Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और अधिकारों का हनन

यह रिपोर्ट ‘शोषण का पहिया: मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड में मज़दूर संघर्ष और अधिकारों का हनन’ मारुति के मानेसर यूनिट में 18 जुलाई 2012 को हुई हिंसा की घटना के बाद पीयूडीआर द्वारा की गयी जाँच-पड़ताल पर आधारित है। इस घटना को हुए तकरीबन एक साल बीत चुका है, जिसमें एक एचआर मैनेजर की मौत हो गयी थी और कुछ अन्य मैनेजर और मज़दूर घायल हो गये थे। बाद के महीनों में पुलिस ने इस घटना की काफी गलत तरीके से जाँच-पड़ताल करते हुए बड़ी संख्या में मज़दूरों और उनके परिवारों के सदस्यों को प्रताड़ित किया। इस जाँच के कारण मज़दूरों को गिरफ़्तार करके जेलों में बन्द कर दिया गया और आज तक बहुत से मज़दूरों को जमानत भी नहीं मिली है। पुलिस की जाँच के पूरा होने के पहले ही कम्पनी ने सैकड़ों मज़दूरों पर 18 जुलाई की घटना में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया। पंजीकृत यूनियन को यूनिट के भीतर काम करने की इजाज़त नहीं दी गयी है और यूनिट के बाहर पुलिस और राज्य के अधिकारियों द्वारा लगातार इसकी गतिविधियों को दबाया जा रहा है। इसी पृष्ठभूमि में हम इस घटना से जुड़े तथ्यों की व्यापक जाँच-पड़ताल करने के बाद, घटना और इसके गहरे संदर्भ और प्रभावों के बारे में यह रिपोर्ट जारी कर रहे हैं। इसके पहले पीयूडीआर ने मारुति में मज़दूरों के संघर्ष के बारे में दो अन्य रिपोर्ट भी प्रकाशित की थीं, जिनके शीर्षक थे: ‘पूँजी का पहिया’ (2001) और ‘बेकाबू सरमायादार’ (2007)। इन दोनों रिपोर्टों में मारुति संघर्ष के महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों का विश्लेषण दर्ज किया गया है। इस रिपोर्ट पर जाँच के दौरान हम मज़दूरों (ठेका, स्थाई और बर्खास्त), यूनियन के नेताओं और उनके वकील से मिले। हमने गुड़गाँव के श्रम विभाग के अधिकारियों और विभिन्न पुलिस अधिकारियों से भी बातचीत की। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम प्रबन्धन से नहीं मिल पाये।

जनवादी अधिकारों के लिए आन्दोलन और मज़दूर वर्ग

जनवादी अधिकारों की यह लड़ाई मज़दूर वर्ग के लिए आज बेहद ज़रूरी इसलिए भी हो गई है कि लम्बे संघर्षों से जो अधिकार उसने हासिल किये थे, वे भी आज, मज़दूर आन्दोलन के उलटाव-बिखराव के दौर में उससे छिन चुके हैं। नवउदारवाद की नीतियों के दौर में मज़दूरों का 93 प्रतिशत हिस्सा ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल और पीसरेट मज़दूरों का है। परम्परागत यूनियनें इन मज़दूरों के हितों को लेकर लड़ने का काम छोड़ चुकी हैं और बिखरे होने के चलते इन अनौपचारिक मज़दूरों की ख़ुद की सौदेबाज़ी की ताक़त बहुत कम हो गयी है। इस मज़दूर आबादी को नये सिरे से, नयी परिस्थितियों में संगठित होने और लड़ने के तौर-तरीक़े ईजाद करने हैं और आगे बढ़ना है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (उन्नीसवीं किस्त)

भारत की शक्तिशाली केन्द्रीय राज्यसत्ता से टकराकर उत्तर-पूर्व की छोटी-छोटी राज्य राष्ट्रीयताएँ भले ही अपनी मुक्ति न प्राप्त कर पायें, परन्तु वे हारेंगी भी नहीं। उनका संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक उनके अलगाव और उपेक्षा की स्थिति बनी रहेगी। किसी काल्पनिक एकाश्मी राष्ट्रवाद में उनकी राष्ट्रीय भावनाओं का विलयन पूँजीवाद की चौहद्दी में सम्भव भी नहीं लगता। इसलिए उनके संघर्ष भी विसर्जित नहीं होंगे। नेतृत्व की कोई एक धारा जब समर्पण करेगी तो दूसरी धारा उभरकर सामने आयेगी और संघर्ष को ज़ारी रखेगी। इस समस्या का समाधान केवल और केवल एक समाजवादी राज्य के तहत ही सम्भव है जो सही मायने में विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्णय के अधिकार और अलग होने के अधिकार के आधार पर एक संघात्मक ढाँचा विकसित करेगा।

साहसपूर्ण संघर्ष और कुर्बानियों के बावजूद क्यों ठहरावग्रस्त है मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन?

