Category Archives: कला-साहित्‍य

अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस पर कविता

बहनो! साथियो!
अपनी सुरक्षा घरों की चारदीवारियों में कैद होकर नहीं की जा सकती।
बर्बरता वहाँ भी हम पर हमला कर सकती है,
रूढ़ियाँ हमें तिल-तिलकर मारती हैं वहां
अँधेरा हमारी आत्मा के कोटरों में बसेरा बना लेता है।
हमें बाहर निकलना होगा सड़कों पर
और मर्दवादी रुग्णताओं-बर्बरताओं का मुकाबला करना होगा।

कविता – लेनिन जिन्दाबाद / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem : The Unconquerable Inscription / Bertolt Brecht

तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री।
घण्टे-भर वह उस पूरी इबारत को
करनी से खुरचता रहा सधे हाथों।
लेकिन काम के पूरा होते ही
कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर
और भी साफ़ नज़र आने लगी
बेदार बेनज़ीर इबारत –
लेनिन ज़िन्दाबाद!

मजदूर की कलम से कविता : मैंने देखा है… / आनन्‍द

मैंने देखा है…
वो महीने की 20 तारीख़ का आना
और 25 तारीख़ तक अपने ठेकेदार से
एडवांस के एक-एक रुपये के लिए गिड़गिड़ाना
और उस निर्दयी जालिम का कहना कि
‘तुम्हारी समस्या है।
मुझे इससे कोई मतलब नहीं,’ – मैंने देखा है।

नये साल पर मज़दूर साथियों के नाम ‘मज़दूर बिगुल’ का सन्देश

नये वर्ष पर नहीं है हमारे पास आपको देने के लिए
सुन्दर शब्दों में कोई भावविह्वल सन्देश
नये वर्ष पर हम सिर्फ़ आपकी आँखों के सामने
खड़ा करना चाहते हैं
कुछ जलते-चुभते प्रश्नचिह्न
उन सवालों को सोचने के लिए लाना चाहते हैं
आपके सामने
जिनकी ओर पीठ करके आप खड़े हैं।
देखिये! अपने चारों ओर बर्बरता का यह नग्न नृत्य
जड़ता की ताक़त से आपके सीने पर लदी हुई
एक जघन्य मानवद्रोही व्यवस्था

उपन्‍यास अंश – एक सपने का गणित /जैक लण्डन

मैंने पेशेवेर लोगों और कलाकारों को कृषिदास कहा। और क्या हैं वे? प्रोफेसर, पादरी, संपादक धनिकतंत्र के ही मुलाजिम हैं, उनका काम है वैसे ही विचारों का प्रचार जो धनिकतंत्र के विरूद्ध न हों और धनिकतंत्र की प्रशंसा में हों। जब भी वे धनिकतंत्र के विरोधी विचारों का प्रचार करते हैं उन्हें सेवामुक्त कर दिया जाता है और अगर उन्होंने संकट के दिनों के लिए कुछ बचाकर नहीं रखा है तो उनका सर्वहाराकरण हो जाता है। वे या तो नष्ट हो जाते हैं या मजदूरों के बीच आन्दोलनकर्ता की तरह काम करने लगते हैं। यह न भूलें कि प्रेस, चर्च और विश्वविद्यालय ही जनमत को गढ़ते हैं, देश की प्रक्रिया को दिशा देते हैं। जहां तक कलाकारों का सवाल है वे धनतंत्र की रुचियों की तुष्टि में खपते हैं।

