Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

100 करोड़ ग़रीबों के प्रतिनिधि सारे करोड़पति?

क्या ये करोड़पति और अपराधी आम जनता की कोई चिन्ता करेंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिए जरिए सत्ता हासिल करने वाले लोग पूँजीवाद की ही सेवा करते हैं और बदले में अपने लिए मेवा पाते हैं। जनता की ज़िन्दगी में बेहतरी लाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। वास्तव में पूँजीवादी जनवाद में सरकार की असली परिभाषा कुछ इस तरह होती है — अमीरों की, अमीरों के लिए, अमीरों के द्वारा। इसमें आम जनता का ज़िक़्र तो बस ज़ुबानी जमाख़र्च के लिए होता है। आम जनता की तक़लीफ़ों को तो सिर्फ़ मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी सरकार ही दूर कर सकती है।

सत्ता की बर्बरता की तस्वीर पेश करती हैं हिरासत में होने वाली मौतें

भारत में आज भी पुलिसिया ढाँचा अंग्रेज़ों के ज़माने की तरह काम करता है और जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। जनता द्वारा चुनी हुई तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार भी कोई कम नहीं है। भारत सरकार अभी भी यातना को न सिर्फ जंग के दौरान बल्कि साधारण हालात में भी, मानवता के ख़िलाफ़ अपराध नहीं मानती। हालाँकि बहुत से पश्चिमी देश कम से कम कागज़ों पर तो ऐसा मानते हैं। भारत सरकार ने बरसों से लटके हुए यातना विरोधी क़ानून को पारित नहीं किया है। आख़िर सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत भी क्या है? इस शोषक व्यवस्था के हितों के लिए तो ऐसा ही ढाँचा चाहिए। भारतीय समाज में अमीरी-ग़रीबी की खाई जैसे-जैसे गहरी होती जा रही है और बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी बढ़ रही है वैसे-वैसे ग़रीबों का दमन-उत्पीड़न भी बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर, भारतीय समाज में गहरे जड़ जमाये गैर-जनवादी मूल्य-मान्यताएँ मसले को और भी गम्भीर बना देती हैं क्योंकि बहुत-से लोग पुलिसिया यातना के तौर-तरीक़ों को ग़लत नहीं मानते या फिर चुपचाप सह लेते हैं। हालाँकि पुलिसिया दमन के ख़िलाफ़ समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में जनता के ग़ुस्से का लावा फूटता भी रहता है और मानवीय अधिकारों और नागरिक आज़ादी के लिए लड़ने वाले विभिन्न संगठन भी इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहते हैं लेकिन अभी तक इसके ख़िलाफ़ कोई व्यापक जनविरोध संगठित नहीं हो पाया है।

जनता के पास चुनने के लिए कुछ भी नहीं है! सिवाय इंक़लाब के!

लेकिन जब तक पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प पेश नहीं किया जाता तब तक हर चुनाव की नौटंकी में जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस चुनावी मदारी के निशान पर ठप्पा लगाता रहेगा। जनता बिना किसी विकल्प के भी स्वत:स्फूर्त तरीक़े से सड़कों पर उतरती है। लेकिन ऐसे जनउभार किसी व्यवस्थागत परिवर्तन तक नहीं जा सकते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कुछ समय के लिए पूँजीवादी शासन-व्यवस्था को हिला सकते हैं। लेकिन ऐसी उथल-पुथल से पूँजीवादी व्यवस्था देर-सबेर उबर जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया में कई वर्षों से आर्थिक संकट में है और अब यह आर्थिक संकट अपने आपको राजनीतिक संकट के रूप में भी अभिव्यक्त कर रहा है। लेकिन हर जगह संकट विकल्प का है। जिस मज़दूर वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी को पूँजीवाद का विकल्प पेश करना है, वह हर जगह बिखरा हुआ है, विचारधारात्मक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर है।

गहराते जन-असन्तोष से निपटने के लिए दमनतन्‍त्र को मज़बूत बनाने में जुटे हैं लुटेरे शासक वर्ग

यह अघोषित आपातकाल की आहट है। यह निरंकुश दमनतन्त्र संगठित करने की सुनियोजित कार्ययोजना का पहला चरण है। मेहनतकश जनसमुदाय को और नागरिक आज़ादी एवं जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए संकल्पबद्ध बुद्धिजीवियों को एकजुट होकर उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी। शासक वर्ग ने भविष्य के मद्देनज़र अपनी तैयारियाँ तेज़ कर दी है। मेहनतकश जनसमुदाय की हरावल पाँतों को भी अपनी तैयारियाँ तेज़ कर देनी होंगी।

