Category Archives: कला-साहित्‍य

कविता – साहब! एक बात पूछूँ?

साहब! एक बात पूछूँ?
हाँ-हाँ, पूछो!
देश में भुखमरी क्यूँ है?
अरे बस! इतनी सी बात, जनसंख्या बढ़ रही है
नहीं भई! ये बात हज़म नहीं हुई,
देखो तो गोदामों में, कितना गेहूँ सड़ रहा है।
भैया एक सवाल और…?
हाँ-हाँ पूछो!
लोग नंगे क्यूँ हैं?
अरे जनसंख्या ज़्यादा है,
क्या! समझ में नहीं आया लफड़ा?
नहीं-नहीं भाई, ये बात भी ग़लत,
जाकर देखो तो दुकानों में,
ख़ूब पड़ा है कपड़ा

कविता – एक दिवालिये की रिपोर्ट / समी अल कासिम

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज़ और अपना बिछौना बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ़ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूँढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और ख़ामोश
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
आखि़र तक मैं लड़ूँगा

पाब्‍लो नेरूदा की कविता ‘सड़को, चौराहों पर मौत और लाशें’ का एक अंश

मैं दण्ड की माँग करता हूँ
अपने उन शहीदों के नाम पर
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिन्होंने हमारी पितृभूमि को
रक्तप्लावित कर दिया है
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिनके निर्देश पर
यह अन्याय, यह ख़ून हुआ
उसके लिए मैं दण्ड की माँग करता हूँ

निकारागुआ के महाकवि एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता: सेलफ़ोन Poem – Cell Phone / Ernesto Cardenal

आप अपने सेलफ़ोन पर बात करते हैं
करते रहते हैं,
करते जाते हैं
और हँसते हैं अपने सेलफ़ोन पर
यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था
और यह तो और भी नहीं कि वह कैसे काम करता है
लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है
परेशानी की बात यह कि
आप नहीं जानते
जैसे मैं भी नहीं जानता था
कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं बहुत से लोग
हज़ारों हज़ार
इस सेलफ़ोन की वजह से

वे घबरा चुके हैं

वे घबरा चुके हैं
हमारे सीने में उफनते तूफानों से
वे घबरा चुके हैं
हमारे सृजन सरोकारों से
वे घबरा चुके हैं
हमारी अध्ययन गति
और वैचारिक प्रतिबद्धता से

जनता के एक सच्चे लेखक एदुआर्दो गालिआनो की स्मृति में

जब किसानों-मज़दूरों सहित आबादी के बड़े हिस्से की आज़ादी ख़त्म की जा रही है तब सिर्फ लेखकों के लिए कुछ रियायतों या सुविधाओं की बात से मैं सहमत नही हूँ। व्यवस्था में बड़े बदलावों से ही हमारी आवाज़ अभिजात महफिलों से निकल कर खुले और छिपे सभी प्रतिबन्धों को भेद कर उस जनता तक पहुँचेगी जिसे हमारी ज़रूरत है और जिसकी लड़ाई का हिस्सा हमें बनना है। अभी के दौर में तो साहित्य को इस गुलाम समाज की आज़ादी की लड़ाई की उम्मीद ही बनना है।

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की तीन कविताएँ – कसीदा श्रृंखला Three poems of Bertolt Brecht – Praise series

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की तीन कविताएँ 1. कसीदा इंक़लाबी के लिए 2. कसीदा द्वंद्ववाद के लिए 3. कसीदा कम्युनिज़्म के लिए

कॉमरेड: एक कहानी – मक्सिम गोर्की

“कॉमरेड!”
यह शब्द वर्तमान के झूठे शब्दों के बीच भविष्य के सुखद सन्देश के समान गूँज उठा, जिसमें एक नया जीवन सबकी प्रतीक्षा कर रहा था। वह जीवन दूर था या पास? उन्होंने महसूस किया कि वे ही इसका निर्णय करेंगे। वे आज़ादी के पास पहुँच रहे थे और वे स्वयं ही उसके आगमन को स्थगित करते जा रहे थे।

एक आस्तिक की पुकार

एक नास्तिक एक बार
मुझसे भिड़ गया था
या कहो कि
मैंने ही उसे पकड़ लिया था
तो मैंने उसे नर्क दिखाया
स्वर्ग से ललचाया
इस जीवन को सुधारने का मंत्र दिया
तो नास्तिक बोला –
तेरा भगवान क्रान्ति कर
सकता है क्या
और वो मुझे एक पर्चा थमा गया

रूस की स्त्रियां – महाकवि निराला का लेख

सोवियत सरकार ने स्त्रियों के घरेलू जीवन में भी एक क्रान्ति पैदा की है। स्त्रियों का बहुत-सा अमूल्य समय बाल-बच्चों के पालन-पोषण में ही निकल जाता था, और वे अपने सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन को सुदृढ़ तथा समुन्नत नहीं बना सकती थीं। उनका बहुत-सा समय गार्हस्थिक चिन्ताओं में ही बीत जाता था। देश और समाज के लिए वे कुछ भी न कर सकती थीं। इस महान दोष से देश को मुक्त करने के लिए सोवियत सरकार ने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-दीक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। महात्मा लेनिन के कथनानुसार घर तथा बाहर, दोनों ही जिम्मेदारी स्त्री-पुरुष पर समान रूप से पड़ी। स्त्रियों ने पुरुषों के समान अपने अधिकार प्राप्त किये और अब रूस के कोने-कोने में साम्यवादी सिद्धान्त का प्रभाव दिखलायी पड़ रहा है। सोवियत सरकार ने देश में ऐसे आश्रम बनाये हैं, जहाँ देश के प्रत्येक बच्चे का पालन-पोषण अत्यन्त ध्यानपूर्वक होता है। हर एक स्त्री-पुरुष अपने बच्चे को, पैदा होते ही, आश्रम में भेज देता है। वहाँ सब बच्चे स्वस्थ, निरोग, शिक्षित तथा योग्य बनाये जाते हैं।