हरिद्वार स्थित सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में हर साल बढ़ती बेरोज़गारी
क्या कर रही है सरकार?
फ़ेबियन
हरिद्वार स्थित सिडकुल (SIIDCUL) औद्योगिक क्षेत्र का लेबर चौक दिहाड़ी मज़दूरों के रोज़गार पाने का अड्डा है। इस औद्योगिक क्षेत्र में दो लेबर चौक हैं जहाँ पर आसपास की मज़दूर बस्तियों से मज़दूर काम की तलाश में आते हैं। इन लेबर चौक पर कई प्रकार के काम करने वाले मज़दूर इकट्ठा होते हैं। मशीन चलाने वाले कुशल मज़दूर, फ़ैक्टरी में हेल्पर के तौर पर काम करने वाले, लोडिंग-अनलोडिंग करने वाले, फ़ैक्टरी के कैण्टीन में काम करने वाले, फ़ैक्टरी में सफ़ाई करने वाले, निर्माण मज़दूर, बेलदारी करने वाले मज़दूर। ठेकेदार इन्हीं लेबर चौक पर सस्ती श्रमशक्ति ख़रीदने आते हैं।
दिहाड़ी मज़दूरों की स्थिति रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीने जैसे होती है। वे हर रोज़ सुबह 6:00 बजे से लेबर चौक पर इकट्ठा होने लगते हैं और रात की शिफ़्ट में काम के लिए शाम को 7:30 बजे से। जनवरी से बरसात के आगमन तक यानी जून महीने के पहले सप्ताह तक सिडकुल में ‘दिहाड़ी सीज़न’ कहलाता है। इस दौरान दोनों चौक पर हज़ारों मज़दूर रोज़गार की तलाश में आते हैं। ठेकेदार चौक पर आकर मज़दूरों से काम के प्रकार के बारें में बातचीत करता है और उस भीड़ से चुनिन्दा मज़दूरों को काम के लिए ले जाता है।
दिहाड़ी सीज़न के दौरान कुछ कामों के लिए मज़दूरों के मोलभाव की गुंजाइश थोड़ी बढ़ जाती है। बहुत मेहनत करने वाले काम के लिए जैसे लोडिंग-अनलोडिंग, निर्माण के काम और बेलदारी के काम के लिए मज़दूर 12 घण्टे के लिए रु. 600 से 700 तक की दिहाड़ी की माँग कर सकता है। लेकिन फ़ैक्टरी में मशीन चलाने के लिए, हेल्पर के काम के लिए, कैण्टीन के काम व सफ़ाई के काम के लिए रु. 400/- से रु. 500/- की दिहाड़ी मिलती है और कोई मोलभाव नहीं होता है। ठेकेदार जो रेट बोलता है वही फ़ाइनल होता है।
कई बार मज़दूरों के साथ धोखा होता है। ठेकेदार आसान काम बताकर सस्ते में मज़दूरी तय करता है, जबकि काम कठिन होता है। ऐसे में मज़दूर फँस जाता है। इस सीज़न के दौरान भी पूरे महीने काम मिलना मुश्किल होता है। फ़ैक्टरियों में कम मज़दूरों से ज़्यादा काम निकालने की नीति निरन्तरता के साथ लागू होती है। सीज़न के दौरान मज़दूरों को 22 से 23 दिन काम के मिल जाते हैं। लेकिन यह सीज़न पाँच महीने तक ही सीमित होता है।
बरसात के मौसम के आगमन के साथ ही सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में हर साल बेरोज़गारी का सीज़न शुरू होता है। बरसात के मौसम में उत्पादित माल के स्टॉक को रखना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में फ़ैक्टरियाँ प्रोडक्शन कम करके मज़दूरों की छँटनी करती हैं। इस मौसम में बेरोज़गारी का दूसरा बढ़ा कारण कांवड़ यात्रा है। हर साल बरसात के मौसम में हरिद्वार में लाखों कांवड़ यात्री गंगा स्नान करने आते हैं। सरकार 15 से 20 दिनों के लिए घोषित तौर पर बड़े वाहनों के यातायात पर रोक लगाती है। इसी वजह से फ़ैक्टरियों में प्रोडक्शन बहुत कम होता है। कई फ़ैक्टरियाँ मज़दूरों को इन 15-20 दिनों के लिए बिना वेतन की छुट्टी देती हैं। घोषित रोक ख़त्म होने के बाद भी कांवड़ यात्रियों का आना जाना बरसात ख़त्म होने तक चलता रहता है। इस वजह से बड़े वाहनों का यातायात प्रभावित ही रहता है जिससे मज़दूरों को बेरोज़गारी झेलनी पड़ती है।
