Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (पन्‍द्रहवीं किश्त)

उच्चतम न्यायालय अधिकांश नागरिकों की पहुँच से न सिर्फ़ भौगोलिक रूप से दूर है बल्कि बेहिसाब मँहगी और बेहद जटिल न्यायिक प्रक्रिया की वजह से भी संवैधानिक उपचारों का अधिकार महज़ औपचारिक अधिकार रह जाता है। उच्चतम न्यायालय में नामी-गिरामी वकीलों की महज़ एक सुनवाई की फ़ीस लाखों में होती है। ऐसे में ज़ाहिर है कि न्याय भी पैसे की ताक़त से ख़रीदा जानेवाला माल बन गया है और इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि अमूमन उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले मज़दूर विरोधी और धनिकों और मालिकों के पक्ष में होते हैं। आम आदमी अव्वलन तो उच्चतम न्यायालय तक जाने की सोचता भी नहीं और अगर वो हिम्मत जुटाकर वहाँ जाता भी है तो यदि उसके अधिकारों का हनन करने वाला ताकतवर और धनिक है तो अधिकांश मामलों में पूँजी की ताक़त के आगे न्याय की उसकी गुहार दब जाती है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (चौदहवीं किश्त)

इस देश के लोगों को बोलने की आज़ादी तब तक है जब तक वो राज्य की सुरक्षा और देश की प्रभुता और अखण्डता के दायरे के भीतर बात करते हैं। ज्यों ही कोई मौजूदा व्यवस्था का आमूलचूल परिवर्तन करके वास्तविक जनवाद और समता पर आधारित एक वैकल्पिक व्यवस्था के निर्माण के बारे में बोलता है, या फ़िर कश्मीर और उत्तर पूर्व के राज्यों के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में बोलता है, राज्य सत्ता के कान खड़े हो जाते हैं और उस व्यक्ति के बोलने की आज़ादी पर वाजिब पाबन्दियों के लिए संविधान का सहारा लेकर उसकी ज़बान ख़ामोश करने की क़वायद शुरू हो जाती है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (तेरहवीं किस्‍त)

भारतीय नागरिकों को प्रदत्त मूलभूत अधिकार न सिर्फ़ नाकाफ़ी हैं बल्कि जो चन्द राजनीतिक अधिकार संविधान द्वारा दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों और पाबन्दियों भरे प्रावधानों से परिसीमित किया गया है। उनको पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो संविधान निर्माताओं ने अपनी सारी विद्वता और क़ानूनी ज्ञान जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के बजाय एक मज़बूत राज्यसत्ता की स्थापना करने में में झोंक दिया हो। इन शर्तों और पाबन्दियों की बदौलत आलम यह है कि भारतीय राज्य को जनता के मूलभूत अधिकारों का हनन करने के लिए संविधान का उल्लंघन करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसके अतिरिक्त संविधान में एक विशेष हिस्सा (भाग 18) आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों का है जो राज्य को आपातकाल घोषित करने का अधिकार देता है।

जनता की लूट और दमन में दक्षिण अफ्रीका के नये शासक गोरे मालिकों से पीछे नहीं

पिछले 16 अगस्त को दक्षिण अफ्रीका के मारिकाना में खदान मज़दूरों पर हुई बर्बर पुलिस फायरिंग ने रंगभेदी शासन के दिनों में होने वाले ज़ुल्मों की याद ताज़ा कर दी। इस घटना ने साफ़ तौर पर यह दिखा दिया कि 1994 में गोरे शासकों से आज़ादी के बाद सत्ता में आये काले शासक लूट-खसोट और दमन-उत्पीड़न की उसी परम्परा को जारी रखे हुए हैं। सत्तारूढ़ अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (ए.एन.सी.) की ‘काले लोगों के सशक्तीकरण की योजना’ का कुल मतलब काले लोगों की आबादी में से एक छोटे-से हिस्से को अमीर बनाकर पूँजीपतियों और अभिजातों की क़तार में शामिल करना है। बहुसंख्यक काली आबादी आज भी घनघोर ग़रीबी, बेरोज़गारी, अपमान और उत्पीड़न में ही घिरी हुई है।

