बेरोज़गारी और आर्थिक संकट के दौर में बढ़ती आत्महत्याएँ
आत्महत्या करने वाला हर चौथा इन्सान दिहाड़ी मज़दूर
भारत
पिछले साल का कोरोना काल आपको याद होगा। ऑक्सीजन, दवाइयों, बेड की कमी के कारण लोग मारे जा रहे थे। गंगा तक इन्सानों की लाशों से अट गयी थी और श्मशानों के आगे लम्बी-लम्बी क़तारें लगी थीं। इसमें मौत के गर्त में समाने वाले ज़्यादातर मेहनतकश तबक़े के लोग थे। मोदी सरकार इस क़त्लेआम को अंजाम देकर आपदा में अवसर निकालने में लगी हुई थी। इसके साथ ही पूरी पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मज़दूरों की जा रही हत्याओं के आँकडों में और इज़ाफ़ा हो गया।
हाल ही में जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में यह सामने आया है कि साल 2021 में भारत में जिन 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की उसमें से 25.6 प्रतिशत दिहाड़ी मज़दूर थे। एनसीआरबी की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2021 में कुल 42,004 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की, इनमें 4,246 महिलाएँ भी शामिल थीं। रिपोर्ट के मुताबिक़ 42,004 दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्याओं में सबसे ज़्यादा मामले तमिलनाडु (7673), महाराष्ट्र (5270), मध्य प्रदेश (4657), तेलंगाना (4223), केरल (3345) और गुजरात (3206) से थे। 2020 में कुल 37,666 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की थी। इस साल इस वर्ग में हुई आत्महत्या की घटनाओं में क़रीब 11 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है।
ऐसे में कुछ लोग सोच सकते हैं (जो कि पक्के तौर पर मूर्ख और कूपमण्डूक कहे जा सकते हैं) कि यह तो आत्महत्या है, इसमें सरकार या व्यवस्था का क्या लेना देना। पर यहाँ असल सवाल यह है कि उन्हें इस हालात तक पहुँचाने के लिए दोषी कौन है? यह सरकार और पूँजीवादी निज़ाम जो मज़दूरों की बुनियादी ज़रूरतों तक को छीनकर, उन्हें भूखों मरने के लिए छोड़ देता है। आज महँगाई, बेरोज़गारी जो अपने चरम पर है, इसका सबसे ज़्यादा असर दिहाड़ी मज़दूरों पर होता है।
लेबर चौक पर जब मज़दूर खड़े होते हैं, मुश्किल से कभी कोई काम आता है तो सभी मज़दूर उसे किसी भी हाल में हासिल करना चाहते हैं। पर अन्त में काम मिलता है किसी एक को ही बाक़ी ख़ाली हाथ लौट जाते हैं। कभी पन्द्रह दिन कभी बीस दिन, इससे अधिक काम मिलना मुश्किल हो जाता है। दिहाड़ी भी 300-400 ही है, उसी में पूरे परिवार का पेट पालना होता है, ज़रूरतें पूरी करनी होती हैं। पर आज तो सिलेण्डर भरवाने और सब्ज़ी ख़रीदने में ही सारे पैसे ख़त्म हो जाते हैं। फिर कुछ दिन काम नहीं मिलता तब स्थिति उधार लेने वाली आ जाती है। फिर धीरे-धीरे क़र्ज़ कम होने की बजाय बढ़ता जाता है। फिर इन कारणों से लड़ाई-झगड़े, तनाव बढ़ता जाता है। इस स्थिति से देश की बड़ी मज़दूर आबादी गुज़र रही है। पर इसमें से कुछ मज़दूर अकेले होने के कारण इस स्थिति का सामना नहीं कर पाते और उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसलिए इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ यह पूँजीवादी व्यवस्था ही ज़िम्मेदार है जो मज़दूरों की ज़िन्दगी लील लेती है।
इसके साथ ही राजनीतिक कूपमण्डूकों को भी आइना दिखाने के लिए एक तथ्य और जुड़ गया जो इस तर्क की पुष्टि करता है कि धनी किसान ही खेतिहर मज़दूरों का शोषण करने में सबसे आगे हैं। इस रिपोर्ट में “कृषि क्षेत्र में लगे व्यक्तियों” की श्रेणी भी थी, जिसमें खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्या के आँकडें थे, जिसकी संख्या में पिछले साल के मुक़ाबले वृद्धि हुई है। “कृषि क्षेत्र में लगे व्यक्तियों” की श्रेणी में साल 2021 में 10,881 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 5,318 किसान थे और 5,563 खेतिहर मज़दूर। इन खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्या का कारण धनी किसानों-कुलकों द्वारा किया गया भयंकर और अमानवीय शोषण ही है, जो उन्हें मुनाफ़े, सूद, लगान हर तरीक़े से लूटते हैं। खेतिहर मज़दूरों को न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता, बाक़ी कोई श्रम क़ानून लागू होंगे ये बात तो भूल जाइए। कई “कामरेडगण” बड़े ही “यथार्थवादी” तरीक़े से ‘ललकारते’ हुए ‘फ़ार्मर-मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाते थे, पर जब उन्हीं खेतिहर मज़दूरों के अधिकार छीने जाते हैं तो वे चुप्पी साधकर बैठ जाते हैं! यही कारण था कि किसान आन्दोलन में खेतिहर मज़दूरों के अधिकार व उनकी माँगों को कोई तवज्जो नहीं दी गयी। इससे यही बात साबित होती है कि बड़े किसान-कुलकों व खेतिहर मज़दूरों में कोई एकता नहीं बन सकती, क्योंकि एक शोषक वर्ग का हिस्सा है तो दूसरा शोषित वर्ग का।
आत्महत्याओं का बढ़ना पूँजीवाद के जर्जर होते जाने की निशानी है। फ़ासीवादी मोदी सरकार के आने के बाद से महँगाई, बेरोज़गारी की तरह ही आत्महत्याओं में भी वृद्धि हुई है। पिछले साल कोरोना काल में जो क़हर ढाया गया, उससे मेहनतकशों के जीवन में तबाही आ गयी। इन सबको रोकने का एक ही तरीक़ा है, मेहनतकशों की वर्ग एकजुटता। यह पूँजीवादी व्यवस्था हम मेहनतकशों के ख़ून के दम पर ही अपनी अय्याशी की मीनारें खड़ी करती है। इसलिए हमें इसे ध्वस्त करके ही ऐसा समाज बनाना होगा, जिसमें आत्महत्या के भौतिक आधार का ही ख़त्मा हो जाये।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022
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