Category Archives: कला-साहित्‍य

नहीं सहेंगे इस तानाशाही को अब हम मज़दूर साथियो

मैं उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जि़ले के एक छोटे से गाँव का रहने वाला हूँ। मैं अभी मुम्बई में रहता हूँ, इससे पहले मैंने दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर थोड़े समय के लिए काम किया था। अभी मैं मुम्बई में एक चश्मे की दुकान पर काम करता हूँ। यहाँ पर मैं लगभग डेढ़ साल से काम कर रहा हूँ। दुकान पर काम करने का समय सुबह 10 बजे से रात के 10 बजे तक है ,यानी 12 घण्टे का है। जबकि इसके लिए मेरी पगार सिर्फ़ 7000 रुपये ही है।

कहानी – मवाली / मोहन राकेश

काफ़ी देर पड़े रहने के बाद लड़का रेत से उठ खड़ा हुआ, और आँखों से ज़मीन को टटोलता घिसटते पैरों से चलने लगा। सहसा उसका पैर एक नारियल पर से उलटा हो गया। उसने नारियल को कसकर गाली दी और ज़ोर की एक ठोकर लगायी। नारियल लुढक़ता हुआ समुद्र की लहरों की तरफ़ चला गया। उसने पास जाकर उसे दूसरी ठोकर लगायी। नारियल सामने से आती लहर में खो गया। उस लहर के लौटते-लौटते उसे नारियल फिर दिखाई दे गया। एक और लहर उमड़ती आ रही थी। इसलिए पास न जाकर उसने वहीं से एक पत्थर नारियल को मारा, और साथ भरपूर गाली दी, “तेरी माँ को…”

कहानी : बेघर छोटू

सब उसे छोटू कहकर बुलाते थे। उसका ये नाम कैसे और क्यों पड़ गया, ये उसे भी नहीं पता था। उसका क़द छोटा नहीं था। भारत के हिसाब से, वह औसत क़द का था। मगर शायद वह भारतीय था ही नहीं, या शायद था? उसे ख़ुद भी इसका इल्म नहीं था। अभी उसी दिन की तो बात है, ‘आधार’ कार्यालय के मोटे बाबू ने उसे फ़ॉर्म देने से इन्कार कर दिया था क्योंकि वह अपने ‘भारतीय’ होने को साबित नहीं कर पाया था। इतने सालों के दौरान जब भी उसने भारतीय होने की कोशिश की थी, वह अपनी ‘भारतीयता’ साबित करने में नाकाम रहा था।

कविताएं – लड़ाई का कारोबार / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poems – The business of war / Bertolt Brecht

युद्ध जो आ रहा है पहला युद्ध नहीं हैI
इससे पहले भी युद्ध हुए थेI
पिछला युद्ध जब ख़त्म हुआ
तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित।
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी मरा वह भूखा ही।

कहानी – ला सियोतात का सिपाही / बर्टोल्ट ब्रेष्ट Story – The Soldier of La Ciotat / Bertolt Brecht

पहले विश्व युद्ध के बाद, दक्षिणी फ्रांस के छोटे-से बन्दरगाह वाले शहर ला सियोतात में एक जहाज़ को पानी में उतारे जाने के जश्न के दौरान, हमने चौक में एक फ्रांसीसी सिपाही की काँसे की प्रतिमा देखी जिसके इर्दगिर्द भीड़ जमा थी। हम नज़दीक गये तो देखा कि वह एक जीवित व्यक्ति था। वह धूसर रंग का ग्रेटकोट पहने था, सिर पर टिन का टोप था, और जून की गर्म धूप में वह संगीन ताने चबूतरे पर बिल्कुल स्थिर खड़ा था। उसकी एक भी पेशी हिलडुल नहीं रही थी, पलकें तक नहीं फड़क रही थीं।

हरियाणवी रागनी – दौर-ए-संकट / रामधारी खटकड़

किसान परिवार में जन्मे रामधारी खटकड़ हरियाणा की मेहनतकश जनता की बुलन्द आवाज़ के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। ये काव्य की रागनी/रागिनी या रागणी की विशिष्ट हरियाणवी शैली में लिखते हैं। इनकी कविताई बड़े ही सहज-सरल और साफ़गोई के साथ सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने में सक्षम है।

महेश्वर की कविता : वे

वे
जब विकास की बात करते हैं
तबाही के दरवाजे़ पर
बजने लगती है शहनाई

  कहते हैं – एकजुटता

  और गाँव के सीवान से

  मुल्क की सरहदों तक

  उग आते हैं काँटेदार बाड़े

कविता – यही मौका है / नवारुण भट्टाचार्य 

ग़रीब अब गहरे जाल में फँस गए हैं
वे नहीं जानते कि उनके साथ लेनिन है या लोकनाथ
वे नहीं जानते कि गोली चलेगी या नहीं!
वे नहीं जानते कि गाँव-शहर में कोई उन्हें नहीं चाहता

कविता – अधिनायक / रघुवीर सहाय

राष्ट्र गीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।

कविता – 26 जनवरी, 15 अगस्त… – नागार्जुन

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है!