Category Archives: कला-साहित्‍य

कविता – औरत की नियति / क्यू (वियतनाम, अट्ठारहवीं सदी)

कितनी कारुणिक है औरत की नियति,
कितना दुखद है उनका भाग्य,
हे सृष्टिकर्ता, हम लोगों पर तुम इतने निर्दय क्यों हों?
बरबाद हो गयी हमारी कच्ची उम्र
कुम्हला गये हमारे गुलाबी गाल
यहाँ दफ़्न सारी औरतें पत्नियाँ रही जीवनकाल में
फिर भी अकेली भटकती है उनकी रूह
मरने के बाद।

कविता – लहर / मर्ज़ि‍एह ऑस्‍कोई

मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्‍ही धाराओं को नयी जिन्‍दगी देना है

कविता – देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

देश काग़ज़ पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है

कविता – गोयबल्स / कात्यायनी

उसकी हँसी रुकने तक
फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ
सड़कों पर बिखरे
ख़ून के धब्बों को
धोना शुरू कर चुकी होती हैं।
गोयबल्स हँसता है
और हवा में हरे-हरे नोट
उड़ने लगते हैं,
सत्ता के गलियारों में जाकर
गिरने लगते हैं,
ख़ाकी वर्दीधारी घायल स्‍त्री-पुरुषों को
घसीटकर गाड़ियों में
भरने लगते हैं।

नव वर्ष को समर्पित कविता – बलकार सिंह

लोगों से सुना है,
कल फिर नव वर्ष आना है।
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।
फिर तुम्हारी भूखी नज़रों ने
मेरे जिस्म को खाना है।
रोटी के दो टुकड़ों लिए
हाथ फैलाना है।
भूख दु:ख लाचारी ने
उसी तरह सताना है।
वर्ष तो वही पुराना है,
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।

बिगुल के लिए कविता – जगविन्द्र सिंह, कैथल

हम तो बस इसी बहाने निकले हैं
धरती की गोद में बैठकर आसमाँ को झुकाने निकले हैं
जुल्मतों के दौर से, इन्साँ को बचाने निकले हैं
विज्ञान की ज्वाला जलाकर, अँधेरा मिटाने निकले हैं
हम इंसान है, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं

‘जो जलता नहीं, वह धुएँ में अपने आपको नष्ट कर देता है’

हज़ारों सालों से जिनके कन्धे जानलेवा मेहनत से चूर हैं, जिन्हें अरसे से हिक़ारत की निगाहों से देखा गया हो, उस मेहनतकश आबादी ने अपने बीच से समय-समय पर ऐसे मज़दूर नायकों को जन्म दिया है जिनका जीवन हमें आज के युग में तो बहुत कुछ सिखाता ही है पर भावी समाज में भी सिखाता रहेगा। निकोलाई ओस्त्रोवस्की मज़दूर नायकों की आकाशगंगा का एक ऐसा ही चमकता ध्रुवतारा है।

ओस्त्रोवस्की का जीवन युवा क्रान्तिकारियों के लिए एक महान आदर्श है। जनता के लिए, कम्युनिज़्म के उदात्त लक्ष्य के लिए जीना किसे कहते हैं; और क्रान्ति के प्रति सच्चे एवं नि:स्वार्थ समपर्ण की भावना कैसी होती है; समाजवाद के लक्ष्य के लिए एक उत्साही, क्रियाशील और अडिग सैनिक का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए इसका प्रातिनिधिक उदाहरण ओस्त्रोवस्की का छोटा मगर सार्थक जीवन है।

जन सरोकारों के कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में उनकी कविता – हमारा समाज

कुछ चिंताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं
पर ऐसी भी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हों संगी-साथी, अपने प्यारे, ख़ूब घने।
पापड़-चटनी, आँचा-पाँचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धांय
जितना संभव हो देख सकें, इस धरती को
हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आयें
यह कौन नहीं चाहेगा?

एक गोभक्त से भेंट / हरिशंकर परसाई

बच्चा, लोगो की मुसीबतें तो तब तक खतम नही होंगी, जब तक लूट खत्म नही होगी, एक मुद्दा और भी बन सकता है बच्चा, हम जनता मे ये बात फैला सकते हैं कि हमारे धर्म के लोगो की सभी मुसीबतों का कारण दूसरे धर्मो के लोग हैं, हम किसी ना किसी तरह जनता को धर्म के नाम पर उलझये रखेगे बच्चा।

गीत – क्या मैं अब भी कसूरवार नहीं हूँ? / बेर्निस जॉनसन रीगन Song – Are My Hands Clean? / Bernice Johnson Reagon

साउथ कैरोलिना की बर्लिंगटन मिलों में
उस कपास की पहली मुलाक़ात
डूपोंट की न्यू जर्सी स्थित पेट्रोकेमिकल मिल्स से आए
पोलिएस्टर के रेशों से होती है
डूपोंट के इन रेशों की कहानी
दक्षिण अमरीका के एक देश
वेनेजुएला से शुरू हुई थी
जहाँ तेल निकालने के काम में लगे मज़दूर
महज़ छः डॉलर के मेहनताने पर
खतरों से खेलते हुए धरती के गर्भ से तेल निकालते हैं