हरिद्वार सिडकुल में कुछ ऐसी फ़ैक्टरियाँ हैं जो सीज़न के हिसाब से चलती हैं। जैसे पँखे बनाने वाली फ़ैक्टरी का सीज़न दिसम्बर-जनवरी से लेकर जून महीने तक ही चलता है। फ़ूड इण्डस्ट्री के लिए पैकिंग मैटिरियल तैयार करने वाली फ़ैक्टरियों में भी सीज़न के हिसाब से ही उत्पादन होता है। जैसे दही और आइसक्रीम के डब्बे बनाने वाली फ़ैक्टरी। जब इन फ़ैक्टरियों का सीज़न ख़त्म होता है तब मज़दूरों की छँटनी होती है।
बेरोज़गारी का चौथा कारण हर साल ऑटोमोबाइल सेक्टर का दिसम्बर माह में मशीनों के मेण्टेनेंस का काम है। ऑटोमोबाइल सेक्टर की मुख्य कम्पनी व उसकी वेण्डर एण्ड एंसिलरी कम्पनियाँ मज़दूरों को बिना वेतन के ब्रेक देती हैं। इस समय मज़दूरों को या तो महीनेभर के लिए ब्रेक दिया जाता है या पूरे महीने में 12 से 15 दिन की ही ड्यूटी मिलती है।
हरिद्वार से लगे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िलों में जब गेहूँ की फ़सल की कटाई पूरी होती है तब भी सिडकुल में बेरोज़गार मज़दूरों की संख्या बढ़ जाती है। कुछ मज़दूर धान की रोपनी के बाद औद्योगिक क्षेत्र की ओर प्रवास करते हैं। यह मज़दूर मुज़फ़्फ़रनगर, बिजनौर, मुरादाबाद, बरेली, शाहजहाँपुर, लखीमपुर, सीतापुर, हरदोई से आते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में खेती के काम के अलावा और कोई वैकल्पिक रोज़गार के अवसर नहीं होते हैं। इन खेतिहर मज़दूरों का गुज़ारा सिर्फ़ कृषि के कामों से नहीं हो सकता है। रोज़गार के अवसर के अभाव में वे औद्योगिक क्षेत्र की ओर प्रवास करते हैं। इसके चलते लेबर चौक पर मज़दूरों की संख्या बढ़ती है।
लेबर चौक पर मज़दूरों की संख्या में इज़ाफ़ा बिजनौर, मुज़फ़्फ़रनगर और मुरादाबाद के 10वीं, 11वीं और 12वीं के छात्रों के आने की वजह से भी होता है। इन छात्रों की गर्मियों की छुट्टी मई-जून-जुलाई में पड़ती है। उस समय वह अपने स्कूल की फ़ीस व निजी ख़र्च के लिए काम करने हरिद्वार आते हैं। यह लड़के ग़रीब परिवारों से आते हैं। वे जानते हैं कि उनके माता–पिता उनकी पढ़ाई का ख़र्च नहीं उठा पायेंगे। इसलिए वे ख़ुद उसका इन्तज़ाम करने हरिद्वार के औद्योगिक क्षेत्र में आते हैं। दिहाड़ी मज़दूरों का आधार कार्ड चेक नहीं किया जाता है और ठेकेदार जानते हुए भी इन 18 साल से कम उम्र के छात्रों को फ़ैक्टरियों में काम पर रख लेते हैं। फ़ार्मा कम्पनियों के ठेकेदार इन छात्रों की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर उन्हें रात की ड्यूटी पर रखते हैं। उन्हें 12 घण्टे काम के लिए सिर्फ़ रु. 280/- की मज़दूरी मिलती है।