गोबिन्दपुरा ज़मीन अधिग्रहण काण्ड – विकास के नाम पर पूँजीपतियों की सेवा

इण्डिया बुल्स नाम की एक कम्पनी द्वारा लगाए जा रहे पिऊना थर्मल पावर प्लाण्ट के लिए पंजाब के मानसा जिले के गोबिन्दपुरा गाँव में जबरन ज़मीन अधिग्रहण के घटनाक्रम ने पूँजीवादी हुक्मरानों के बर्बर काले कारनामों में एक और अध्याय जोड़ दिया है। मेहनतकश जनता पर लदी पूँजीवादी तानाशाही पर चढ़ाया गया जनतान्त्रिक लबादा इस घटनाक्रम से एक बार फिर चिथड़े-चिथड़े हो गया है। विकास के नाम पर जनता को लूटा जा रहा है, मारा-पीटा जा रहा है। यह कैसा जनतन्त्र है जहाँ जनता से बिना कुछ बातचीत किये, बिना उससे पूछे, बिना उसकी राय लिये, मनमानी क़ीमतों पर उसकी ज़मीन-सम्पत्ति का फ़ैसला कर दिया जाता है? शान्तिपूर्ण विरोध करने पर उससे अपराधियों की तरह निपटा जाता है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (बारहवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने बड़ी कुशलता के साथ पूँजीवादी विकास के अपने रास्ते को समाजवाद के आवरण में पेश किया। भाकपा, माकपा और कुछ अन्य कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियाँ भी इसी को समाजवाद की दिशा में कदम का दाम देती थीं और राष्ट्रीकरण की रट लगाती रहती थीं। आज भी ये पार्टियाँ सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर इस कदर मातम करती हैं मानो वास्तव में जनता से समाजवाद छीन लिया गया हो। क्या बड़े उद्योगों पर सरकार का स्वामित्व ही समाजवाद है? पूँजीवाद के तहत होने वाला राष्ट्रीकरण विशुद्ध पूँजीवाद ही होता है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के नौकरशाहों और टेक्नोक्रेट के रूप में एक विशाल नौकरशाह पूँजीपति वर्ग अस्तित्व में आया। इन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों से उगाहे गये अतिरिक्त मूल्य का हस्तगतकर्ता जनता नहीं थी। इसकी भारी मात्रा पूँजीपतियों को अपने उद्योगों के विकास में मदद के लिए थमा दी जाती थी और बाकी नौकरशाह पूँजीपतियों के नये वर्ग के ऐशो-आराम और विलासिता पर खर्च होती थी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शीर्षस्थ अफसर अपने ऊपर करोड़ों रुपये खर्च करते थे।

मारुति सुज़ुकी, मानेसर का मज़दूर आंदोलन संघर्ष को व्‍यापक और जुझारू बनाना होगा

ठेका मज़दूर और अप्रेंटि‍स आसपास के जि‍न गांवों में कि‍राये पर रहते हैं उनके सरपंचों के ज़रि‍ए मज़दूरों पर दबाव डाला जा रहा है कि‍ वे आन्‍दोलन से दूर रहें। कारखाना गेट की ओर आ रहे मज़दूरों को रास्‍ते में रोककर गांवों के दबंगों द्वारा डराने-धमकाने की कई घटनाएं सामने आने के बाद कल मज़दूरों ने यह नि‍र्णय लि‍या कि‍ ठेका मज़दूर और अप्रेंटि‍स कंपनी की वर्दी में नहीं आयेंगे। मैनेजमेंट मज़दूरों में भ्रम पैदा करने और उनका मनोबल तोड़ने के लिए तमाम तरह के घटिया हथकंडे अपनाने में लगा हुआ है। मीडिया में कभी यह प्रचार किया जा रहा है कि प्‍लांट में प्रोडक्‍शन शुरू हो गया है तो कभी यह कहा जा रहा है कि प्रोडक्‍शन को गुड़गाँव प्‍लांट में शिफ्ट करने पर विचार किया जा रहा है। हालांकि मज़दूरों पर इन हथकंडों का कोई असर नहीं है और वे लड़ने के लिए तैयार हैं।