मज़दूरों के ख़िलाफ़ एकजुट हैं पूँजी और सत्ता की सारी ताक़तें

मारुति सुज़ुकी जैसी घटना न देश में पहली बार हुई है और न ही यह आख़िरी होगी। न केवल पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में, बल्कि पूरे देश में हर तरह के अधिकारों से वंचित मज़दूर जिस तरह हड्डियाँ निचोड़ डालने वाले शोषण और भयानक दमघोंटू माहौल में काम करने और जीने को मजबूर कर दिये गये हैं, ऐसे में इस प्रकार के उग्र विरोध की घटनाएँ कहीं भी और कभी भी हो सकती हैं। इसीलिए इन घटनाओं के सभी पहलुओं को अच्छी तरह जानना-समझना और इनके अनुभव से अपने लिए ज़रूरी सबक़ निकालना हर जागरूक मज़दूर के लिए, और सभी मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

अघोषित आपातकाल की तेज होती आहटें!

पिछले दो दशकों से जारी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के विनाशकारी नतीजों को झेल रहे जनसमुदाय में इस व्यवस्था के ख़िलाफ ग़ुस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है। पिछले कई वर्षों से आसमान छू रही महँगाई ने आम लोगों की ज़िन्दगी दूभर कर दी है। रही-सही कोर-कसर एक के बाद एक फूट रहे घोटालों और सिर से पाँव तक भ्रष्टाचार में डूबी नेताशाही-नौकरशाही ने पूरी कर दी है। दिनोदिन गहराता पूँजीवादी आर्थिक संकट लोगों पर तकलीफों और बदहाली का और भी ज्यादा कहर बरपा करेगा इस बात को शासक वर्ग भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। आर्थिक नीतियों के नतीजे नंगे रूप में सामने आने के बाद सामाजिक विस्‍फोट की जो ज़मीन तैयार हो रही है, उसके भविष्य को भाँपते हुए शासक वर्ग अपने दमनतन्त्र को और भी निरंकुश बनाने में जुट गये हैं। इसमें ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि नवउदारवादी नीतियों के दौर में पूँजीवादी जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखाएँ भी धुँधली पड़ती जा रही हैं। भारत में भी पूँजीवादी जनवाद का ‘स्पेस’ लगातार सिकुड़ता जा रहा है और क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर पुलिस प्रशासन की भूमिका बढ़ती जा रही है।

जालन्धर में होज़री कारख़ाने की इमारत गिरने से कम से कम 24 मज़दूरों की मौत

यह हादसा और इसके बाद का सारा घटनाक्रम पूँजीवादी व्यवस्था के भ्रष्टाचार, अमानवीयता, पशुता, मुनाफ़ाख़ोर चरित्र की ही गवाही देता है। इस घटना ने देश के कोने-कोने में कारख़ाना मज़दूरों के साथ हो रही भयंकर बेइंसाफ़ी को एक बार फिर उजागर किया है। यहाँ भी वही कहानी दोहरायी गयी है जो पंजाब सहित पूरे भारत के औद्योगिक इलाक़ों में अक्सर सुनायी पड़ती है। मज़दूरों की मेहनत से बेहिसाब मुनाफ़ा कमाने वाले सभी बड़े-छोटे कारख़ानों के मालिक मज़दूरों की ज़िन्दगी की कोई परवाह नहीं करते हैं। वे मुनाफ़े की हवस में इतने अन्धे हो चुके हैं कि मज़दूरों की सुरक्षा के इन्तज़ामों को भयंकर रूप से अनदेखी कर रहे हैं। कभी मज़दूर कारख़ानों की कमज़ोर इमारतें गिरने से मरते हैं, कभी इमारतें ब्वॉयलर फटने से गिर जाती हैं, कभी इमारतों को इतना ओवरलोड कर दिया जाता है कि वे बोझ झेल नहीं पाती हैं। मज़दूर असुरक्षित मशीनों पर काम करते हुए अपनी जान या अपने अंग गँवा बैठते हैं। लेकिन मालिकों को इस बात की कोई परवाह नहीं है। उनके लिए तो मज़दूर बस मशीनों के फर्जे हैं जिनके टूट-फूट जाने पर या घिस जाने पर उनकी जगह नये पुर्जों को फिट कर दिया जाता है।

100 करोड़ ग़रीबों के प्रतिनिधि सारे करोड़पति?