इस तरह से बेरोज़गार मज़दूरों की फ़ौज तैयार होती है। दिहाड़ी सीज़न के समय ज़्यादातर मज़दूरों को सुबह 9:30 से 10:00 बजे तक काम मिल ही जाता है लेकिन बेरोज़गारी सीज़न के समय वे दोपहर तक लेबर चौक पर ही रहते हैं कि कुछ तो काम मिल जाये! मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा चौक पर भीड़ देखकर सीधे फ़ैक्टरी गेट पर काम तलाशने जाता है। वे चौक पर नहीं आते हैं। इस दौरान मज़दूरों को मुश्किल से 15 दिन काम के मिल पाते हैं। नौजवान मज़दूरों को ही काम मिलना मुश्किल होता है, ऐसे में उम्रदराज़ मज़दूरों को काम खोजना बालू में तेल निकालने के समान होता है।
मज़दूरों की बढ़ती संख्या को देखते हुए फ़ैक्टरियाँ और ठेकेदार मिलकर मज़दूरी का रेट गिरा देती हैं। बेरोज़गारी के सीज़न में मशीन चलाने वाले कुशल मज़दूर व हेल्पर को 12 घण्टे के लिए रु. 300/- या रु. 350/- की ही मज़दूरी मिलती है। लोडिंग-अनलोडिंग, निर्माण व बेलदारी के काम करने वाले मज़दूर को 12 घण्टे के काम के लिए रु. 400/- की मज़दूरी मिलती है। ठेकेदारों का बातचीत का टोन भी बदल जाता है। कई फ़ैक्टरियों के ठेकेदार लेबर चौक पर नहीं जाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि मज़दूर ख़ुद फ़ैक्टरी गेट पर रोज़गार माँगने आयेगा। मज़दूरों की संख्या बढ़ने से और काम के अवसर कम होने के चलते मज़दूर मोलभाव करने का अधिकार खो देते हैं। इस दौरान ठेकेदार जो मज़दूरी बताता है, मज़दूर को उसी रेट पर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अगर वह काम के लिए तैयार नहीं होता है तो कोई और मज़दूर जाने के लिए तैयार हो जाता है।
खेतिहर प्रवासी मज़दूर और स्कूल के छात्र कम रेट पर काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह मज़दूर सीमित समय के लिए ही इस औद्योगिक क्षेत्र में काम करने आते हैं। स्कूल के छात्र स्कूल शुरू होने से पहले क़रीब दो महीने काम करके वापस लौटते हैं। खेतिहर मज़दूर धान की फ़सल कटने के समय वापस लैटते हैं। यानी वे चार से पाँच महीने ही काम कर पाते हैं। इसी समय सीमा में उन्हें पैसे जोड़कर वापस जाना होता है। इसलिए वे यह सोचते हैं कि कोई भी दिन ख़ाली न जाये। उन्हें बस काम मिल जाये।
वे मज़दूर जो अपनी जीविका के लिए साल के बारह महीने सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र पर निर्भर रहते हैं, देखते हैं कि उनकी मोलभाव करने की क्षमता ख़त्म हो जाती है और मज़दूरी भी कम हो जाती है। वे इसके लिए उन खेतिहर मज़दूरों व स्कूल छात्रों को दोषी मानते हैं। वे मज़दूर यह नहीं समझ पाते कि इन मज़दूरों को सीमित समय में पैसे जोड़कर वापस लौटना होता है। इस मजबूरी के चलते वे ठेकेदार द्वारा तय रेट बिना मोलभाव किये तुरन्त मान लेते हैं। इस परिस्थिति को पूँजीवादी व्यवस्था ने पैदा किया है। इसके लिए कोई मज़दूर ज़िम्मेदार नहीं है। मज़दूरों को यह समझना होगा कि पूँजीवादी व्यवस्था बेरोज़गार लोगों की फ़ौज तैयार करती है और मज़दूरों को मजबूर करती है कि वह कम मज़दूरी में ज़्यादा काम करें। अगर ऐसा नहीं है तो निम्नलिखित सवालों के जवाब खोजिए!