7-8 नवम्बर से मारुति सुजुकी मज़दूरों का संघर्ष फिर से शुरू हुआ। लेकिन पिछले 8 महीनों के बहादुराना संघर्ष के बावजूद आज मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन एक ठहराव का शिकार है। निश्चित तौर पर, आन्दोलन में मज़दूरों ने साहस और त्याग की मिसाल पेश की है। लेकिन किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए केवल साहस और कुर्बानी ही पर्याप्त नहीं होते। उसके लिए एक सही योजना, सही रणनीति और सही रणकौशल होना भी ज़रूरी है। इनके बग़ैर चाहे संघर्ष कितने भी जुझारू तरीके से किया जाय, चाहे कितनी भी बहादुरी से किया जाय और चाहे उसमें कितनी ही कुर्बानियाँ क्यों न दी जायें, वह सफल नहीं हो सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज मारुति सुजुकी के मज़दूरों का आन्दोलन भी ठहरावग्रस्त है। अगर हम इस ठहराव को ख़त्म करना चाहते हैं, तो पहले हमें इसके कारणों की तलाश करनी होगी। इस लेख में हम इन्हीं कारणों की पड़ताल करेंगे।

मंगोलपुरी की घटना ने फिर साबित किया कि आज न्याय, इंसाफ़ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है!

नगरनिगम, विधानसभा से लेकर संसद तक मौजूदा सरकारें समाज के धनी वर्गों की सेवा करती हैं। अमीरज़ादों के लिए बनाये गये सरकारी और निजी स्कूलों में सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम हैं। जबकि ग़रीबों के बच्चों को बुनियादी सुरक्षा भी स्कूलों में नहीं दी जाती है, कि उनका जीवन सुरक्षित रहे। और तो और, ऐसी किसी घटना के बाद गरीब लोगों को आमतौर पर इंसाफ मिल ही नहीं पाता है। मंगोलपुरी की इस घटना के बाद प्रशासन का जो रवैया रहा उसने यही साबित किया कि मौजूदा व्यवस्था में न्याय, इंसाफ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है; जबकि मज़दूरों के लिए ये सिर्फ कागज़ी बातें है। मेहनतकश लोग अगर सच्चे मायनों में अपने और अपने बच्चों के लिए न्याय, इंसाफ और सुरक्षा चाहते हैं तो उन्हें मुनाफ़े पर टिकी मौजूदा व्यवस्था के ख़ात्मे के बारे में सोचना होगा।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (अठारहवीं किस्त)

पूँजीवादी विकास के फ़लस्वरूप अलग-अलग राज्यों और राष्ट्रीयताओं में क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग भी पैदा हुआ है। इस क्षेत्रीय बुर्जुआजी की परिपक्वता के साथ ही साथ केन्द्रीय बुर्जुआजी से इसके अन्तर्विरोध भी बढ़े हैं। इनमें से अधिकांश इसी व्यवस्था के दायरे में अन्तर्विरोधों को हल करने के पक्षधर हैं। पिछले दो दशकों से केन्द्र में मिली-जुली सरकारों का अस्तित्व इसी की निशानी है और यह दर्शाता है कि केन्द्रीय बुर्जुआजी से मोल-तोल में भी क्षेत्रीय बुर्जुआजी की ताकत बढ़ी है। क्षेत्रीय बुर्जुआजी विभिन्न राष्ट्रीयताओं की जनता को असली मुद्दों से दूर करके अन्य राज्यों के प्रवासी मज़दूरों को वापस भेजने, नये राज्य बनाने अथवा नदियों के जल के बँटवारे जैसे मुद्दे उछालकर क्षेत्रीय अन्धराष्ट्रवादी भावनायें फैलाती है और लोगों की वर्ग-चेतना को भोथरा कर इस व्यवस्था की उम्र लम्बी करने मे अपनी भूमिका अदा करती है। इस प्रकार यह क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की बजाय उसे आपस में बाँटने का ही काम करता है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सत्रहवीं किश्त)