क्या ये करोड़पति और अपराधी आम जनता की कोई चिन्ता करेंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिए जरिए सत्ता हासिल करने वाले लोग पूँजीवाद की ही सेवा करते हैं और बदले में अपने लिए मेवा पाते हैं। जनता की ज़िन्दगी में बेहतरी लाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। वास्तव में पूँजीवादी जनवाद में सरकार की असली परिभाषा कुछ इस तरह होती है — अमीरों की, अमीरों के लिए, अमीरों के द्वारा। इसमें आम जनता का ज़िक़्र तो बस ज़ुबानी जमाख़र्च के लिए होता है। आम जनता की तक़लीफ़ों को तो सिर्फ़ मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी सरकार ही दूर कर सकती है।

सत्ता की बर्बरता की तस्वीर पेश करती हैं हिरासत में होने वाली मौतें

भारत में आज भी पुलिसिया ढाँचा अंग्रेज़ों के ज़माने की तरह काम करता है और जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। जनता द्वारा चुनी हुई तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार भी कोई कम नहीं है। भारत सरकार अभी भी यातना को न सिर्फ जंग के दौरान बल्कि साधारण हालात में भी, मानवता के ख़िलाफ़ अपराध नहीं मानती। हालाँकि बहुत से पश्चिमी देश कम से कम कागज़ों पर तो ऐसा मानते हैं। भारत सरकार ने बरसों से लटके हुए यातना विरोधी क़ानून को पारित नहीं किया है। आख़िर सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत भी क्या है? इस शोषक व्यवस्था के हितों के लिए तो ऐसा ही ढाँचा चाहिए। भारतीय समाज में अमीरी-ग़रीबी की खाई जैसे-जैसे गहरी होती जा रही है और बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी बढ़ रही है वैसे-वैसे ग़रीबों का दमन-उत्पीड़न भी बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर, भारतीय समाज में गहरे जड़ जमाये गैर-जनवादी मूल्य-मान्यताएँ मसले को और भी गम्भीर बना देती हैं क्योंकि बहुत-से लोग पुलिसिया यातना के तौर-तरीक़ों को ग़लत नहीं मानते या फिर चुपचाप सह लेते हैं। हालाँकि पुलिसिया दमन के ख़िलाफ़ समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में जनता के ग़ुस्से का लावा फूटता भी रहता है और मानवीय अधिकारों और नागरिक आज़ादी के लिए लड़ने वाले विभिन्न संगठन भी इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहते हैं लेकिन अभी तक इसके ख़िलाफ़ कोई व्यापक जनविरोध संगठित नहीं हो पाया है।

जनता के पास चुनने के लिए कुछ भी नहीं है! सिवाय इंक़लाब के!

लेकिन जब तक पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प पेश नहीं किया जाता तब तक हर चुनाव की नौटंकी में जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस चुनावी मदारी के निशान पर ठप्पा लगाता रहेगा। जनता बिना किसी विकल्प के भी स्वत:स्फूर्त तरीक़े से सड़कों पर उतरती है। लेकिन ऐसे जनउभार किसी व्यवस्थागत परिवर्तन तक नहीं जा सकते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कुछ समय के लिए पूँजीवादी शासन-व्यवस्था को हिला सकते हैं। लेकिन ऐसी उथल-पुथल से पूँजीवादी व्यवस्था देर-सबेर उबर जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया में कई वर्षों से आर्थिक संकट में है और अब यह आर्थिक संकट अपने आपको राजनीतिक संकट के रूप में भी अभिव्यक्त कर रहा है। लेकिन हर जगह संकट विकल्प का है। जिस मज़दूर वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी को पूँजीवाद का विकल्प पेश करना है, वह हर जगह बिखरा हुआ है, विचारधारात्मक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर है।