Category Archives: कला-साहित्‍य

कविता – अधिनायक / रघुवीर सहाय

राष्ट्र गीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।

कविता – 26 जनवरी, 15 अगस्त… – नागार्जुन

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है!

कहानी – हड़ताल / मक्सिम गोर्की Story – Strike / Maxim Gorky

कुछ हाथापाई और झगड़ा हुआ, लेकिन अचानक धूल से लथपथ दर्शकों की सारी भीड़ हिली-डुली, चीखी-चिल्लायी और ट्राम की पटरियों की ओर भाग चली। पनामा टोपी पहने हुए व्यक्ति ने टोपी सिर से उतारी, उसे हवा में उछाला, हड़ताली का कंधा थपथपाकर तथा ऊँची आवाज़ में उसे प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहकर सबसे पहले उसके निकट लेट गया।

सच और साहस – दो दाग़िस्तानी क़िस्से / रसूल हमज़ातोव

शिखरों पर हज़ारों बरसों का जीवन है। वहाँ नायकों, वीरों, कवियों, बुद्धिमानों और सन्त-साधुओं के अमर और न्यायपूर्ण कृत्य, उनके विचार, गीत और अनुदेश जीवित रहते हैं। चोटियों पर वह रहता है जो अमर है और पृथ्वी की तुच्छ चिन्ताओं से मुक्त है।

वाचन संस्‍कृति – मेहनतकशों और मुनाफाखोरों के शासन में फर्क

आखिरकार इतना फ़र्क क्यों है? क्यों एक ऐसा देश जहाँ 1917 की क्रांति से पहले 83% लोग अनपढ़ थे वह महज़ 3 दशकों के अंदर ही दुनिया का सब से पढ़ने-लिखने वाला देश बन गया और क्यों भारत, जिस को कि आज़ाद हुए 70 साल हो गए हैं, वहाँ अभी भी पढ़ने की संस्कृति बेहद कम है? फ़र्क दोनों देशों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक  व्‍यवस्‍था का है। फ़र्क भारत के पूंजीवाद और सोवियत यूनियन के समाजवाद का है।

कविता : हत्यारों की शिनाख़्त / लेस्ली पिंकने हिल

तो उन्होंने चुपचाप उस पर हमला किया
और उसे खींच ले गये;
इतना मुश्किल था उनका षडयन्त्र
कि सरकार ने दिन-दहाड़े
क़ानून और व्यवस्था के जिन प्रहरियों
के हाथ उसे सौंपा था
उनको पता तक नहीं चला।

कविता : जागो दुनिया के मज़दूर! / बबन भक्‍त

विश्व प्रगति से क़दम मिलाकर

उन्नति ख़ातिर अपने को खपाकर

अमीरों को हर सुख पहुँचाया,

अपने बच्चों को भूखा सुलाकर।

जीवन को तुमने हवन कर दिया,

रहे सुविधा से कोसों दूर।

अब चेतने का समय आ गया,

जागो दुनिया के मज़दूर।

कविता : लेनिन की मृत्यु पर कैंटाटा / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem : Cantata on the day of Lenin’s death / Bertolt Brecht

जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बताया: मैं
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्लाया: ‘इलिच
शोषक आ रहे हैं।’ वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।

‘प्रोस्तोर’ – मज़दूरों के जीवन पर आधारित एक लघु उपन्यास के अंश

लम्बे समय तक मिल बन्द होने के कारण क़स्बे में पहली बार ऐसा हो रहा था, हड़ताल करने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार कम हो रही थी। रंग-बिरंगे झण्डों की संख्या बढ़ रही थी। पहले एक झण्डा मज़दूरों की आवाज़ होती थी। अब न जाने कितने रंगों के झण्डों के नीचे मज़दूर बिखरकर एकता का गीत गाने लगे।

लेनिन की कविता की कुछ पक्तियाँ

पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल

आज नष्ट हो गये हैं

अँधेरे की दुनिया के स्वामी

रोशनी की दुनिया का खौफ़ देख ख़ुश हैं

मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है