पूँजीवादी शासक वर्ग तमाम हथकण्डों से जनता को अपने शासन के प्रति निष्ठावान और समर्पित बनाने की कोशिश करता आया है और भारतीय संविधान में मौजूद मूलभूत कर्तव्य भी इसी की एक कड़ी है। परन्तु एक मेहनतकश इन्सान का सर्वोपरि दायित्व यह है कि वह उत्पादन और शासन-प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए जी जान से जुट जाये जो एक इन्सान द्वारा दूसरे इन्सान के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे।

अफ़ज़ल गुरू को फाँसी: बुर्जुआ “राष्‍ट्र” के सामूहिक अन्तःकरण की तुष्टि के लिए न्याय को तिलांजलि

अफ़ज़ल गुरू की फाँसी बुर्जुआ चुनावी राजनीति के सरोकारों के तहत लिया गया एक राजनीतिक फ़ैसला है। बुर्जुआ राज्यसत्ता का पतनशील चरित्र अब इस हद तक गिर चुका है, कि वह अपने चुनावी फायदों के लिए फाँसी की राजनीति कर रही है, ताकि फ़ासीवादी तरीके से भारतीय मध्यवर्गीय जनमानस, या “राष्ट्रीय” जनमानस, को अपने पक्ष में तैयार किया जा सके। इसके ज़रिये एक तीर से कई निशाने लगाये जा रहे हैं। जिस समय देश भर में आम मेहनतकश जनता में महँगाई, ग़रीबी, भ्रष्टाचार आदि के ख़िलाफ़ और भारतीय शासक वर्गों के ख़िलाफ़ गुस्सा भड़क रहा है, उस समय अन्धराष्ट्रवाद, साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और देशभक्ति के मसलों को उठाकर असली मुद्दों को ही विस्थापित कर दिया जाये-यही भारतीय शासक वर्ग की रणनीति है। यही काम भाजपा राम मन्दिर और हिन्दुत्व का मसला भड़काकर अपने तरीके से कर रही है, और कांग्रेस फाँसी की राजनीति करते हुए अपने तरीके से कर रही है। अफ़ज़ल गुरू की फाँसी इसी बात की एक बानगी थी।

2014 के आम लोकसभा चुनावों के लिए शासक वर्गों के तमाम दलालों की साज़िशें

आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह दरअसल समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। फिलहाली तौर पर, संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर पर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, अपने आपको जगायें, अपने आपको गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे। या तो हम इस रास्ते पर आगे बढ़ेंगे, या फिर हम एक बार फिर से चूक जाएँगे, एक बार फिर से हज़ारों की तादाद में अपने लोगों को खोएँगे और एक बार फिर से प्रतिक्रियावादी ताक़तें हमें इतिहास के मंच पर प्रवेश करने से पहले ही फिर से कई वर्षों के लिए उठाकर बाहर फेंक देंगी; एक बार फिर से पराजय और निराशा का दौर शुरू हो जायेगा। इस नियति से बचने का रास्ता यही है कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, जद (यू), राजद, माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि समेत सभी चुनावी मदारियों के भरम तोड़कर हम अपना इंक़लाबी विकल्प खड़ा करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और एक इंक़लाब के ज़रिये मेहनतकश का लोकस्वराज्य खड़ा करने के लिए आगे बढ़ें!

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सोलहवीं किश्त)

दरअसल ये नीति निदेशक सिद्धान्त कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य की कीन्सियाई अवधारणा पर आधारित थे और अब जब पूरे विश्व में पूँजीवाद कल्याणकारी राज्य के लबादे से छुटकारा पाना चाह रहा है, तो ऐसे सिद्धान्तों का उनके लिए भी कोई मतलब नहीं रह गया है। हाँ, यह ज़रूर है कि संविधान में इन सिद्धान्तों की मौजूदगी से इस अमानवीय व्यवस्था के वीभत्स रूप पर पर्दा डालने में मदद मिलती है। इन सिद्धान्तों के ज़रिये शासक वर्ग और उसके टुकड़ों पर पलने वाले बुद्धिजीवी, जनता के बीच यह भ्रम पैदा करते हैं कि भले ही आज जनता को तमाम दिक्कतों और तकलीप़फ़ों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन धीरे-धीरे करके ये सिद्धान्त लागू किये जायेंगे जिनसे जनता की सारी समस्याओं का हल निकल आयेगा। इसलिए, जनता को इन सिद्धान्तों के भ्रमजाल से बाहर निकालना आज के दौर में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रमुख कार्यभारों में से एक है।