ज्वलन्त प्रश्न यह है कि बरसात के आगमन पर हर साल आने वाले इस बेरोज़गारी सीज़न से निपटने के लिए सरकार क्या क़दम उठाती है? मज़दूरों को बेरोज़गारी की मार से बचाने के लिए सरकार कौन सी नीति या कल्याणकारी योजना लागू करती है? क्या सरकार हरिद्वार स्थित सिडकुल क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों का पंजीकरण करती है? इस औद्योगिक क्षेत्र में बहुसंख्यक मज़दूर प्रवासी हैं। क्या सरकार श्रम विभाग द्वारा कोई प्रवासी मज़दूर सेल या ब्यूरो चलाती है जो प्रवासी मज़दूरों का पंजीकरण करें व उनकी समस्याओं का समाधान करें? हरिद्वार सिडकुल में कुल कितने मज़दूर काम करते हैं और बेरोज़गारी के सीज़न में कितने मज़दूर बेरोज़गार होते हैं, क्या सरकार के पास इसका कोई आँकड़ा है? क्या सरकार मज़दूरों को बेरोज़गारी भत्ता देने की कोई योजना लागू करती है? बेरोज़गार मज़दूरों के लिए क्या सरकार राशन, गैस सिलेण्डर, कमरे का किराया आदि बुनियादी ज़रूरतों के लिए कोई कल्याणकारी योजना लागू करती है? सरकार कांवड़ यात्रा के प्रबन्धन में करोड़ों रुपये ख़र्च करती है, लेकिन क्या सरकार उस दौरान मज़दूरों को बिना वेतन ब्रेक मिलने पर फ़ैक्टरियों को वेतन देने के लिए बाध्य करती है? मशीन मेण्टेनेंस के चलते फ़ैक्टरियाँ मज़दूरों को जो बिना वेतन के ब्रेक देती हैं, क्या सरकार उन्हें वेतन देने के लिए बाध्य करती है? क्या सरकार स्कूल छात्रों के लिए कोई कल्याणकारी योजना लागू करती है ताकि उन्हें कम उम्र में स्कूली शिक्षा के दौरान काम न करना पड़े? क्या सरकार श्रम क़ानूनों को सख़्ती के साथ लागू करती है ताकि फ़ैक्टरी मैंनेजमेण्ट और ठेकेदार मज़दूरों का अधिकार न मारें?
यह बात दिन के उजाले के समान साफ़ है कि ऊपर पूछे गये सवालों के जवाब हैं – नहीं! अगर सरकार मज़दूरों के पक्ष में ऐसे कोई क़दम नहीं उठा रही है तो इसका मतलब साफ़ है कि यह पूँजीवादी व्यवस्था ख़ुद बेरोज़गार मज़दूरों की फ़ौज तैयार कर रही है ताकि औद्योगिक पूँजीपति वर्ग सस्ते में मज़दूरों की श्रमशक्ति ख़रीदकर अपने मुनाफ़े की दर को बढ़ा सकें।
मज़दूर अपने कमज़ोर वर्गीय दृष्टिकोण के चलते मज़दूरी कम होने के कारणों के लिए अपने ही वर्ग के मज़दूरों को दोषी मानते हैं। वह यह नहीं समझ पाते कि यह व्यवस्था औद्योगिक पूँजीपति वर्ग की सेवा में बेरोज़गारों की फ़ौज तैयार करती है। सरकार मज़दूरों को बेरोज़गारी से बचाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं लेती है। वह श्रम क़ानून भी सख़्ती से लागू नहीं करती है और श्रम क़ानूनों में इस परिस्थिति से निपटने के लिए कोई बदलाव भी नहीं करती है।
आज इस चुनौतियों से भरे दौर में मज़दूरों को अपने वर्गीय दृष्टिकोण को दुरुस्त करना होगा। मज़दूर वर्ग को अपने दुश्मन पूँजीपति वर्ग और अपने मित्र वर्गों को पहचानना होगा! आज पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा विभिन्न तरीक़ों से मज़दूरों के बीच उनकी एकता को तोड़ने के लिए बहुत-सी दीवारें खड़ी कर दी गयी हैं – जाति-धर्म से लेकर रोज़गार-बेरोज़गार, पर्मानेण्ट मज़दूर-ठेका मज़दूर, दिहाड़ी मज़दूर, पीस रेट आदि। इन सबके बावजूद मज़दूरों को अपनी राजनीतिक समझदारी उन्नत करते हुए अपनी वर्गीय एकजुटता क़ायम करनी होगी। अपने औद्योगिक क्षेत्र में नये सिरे से पेशागत व इलाक़ाई पैमाने पर एकजुट होकर अपने हक़ और अधिकारों की लड़ाई लड़नी होगी।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022
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