उद्धरण / स्तालिन, एंगेल्‍स, लेनिन

यह बिना जाने कि हमें किस दशा में जाना चाहिए, बिना जाने की हमारी गति का लक्ष्य क्या है, हम आगे नहीं बढ़ सकते। हम तब तक निर्माण नहीं कर सकते, जब तक कि हम बात की सम्भावना और निश्चय न हो कि समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के निर्माण का आरम्भ करके उसे पूरा कर सकेंगे। पार्टी बिना स्पष्ट सम्भावना, बिना स्पष्ट लक्ष्य के निर्माण के काम का पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकती। हम बर्नस्टाइन के विचारों के अनुसार नहीं कह सकते कि ‘गति सब कुछ है, और लक्ष्य कुछ नहीं।’ इसके विरुद्ध क्रान्तिकारियों की तरह हमें अपनी प्रगति, अपने व्यावहारिक काम को सर्वहारा-निर्माण के मौलिक वर्ग-लक्ष्य के अधीन करना होगा। नहीं तो, निस्सन्देह और अवश्य ही हम अवसरवाद के दल-दल में जा गिरेगें

दक्षिण अफ्रीकी कहानी – अँधेरी कोठरी में / अलेक्स ला गुमा

अब इलियास अकेला था। उसने उस तंग अँधेरी कोठरी का निरीक्षण किया – निकलने की कोई गुंजाइश नहीं है। उसे लगा, जैसे बोतल के अन्दर किसी मक्खी को बन्द कर दिया गया हो। हथकड़ी अब भी लगी थी। वह चुपचाप फर्श पर बैठ गया और सोचने लगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि पुलिस को कैसे मीटिंग वाली जगह का पता चला। साथियों ने पूरी एहतियात बरती थी, फिर भी यह कैसे हो गया? उसे उम्मीद थी कि ब्यूक्स ज़रूर बच गया होगा। कमरे के बाहर गोली चलने की आवाज़ सुनायी दी थी, लेकिन ब्यूक्स बच ही गया होगा। अगर वह पकड़ा गया होता तो खुफ़िया अधिकारी उसे भी अब तक यहाँ पहुँचा दिये होते। अब तक सब तितर-बितर हो गये होंगे ओर ब्यूक्स अगर बचा होगा तो भी उसे काम करने में काफी दिक्कत होगी।

कविता – साम्प्रदायिक फसाद / नरेन्‍द्र जैन

हर हाथ के लिए काम माँगती है जनता
शासन कुछ देर विचार करता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
अपने बुनियादी हक़ों का
हवाला देती है जनता
शासन कुछ झपकी लेता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
साम्प्रदायिक फसाद शुरू होते ही
हरक़त में आ जाती हैं बंदूकें
स्थिति कभी गम्भीर
कभी नियंत्रण में बतलाई जाती है
एक लम्बे अरसे के लिए
स्थगित हो जाती है जनता
और उसकी माँगें

कविता – हम हैं ख़ान के मज़दूर / मुसाब इक़बाल

ज़मीन की तहों से लाये हैं हीरे
ज़मीन की तहों से खींचे खनज
घुट घुट के ख़ानों में हँसते रहे
मुस्कुराये तो आँसू टपकते रहे
ज़मीन की सतह पर आता रहा इंक़लाब
ज़मीन तहों में हम मरते रहे, जीते रहे
शुमाल ओ जुनूब के हर मुल्क में हम
ज़मीन में दब दब के खामोश
होते रहे जान बहक़, लाशों पर अपनी कभी
कोई आँसू बहाने वाला नहीं सतह ए ज़मीन पर हम
एक अजनबी हैं फक़त ज़मीन के वासियों के लिये!

साम्‍प्रदायिकता पर दोहे / अब्दुल बिस्मिल्लाह

हाट लगा है धर्म का भक्त जनन को छूट।
जान माल सब है यहाँ लूट सकै तो लूट॥
राजा पण्डित मौलवी सब मिलि कीन्हीं घात।
जीभ निकाले आ रही महाकाल की रात॥
जूठी हड्डी फेंककर औ’ कुत्तों को टेर।
अपने-अपने महल में सोये पड़े कुबेर॥
घर-आँगन मातम मचे धरती पड़े दरार।
ना चहिए ऐसे हमें कलश और मीनार॥