उत्तर-पूर्व की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ और दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता
तपीश
भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित आठ राज्यों – मणिपुर, असम, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय, त्रिपुरा और नागालैण्ड – से आने वाले लाखों प्रवासियों के साथ शेष भारत के बेगाने और दुश्मनाना व्यवहार को सिर्फ़ नस्लीय भेद कहना मामले को बेहद हल्का बनाना है। हाल में उत्तर-पूर्व के लोगों के विरुद्ध होने वाली हिंसक वारदातों और भेदभावपूर्ण कार्रवाइयों में काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई है। अरुणाचल के एक छात्र नीडो की दिल्ली में हुई हत्या के बाद सरकार ने एक 11 सदस्यीय समिति का गठन किया था। हाल ही में इस कमेटी ने एक लम्बी रिपोर्ट पेश की है। कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2005 से 2013 के बीच 2 लाख उत्तर-पूर्व वासी शिक्षा और रोज़गार की तलाश में दिल्ली पहुँचे। आने वाले इन लोगों में से 86 प्रतिशत का कहना था कि उनके साथ भेदभाव किया जाता है और उन्हें नीचा समझा जाता है। उत्तर-पूर्व की दो-तिहाई महिलाओं ने रोज़मर्रा के जीवन में उनके साथ होने वाली छेड़खानी और यौन-उत्पीड़न की वारदातों की ताईद की।
अक्सर शेष भारत के लोग उत्तर-पूर्व से आने वाले भारतीयों को चिंकी, मोमो, चीनी, नेपाली आदि नामों से पुकारते हैं। कमेटी की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि मध्यम और छोटे दर्जे़ की प्राइवेट कम्पनियों में उत्तर-पूर्वी लोगों को आसानी से काम मिल जाता है। वे मेहनती हैं और उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में कोई दिक्क़त नहीं आती। इससे स्थानीय लोग चिढ़ते हैं, उन्हें लगता है कि बाहरी राज्य के लोग उनके रोज़गार के अवसरों को छीन रहे हैं। यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि प्राइवेट कम्पनियों द्वारा उत्तर-पूर्वी लोगों को तरज़ीह देने का एक कारण यह भी है कि छोटी कम्पनियों के मालिक अक्सर ही काम निकल जाने के बाद बिना तनख़्वाह दिये उनको नौकरी से निकाल देते हैं। पहले से ही सामाजिक-सांस्कृतिक अलगाव में जी रहे ये लोग इस हालत में भी नहीं होते कि इस अन्याय और शोषण का संगठित विरोध कर सकें।
हमारे देश के भीतर विभिन्न राष्ट्रीयताएँ और उप-राष्ट्रीयताएँ समय-समय पर आपस में टकराती रहती हैं। इसका ख़ामियाज़ा सबसे अधिक महिलाओं और मेहनतकशों की आबादी को भुगतना पड़ता है। जैसेकि महाराष्ट्र में यूपी-बिहार वालों के ख़िलाफ़ नफ़रत की राजनीति या फिर यूपी में बिहार वासियों के विरुद्ध माहौल, उत्तर भारत और दक्षिण भारत का द्वन्द्व इन झगड़ों के कुछेक उदाहरण हैं। इन समस्याओं की जड़ भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास में है। लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि आज़ादी के बाद हुए असमान पूँजीवादी विकास और दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता की दमनकारी भूमिका ने हालात काफ़ी बिगाड़ दिये हैं। उत्तर-पूर्व के विशिष्ट इतिहास और नृजातीय विभिन्नताओं की वजह से वहाँ की राष्ट्रीयताओं और उपराष्ट्रीयताओं की समस्या कहीं ज़्यादा जटिल है। इस जटिलता को समझने के लिए हमें इन राज्यों के इतिहास पर एक नज़र डालनी होगी।
मणिपुर में औपनिवेशिक काल में ही हिजाम इराबोट के करिश्माई नेतृत्व में सामन्तवाद और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ एक शक्तिशाली जनवादी आन्दोलन उभरा जिसकी वजह से अंग्रेज़ों के जाने के बाद ‘मणिपुर संविधान क़ानून 1947’ पास हुआ जिसके परिणामस्वरूप मणिपुर राज्य आधुनिक ढंग-ढर्रे पर एक संवैधानिक राजतन्त्र के रूप में सामने आया। नये संविधान के तहत मणिपुर में चुनाव भी हुए और विधानसभा भी गठित हुई। परन्तु 1947 में ही भारत सरकार के प्रतिनिधि वी.पी. मेनन ने राज्य में गिरती क़ानून-व्यवस्था पर विचार- विमर्श के लिए राजा को शिलांग बुलाया और वहाँ कुटिलता से उससे भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करा लिया। भारत सरकार ने इतनी भी जहमत उठाना ज़रूरी नहीं समझा कि इस समझौते की अभिपुष्टि नवनिर्वाचित मणिपुर विधानसभा द्वारा करा ली जाये। उल्टे विधानसभा को भंग कर दिया गया और मणिपुर को चीफ़ कमिश्नर के मातहत कर दिया गया और प्रलोभन और दमन की नीति अपनाकर प्रतिरोध को दबाने का सिलसिला शुरू हो गया और इसी के समान्तर सशस्त्र संघर्षों का भी सिलसिला शुरू हो गया।