जनता के विरुद्ध सरकार के आतंकवादी युद्ध की सच्चाई एक बार फिर बेपर्दा

सरकार इन बातों से लगातार इनकार करती रही है लेकिन अब सारी सच्चाई सामने आ चुकी है और उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि इस सैन्य कार्रवाई का असली मकसद देशी और विदेशी कम्पनियों के साथ किये गये अनुबन्धों के दबाव में अयस्कों की खानों और अकूत प्राकृतिक संपदा से भरी ज़मीन को आदिवासियों से खाली करवाना है। नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में देशी और विदेशी कम्पनियों द्वारा लगभग 6.6 लाख करोड़ रुपये के निवेश के अनुबन्ध किये जा चुके हैं। अकेले उड़ीसा में 2.7 अरब डालर की कीमत का बॉक्साइट का भण्डार मौजूद है। छत्तीसगढ़ में रावघाट की पहाड़ियों में कुल 7.4 अरब टन सबसे उन्नत किस्म का लौह अयस्क मौजूद है। सारी कम्पनियाँ इस प्राकृतिक सम्पदा पर नज़र गड़ाये बैठी हैं। इसे ध्यान में रखें तो आसानी से समझ आ जाता है कि मनमोहन सिंह अचानक क्यों कहने लगे कि नक्सलवाद देश की आन्तरिक सुरक्षा को सबसे बड़ा ख़तरा है।

फार्बिसगंज हत्याकाण्ड : नीतीश कुमार सरकार के ”सुशासन” का असली चेहरा!

पुलिस ने गाँव वालों को उनके घरों तक खदेड़-खदेड़ कर मारा। 18 वर्षीय मुस्तफा अंसारी को पुलिस ने चार गोलियाँ मारीं जिससे वह मृतप्राय अवस्था में ज़मीन पर गिर पड़ा। लेकिन इतने से उनकी हैवानियत शान्त नहीं हुई। सुनील कुमार नाम का पुलिस वाला ज़मीन पर पड़े अधमरे मुस्तफा के चेहरे पर कूद-कूदकर अपने पैरों से उसे कुचलने और अपने बूटों से उस पर पागलों की तरह प्रहार करने लगा जबकि वहाँ खड़े पुलिस वालों से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक सब के सब तमाशबीन की तरह देखते रहे। पुलिस फायरिंग का शिकार दूसरा शख्स मुख्तार अंसारी था जिसे सिर में तीन और एक गोली जाँघ में लगी। पगलाई पुलिस ने गर्भवती माँ और सात माह के बच्चे तक को नहीं बख्शा। 6 माह की गर्भवती शाज़मीन खातून को 6 गोलियों (चार सिर में) से छलनी करने के बाद पुलिस के एक सिपाही ने ज़मीन पर पड़ी लाश पर राइफल की बट से वार कर उसके सिर को फाड़ डाला और उसका दिमाग़ बाहर आ गया। 7 माह के नौशाद अंसारी की दो गोलियाँ लगने से मौत हो गयी। इसके अलावा फायरिंग में आधा दर्जन से भी अधिक लोग घायल हुए। मरने वालों में सभी मुस्लिम थे।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (ग्यारहवीं किस्त)

पिछले साठ वर्षों के बीच ”लोकतन्‍त्रात्मक गणराज्य” या ”जनवादी गणराज्य” का जो अमली रूप सामने आया है उसने जनता के साथ हुई धोखाधड़ी को एकदम नंगा कर दिया है। इस बात का प्राय: बहुत अधिक डंका पीटा जाता है कि भारत का बहुदलीय संसदीय जनवाद साठ वर्षों से सुचारु रूप से चल रहा है। बेशक शासक वर्गों की इस हुनरमन्‍दी को मानना पड़ेगा कि साठ वर्षों से यह धोखाधड़ी जारी है! मगर सच यह भी है कि असलियत जनता से छुपी नहीं रह गयी है। यदि जनवाद का यह वीभत्स प्रहसन जारी है तो इसके पीछे बुनियादी कारण है राज्यसत्ता का दमन तन्‍त्र, शासक वर्गों द्वारा चतुराईपूर्वक अपने सामाजिक आधारों का विस्तार तथा जनता के जाति-धर्म के आधारों पर बाँटने के कुचक्रों की सफलता। लेकिन इससे भी बड़ा बुनियादी कारण है, इस व्यवस्था के किसी व्यावहारिक क्रान्तिकारी विकल्प का संगठित न हो पाना।