राजा-रानियों का इतिहास गढ़ रहा है। सभी सदी में इस मेहनतकश आबादी ने ही अपने ख़ून-पसीने से महल-अटारी, बाग़, उद्यान, जहाज़, हथियार, कवच, सड़कें बनायी हैं और अन्न उपजाये हैं। इस इतिहास-निर्माता वर्ग से संघ उसका इतिहास छीनना चाहता है और उसके संघर्षों की गौरवशाली परम्परा से उसे वंचित रखना चाहता है।
इसलिए आज पाठ्क्रम के “औचित्यसाधन” के नाम पर उन सभी इतिहासकारों और रचनाकारों को हटाया जा रहा है जो किसी भी हद तक प्रगतिशील नज़रिए से या मेहनतकश जनता के नज़रिए से इतिहास-लेखन करते हैं या बच्चों में मानवीय संवेदना जगाते हैं। इसके अलावा आज़ादी के संघर्ष का झूठा इतिहास लिखा जा रहा है जिसमें संघ परिवार के हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर आदि को महान क्रान्तिकारी की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। सभी जानते हैं कि ये सभी ब्रिटिश हुकूमत के तलवे चाटने वाले, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने वाले और आज़ादी के किसी भी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लेने वाले और ग़लती से भी जेल में डाले जाने पर माफ़ीनामा लिखकर बाहर आने वाले लोग थे।
हमें अपने बच्चों को झूठे इतिहास से बचाना होगा। पिछले कुछ सालों से व्हाट्सअप विश्वविद्यालय में चलाया जा रहा हिन्दुत्व पाठ्यक्रम आज आपके बच्चों के स्कूलों और विश्विद्यालयों में पहुँच गया है। यह बेहद ख़तरनाक होने जा रहा है। फ़ासीवादी विचारधारा और इसे संरक्षण देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई हमें तेज़ करनी होगी क्योंकि ऐसी पढ़ाई हमारे मासूम बच्चों को दंगाई और हैवान बनायेगी। हमें अपने बच्चों को बचाना होगा हमें सपनों को बचाना होगा। इन ख़तरनाक क़दमों को मज़दूर वर्ग को कम करके नहीं आँकना चाहिए। ये क़दम एक पूरी पीढ़ी के दिमाग़ों में ज़हर घोलने, उनका फ़ासीवादीकरण करने, उन्हें दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाने और साथ ही मज़दूर वर्ग को वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क्षमता से वंचित करने का काम करते हैं। जिस देश के मज़दूर और छात्र-युवा वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क़ाबिलियत खो बैठते हैं वे अपनी मुक्ति के मार्ग को भी नहीं पहचान पाते हैं और न ही वे मज़दूर आन्दोलन के मित्र बन पाते हैं। उल्टे वे मज़दूर आन्दोलन के शत्रु के तौर पर तैयार किये जाते हैं और शैक्षणिक, बौद्धिक व सांस्कृतिक संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण इसमें एक अहम भूमिका निभाता है। ऐसे में इन संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र-युवा न तो अपने शत्रुओं की सही पहचान कर पाते हैं और न ही अपने मित्रों की; नतीजतन, अक्सर वे प्रतिक्रियावादी शक्तियों के दुष्प्रचार का शिकार बनकर पूँजीपतियों की कठपुतली बन बैठते हैं। यही कारण है कि जब भी फ़ासीवादी ताक़तें सत्ता में आती हैं तो वे शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र को ख़ास तौर पर निशाना बनाती हैं। मोदी सरकार भी ऐसा ही कर रही है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022
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