Category Archives: कला-साहित्‍य

असग़र वजाहत की कहानी ज़ख्‍़म के कुछ अंश

‘प्रोफेसर साहब कह सकते थे कि अगर फिर दिल्ली में दंगा हुआ तो वे भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। राइटर जो थे वो कहते कि फिर दंगा हुआ तो वे अपनी पद्मश्री लौटा देंगे। स्वतंत्रता सेनानी अपना ताम्रपत्र लौटाने की धमकी देते।’ उसकी बात में मेरा मन खिन्न हो गया और मैं चलते-चलते रुक गया। मैंने उससे पूछा, ‘ये बताओ, तुम्हें इतनी जल्दी, इतनी हड़बड़ी क्यों है?’

कविता : असली कारण को पहचानो / आनन्‍द

काम की तलाश में घूम रहे हैं लोग,
एक-दूसरे की जाति-धर्म को
दोष दे रहे हैं लोग,
भाई-भतीजे, बुजुर्गों-रिश्तेदारों
को दोष दे रहे हैं लोग

कविता : अनिल सदा / अमिताभ बच्चन

उनका नाम उन करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की तरह
इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा
जो कब पैदा लेते हैं
कब कहाँ शहीद हो जाते हैं
इसका पता हम सुशिक्षित ज़मीन मालिकों को
जो किसान के रूप में धरती से विदा होना नहीं चाहते
और प्रवासी मज़दूरों की तबाही में
अपनी कोई भूमिका नहीं देखते
पता ही नहीं चलता

हरियाणवी रागणी – मई दिवस

शिकागो के म्हं धार खून की, मज़दूर लड़े थे अड़कै रै।
काम के घण्टे आठ और मज़ूरी, अधिकार लिये थे लड़कै रै।
इब हक़ म्हारा हड़कै रै, मोटे होगे बेईमान।
होस म्हं आइये रै…

कविता – औरत की नियति / क्यू (वियतनाम, अट्ठारहवीं सदी)

कितनी कारुणिक है औरत की नियति,
कितना दुखद है उनका भाग्य,
हे सृष्टिकर्ता, हम लोगों पर तुम इतने निर्दय क्यों हों?
बरबाद हो गयी हमारी कच्ची उम्र
कुम्हला गये हमारे गुलाबी गाल
यहाँ दफ़्न सारी औरतें पत्नियाँ रही जीवनकाल में
फिर भी अकेली भटकती है उनकी रूह
मरने के बाद।

कविता – लहर / मर्ज़ि‍एह ऑस्‍कोई

मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्‍ही धाराओं को नयी जिन्‍दगी देना है

कविता – देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

देश काग़ज़ पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है

कविता – गोयबल्स / कात्यायनी

उसकी हँसी रुकने तक
फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ
सड़कों पर बिखरे
ख़ून के धब्बों को
धोना शुरू कर चुकी होती हैं।
गोयबल्स हँसता है
और हवा में हरे-हरे नोट
उड़ने लगते हैं,
सत्ता के गलियारों में जाकर
गिरने लगते हैं,
ख़ाकी वर्दीधारी घायल स्‍त्री-पुरुषों को
घसीटकर गाड़ियों में
भरने लगते हैं।

नव वर्ष को समर्पित कविता – बलकार सिंह

लोगों से सुना है,
कल फिर नव वर्ष आना है।
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।
फिर तुम्हारी भूखी नज़रों ने
मेरे जिस्म को खाना है।
रोटी के दो टुकड़ों लिए
हाथ फैलाना है।
भूख दु:ख लाचारी ने
उसी तरह सताना है।
वर्ष तो वही पुराना है,
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।