नगा राष्ट्रवाद का इतिहास इससे भी पुराना है। बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत-बर्मा सीमा पर स्थित नगा पहाड़ियों के निवासी नगा नेशनल कौंसिल (एन.एन.सी.) के बैनर तले एकजुट होकर एक साझा मातृभूमि और स्वशासन की आकांक्षा प्रकट करने लगे थे। गाँधी ने एकाधिक बार नगा लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार दिलाने का वायदा भी किया था। ब्रिटिश प्रशासन और एन.एन.सी. के बीच हैदरी समझौते के तहत नगालैण्ड को दस वर्षों के लिए संरक्षित दर्जा प्रदान किया गया था और उसके बाद नगाओं को तय करना था कि वे संघ में शामिल हों अथवा नहीं। लेकिन अंग्रेज़ों के जाने के बाद भारतीय राज्य ने एकतरफ़ा तरीक़े से नगा भूभाग को भारतीय गणराज्य का हिस्सा घोषित कर दिया।
मिज़ो सशस्त्र विद्रोह की कहानी साठ के दशक से शुरू होती है। साठ के दशक के प्रारम्भ में असम की लुशाई पहाड़ियों में भीषण अकाल पड़ा। एक स्थानीय राहत टीम बनी जिसने भारत सरकार से राहत की गुहार लगायी, पर भारत सरकार ने राहत की रस्म-अदायगी से अधिक कुछ भी नहीं किया। इसके बाद राहत टीम ने स्वयं को मिज़ो नेशनल फ़्रण्ट (एम.एन.एफ़.) के रूप में संगठित किया और ‘भारतीय उपनिवेशवाद से मिज़ोरम की मुक्ति’ के लिए सशस्त्र संघर्ष का आह्वान किया। फ़रवरी 1966 में सशस्त्र दस्तों ने ऐजल शहर क़ब्ज़ा कर लिया। शहर को फिर से क़ब्ज़ा करने में भारतीय सेना ने पहली बार अपनी नागरिक आबादी पर धुआँधार बमबारी की। हज़ारों परिवारों को उनके घरों से निकालकर सड़कों के किनारे नये गाँव बसाये गये ताकि सेना उन्हें आसानी से नियन्त्रित कर सके। इससे काफ़ी हद तक मिज़ो समाज की संरचना तबाह हो गयी। 1986 में एम.एन.एफ़. और भारत सरकार के बीच समझौता हुआ जिसके बाद एम.एन.एफ़. हिंसा छोड़कर भारतीय संविधान के अन्तर्गत काम करने पर राजी हो गया। पर इससे मिज़ोरम के नृजातीय समूहों का अलगाव ज़रा भी कम नहीं हुआ। आज भी वहाँ अलग-अलग नृजातीय समूहों के अपने-अपने सशस्त्र विद्रोही दस्ते हैं।
सिक्किम का दर्जा 1947 से भारत के संरक्षित राज्य (प्रोटेक्टोरेट) का था। वह भारतीय संघ का हिस्सा नहीं था। 1975 में बिना सिक्किम की जनता की राय लिये भारतीय संविधान में मौजूद प्रावधान के तहत उसे भारत में मिला लिया गया और पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। इसके बाद सिक्किम भी उत्तर-पूर्व का हिस्सा माना जाने लगा।
केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध उपजे जनअसन्तोष को बन्दूक़ की नोंक पर दबाने के मक़सद से 1959 से ही पूरे उत्तर-पूर्व में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) लागू है। यह दमनकारी काला क़ानून सेना और अर्द्धसैनिक बलों को उत्तर-पूर्व की जनता के ऊपर मनमाना व्यवहार करने की पूरी छूट देता है। अंग्रेज़ों की ही तरह दिल्ली की सरकार की उत्तर-पूर्व के इलाक़े में बुनियादी दिलचस्पी भूराजनीतिक-रणनीतिक ही है। इसीलिए इन समस्याओं का राजनीतिक समाधान ढूँढ़ने की बजाय दमन का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा इन राज्यों में विकसित हो रहे नये मध्यम वर्ग को प्रलोभन और दबाव के सहारे सरकारी पिट्ठू बनाने की रणनीति भी अपनायी गयी। उत्तर-पूर्व के पूरे इलाक़े की शेष भारत के साथ सांस्कृतिक-आत्मिक एकता का आधार तैयार करने के लिए सरकार ने शायद ही कभी कुछ किया हो। आलम तो यह है कि इतिहास की पुस्तकों में इस भूभाग का उल्लेख तक नहीं मिलता। इस क्षेत्र के लोगों की सांस्कृतिक विभिन्नता की मूल वजह यह भी है कि यहाँ का समाज ज़्यादा खुला है, उसमें औरतों को कहीं ज़्यादा आज़ादी और बराबरी हासिल है तथा यहाँ जाति-व्यवस्था अनुपस्थित है।
यदि भारतीय संघात्मक ढाँचा वास्तव में आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता देने के बाद अस्तित्व में आता तो उत्तर-पूर्व भारतीय संघ के भीतर अपने-आपमें कई नृजातीय राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं का संघ होता और इन राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं के भीतर भी कई उपराष्ट्रीयताओं और भाषिक समुदायों के अपने स्वायत्तशासी क्षेत्र होते। परन्तु ऐसा न होकर अतिकेन्द्रीयकृत भारतीय संघात्मक ढाँचा ऊपर से थोप दिया गया। इस वजह से उत्तर-पूर्व की जनता दिल्ली की सत्ता को औपनिवेशिक काल की निरन्तरता में ही देखती रही। भारत की शक्तिशाली केन्द्रीय राज्यसत्ता से टकराकर उत्तर-पूर्व की छोटी-छोटी राज्य राष्ट्रीयताएँ भले ही अपनी मुक्ति न प्राप्त कर पायें, परन्तु वे हारेंगी भी नहीं। उनका संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक उनके अलगाव और उपेक्षा की स्थिति बनी रहेगी।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
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